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परभाव | आतम धर्म रमण अनुभवतां, प्रगटे आतम भावरे स्वामी० ||८||
अर्थ - जे अज्ञान कषाय विषय आदि दूषणोथी भरपूर छे अर्थात् जे सर्वे द्रयना त्रिकालवर्त्ती पर्यायाने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष पणे जाणी शकता दधी, पोताना आत्म द्रव्यने पण सर्व नये प्रत्यक्ष पणे जाणता नथी तथा तेथी पोतानी आत्म विद्धि श्री परांगसुख होवाथी निरंतर जे विषय कषायने आधिन वर्त्ते छे. चाह दाहमां प्रज्वलीन भइ रह्या छे, भव समुद्रसां बूडेल के तेलां देवप केस मनाय पण जे अज्ञान यादि समरत अधर्म रूप दूषणोथी सर्वे नये मुक्त होवाथी परम निष्कलंक शुद्ध देव छे. से श्री सीमंधर स्वामीनुं शरण ग्रहण करतां पर द्रव्यनी ममता, ग्राहकता, रमपता यदि समस्त परभावनो परिहार-त्याग थाय ने ज्ञान दर्शन चारित्र, रूप शुद्धात्म भावमां रमण करतां - - सेमां तल्लीन थतां तृप्त थतां - संतुष्ट थतां तेनो स्वा दन अनुभव लेतां ज्ञानादि श्रात्म धर्म, कर्म लेपथी रहित शुद्ध प्रगट थाय ॥ ८ ॥
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