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कषाय जन्य भव समुद्री मुक्त थवा, बहु सन्मान सहित सेवे छे. जे भगवंतना दरेक प्रदेशे रहेला ज्ञानादि अनंत गुणो संपूर्ण पणे निर्मल प्रगट थया छे, ते गुणनो व्याघात करनार ज्ञानावरणादि घाती कर्मनो सत्ता सहित नाश कर्यो छे अने तेथी ज्ञानादि धात्म गुणनी सहज, अकृत्रिम, स्वाधीन, श्रने अविनश्वर अनंत अनुभूति (लक्ष्मी) प्रगट प्राप्त थह छे, निरंतर सेना स्वामी तथा भोक्तापणे वर्ते छे-परमानंदां निमग्न छे ॥ १ ॥
सामान्य स्वभावनी हो, के परिणति असहायी । धर्म विशेषनी हो, के गुणने अनुजायी ॥ गुण सकल प्रदेशे हो, के निज निज कार्य करे। समुदाय प्रवर्त्त हो, के कर्त्ताभाव धरे ॥ २॥
अर्थः-सामान्य स्वभाव विना वस्तुनी छती नहि अने विशेष स्वभाव विना कार्य नहि, पर्याय प्रवृत्ति नहि, माटे पंचास्तिकाय ते सदा सामान्य विशेष स्वभावमयी छे.
जे स्वभावमा एकपणुं, निस्थपणुं, निरवयापणु, अक्रियपणु, अने सर्वगतपणुं होय ते सामान्य