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________________ अखूट लक्ष्मी माहराउपर प्रपन्न थई माहरे स्वाधीन थशे माटे हु आपनी सेवाने निरंतर चाहनार आपनो सेवक ा पनाज गुण ग्राममां संतोष वृत्ति धारण करुं छु ॥ ८॥ ए संबंधे चित्त समवाय, मुज सिद्धिन कारण थाय रे ॥ मन० ॥ जिनराजनी सेवना करवी, ध्येय ध्यान धारणा धरवी रे ॥मन०६। तुं पूरण ब्रह्म अरुपी, तुं ज्ञानानंद स्वरूपी रे ॥ मन० ॥ इम तत्त्वालंबन करिये, तो देवचंद्र पद वरिये रे ।। मन० ॥ १० ॥ अर्थः-श्रापनी सेवामां जो माहरु चित्त एकाग्र थाय, अभेद संबंध धारण करे तो तत्काल माहरा उपादानमां सिद्धिन कारण पद् उत्पन्न थाय माटे में तो निश्चय कर्यो छे के हे जिनेश्वर ! अन्य सकल परद्रव्यनी सेवा तजी श्रापनीज सेवामां निरंतर वसवं, श्रापने शुद्ध ध्येय जाणी आपनाज ध्यानमां निश्चल वृत्ति धारण करवी ॥६॥ ____ कारण के हे जिनेश्वर ! कोइ पण द्रव्यनी कामना आपमा जणाती नथी तथा पोताना ज्ञानादि
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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