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जे प्रसन्न प्रभु मुख आहे, तेहिम नयन प्रधान जिनवर ॥ जिन चरणे जे नामीये,
मस्तक तेह प्रमाण जिनवर ।। श्री० ॥२॥ '; अर्थ:-हे भगवंत ! अापना ज्ञान दर्शनादि सर्वे भोग उपभोगो आपने सदा स्वाधीन वर्ते छे. कोइ पण काले प्रदेश मात्र पण दूरवर्ती थाय तेम नथी तेथी आप सदा शोक रहित तथा ते भोग उपभोग ने कोइ पण बाधा पीडा तथा हरण करी शके तेम नथी तेथी परम निर्भय, नया ते भोग उपभोगो पर द्रव्यना भेल-मलिनतारहित सदा शुद्ध होवाथी आप गिलानी रहित, तथा ते भोग उपभोगो अखूट श्रानंद जनक होवाथी अरति रहित छो, एम क्रोधादि सर्वे कषाय रहित होवाथी आपन मुखकमल सदा अम्लान परम प्रफुल्लित प्रसन्न छे, दर्शनीय छे. एहवा श्राप श्रीना भानंद वर्धक वदनकमलनु, जे नेत्र वडे दर्शन थाय तेज नेत्र प्रधान कल्याणकारी मार्नु छं. तथा मोक्ष मार्गमां अति शीघ्रताए गमन करनार श्रापना चरण द्वयने, जे मस्तक वडे स्पर्श धाय तेज मस्तक पान्यु प्रमाण गणु छं ।। २॥