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________________ १०१ आवर्तने अधरे” “जह मूलंमि विणठे, दुमस्त परिवार नच्छि परिवुढी । तह जिण दसण भठा, मूल विणठा ण सिझति ॥” जेम मूल विनष्ट, वृक्ष शाखा परिशाखानी परिवृद्धि पामे नहि, तेम धर्मनुं मूल सम्यक्दर्शन नष्ट थतां मोक्ष प्राप्ति धाय नहि. “जिण पणत्त धम, सद्दहमाणस्त होइ रयणमिणं । सारं गुण रयणाणय, सोवाणं । पढम मोरकस्स ॥” गुण रत्नाकरमा सारभूत जे संभ्यदर्शन ते श्री जिन प्ररुपितधर्मनी श्रद्धा राखनारले होय छे अर्थात् नयनिक्षेप पक्ष प्रमाण युक्त, जिन प्रापित तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यक्दर्शन छ जे मोक्षनु प्रथम सोपान ( पगथी उं) छे. " संजम रहि लिंगं, दसण भठं न संजम भाणयं । आणा होणं धम्म, निरस्थय होइ - सव्वंपि ॥” • साधुनों लिंग-पेश, संजम विना शोभा पामे
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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