________________
१७ प्रगट करि जेणे अविरति पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कलुषता सवि विणाशी ॥ २ ॥ सू०॥ ...
अर्थः-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद जे रीते सिद्ध कर्यु ते साधना क्रम सहित बखाणे छे. ___प्रथम तो, जेना उद्य बडे भात्मा शुद्ध देवने भदेव, अदेवने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने अजीव, मजीवने जीव, मोक्षने प्रमोक्ष, अमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करें छे तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी
स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति __ तथा मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश
करी चिंतामणि रस्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्पदर्शन संप्राप्त कर्यु के जे इंद्रत्व, चक्रि - स्व, चिंतामणि तथा कल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि कप्पदुमस्स कोडीण।लाभो सुलहो दुलहो, दंसणोतीथ्यनाहस्स ॥" तथा जे विना नषपूर्व