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________________ १४५ माथी निःसंदेह अति स्वराए माहगे उद्धार करशो तथा महविद्यरूप थइ माहरा भास्म परिणाममां सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रनो योग करी मिथ्या भाचरण वडे उपजेला भवरोगनो वेगे समूल विनाश करशो एवी माहरा चित्तने दृढ प्रतित छे. ॥५॥ प्रभु मुख भव्य स्वभाव सुगुं जो माहगे, तो पामे प्रमोद एह चेतन खरो । थाये शिवपद आश राशि सुख वृंदनी, सहज स्वतंत्र स्वरूप खाण आणंदनी ॥ ६ ॥ अर्थः-" भवन व्यय विणु कार्य न निपजे हो, जिम दृशदे न घटत्व " तेमज जेमा भव्य अर्थात् पलटन स्वभाव नथी एटले जे जीवमां मिथ्यात्वथी पलटी समकीत भावे परिणमवानुं । सामथ्ये नथी तेने अभव्य कहीए तथा अविरतीथी पलटी विरतीभावे परिणमवातुं सामथ्र्य नथी तथा प्रमाद भावथी पलटी अप्रमाद भावे पलटवार्नु सामर्थ्य नथी, तथा कषाय भावथी पलटी भकषाय (शम) भावे परिणमवानु सामर्थ्य नथी (एटले पूर्व अहितकारी) पर्यायनो व्यय, नवा प्रशस्त
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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