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________________ १२८ अर्थः-राग रूप जले परिपूर्ण दुस्तर ा भयानक भवसमुद्र के जेमा हुं अनादिकालथी निराधारपणे ज्यां त्यां भ्रमण करी दुःसह भय क्लेश रोग शोक वियोग तृष्णा आनंद विगेरे अनेक दुःखो सहन करुं छु, अत्यंत सहज समाधिप्रद माहरी शुद्भात्म भूमिरूप शिवनगरथी अत्यंत दूरवर्ती-वियोगी थइ रह्यो छु. ते भव ससुद्रधी पारंगत करी निर्विघ्नपणे शिवनगरे पहोंचाडवा माटे हे विशालप्रभु जिनेश्वर ! श्राप निर्यामक अर्थात् जहाजना सौथी अग्रेसर चलावनार छो माटे जो बीजा सर्वनी आकांक्षा छोडी आपना स्वभावाचरणरूप पंचमहाव्रतरूप जहाजनो श्राश्रय लइए-तेमां अमारा आत्माने स्थापन करीए तो सहजे लीलामात्रमा निःप्रयासे प्रा भयंकर भव. समुद्रथी पारंगत थइ कोइपण रीते जेनो नाश न थाय-सदा शाश्वत रहेनार एवं शिवनगरनुं नि. कंटक राज्य पामी एकांतिक शाश्वत सहज परमानंदना स्वामी थइए.॥३॥ भव अटवी अति गहनथी, पारग प्रभुजी सच्छवाहरे ॥ शुद्ध मार्ग देशक पणे, योग
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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