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________________ १२ ही परिणाम होता है । तब इसका दोष मैं दूसरों को देता हूँ । आह | कैसा प्रात्म प्रकाश है ? अवगुण ढांकरण काज करू जिन मत किया, न तजूं अवगुण चाल अनादिनी जे प्रिया । दृष्टि रागनो पोष ते समकित हॅू गणु, स्यादवाद नी रीत न देखें निजपणु ॥ यहाँ तो श्रीमान ने बहुत सीधे सादे शब्दों मे अपना साग दिल खोल दिया है - सम्यक्त्व का लक्षण है - सच्चा सो मेरा पर हमारी दशा इसके विपरीत हो रही है--मेरा सो सच्चा -- | जीवन निरूपण में स्याद्वाद से -- सबकी अपेक्षा समझने की शक्ति पैदा हो तभी परमपद का अनुगमन होता है । बारहवें श्रीचद्राननप्रभु के स्तवन से समाज की चत्त मान दशा का चित्रण कितना स्वाभाविक किया हैद्रव्य क्रिया रुचि जीवडा, 6 भाव क्रिया रुचि हीन । उपदेशक परम तेहवा, शु करे जीव नवीन ॥ चद्र० । ३ ॥ प्रायः जीव भाव क्रिया से होन दिखावटी क्रिया की रुचिवाले हैं । उपदेशक भी उसी ढंग के हैं इस हालत मे जीव क्या नवीनता पैदा कर सकता है । 1 इसी स्तवन मे गुरु और धर्म की वर्त्तमान विडंबना दिखाते हुए वाडाबधी के लिये कुछ नाराजगी भी- प्रदर्शित की है. -
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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