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________________ ६६ धारी छै. जो अपनी श्रज्ञाने मस्तके चढ़ावी तदनुसार सम्यक्पराक्रम बजावी मम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रने श्रादरूं-सेतुं तो आप सदृश परमानंद भोगने निःसंदेह प्राप्त था. उक्तंच - " तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनं, यथार्थ हेयोपादेय परीक्षा युक्त ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानं, स्वरूप रमण पर परित्याग रूपं चारित्रं येतद्रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग साधनात् साध्य सिद्धिः " में आपना न्याय युक्त प्रबाध्य वचनना प्रसादे परीक्षा पूर्वक माहरी सत्तानो निर्धार कर्यो छे ॥७॥ एम तुं तो निज संपत्तिनो भोगी, हुं तो पर परिणतिनो योगी रे || मन० ॥ तिण तुम प्रभु माहरा स्वामी, हुं सेवक तुज गुण ग्रामी रे ॥ मन० ॥ ८ ॥ अर्थ:- अनादिधी कर्म शत्रुनी जेलमां पडेलो होवाथी अनंत काल सुधी माहरी ज्ञानादि अखूद लक्ष्मीनुं मने दर्शन पण न मल्युं तेथी जड चल जगत् जीवनी एंव जलना परपोटा जेवी क्षणभंगुर, पराधीन, चाहदाहथी बालनार, माहराधी /
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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