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________________ शिवपुरीमा विराजमान करो छो. एज भी स्वयंप्रभ स्वामीनी दया परमोत्कृष्टता धरावे छे. पण जे विषय कषायनी वृद्धि करनार उपदेश, था पदार्थो श्रापी, अज्ञानीजीचोनी विषय कषाय तथा हिंसानी प्रवृत्तिने वधारे छ-तेनां कारणोने पुष्ट करे के अने हमे दया करीए छीए एम कहेनार मिथ्य भिमानी जीवो तो हे प्रभु ! दयालु नहि पण वास्तविक न्याये श्रापना वचनानुसार हिंसाना अनुमोदक प्रतित थाय छे. ॥ १ ॥ द्रव्य धरम ते हो जोग समारवा, विषयादिक परिहार ॥ आतमशक्ति स्वभाव सुधर्मनो, साधनहेतु उदार ॥ स्वामी० ॥ २ ॥ ____ अर्थ:-प्राणातिपात; मृषावाद, भदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, देष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, गतिश्ररति, परपरिवाद, मायामृषावाद तथा मिथ्यात्वशल्य ए पापस्थानमां मन वचन कायाने नःश्वरितां स्यादुवाद युक्त जिनेश्वरना पवित्र कल्याणकारी बचनो . वांचवा, सांभलवा, विचारवामां तथा तेना उपदेष्टा - सद्गुरू आदिना विनय वैयावच्चादिमा तथा ज्ञान
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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