SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___२११ थाय छे, पण हे भगवंत ! अापे वीर्यातरायनो समूल क्षय करी, अखूट, अनंत, अचल्न वीर्य संपूर्ण पणे पोताने स्वाधीन-प्रगट करी लीधुं छे; तेथी आ सर्व जगत्वासी जीवोमा उत्कृष्ट वीर्यवंत आपज छो, एहवा आपना द्रढ स्थिर अने सतेज वीर्य सामे मोहराजा द्रष्टि करवाने पण समर्थ थई शकतो नथी तो नजीक प्राचवानी शी वात ? माटे आपलीज वीरजता सर्वोपरी पद धरावे छे ॥ १ ॥ आगाहारी अशरीर, अक्षय अजय अति धीर आज हो अविनाशी अलेशी ध्रुव प्रभुता वाणीजी ॥२॥ अर्थः-शरीर ते अनंत पुद्गलोना समूह रूप अचेतन पदार्थ छे, अने जीव द्रव्य पोले एक तथा सचेतन पदार्थ छे. तेथी जीव द्रव्यथी शरीर तदन विलक्षण, वस्तुतः भिन्न पदार्थ छे. तथापि अनादि अविद्या बडे. भेद विज्ञान ना अभावे संसारी श्रात्मा भनेक प्रकारनां कर्म बांधी, ते कर्मना उदय बडे प्राप्त थएला शरीरलेज अात्मपणे जाणे छे सदहे छे, तेथी मनुष्यना शरीरमा रहेला जीवने मनुष्य तथा देवना शरीरमा रहेला जीवने देव
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy