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श्री सुबाहुजिन अंतर जामी, मुज मननो विशरामी रे ।। प्रभु० ॥ आतम धर्म तणो आरामी, पर परिणति निःकामी रे ॥ प्रभु अंतरजामी ॥ श्री० ॥१॥
अर्थ:-शुद्ध अने तिक्षण उपयोगमां परम स्थिरता एकाग्रता धारण करी राग द्वेष रूप महान् शत्रुउंने जीतेला हे श्री सुबाहु स्वामी! केवलज्ञान दर्शन उपयोग वडे मारा तेमज सर्वे द्रव्योना अंतर्गत भावने 'द्रियादिकनी सहाय विना प्रत्यक्ष जाणवा देखवावाला तथा सर्वदा परम संवरमां लीन होवाथी अंतर्यामी छो. _ स्त्री पुत्र मित्रादि परिजनो तथा धन धान्य हिरण्य क्षेत्रादि परद्रव्यना मनोज्ञ पर्यायोने पि" सुख हेतु जाणता नथी परंतु तेउने जलना बुबुद्वत् तथा बिजलीना चमत्कारवत् क्षणीक, पराधीन मतृप्तिना हेतु, तथा भात्म धर्म रोधक राग द्वेषना निमित्त, संसार परिभ्रमणना निमित्त साक्षात् पणे जाणो छो माटे ते विषयोनी धापने कामना केम थाय ? कदापि न थाय; तथी आप सदा नि:कामी