________________
साधकपद दूर थाय.
ज्ञानावरणादि सकल कर्मना संबंधथी सर्वथा मुक्त केवलज्ञान दर्शन धारिन वीर्यमय सहज आत्म गुणना समूह रूप श्री सुषालु स्वामीना परमात्म पदने शद्ध ध्येय (ध्यावया लायक वस्तु) धारी--ज्ञान पूर्वक निश्चय फरी, जन्म जरा मरण रूप संसार भ्रमणना हेतु भूत, शुद्ध परिणतिथी विमुख पात रौद्र परिणाम घारे दूर करे, (कारण के ज्यांसुधी दुर्ध्यान एरिणाम वर्ते त्यांसुधी शुद्ध ध्यानने अवकाश मले नहि जेम तलीन वस्न ऊपर केशरनो रंग लागे नहि अने पर परिणामानुगत थयेला पोताना प्रात्म वीर्यने समेटी मात्र शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र परिणाममां भास्म वीर्यने एकत्र तल्लीन करे-अभेद करे एबुं सहज भास्ल ध्यान आदरे, जेथी ध्येय समाधि अर्थात् शुद्धात्म अनुभव रूप निर्विकल्प निराकुल निरूपचरित स्वतंत्र परम समाधिमां मग्न-तल्लीन थाय; ते बारे
आत्म परिणति मनोझ अमनोज्ञ कोइ पण पर . . द्रव्यमां राग मेष रूप अशुद्ध परिणामे वः (गमन करे) नहि, ते वारे ध्येय पदनी अर्थात् शुद्ध परमास्म पद्नी सिद्धि थाय. तेना अथवा अनंत भोग