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________________ २०५ नीरसीभूत कर्म पुदगलानामेक देश गलन निर्जरा ॥" शुद्धोपयोग भावनाना सामर्थ्य वडे नीरसीभूत कर्म पुद्गलोर्नु एकोदेश गलवु ते निर्ज रातेनो हेतु तप . " तपसा निर्जरा च” तथा __ सर्व परद्रव्यनी इच्छानो निरोध ते तप छे "इच्छा निरोध स्तप:” ते इच्छा निरोधरूप भावयुक्त तप __ प्रकारे छे. अणसण "मूणोअरिया, वित्ती संखेवणं रसच्चाउ। काय किलेसा सलीणया य बइझो तवो होई ॥ पायच्छित्तं विणउ, वेयावच्चं तहेव सझ्झाउ। झाणं उस्सग्गोविय अभिभतगडं तवो होई ॥” एम छे प्रकारे घाद्य तथा छे प्रकारे अभ्यतर तप छ ॥ ३॥ . . . जड चल जड चल कर्म जे देहने हो जी जाण्यु आतम तत्त्व ॥ बहिरातमता बहिरातमता में ग्रही हो जी, चतुरंगे एकत्त्व ।। नमिप्रभ०॥ ४ ॥ अर्थः-जड अर्थात् अचेतन तथा चल अर्थात् क्षणभंगूर पाणीना परपोटावत् अस्थिर जे शरीर
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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