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क्षमंकर नाहरे ॥ योग० ॥ अरि० ॥ ४॥ ___ अर्थ:-श्रा भवरूप अटवी-जंगल के जेमां अमारो आक्रंद परिताप जोइ करुणा रसवडे जेर्नु हृदय भिंजे तथा श्रमारी दया करे एवा सदगुरुरूप सजननो समागम अत्यंत दुःप्राप्य छे तेथी निर्जन, तथा जेथी पारंगत धवानो साचो-सुगम मागे पामवो अतिशय मुश्केल होवाथी अत्यंत गहन-घोर, तथा जेमां अमारी ज्ञानदर्शनादि अमूल्य प्रात्म संपदाने लुटा लेवावाला तीव्र अज्ञान मिथ्यास्वादि दुष्ट स्वभावना धारक कुगुरु रूप लुटाराश्रो वसे छे, तथा श्रमारा ज्ञानदर्शनादि
आत्मप्राणनो घात करनार क्रोध मान माया लोभ विगेरे निर्दय श्वापदो वसे छे एवा घोर जंगलमां भूलो पडेलो हुं मारा आत्मीय कुटुंब तथा लक्ष्मीना वियोग वडे दयामणी अवस्थामां भय, त्रास, रोग, शोक, वियोग, तृष्णा, आताप विगेरे परितापो सहन करूं छु, शांतिप्रद सवर रूप जलना प्रभाव वडे अत्यंत तृष्णा क्लेश सहुँ छु तेथी (भवाटवीथी) पारंगत थइ अात्म लक्ष्मी वडे परिपूर्ण शिवनगरे दोरी लइ जनार आपज समर्थ सार्थवाह छो. कारण के श्रापज शुद्ध-अविसंवाद मार्गना बताववावाला