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अर्थ:-श्रास्मानो परमभाव जे ज्ञान, तदनुथायी दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, कर्तृता, भोक्तृता, प्राहकता, व्यापकता, रक्षणता, रमणता, प्राधाराधेयता विगेरे अनंत स्वधर्मों जे अनादिकालथी कर्ममलबडे लित थएला हता-बाधक भावे परिण - मता हता, ते शुक्लध्याननी तिक्ष्ण भ्रांच घडे फर्ममल भस्म थइ जवाथी संपूर्ण प्रगट यया अर्थात् निरायाध-स्वतंत्र पणे पातपोताना कार्यभाधे परिणमवा लाग्या एटले शुद्ध परिणति रूप अनुपम लक्ष्मीने वरया-तेना स्वामी दया. तेज परमात्म जिनेश्वर देव, क्रोध मान माया लोभ मादि मोन हीय कर्मनी अठावीश प्रकृतिथी रहित तथा सानादिक गुणना दरिया अर्थात् ज्ञानादि गुणना भखूट निधान छे.. एटले जेम दरियामांथी जल खूटे नहि तेम तेमनामांथी कोइ पण काले'ज्ञानादि गुणो-पर्यायो खुटवाना-क्षीण थवाना नथी, अनंतकाल सुधी एक सरखी रीते परिणम्यांज करशे ॥६॥
अवलंबन उपदेशक रीते, श्री सामंधर देव । भजीये शुद्ध निमित्त अनोपम, तजीये