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________________ होवत जो तनु पाखडी आवत नाथ हजुर लाल रे । जो होती चित्त प्रांखडी देखत नित्य प्रभु नूर लाल रे । अपने स्नेही से मिलने के लिये शरीर में पाखों की मागनी तो दुनियां करती है पर चित्त मे आंखों की मांगनी करना श्रीमान् की अनुपम सूझ का ही परिणाम है । शासन भक्त जे सुरवरा, विनवू शीष नमाय लाल रे । कृपा करो मुम अपरे, तो जिन वदन थाय लाल रे । बीसवे श्री अजितवीर्य भगवान के स्तवन मे श्रीमान ने अमृत क्रियानुष्ठान बताते हुए भव्यात्माओं को अमृतत्व के दर्शन कराये हैं जिन गुण अमृतपान थी रे मन । अमृत क्रिया सुपसाय भवि० ।। अमृत क्रिया अनुष्ठान थी रे मनः । श्रातम अमृत थाय रे भवि० । भगवान् के गुण अमृत पान से अमृत क्रिया को करके आत्मा अमृत हो जाता है । कितना सीधा रास्ता है । श्री अरिहंत भक्ति की अपूर्वता दिखाते हुए श्रीमान् ने कितना ठीक कहा है-.
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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