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________________ २०० व्यापी रह्यो, एम माहरा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावथी, विमुखपणे वर्ती जड संगते जडवत् घनी भवसमुद्रमा भ्रमण करवाने निरंतर उद्युक्त थइ रह्यो ।॥ २ ॥ आतम आतम धर्म विसारियो हो जी, सेव्यो मिथ्यामाग॥ आस्रव आस्रव बंधपणुं कयु हो जी, संवर निर्जरा त्याग, नमिप्रभ० ॥३॥ __अर्थ:-राग द्वेषादि विभावरहित स्वरूपने यथार्थ प्रत्यक्षपणे जाणवा रूप शुद्ध केवलज्ञान, निराकारोपयोग मधी केवलदर्शन, स्वरूपरमण-स्वरूपस्थिरता मय सम्यक्चारित्र, ए आदिज्ञानानुयायी पणे वर्तता शुद्धात्म स्वभावो के जे श्रा संसार समुद्रमांथी मुक्त करी अव्याबाध स्वतंत्र प्रखुट परमानंद समूहनो निधान छ, ते शुद्धात्मधर्मने में न जाणया, न चिंतव्या, न अादों पण ते शुद्धात्मधर्मने मलीन करनार-दूषवनार, मिथ्यात्व अज्ञान, अने कषाय रूप मिथ्यामार्ग ( विपरित आचरण ) के जे घोर अनंत दुःखद् निदान छे तेनुं में रुचि सहित सेवन करयु. ए मिथ्यामार्गने सेवतां अानव तथा बंधनो कर्ता थयो. मोक्षमार्ग रुप संवर
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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