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________________ ર૪૬ परमातम गुण स्मृति थकीरे ॥ मन० ॥ फरश्यो आतम रामरे ॥ भवि०॥ नियमा कंचनता लहेरे ॥ मन०॥ लोह ज्यु पारस पामरे ॥ भवि० ॥ ७॥ ___अर्थ:-वली हे प्रभु ! संपूर्ण सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनंत निश्चल धी' विगेरे आप परमात्माना गुणोना चिंतनमां जो माहरो भास्म परिणाम स्पृष्ट थाय तो जेम पारस मणिना स्पर्श थकी लोढा जेवी कुधातु कांचन थई जाय छे; तेम विषय कषायमां परिणमतो माहरो आत्मा ते पण कांचन समान शुद्ध परमात्म पदने प्राप्त थाय ॥७॥ निर्मल तत्त्व रुची थई रे ॥ गन० ॥ करजो जिनपति भक्तिरे ॥ भवि ॥ देवचंद्र पद पामशोरे ॥ मन० ॥ परम महोदय युक्तिरे ॥ भवि०॥८॥ अर्थ:-भावदयाना आवेशे मित्रभाषना युक्त स्तवनकर्ता श्री देवचंद्र मुनि भव्यजीवो प्रति सहुपदेश मापे छ के श्राभव परभव संबंधी विषयभोग तथा मान पूजा विगेरे पौद्गलीक भावनी
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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