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२१६ हे भगवत ! आप सदा अरुपी छो. । जगत्वासी जीवो इष्ट पुद्गलोनी प्राप्ति, प्रभुता, तथा भोगवडे श्रानंद माने छे, पण ते परद्रव्यना ताबे होवाथी जगत्जीवनो आनंद पराधीन, अवास्तविक, तथा क्षणभंगुर छे. पण हे भगवंत ! श्राप त मात्र पोताना गुण पर्यायोनीज प्रभुता, तथा भोगवडे अानंद मानो छो तेथी आपनो प्रानंद निरूपचरित पूर्ण तथा नित्य छे, एम हे प्रभु ! आप पूर्णानंद स्वरुप छो.
तथा हे भगवंत! आपनां प्रात्मोय ज्ञान प्रकाश किरणो के जे सर्वे द्रव्यना त्रैकालिक परिणामथी अधिक छे, ते अनंत ज्ञान प्रकाश वडे आप निरंतर सर्वोपरी देदिप्यमान छो. अापना ज्ञान प्रकाशनुं या जगत्त्रयमां कोइ उपमान नथी.
वली हे भगवंत ! आप सर्वज्ञ तथा वीतराग होवाथी पूर्ण समतावंत छो. इष्टानिष्ट विकल्पथी सर्वधा मुक्त छो. ते समता क्षायिक भाव जन्य होवाथी हवे कोइपण काले अापना परिणाममा विसमतानो संभव नथी तेथी श्राप पूर्ण निश्चल समताना स्वामी छो. ॥४॥ वेद रहित अकषाय, शुद्ध सिद्ध असहाय ।