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१०५ . प्रापनेज क्षेषवाथी मारी सिद्धि थशे तथा देवमां चंद्रमा समान अरिहंत पदनी प्राप्ति, थशे तथा परमानंदरूप उत्तम समृद्धिनी संपासि थशे. ॥१०॥
॥संपूर्ण ॥ . ॥अथ नवम श्री सूरप्रभ जिन स्तवनम् ॥
॥ देशी कडखानी॥ सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शूरता, तेणे चिरकालनो मोह जीत्यो ॥ भाव स्यादवादता शुद्ध परंगास करी, नीपन्यो परमपद जग वदीतो ॥ स० ॥१॥ ___ अर्थ:-अनादिकालथी लागेलो मोहरूप महान्, शन्नु के जे दर्शन-मोहनीय प्रकृति वडे भास्माना सम्यक् दर्शन गुणनो, तथा क्रोध बड़े भात्माना क्षमा गुणनो, मान वडे आस्माना मार्दव गुणनो, माया वडे श्रात्माना आर्यव गुणनो,, तथा लोभः बडे भास्माना मुत्ति-निर्लोभ-निस्पृह गुणनो, एम. भनेक गुणनो घात करी भास्मानी शुद्ध सहज अपरिमित भात्मीय समाधिनो नाश करी भवरूप जेलखानामां त्रिलोकपूज्य भास्माने के करी राखे