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________________ १८७ शक्तिओने माच्छादित करे छे, पोताना स्वाभा विक परमानंदथी विमुख रहे छे पण हे परमेश्वर ! आपे पोताना आत्मानुं तथा पुद्गलादि परद्रव्यनुं स्वरूप यथार्थ भोलखी पोताना स्वरूपने सुखनिधान जाणी तेना रसिया थई सम्यक्पराक्रम चादरी परकता, पर भोक्तृता, परग्राहकता, परव्यापकता, पररमणता विगेरे अनंत विभावनो परित्याग करी, शुक्लध्याननी तीव्र अग्नि वडे ज्ञानावरणादि कर्ममलने भस्मीभूत करी, शुद्ध सुबर्ष समान परम प्रकाशमान् अनंत परमानंदमय पोतानी ज्ञानादि सर्व शक्तिओ " आवीर्भावे प्रगट करी " प्रगट, निरावरण स्वकार्य प्रयुक्त करी राग द्वेष मोह विगेरे नाश करी, सर्व दूषण रहित स्वसत्तामां विराजमान रहि पोताना ज्ञानादि शुद्ध अनंत गुणोनी ईश्वरता निष्कंटकपणे भोगवो छो. तेथी हे परमेश्वर ! आपमां साधी ईश्वरता जोई परमाहल्लादित थई पवित्र विनय युक्त आपनी द्रव्यभावधी सेवा करीए द्रव्य भाव सेवानुं स्वरूप" द्रव्यसेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुण ग्रामोजी । भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे निःकामीजी " ॥ •
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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