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२१६ क्षमा सरोवरमां निरंतर क्रीडा करता श्राप भगवंतनी पासे क्रोधाग्नि केम प्रावी शके ?
बली सर्प जेवी अविश्वास्य, जगत्मा फमाक्वाने अत्यंत बलवत्तर जाल समान जे गया परिणति, तेने आपे तीक्षण धारवाली प्रार्थव रूपी तरवार बडे छिन्न भिन्न करी नांखी छे.
पली जाति, लाभ, कुल, विद्या, अधिकार विगेरे आठ प्रकारना मदरूप अतिशय द्रढ पर्वतने प्रापश्रीए मार्दवरूप वज्रदंडवडे चूरेचूर करी माख्यो छे.
तथा परद्रव्यादिने ग्रहण संग्रह करवारूप मूर्खाजले भरेला अतिशय विस्तीर्ण लोभसमुद्रने श्राप निस्पृहरूप वहाणमां पारूढ थइ सहज लीला मात्रमा तरी संतोष भूमिमां विराजमान थया छो. __ एम आत्मगुणनो घात करनार तथा भवतरुना मूल रूप क्रोधादिक कषायांने आप भगवते समूल क्षय करी क्षमा, मार्दव, श्रायंव, निस्पृहता विगेरे अनुपम गुणालंकार बडे श्राप सर्वोत्तम शोभाय. प्रान छो, एवी आपनी निकषाय परम शांत मुद्रा अवलोकता जगदुवासी जी वो अस्यंत विस्मय थाय छे. ॥ ३ ॥