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तद्भूतार्थ परिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तरिक ज्ञान घनस्य बन्धन महोभूयो भवेदा
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त्मनः
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अर्थ:-:
-श्रा
- जगत्मां मोही ज्ञानी जीवो जागो छे के " हुं पर द्रव्यने करुं हुं " एवो पर द्रव्यनां कर्त्तृत्वना अहंकाररूप अतिशय दुर्वार अज्ञान अध कार अनादिकालथी चाल्यो आवे छे पण जो तेनो शुद्ध निश्चय ज्ञानवडे एकवार पण समूल नाश करी नोखे तो शुद्ध केवलज्ञानली प्राप्ति थाय अने पछीथी कदापि एवा अज्ञान अंधकारने न करे- कर्मबंध करे नहि तथा " श्रेणी आरोहतां " क्षपक श्रेणीए चढतां हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा ए हास्यादि षट्क तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अने नपुंसक - वेद, एम नव नोकषायमांथी पोतानी ग्राम्म परिणतिने वारी अकषाय भावमां- शुद्ध स्वरूपमा तल्लीन करी ॥ ३ ॥
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भेदज्ञाने यथा वस्तुता उलखी द्रव्य पर्याय में: थइ अभेदी | भाव सविकल्पता छदि केवल सकल, ज्ञान अनंतता स्वामी वेदी ॥ सूर० /18/