________________
अशुद्ध निमित्ते ए संसरता, अत्ता कत्ता परनो ॥ शुद्ध निमित्त रमे जव चिदधन, कर्ता भोक्ता घरनो रे स्वामी ॥ वि० ॥५॥
अर्थ:-ज्ञानावरणादि कर्म उदय रुप अशुद्ध निमित्त पामी अज्ञान मिथ्यात कषाय रूप अशुद्ध परिणासे परिणमी भव समुद्रमा संसरण-परिभ्रमण करतां प्रात्मा परद्रव्यादिकना कर्त्तापणानुं ममत्व, अभिमान करेछे अर्थात् में अभुक जीवने मारयो, अमुकने उगारन्यो, अमुकने सुखी करयो, असकने दुःखी करयो ने अमुक राख्यो, अमुकने चलाव्यो तथा घटपटादिक में बनाया अथवा घर हाटादिकनो में नाश करयो, अमुक इष्ठ पदार्थोनो में लाभ मेलव्यो, तेश्रोने में माहरा भोगमां लीधा. ते ऊंने में राख्या, दूर जवा नहि दीधा, अमुक वस्तु में शुभ मनोज्ञ करी, अमुक वस्तु में अशुभ अमनोज्ञ करी, एम हुं करूं छं, भविष्यतमां एम करीश ए आदि पुद्गल रूप त्रण योगनी, क्रियामां ममत्व करे छे एम अज्ञान वशे पर द्रव्यादिकनो कत्तों बनी घुनः ज्ञानावरणादि नवां कर्म बांधे छे अने वली ते