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________________ राजस्थान के बीकानेर इलाके में श्रोसवाल लूणिया गोत्र के साह तुलसीदासजी और उनको धर्मशीला धर्मपत्नी श्रीमती धन्नाबाई रहते थे । स० १७४६ मे उनके शुभ स्वप्न सुचित पुत्र रत्ल उत्पन्न हुआ । नाम देवचन्द्र रखा गया । उपाध्याय राज सागरजी के पुनीत उपदेश से १७५६ में मां बाप की आज्ञा से श्री देवचन्द्रजी दीक्षित हुए। श्रीजिनचन्द्रसूरिजी से बडी दीक्षा प्राप्त हुई । राजविमल नाम रखा पर लोकों में देवचन्द्र नाम ही अधिक प्रसिद्ध हुआ । बिलाडा में आपने सरस्वती मंत्र जाप से सिद्धि प्राप्त की । स्व पर शास्त्रों के विशद अभ्यास से जैन दर्शन के प्रौढ़ विद्वान हुए । स० १७६६ में ध्यानदीपिका और १७६७ में द्रव्य प्रकाश नाम के अद्भत ग्रंथों की रचना की। माईजी और अमाईजी नाम की सेठ विमनदास की पुत्रियों के प्रबोधार्थ श्रागमसार नामक प्रथ की रचना की। पाटण में पूर्णिमागच्छीय भावप्रभसूर के सदुपदेश से श्रीमाल वशीय तेजसी जेतसी ने सहस्रकूट जिन बिंब स्थापन किये । श्रीदेवचन्द्रजी ने सहरकूट जिन बिव परिचय पूछने पर सेठ ने अपनी अनभिज्ञता दिखाते हुए ज्ञानविमन सूरिजी से . प्रश्न किया उनने भी कहा कि शास्त्रों में तो इसका अता-पता नहीं है, तब श्रीमान ने सहस्रकूट का शास्त्रीय परिचय कराया। तब सुरिजी बहुत प्रसन्न हुए । दोनों में अद्भुत धर्म स्नेह का उद्भव हुआ । क्रियोद्धार किया । १७७८ में नारी सराय
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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