SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवमां चंद्रमा समान, परमात्म पदनी प्राप्ति थाय अतींद्रिय अव्याषाध अनंत सुखनी प्राति थाय उक्तंच " पंचासब्व बिरत्ता, विषय विजुत्ता समाहि संपत्ता, राग दोष विमुत्ता, मुणिणो साहति परमच्छ” ॥८॥ . . " (संपूर्ण) ॥अथ पंचम श्री सुजात स्वामी जिन स्तवन । देहुं देहुं नणद हठीली ।। ए देशी ।। स्वामो.सुजात सुहाया, दीठा पाणंद उपाया रे, मन मोहना जिनराया। जिणे पूरण तत्त्वनिपाया, द्रव्यास्तिक नय ठहराया रे, मन मोहना जिनराया ॥ स्वामी० ॥१॥ पर्यायास्तिक नय राया, ते मूल स्वभाव समाया रे, मन मोहना जिनराया।ज्ञानादिक स्व परजाया, निज कार्य करण वरतायारे, मन मोहना जिनराया ॥ स्वामी० ॥२॥
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy