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॥ अथ सप्तम श्री रुषभानन जिन
स्तवनम् ॥ वारी हूं __ गोडी पासने ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री रुषभानन वंदिये, अचल मनंत गुण वास जिनवर । क्षायिक चारित्र भोगथी, ज्ञानानंद विलास जिनवर ॥ श्री० ॥ १॥
अर्थ:-धर्म धुरंधर, धर्म तीर्थकर, अशरण शरण, श्री रुषभानन प्रभुने आ लोक परलोकना विषय सुखनी अभिलाषा स्पृहा रहित तथा मान पूजाना लोभ रहित, प्रा संसार समुद्रमांथी तारण तरण जहाज.जाणी, अत्यंत विशुद्ध भावनाए परम आदर, पूर्वक बंदिये-सेवा भक्ति करिये. के जे प्रभु अचल अर्थात् प्रदेश मात्र पण दूर न थाय तथा राग द्वेष मोह जन्य चपलता रहित एहषा ज्ञानादि अनंत गुणना वास-निधान छ तथा क्रोध मान माया लोभ हास्य रति रति भय शोक जुगुप्सा तथा त्रण वेद ए चारित्रमोहनीय प्रकृतिनो सत्ता सहित क्षय करी यथाख्यात् स्वभावाचरण ज्ञान दर्शन आदि अनंत स्वभाविक भोग जन्य भानंदमां अनंत ज्ञान सहित विलले छे॥१॥