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________________ इच्चेतावात तिमि” एम अतनु भयोगी श्रास्म अंग प्रात्म भावमा स्थिर थाय स्यारे कोइ पण मात्म प्रदेश रंच मात्र पण सचल थाय नहि. अभंग अवगाहनाने प्राप्त थाय. ॥७॥ उत्पाद व्यय ध्रुव पणे, सहेजे परिणति थाय ॥ प्रभुजी- ॥ छेदन योजनता नहि, वस्तु स्वभाव समाय ॥ प्रभु० ॥ बा०॥८॥ अर्थ-स्वभाव भावे परिणमवामां अन्य द्रव्यनी सहाय जोइति नथी. जेम अग्नि सहजे दाहकभावे परिणमे छे तेम सर्वे द्रव्यो उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सदाकाल होवाथी सहजे पोताना स्वभाव पर्यायमां परिणमे. अन्य द्रव्यनी मदद जोइए नहि. उक्तंच दवियदि गच्छदि ताई, सब्भाव पज्जयइंजं; दवियं तं भणते अणणभूदं तु सत्तादो” वस्तुने सहजे परिणमवामां कंइ पण दूर करवानी तथा कंइ पण संयोग करपानी भावश्यकता नथी कारण के द्रव्य तथा पर्यायनो अभेद भाव छे. जेम अग्निने दाहक परिणाम षगरनी तथा अग्नि वगर दाहक परिणामने भापणे
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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