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दोई नेत्र पति सांम्हा सदा, देखे न पति ने अंग ।
कान अभंग ||३|| क॥
वातालू जीहा विना, मोटा विचि विचै उज्जल नर मनोहर, भरि साख द्ये हुंकार | पर कांधइ न चढे कदे, चरण विना चलै सार ||४|| क|| इक ना सु जासु वैर छै, वेवे न शीत न ताप । देवचंद्र भाखइ तेहनौ, मोटां सू मेलाप ||५|| क०|| इति हीयाली संपूर्ण ||
( हीयाली १ सुमतरंग १ दुर्गदास कृत सह । पत्र १ ) ( न० ३-५ को छोड़ सभी रचनायें
शाखा भंडार
'बीकानेर से प्राप्त हुई हैं )
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उदय स्वामित्व पंचाशिका
'मंदित्तु वद्धमाणं, निणं च गुरु- राजसार -पय- कमलं । गई आइएस वुच्छं, समासो उदय - सामित्तं ॥ १|| थीतिर्गम इत्थी, नरतरि- सुर-निरय- श्रा उगई पुब्बी । वेल्विदुगं जाई, चौ आईल्नाई सरल - दुगं ॥२॥ आहार-दुगं संघयण-छक्क, आगई आइन्स पंच सुभखगई । थावर सुभग उक श्रयव-उज्जोय-जि-उच्चं ॥३॥ मीसं सम मिच्छ श्ररणचर, दुहग-इग बीय कसाय चड़-परघा । उसास एय पयडी, अवहरणिजा उदय श्रीगणपण मणुय नवगं, एगिंदिय जाइमाइ दुगतीसं । बज्जित्तु नरय चोहो, इसयरि विणुमीस दुगमिच्छे ||५||
मज्मे ॥४॥