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________________ . . १८८ . अर्थ:-सर्व परभावनी कामना रहित जिनेश्वरना पवित्र गुणोमा बहु सन्मान धरी ते समान पवित्र, गुणो प्रगट, करी बारहंत समान पोतार्नु परमात्म -पद, साधq ते भावसेवा छे. तथा ते भावसेवाला कारणरूप, भावलेवाने प्रशस्त, परमपूज्य, श्री जिनेश्वरना , पवित्र गुणोनुं स्मरण तथा गान करवू तथा ते जिनेश्वरनी परम पवित्र ज्ञान मूर्तिने वंदन नमनादि करवू ते द्रव्यसेवा छ। १ ।। ___ अस्तित्वादिक धर्म, निरमल भाव हो सहुने “सर्वदा ॥ नित्यत्वादि स्वभाव, ते परिणामी 'हो जड चेतन सदा ॥ २ ॥ , अर्थः-अस्तित्त्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व, प्रमेयत्त्व, श्रगुरुलघुत्त्व तथा सत्व ए छ मूल सामान्यस्वभाव सर्व द्रव्यमां सदाकाल निरावरणपणे वर्ते छे तथा सर्वे जड तथा चेतन द्रव्यो नित्यस्वादि स्वभावे । निरंतर परिणमे छे. माटे ए सामान्यस्वभावनी निरावरणता वडे तथा साधारणधर्मना परिणाम घंडे तो हे ईश्वरदेव ? आपने परमेश्वरपणानी पदवी प्राप्त थई शके नहि पण ॥ २॥ . ..' कत्ता भोक्ता भाव, कारक ग्राहक हो ज्ञान
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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