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________________ १२५ द्रव्यना ज्ञानदर्शनादि, परिणामो दृषित, थवाथी श्रात्माने तीक्षण शल्य तुल्य असह्य दुःख क्लेश आपनारा क्रोध-मान माया लोभ शोक वियोग मिथ्यात्व अज्ञान विगेरे महान् दुर्निवार सन्निपातिक रोगो उपजे छे जे रोगोना प्रभाव वडे वली ज्वर, अतिसार, जलोदर, कठोदर, भगंदर, क्षय, कुष्ट, प्रमेह, उपदंश, नेत्ररोग, कर्णरोग, मुखरोग, विगेरे अनेक शारीरिक रोग जन्य वेदनाउं भोगचवी पडे छे. पण हे विशाल प्रभुजी ! श्रापेज सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्रनी.ऐक्यतारूप अमृत औषधीन दान करी ते सर्वे सन्निपातिक रीगोथी भव्य जीवोना समूहने मुक्त करी अनंत श्रास्म वीर्ये भरपूर तुष्ट पुष्ट करी अागामि कोइ पण काले ते रोग पुनः उत्पन्न न थाय एवा अत्यंत निरोगी कर्या. माटे हे प्रभुजी ! श्रा भुवनत्रयसां निःसंदेहपणे अमोघ-साचा-सफल (जेनो उपाय निष्फल जाय नहि.एवा) वैद्य आपज छो. १२१ भवसमुद्र जल तारवा, नियमक सम जिनराजरे ॥ चरण जहाजें पामीए, अक्षय · शिवनगरनुं राजरै ।। अक्षय०॥ अरि० ॥३॥
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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