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________________ १११ जो समकीतमूल ताजूं होय तो व्रततरु शिव फल प्रापी शके माटे मोक्षफलना इच्छुक पुरुषे सवधी पहेलां समकीत रत्न प्राप्त करवानों उद्यम करबो ए सार छे. माटे समकीत शी वस्तु ठे ते जाणवुं जोइये.. " जिय अजय पुणपावा-सव संवर बंध मुस्क निझरणा । जेणं सद्दहइ तयं, सम्मं खइंगाइ बहु भेअं ॥ " t 1 जीवा जीवादिक नव तत्त्वनुं स्वरूप श्री जिनेश्वरना आगम प्रमाणे नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणे यथार्थ ज णी सद्दह तथा हेय तत्त्वने छांडवानी रूची तथा उपादेय तत्त्वने प्रदरवानी रूची ते समकीत जावं, तथा च तत्त्वार्थ सूत्रे - " तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् - " " जीवाजीवास्रव बंध संवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्- तेमां जीवतत्ष, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, भने मोक्षतत्त्व ए चार तत्त्व उपादेय में था अजीव आस्रव बंध ए श्रय तत्त्व आत्म गुणना रोधक होवाथी हेय ऐ. माटे उपादेयने आदरवानी रुची तथा हेय तत्त्व
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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