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अर्थः-हे भगवंत ! तमारा निरंतर शुद्ध परिणमता कवल ज्ञानादि गुणोने माहरी चेतना अनुगमे अर्थात् मारो चैतन्य उपयोग तदनुयायी वर्ते, केवल ज्ञान केवलदर्शन रूप परिणमवानो रसीयो थाय तो माहरु अ त्मवीर्य " स्वरूप समायरे " राग द्वेषादि सर्व विभाविक कार्यमा उत्सुक तथा स्फुराय. मान थतुं अटकी केवल आत्म गुणनेज सहायभूत पणे वर्ते. एम माहरु वीर्य पंडित भावे प्रबंधक 'पणे वर्त्ततां क्षायिक लब्धिने प्राप्त करशे एज पूर्णपदे सिद्ध थवानो साचो उपाय छे ।। ६ ।।
॥नायक तारक तुं धणी, सेवनथी आतम सिद्धिरे ॥ देवचंद्र पद संपजे, वर परमानंद समृद्धिरे ॥ मन० ॥ १० ॥
अर्थः हे अनंत वीर्य प्रभु ! आ जगत्त्रयमां सर्वेथी उत्कृष्ट अनंतवीय श्रापर्नु होवाथी प्रापज नायक छो, वली भवससुद्रमा दूपता भव्य प्राणीयोने श्रापे निर्माण करेला चरण जहाजे बेसाडी भवसमुद्रमांधी तारवाने श्रापज समर्थ होवाथी तारक छो, वली मोहादि शत्रुउंथी रक्षा करवामां प्रापज समर्थ होवाथी धणी छो, सथी हे भगवंत !