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________________ के ते भव भ्रमणनी हवे अवधि आधी. उक्तंच"अंतो मुहुत्त मित्तंपि फासिझं हुझ जेहिं सम्मत्तं, तेसि भवढ्ढ पुग्गल, परिअटो चेव संसारो" ॥३॥ __ ध्येय स्वभावे प्रभु अवधारी; दुल्ता परिणति वारी रे ॥प्र०॥ भासन वीर्य एकता कारी; ध्यान सहज संभारी रे ॥ प्र० ॥ श्री० ॥ ४॥ ध्याता ध्येय समाधि अभेदे पर परिणति विछेदे रे ॥प्र०॥ ध्याता साधक भाव उच्छेदे, ध्येय सिद्धता वेदे रे ॥प्र॥ श्री० ॥ ५॥ . अर्थ:-प्रभुपदने पोतान शुद्ध ध्येय जाणी पोताना हृद्यमा स्थापना करी, दुर्ध्यान रूप परिसतिने निवारी, पोताना ज्ञान वीर्यनी संपूर्ण एकता अभेदता करनारू सहज प्रात्म ध्यान संभारे; तथी पर परिणतिनो समूल विच्छेद थाय, त्यारे ध्याता ध्येय समाधिमां तल्लीन थाय अने ध्येयं पदनी सिद्धि प्राप्तिने वेदे-भोगवे. स्यारे ध्यातामांधी
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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