SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ चेतन द्रन्यने हो के, सकल प्रदेश मिले । गुण वर्तना पत्र्ते हो के वस्तुने सहज पले ॥ ३ ॥ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्ति काय ये चार जड़ द्रव्य है। इन चारों जड़ द्रव्यों में कत्त त्व भाव नहीं है । जड, द्रव्यों के प्रत्येक प्रदेश में जुदी २ वृत्तियां हैं । पर चेवन द्रव्य में सारे प्रदेशों में एक वृत्ति की ही वत्त ना होती है । इसमें कारण केवल वस्तु का अपना धर्म ही है । वस्तु स्वरूप समझाने की कितनी सुन्दर सारणी है । पन्द्रहवें श्रीईश्वर स्वामी तीर्थकर के स्तवन में श्रीमान् ने भगवान को अनंत शक्तिमान बताते हुए जैनेतरों के मान्य सर्वशक्तिमत्व विशेषण को अमान्य किया है का भोक्ता हो भाष कारक ग्राहक हो जान चारित्रता । गुण पर्याय अनत, पाम्या तुमचा हो पूर्णता ॥ भगवान के अपने गुण और उनकी अवस्थाएं अनंत पूर्ण होती हैं । संसार के सब पदार्थों की शान्ति का उनमें अभाव होता है । सर्वशक्तिमत्ता के रहते संसार में दुःख संताप आदि बने रहते हैं तो दो बातें सिद्ध होती हैं।
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy