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१५E भाज्ञा ले- " मोरक पहे अप्पाणं, ववेहि तं चेव झाहिं तं चेय, तत्थेव विहर णिचं, मा विहरसु अण दव्वेसु” हे भव्य ! तुं मोक्षमार्गमां पोताना प्रास्माने स्थाप, तेज परमात्मपदनुं ध्यान कर, तेज परमात्म पदने अनुभवगोचर कर, अने तेज परमात्म भावमा निरंतर विहार कर, अन्य द्रव्य पर्यायमा विहार करीश नहि, तेमा इष्टानिष्ट बुद्धि वा राग द्वेष रूप परिणाम करीश नहि अर्थात् सर्वदा प्रमाद तजी परमात्मपदनी साधनामा मग्न था.
. पण हे चंद्रानन प्रभु ! आ दुषमकालमा ते परमात्म पदनुं यथार्थ स्वरूप जाण्यावगर तथा तेनी साधनारूप जिनेश्वरनी श्रीज्ञानी अपेक्षा तरफ लक्ष राख्या शिवाय अनेक प्रकारनी वाह्य क्रियाओनेज धर्म मानी लीधो, तेमांज रत थया, तेज करी पोताने कृतार्थ समज्या अर्थात् बाह्य निमित्तने कार्य . मानो साचा कार्यथी विमुख थई रह्या, पण जिने: श्वरनी प्राज्ञाथी विमुखपणे वर्सतां सिद्धि थाय नहि. कारणके जिनेश्वरनी प्राज्ञानी अपेक्षा वगरनां सर्ने क्रियानुष्टान निरर्थक छे-श्रीमद् अभयदेव सूरि