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अर्थ:-हे नमिप्रभ ! अापने श्रा जगत्त्रयमां प्रभु अर्थात् मालिक जाणी अति दुःप्राप्य आ मनुष्य भवरूप उत्तम अवसर पामी श्राप प्रति विनंती करुं छं. हे देवाधिदेव! श्राप अनंत ज्ञानयुक्त हुवाथी अमारा विनव्या वगर पण अमारी त्रणे कालनी सर्वे हकीकत प्रत्यक्ष पणे जाणो छो तोपण सेवकनो स्वभाव छ के स्वामी श्रागल पोतार्नु दुःख दूर थवा __ माटे विनंति करे ॥१॥
हुं करता हूं करता परभावनो हो जी, भोक्ता पुद्गल रूप ॥ ग्राहक ग्राहक व्यापक एहनो हो जी, रच्यो जड भवभूप ॥ नमिप्रभ०॥ २॥ .
अर्थ:-हे परमेश्वर ! अनादि विभाव योग हुँ माहरा शुद्धात्म स्वरूपथी विमुख रही, स्वाभाविक कत्तता, स्वाभाविक भोक्तृता, स्वाभाविक ग्राहकता, स्वाभाविक व्यापकता विगेरेथी चूकी माहराथी विपरीत, विलक्षण, रुप रस गंध स्पर्शादि गुणमय अचेतन जे पुद्गल द्रव्य तेने ग्रहण करवालो कामी तेने नवा नवा अनेक रूपे बनाववालो अभिमानी तेने भोगववानो इच्छक विगेरे थइ तेमांज निरंतर