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के स थ आपको वाचक पद प्रदान किया। अहमदाबाद में ही स० ५८१२ भादो महीने की अमावस्या के दिन प्रात्म ध्यान में लीन होते हुए परमेष्ठी स्मरण करते हुए, सूत्र पाठों को सुनते हुए आपका स्वर्गवास हुआ । सघ ने आपका भारी सन्मान किया।
वाचक श्रीदेवचंद्रजी ने अपनी प्रकाण्डप्रतिभा से छोटे मोटे कई मंथ सस्कृन, प्राकृत, गुजराती, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में निर्माण किये, जिनका संग्रह-श्रीमद्देवच°द्र भाग १ और २ में श्रीमान के अनन्य अनुरागी अध्यात्मयोगनिष्ठ प्रभावक आचार्य श्री बुद्धिसागर सुरिजी महाराज ने किया है । अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल पादरा से जिनका प्रकाशन हुआ है । उन्हीं ग्रंथ रत्नों में यह "विहरमान जिन वीसी'-अपना विशिष्ट स्थान रखती है। आपके ग्रंथों की अनेक विशिष्टताओं को बचाने का यह स्थान नहीं है । केवल प्रस्तुत "बीली" की ही कुछ खुधियां बताना ठीक मानता हूँ।
श्रीमान ने सीमंधर स्वामी के पहले स्तवन में-आध्यात्मिक साम्यवाद की झांकी दिखाई है-जैसे
जे परिणामिक धर्म तुम्हारो, तेहवो अमचो धर्म ।
श्रद्धा भासन रमण वियोगे, वलग्यो विभाब अधर्म ॥ भगवान के समान ही अपना धर्म बताना यह जैन दर्शन का साम्यवाद है । उस ढग की श्रद्धा-दर्शन और प्रवृत्ति के अभाव मे ही विषमता दीखती है। वह भी नैमित्तिक होने से मिट सकती है--इसीलिये तो श्रीमान ने गाया कि