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________________ ४५ ___ उपभोगनो स्वामी थाय. उक्तंच-एको मोक्ष पथो. य एष नियतो, द्रज्ञप्ति वृत्त्यात्मक; स्तव स्थिति मेति यस्तमनिशं, ध्यायेच्चतं चेतसि, तस्मिन्नैव निरंतरं विहरति द्रव्यान्तराण्य स्पृशन् । लोवश्यं सम्यस्य सार मचिरान्नित्योदयं विन्दति । अर्थ:-सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्रात्मक मोक्ष मार्गमा जे पुरुष स्थित थाय छे, तेनेज जे निरंतर ध्यावे के वली तेनेज जाणे, छे तेनेज अनुभवे छे वली तेनाज विषे विहार करे छे-प्रवत्तें छे पण अन्य द्रव्यमा रंच मात्र स्पर्श करतो नथी ते अल्प कालमां नित्योदय परमात्म पदने पामे छे त्यारे ध्यातामांथी साधक भावनो उच्छेद थाय छे; कारण के ध्येयनी संपूर्ण सिद्धि थया पछी साधवान कंड थाकी रह्यं नथी. ज्यांमुधी कंइ साधवान बाकी होय स्यांसुधी साधक भाव कहेवाय जेम (कारण पद उत्पन्न, कार्य थये न लह्योग). ॥ ॥५॥ द्रव्य क्रिया साधन विधि याची, जे जिन आगम वाची रे॥३०॥परिणति वृत्ति विभाव . .
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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