SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ ॥ अथ श्री द्वादशम श्री चंद्रानन जिन स्तवनम् ॥ ॥ वीराचांदला ए देशी ॥ चंद्रानन जिन सांभलिये अरदासरे, मुज सेवक भणी. छे प्रभुनो विश्वासरे चंद्रानन जिन ॥ १॥ ___ अर्थ:-हे भगवंत ! आप पी तेमज अरूपी निकटवर्ती तेमज दूरवर्ती, सूक्ष्म तेमज स्थूल, सर्वे पदार्थोने तेना त्रैकालिक गुण पर्याय सहित एक समयमा हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जाणनार होवाथी सर्वज्ञ, तथा अनंत आनंदमा पोताना गुणपर्यायोमा निरंतर तल्लोन-स्थिर होवाथी अन्य कोइपण द्रव्य पर्यायमां आपनो राग द्वेषरूप परिणाम थतो नथी तेथी वीतराग छो, भने सर्वज्ञ तथा वीतराग होवाथी मापनी दिव्य वाणीमा प्रत्यक्ष परोक्षादि कोईपण प्रमाणवडे विसंवाद श्रावी शकतो नथी, कोईपण प्रकारना रंचमात्रपण दूषणने अवकाश मलतो नथी; माटे हे प्रभु ! श्रापज था भीषण भवससुद्रमांथी भव्य समूहने उद्धारवा समर्थ छो. पण आपथी विमुख बुध कपिलादि अन्य तीर्थीमो के जे तेभोनां पाचरण तथा वाणीवडे अज्ञान तथा
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy