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१८६ चारित्रता ॥ गुण पर्याय अनंत, पाम्या तुमचा हो पूर्ण पवित्रता ॥३॥ : अर्थ:-कापणु, भोक्तापणु, कारकपणुं, ग्राहकपणुं, ज्ञान, चारित्र, विगेरे अनंत गुणपर्याय ते पूर्ण पवित्र थया छ, सदाकाल पूर्ण पवित्र पणे . वर्ते थे, ए कारणमाटे प्रापमा परमेश्वर पनी प्रतीत थाय छे. अनादि अज्ञान वशे जीव, परभावनो कर्ता बने छे अर्थात् में घर बनाव्युं, में नगर बनाव्यु, में अमुक पदार्थने सुवर्ण - बनाव्यु, -, अमुक पदार्थने सुगंध बनाव्यो, अमुक- पदार्थने सरस रसवालो घनाव्यो,,अमुक पदार्थने मनोहर स्पर्शवालो बनाव्यो, विगेरे परभावना कापणाना अभिमान, वडे ज्ञानावरणादि कर्मनो कर्त्ता बने छे. एम द्रव्यकर्म, नोकर्मादिकनो कर्ता, बनी पोताना शुद्ध ज्ञानादि परिणामे परिणमवा रूप शुद्ध कापणाथी वि मुख रहे छे. पण ज्यारे सम्यक् ज्ञाननी प्राप्ति थाय, तत्वरुची थाय, त्यारे पस्भावना.. कोपणाने तजी स्वाभाविक कार्यमा पोतानी शक्तिने जोडे, शुद्धज्ञान दर्शन चारित्रनो कर्त्ता थाय, तेमज अज्ञान
वो परभावनो भोक्ता बने छ अर्थात् वर्ण गंध ___ रस स्पर्श स्त्री पुरुष वस्त्र खादिम स्वादिम पदार्थने
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