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आलव परिहरिये, देवचंद्र पद, वरिये रे ॥ प्र० ॥
श्री० ॥ ८ ॥
अर्थ :- जिनेश्वरना अमृत समान वचन अनु सारे वत्त, तत्त्व रमणना ग्राहक थईए, द्रव्यास्त्रव तथा भावास्रवनो स्याग करीए तो देवमां चंद्रमा समान सिद्ध पद वरिये
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हे सुबाहु जिनेश्वर ! श्राप सर्वज्ञ श्रने वीतराग होवाथी साचा प्राप्त छो. आपनांज वचन श्राचार गति रूप अत्यंत भयंकर पारावार भव" समुद्रथी पार उतारी शिव स्थानके पहोंचाडवाने अद्वितीय नौका समान छे तथा दुष्ट ज्ञानावरणादि कर्म रोग वडे पडता दुर्बल आत्म बीथी ही थएलाने ले रोग दूर करी आत्म वीर्ये संपूर्ण पुष्ट करवाने अमृत समान छे. माटे जो आपना बचनने हमे अनुसरीये ते प्रमाणे वर्त्तीए ने शुद्धात्म तत्त्वनुं रमण करीए - तेमां लीन थईए तथा अभिनिवेशादि पांच मिथ्यात्व, हिंसादि पांच व्रत, तथा क्रोधा दिक कषाय, विकथादि प्रमाद तथा चौदारिक काय योग आदि योगनो परिहार करीए - राग द्वेषादि विभावनो त्याग करीए तो नवां कर्म आवतां बंध धाप भने पूर्व संचित कर्मनी निर्जरा धाय तेथी