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अर्थात् मददगार के । । ७ ॥
सम्यग्दृष्टि जीव, आणारागी हो सहु जिन-राजनाजी | आतम साधन काज, सेवे पदकज हो श्री महाराजनाजी ॥ हुं० ॥ ८ ॥
अथ: - वली चतुर्थ गुणस्थानवत उपशम क्षयोपशम वा क्षायिक सम्यकदृष्टि सर्वे जीवो हे भगवंत भवसमुद्रमां सेतु समान आपनी श्रज्ञाना रागी छे, आपनी श्राज्ञा पालवाने उत्सुक छे, ते पोतनु शुद्धात्म स्वरुप प्रगट करवा माटे आप भगवंतना द्रव्यभाव चरणकमलने सन्माने छे ॥ ८ ॥
देवचन्द्र जिनचन्द्र, भगतें राचो हो भवि आतम रुचिजी । अव्यय अक्षय शुद्ध, संपत्ति प्रगटे हो सत्तागत शुचिजी ॥ हुं० ॥ ९
अर्थः-स्तुतिकर्त्ता श्रीदेवचंद्र मुनि मित्र भावनाना आवेशमां पोताना मुखकमलमांथी परम कल्याणकारी उपदेश आपे छ के पोतानी शुद्धात्म सिद्धिना इच्छु है भन्यात्माउं ! शिवक्षेत्रना महाराजा श्री जिनेंद्र भगवाननी श्रापा सेववामां लीन थाउं जेथी