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१५८ लूटनार महान् शत्रुमो जाणी तेमां पोताना पास्मवीर्यने नहि वापरतां जीवादि तत्त्वोना यथार्थ अद्वानरूप सम्यक्दर्शन, तथा ते जीवादि तत्त्वोने नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणादि सहित संशय, विभ्रम भने विमोह रहित श्रद्धान पूर्वक जाणवा रूप सम्यक्ज्ञान, तथा रागादिक कषाय अने सावध यो. गना परिहार रूप सम्यकचारित्रमा प्रयुजो संसार समुद्रथी आपणा पास्मानो उद्धार करवो. यतःगाथाः-जीवादी सहहण, सम्मत्तं तेसि मधिगमो णाणं; रागादी परिहणं, चरणं एसो दु मोरकपहो ) दश द्रष्टांते दुर्लभ, रस्न चिंतामणी समान मनुष्य भव स्यारेज सफल जाणवो. का. रण के पंचेंद्रिोना विषय भोग तो देवादि गतिमा मली शके ले पण परमात्मपद-मोक्षपद् तो आ मनुष्य भवमांज साधी शकाय छे. माटे आपणा मात्माने रत्नत्रयमां जोडवो, मोक्षमार्गमा प्रवृत्त थवं, एज श्रापणुं सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य छ, भने तेज धर्म छे-यतः (सदृष्टीज्ञान वृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः, यदीय प्रत्यनीकानि, भवन्ति भव पद्धतिः) तेज जगत्वत्सल देवाधिदेव तीर्थकर भगवंतनी