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'स्वयं श्रात्म लक्ष्मीना स्वामी श्री स्वयं प्रभु स्वामीने हजारवार- वारंवार, निरंतर, भाम जाउं अत्यंत प्रमोद भावना वडे गुणानुरागी भइ सेवा भक्तिमां लीन थाऊं. के जेनो " वस्तु धरम पूरण नीपन्यो " अर्थात् अनादी कालथी ज्ञानावर्णादि कर्मवडे आवृत थइ रहेला होवाथी ज्ञानादि श्रात्म घर्मो पोतानुं कार्य शुद्ध रीतेकरी शकता नहोता, परवश परानुयायी थइ रह्या हता, कर्मबंधनना हेतु थइ रह्या हता, ते सर्वे धर्मो संपूर्ण प्रगटव्यक्त थया छे, तदन निरावरण थया छे, अप्रतिहत् पणे पोताना शुद्ध कार्ये निरंतर परिणमे छे तथी अखंड अचल अविनाशी परमानद दशाने प्राप्त थया के परम निभय निराकुल दशामां अनंत शुद्धात्म अनुभूतिमां तल्लीन थइ रह्यो . तथा "भाव कृपा किरतार" अर्थात चार गतिरूप अपरिमित भयंकर भवाटवीम विषय कषाय - वशे छेदन भेदन ताडन तर्जन तिरस्कार वियोग शोक भय आनंद विगेरे अनेक प्रकारनां असह्य शारीरिक तथा मानसिक दुःखों दीन अनाथपणे भोगवताने, अत्यंत कारुण्य भावनावडे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मोक्ष मार्गे दोरी, तना दुःखनो समूल नाश करी परमानंदमय