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भांत जिनवर ॥, पण- श्रीमुखथी सांभली, मन पामे नीरांत जिनवर ॥ श्री० ॥४॥.. ___अर्थः हे त्रिलोक पूज्य ! दर्पण तलनी माफक
आपनी केवल-ज्ञान मय उस्कृष्ट ज्योतिमा सर्वे द्रव्यो पोताना त्रैकालिक संपूर्ण पर्यायो सहित प्रयास बिना यथावत् प्रतिधिषित थाय छे. तेथी सर्वे जीवोनी साधक वाधक भांति आप जाणो छो अर्थात् अमुक जीव प्रा समये सम्यक् ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप मोक्ष साधनमां वर्ते छे के रस्न प्रगना प्रत्यनीक पणे भव भ्रमणना हेतु कर्म बंधनमां वर्ते के ए सर्वे वृत्तांत हे करुणा निधि ! आप तो प्रत्यक्ष पणे जाणोछोज. पण जो आपना मुखारविंथी हुँ साधक भावमा वा छं एम सांभखें तो माहरु म्न निरांत पामे, भव भ्रमणना, भयनो क्लेश शमे दूर थाय. ॥ ४ ॥ तीन काल जाणंग भणी, शुं कहिये वारंवार ॥ जि० ॥ पूर्णानंदी प्रभुतj, ध्यान ते परम आधार ॥ जि०॥श्री ॥ ५।
अर्थः-त्रणे कालनी परिणतिने हेस्तामलकवत्