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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान-६०
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
Jobanaanारलोचनालनमानसांवलोरिकामतानक.
ममनोयनसिनामचर्यावसन
निगमिफालिमा मनावारसासंबंध जासंगजननमानेवांनोजवनावावरमारनशानामनिता माविमवसनननियनचालनयनाचामपानीकरमिलालमहानाबमनामश्वरचिनायटर परिप्रजासनिनादिमियपवनारापकरमानककवनपारयमकारामामामानिनामवानरनिङरत्रामादामप्रवाहानिनश्चयायापिकमावियनका किमकरायाभराप्यतानयमांकरश्वकाममदिनकररमकमानहिसकरकमल:शिविरकरसुमनामाचसाधककालस्वसन्निति निःपुरमा कायकर विमानन नानारामागविनरपोयानरमायधनमामार्गस्लममतारकासरितालिकमलविश्विानमानमयनारको सककलापकालापश्वमंदरmयासितःसतारतजनश्चमंदागस्वनसालमशिनावणकल्पकलयकत्सपलदरवसुमनासहरूलपरिचित प्रतिक्षिता कसयकस्वमीकाप्रामकमलाकलिन पानासाकस्नुसरानबहि:सदानयवाना ननिस्वनतिनकायमानमानमनमानसमानसम नमयलकाममाजकलाकबजनाकभिग्नालसमलसमलभागितामरसंगनमपिननामरसंगलेसकमलमम्पकमले गतानण्यममगलांतरायसमागमा माग परमाणपरमं कोलायविमणकाल मदरादिप्रय मनोकमायारसचननामवप्रयाताmamनिरिकतयावहिकलेरानंदरमनिरनियम अनिधिसनेमयमा निम्मरूपाणपकारावामिनस्निापनिःशनिश्कामस्यिोरामनिरनरूदेदेशावधिकयसपासमानापुर बनशामाजमनाकीनमनियमिनावजलकमनकळमालिकामकरंदविंदनितांमध्यकंग्रामेनिनवलकमाननयनराविरुणरामदमा चमार्दवायनककविकानकारीरकोरिसंटेकरितपराकामाकृतवतनश्रमामुलपानायोनितरिनुमनमानमसंकरमानितरलतरजगमनकानुनकर पागलादनाकरणरनाराजीनामानमारविकारामंदमागमदनदनामलबसन्मानणमानामांतसंबात्राकाराममनितंगिनी किरातनकालकर उपोषासानारनियमकालजयकराकागामाचशमाादनानारिन्दनरुविनीमयोलो नोचनेवालमारतावनेननवेनेननयानीमनालीलता सवानियतापानमाला यमवायम्मापराकमामाजमनाकासकामाप्मनारिकानावनानाम्यावानिवितामयागंझमंडलारिदेलायते। जानिमदिरापुरनासाभारम्यतरंगात्रिकाययपनाकादम्लाकाकनारंगपपरमंतीक्विपर्नतारिखमरिसप्रमादानंदनाविपरनामा
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' (उपाध्याय विनयविजयजीना हस्ताक्षर - पत्र ९
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
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Jain Education Interna
सचित्र विज्ञप्तिपत्रनो प्रारम्भिक चित्र-अंश (गुजराती जैन श्वे. मू. संघ, केनींग स्ट्रीट, कलकत्तानो ज्ञानभण्डार)
ww.jainelibrary.org
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
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po०-०-०PORS aoall
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी .
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१३
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अनुसन्धान ६०
आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क:
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
प्रति : ३००
मूल्य : Rs. 220-00
मुद्रक :
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
संशोधन एक यात्रा छे, शोधयात्रा अथवा ज्ञानयात्रा; व्यवसाय नहि; अने कशुक रळी लेवानो धंधो तो नहीं ज.
जैन परिभाषा प्रमाणे आपणी बुद्धि कर्मो वडे आवृत-ढंकायेली होय छे. ए आवरणरूप कर्मोनुं आघापाछा थर्बु तेने 'क्षयोपशम' एवं नाम अपाय छे. ए क्षयोपशम जेटलो के जेटली हदे थाय अर्थात् ए कर्मावरणो जेटले अंशे आघापाछां थाय ते ते अंशे आपणने ज्ञाननो अथवा प्रतिभानो उन्मेष लाधे, अने ते उन्मेषना प्रकाशमां आपणने, अन्यने न देखातुं के न देखायुं होय तेवू जोवाजाणवा मळे. आ प्रक्रियाने कारणे, परम्पराथी चाल्या आवता पाठ अथवा धारणा अथवा अर्थघटन इत्यादिमां अणकल्प्यो बदलाव आवी शके छे, अने रूढ मान्यता, स्वीकृत पाठ अने मान्य अर्थघटनो - बधुं खोटुं ठरी जतां तेने स्थाने नवी धारणा, पाठ, अर्थ प्रस्थापित थई शके छे; आ छे संशोधननी यात्रा. आमां कशाकने असत्य ठराववानी गणतरी नथी होती, परंतु सत्यनी गवेषणानो अथवा सम्भवित सत्यनी वधुमां वधु नजीक पहोंचवानो ज आशय होय छे.
___पण, आ यात्रा ज्यारे स्पर्धात्मक व्यवसाय- रूप ग्रही ले छे, त्यारे कार्यो तो घणां थवा लागे छे; सम्पादनो, प्रकाशनो अने प्रतिपादनोनी मोटी वणझार नीकळे छे; परंतु तेमां प्राप्ति अथवा उपलब्धि-तत्त्वनी अने तथ्यनी, बहु अल्प मात्रामा ज होय छे. आवो व्यवसाय नामना रळी आपे, धन वगेरे भौतिक बाबतो पण संपडावी आपे, मान-पान पण मेळवी आपे; पण तत्त्व-तथ्य सुधीनी आपणी, शोधकनी तेमज अभ्यासी जननी, पहोंच वधारी नहि शके; आपणी मतिने वधु परिमार्जित अने वधु संवर्धित न करी शके. ____ आजकाल, चोतरफ, ढगलाबंध थतां रूपाळां अने सोहामणां प्रकाशनोसम्पादनोना विश्वमा अलपझलप डोकियुं करवा जतां उपर लख्युं तेवू लाग्यु
अलबत्त, संख्या, फेलावो अने लोकप्रियता ए कांई खराब के तिरस्कारपात्र / उपेक्षापात्र वानां नथी ज. परंतु तात्त्विक संशोधन/प्रतिपादननी सीधी निसबत शोधक / प्रतिपादकनी सज्जता, शोधनिष्ठा अने सत्यप्राप्ति माटेनी मथामण साथे
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ज होय छे. आवो शोधक ज सार्वत्रिक अने सार्वदिक विश्वास प्राप्त करी शके छे. अने संशोधनना क्षेत्रमा रळी लेवा लायक वानां बे ज छे : सत्यनिष्ठा अने विश्वास. आ बे रळवानी फावट आवे तेना नामे पछी सेंकडो पुस्तको / ग्रन्थो न होय तो तेथी कांई फरक पडतो नथी.
एवं पण नथी समजवानुं के सुसज्ज के सक्षम गणाता शोधकनी पण बधी वातो सत्य ज होय. तेमणे सिद्ध करी आपेली वात पण, बीजा-विलक्षण बुद्धि प्रतिभा, दृष्टि के क्षयोपशम धरावता अभ्यासीनी दृष्टिए खोटी ठरी शके. परंतु तेवा शोधकोनी गलत वातने गलत पुरवार करवा माटे, विरोध, पूर्वग्रह अने मताग्रहथी भरेला मानसनी नहि, पण मौलिक उन्मेष धरावती स्वस्थ प्रज्ञानी आवश्यकता होय छे.
विरोध द्वारा घोंघाट के कोलाहल नीपजावी शकाय, पण ऊहापोह नहि. शोधनिष्ठा माटे अने शोधयात्राना सातत्यने माटे ऊहापोह आवश्यक जणस गणाय, कोलाहल नहि. अने छेल्ली वात : विरोध द्वारा कोईने, थोडा लोको समक्ष अने थोडाक वखत पूरता, खोटा पाडी शकाय छे, पण पोताने साचा के यथार्थ पुरवार करी शकाता नथी, आटलुं, शोधयात्राए नीकळनारा सज्जनोने समजाई जर्बु अति अगत्यनुं छे.
- शी.
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'अनुसन्धान' नो नवो पडाव :
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क
संस्कृत साहित्यना कवि-मनीषीओए अनेकानेक प्रकारनां साहित्यक्षेत्रो खेडेलां छे, जेमां गद्यात्मक अने पद्यात्मक असंख्य साहित्यविधाओनो समावेश थाय छे, अने जे विषे अगणित ग्रन्थो तथा सन्दर्भो लखाया छे तथा लखातां रहे छे.
आमांनो एक प्रकार छे पत्रसाहित्य. 'मेघदूत' जेवां काव्यात्मक पत्रो अथवा पत्र-काव्यो, मेघदूतनी समस्यापूर्तिरूपे रचायेलां दूतकाव्यो (चेतोदूत, चन्द्रदूत, हंसदूत, शीलदूत, मेघदूतसमस्यालेख, इन्दुदूत, मयूरदूत इत्यादि) काव्यजगत्मां अमर कृतिओरूप छे. मेघदूत अने तेनी पादपूर्तिरूपे रचायेलां एकाद बे दूतकाव्योने बाद करतां, जैनेतर विद्वानोए पत्रात्मक साहित्यक्षेत्रे वधु अने महत्त्व, खेडाण कर्यु होय तेम जणातुं नथी. आ क्षेत्रे झाझं खेडाण तो जैन कविओए ज कर्यु जणाय छे. एमां दूतकाव्यो उपरांत 'विज्ञप्तिपत्र'ना नामे ओळखातां अनेक पत्रकाव्यो प्रधान स्थाने छे. खरेखर तो "विज्ञप्तिपत्र' ए जैन कवि-साधुओ द्वारा ज उद्भव पामेलुं एक आगवू साहित्यक्षेत्र अथवा साहित्यप्रकार छे, जे जैनेतर कविओए क्यारे पण खेडेल नथी.
मेघदूत काव्य ए शुद्ध कविकल्पना छे, जे सहृदय भावकना चित्तने एक विलक्षण चमत्कृतिथी आन्दोलित करी मूके छे. ज्यारे तेनी अनुकृतिरूपे रचायेलां केटलांक काव्योमां ते प्रकारनी शुद्धप्राय कविकल्पना होवा छतां, पछीथी रचायेला तेवां काव्यो शुद्ध के शुद्धप्राय कविकल्पना न बनतां, कविकल्पनाथी भरेला अने छतां जीवंत लोकोना संवाद, वर्णन तथा नगरादिकनां ऐतिहासिक स्वरूपवर्णन वगेरेने समावनारां होईने पत्र-काव्योनं के काव्यात्मक पत्रोनुं रूप धारण करतां होय छे. आवा पत्रोमां 'विज्ञप्ति' ए पर्यवसान होय अथवा सघळो भार अने भाव छेवटे विज्ञप्ति-पर्यवसायी होय, तेथी आवां काव्योने 'विज्ञप्तिपत्र' एवा नामे ओळखवामां आव्यां छे.
__आवां पत्रो सम्भवतः १२मा-१३मा सैकामां पण लखातां होय, तेम ते समयना प्राप्त, त्रुटक के अधूरा, एक-बे पत्रो (ताडपत्र पर लखेला) जोतां
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लागे छे. उपलब्ध पत्रोमां सर्वश्रेष्ठ अने वळी सर्वप्रथम कहेवाय तेवो पत्र 'त्रिदशतरङ्गिणी' छे. आ. मुनिसुन्दरसूरिए पोताना गुरुने लखेल १०८ हाथ जेटला प्रलम्ब आ विज्ञप्तिपत्रना बे अंशो उपलब्ध तथा प्रकाशित छे; एक अंश अद्यावधि अलभ्य - अप्रकट छे. आ काव्यात्मक पत्रमां कवि - लेखकनी काव्यप्रतिभा तेना सर्वोच्च शिखरे आरूढ जोवा मळे छे.
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आवो ज बीजो पत्र छे
विज्ञप्तित्रिवेणी. १५मा सैकामां वाचक जयसागर द्वारा लखायेल, सहस्राधिक श्लोक - प्रमाण अने ३ वेणिमां विभक्त आ पत्र पण पत्र - साहित्यक्षेत्रनुं एक अनुपम घरेणुं छे. आ स्वतन्त्र पुस्तकरूपे प्रकाशित छे. आ उपरांत, बीजां पण अनेक विज्ञप्तिपत्रात्मक खण्डकाव्यो के लघुकाव्यो उपलब्ध छे, जेनुं संकलन - सम्पादन मुनि जिनविजयजी द्वारा 'विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रह' नामक ग्रन्थमां थयुं छे. आ बन्ने पुस्तकोनी प्रस्तावनाना लेखोमां विज्ञप्तिपत्र, तेनुं स्वरूप, तेनी विशेषताओ, तेनो विषय, तेमांनुं काव्यतत्त्व इत्यादि विषे घणीबधी ज्ञानवर्धक जाणकारीनुं आलेखन थयुं छे. डॉ. हीरानन्द शास्त्रीए तैयार करेल एक ग्रन्थ 'एन्श्यन्ट विज्ञप्तिपत्रास' मां पण, अंग्रेजी भाषामा विज्ञप्तिपत्र विषे विशद वातो आलेखाई छे, अने तेमां केटलांक सचित्र पत्रोनां चित्रोनी रंगीन तेमज श्वेत-श्याम (B / W.) छबीओ पण आपवामां आवी छे. आ सिवाय पण, जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास (ही. र. कापडिया) जेवा सन्दर्भग्रन्थोमां पण विज्ञप्तिपत्रो विषे माहिती नोंधाई छे.
आम, अनेक विज्ञप्तिपत्रोनुं प्रकाशन थयुं छे. कोई कोई पत्रो विविध सामयिकोमां पण प्रकाशित थया होय ज. 'अनुसन्धान' ना अंकोमां पण नवेक नाना-मोटा पत्रो प्रगट थया छे. अने छतां, अनेक ज्ञानभण्डारोमां अने पुस्तकसंग्रहोमां हजी पण बहोळी संख्यामां, नाना-मोटा तेमज संस्कृत तेमज गुजराती भाषामय, पत्रो उपलब्ध थाय छे, जे हजी प्रकाशित थया नथी. आवा पत्रो मेळवीने तेनुं प्रकाशन करवुं, अने ते माटे 'अनुसन्धान' नो विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क एकथी वधु थाय तेटला - खण्डोमां प्रगट करवो, एवो संकल्प गत वर्षे चित्तमां जागेलो, जे खास्सा विलम्ब पछी हवे साकार बने छे तेनो आनन्द छे.
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आ प्रथम खण्डमां सत्तर संस्कृत पत्रो आपवामां आवेल छे, ते पत्रोनो सारभूत संक्षिप्त परिचय आ प्रमाणे छे :
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(पत्र १) आ अंकमां मुद्रित पत्रो पैकी प्रथम पत्र अवरङ्गाबादमां (औरंगाबाद, महाराष्ट्र) बिराजमान तपगच्छपति श्रीविजयदेवसूरि उपर, सरोतरा नगरे रहेला तेमना पट्टशिष्य श्रीविजयसिंहसूरि द्वारा लखवामां आवेल पत्र छे. ३११ श्लोकोमा पथरायेल आ पत्र एक लघुकाव्यसमान छे, अने तेनी काव्य-प्रौढि तेमज अलङ्कारमण्डित सशक्त रचनापद्धति, रचनाकार प्रत्ये अहोभाव उपजावे तेवी छे. पत्रमा अनेक बन्धचित्र-काव्यो छे, जे स्वाभाविकपणे ज क्लिष्ट पद्यरूप होवा छतां कविनी प्रतिभाना सामर्थ्यनां परिचायक छे.
आ पत्र क्यांना भण्डारनो छे, तेनुं स्वरूप शुं छे, ते कशी विगत अत्रे आपवानुं शक्य नथी. केमके आ आखो पत्र विद्वन्मूर्धन्य अने कविवर एवा मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीए, वर्षो अगाउ, पोतानी नोंधपोथीमां ऊतारी-लखी राखेल छे, तेना उपरथी अत्रे तेनुं शक्य सम्पादन करीने मूकेल छे. आ पुनर्लेखननुं काम मुनि श्रीकल्याणकीर्तिविजयजीए कयुं छे.
पत्रनो प्रारम्भ जिनस्मरणथी (१-३) थयो छे. ४ थी ७० पद्योमां वर्धमान जिननी स्तुति थई छे. ७१-१२६ मां औरङ्गाबाद- नगर-वर्णन छे. १२७-३१ सरोतरा गामनुं वर्णन थयुं छे. १३२-३४मां पत्र पाठवनारनुं वर्णन तथा नामनिर्देश छे. "विजयसिंहशिशुः" ए पद (१३४) विजयसिंह नामक शिशु- एवो अर्थ धरावे छे; विजयसिंहनो शिशु (शिष्य) एवो नहि. १३५५०मां सरोतरा-स्थाने थयेल पर्युषणपर्वसहितनां धर्मकार्योनुं वर्णन छे, तेमां १२ दिनना अमारिप्रवर्तननो पण स्पष्ट उल्लेख (१४६) जोवा मळे छे. १५१-२७४
आटलां पद्योमा गुरुराज श्रीविजयदेवसूरिनुं अद्भुत वर्णन छे. चरणवन्दना (२७५), पत्रोत्तर माटेनी विज्ञप्ति (२७६-७७), गुरुवर्यनी निश्रामां वर्तता मुनिवरोने तथा साध्वीओने तेमनां नाम-वर्णन साथे अनुवन्दना-निवेदना (२७८९६), तथा पोतानी साथेना साधुओनां नामो तेमज डाभेला, प्रह्लादनपुर, गोला, राजपुर, दन्ता (दांता) आदि समीपनां गामो-क्षेत्रोमां वर्तता मुनिवरोनां नामोतेमनी वन्दनाना निवेदनपूर्वक (२९७-३०६) छे. ३०७मां पद्यमां संघनी गुरुवन्दनानुं निवेदन छे. ३०८-१० मा लेख(पत्र)रूपी राजहंसनुं वर्णन करवा साथे तेनो जन्म (रचना) वि.सं. १६९९ ना दीपालिकापर्वे थयानो निर्देश छे. अन्तिम
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३११मा पद्यमां उदयविजयतुं नाम जोवा मळे छे. श्लोकगत पदो जोतां एम जणाय छे के आ पत्नी रचनामां तेमनो सिंहफाळो हशे अथवा तो आ पत्र तेमणे लख्यो हशे.
प्रान्त पुष्पिकामां आ पत्रने 'लेखराजहंस' एवा नामे वर्णव्यो होई अहीं शीर्षकमां ते ज नाम स्वीकार्यु छे.
पत्रमा ४२ थी ६९ पद्यो तेमज १५५ थी २७३ पद्यो तो बन्धकाव्यो छे, जे विकट काव्यप्रतिभा होय तो ज रची शकाय. ए रीते आ पत्र खूब समृद्ध गणाय. आ बन्धचित्रो पण बनावडावी मूकवानो उत्साह हतो. परन्तु ते हवे भविष्यमां क्यारेक.
(पत्र २) आ पत्रनुं नाम 'चित्रकोशकाव्य' छे. गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर उपाध्याय श्रीमेघविजय गणिए लखेल आ विज्ञप्तिपत्रनी एक जूनी जर्जरितप्राय प्रतिलिपि (नकल) श्रीविनयसागरमहोदय तरफथी मुनिश्रीसुयश-सुजसचन्द्रविजयजीने प्राप्त थई हती. ते बे मुनिओए ते नकल अमने प्रस्तुत अंक माटे आपी, तेना आधारे ते अत्रे आपवामां आवेल छे. अशुद्धता होवानो पूरो सम्भव छे. पण मूळ पत्र न मळे त्यां सुधी पूरतुं शुद्धीकरण अशक्य ज छे.
पत्रमा क्यांय "चित्रकोश' शब्दनो निर्देश नथी, छतां तेवू नाम, सम्भवतः विनयसागरजीए, आप्युं होय, ते पाछळनो आशय एवो लागे छे के आ २३७ पद्यप्रमाण, विद्वत्तासभर पत्रकाव्यमां पण अनेक पद्यो चित्रकाव्यो छे, तेथी ज तेने आवी ओळख आपी होवी जोईए.
प्रथम २२ पद्योमां जिनस्तवना छे, तेमां २१ पद्य चित्रकाव्यो छे. तेमांये प्रथम पद्य तो महायमकालङ्कारकाव्यरूप तेमज सटीक छे. आ टीका पत्रलेखके ज रची होवानुं मानी शकाय.
ए पछीना ४ पद्यो गुरुवर्णनना होवानुं लख्युं छे. वास्तवमां आ ४ पद्यो, पछीथी आवनारा परमगुरुवर्णनाधिकारमा होवा घटे. परन्तु प्रतिलिपिकारे आ स्थळे मूक्यां छे, तेथी ते जेमनां तेम राख्यां छे. मूळ पत्र जडी आवे तो ज आ बाबत स्पष्ट थाय. द्वितीय अधिकारमा अनेक चित्रकाव्यो साथेनां ४७ पद्योमां सादडी नगरनुं वर्णन थयुं छे. पत्रलेखक सादडीमां स्थित होवार्नु
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समजाय छे. ४०थी ४७ पद्योमां त्यां थयेला धर्मकार्योनुं पण निरूपण छे. ते पछीनां ९ चित्र-पद्योमा विजयप्रभसूरि-गुरुर्नु मनभावन वर्णन छे. अने त्यार पछीनां ३१ पद्यो, गुरुनी स्थिरता छे ते 'मेदिनीपुर' नगरनां वर्णननां छे. हरिणी छन्दमां चालेलं आ नगरवर्णन कविनी प्रतिभाना श्रेष्ठ उन्मेषनां दर्शन करावी जाय छे.
आ पत्रना अधिकारो घणा गुंचवाडा सर्जे तेवा लाग्या छे. एम पण बने के आ एक पत्रमा बे पत्रोनी भेळसेळ थई गई होय ! चोक्कस साधनना अभावमा स्पष्ट भेद न पडी शकतो होई वाचना अने अधिकारो जेमना तेम रहेवा दीधा छे.
फरीथी, हवे, नगरवर्णन शरु थाय छे. ३२ पद्योना ते वर्णनमां शिवपुरी, अयोध्या तथा उज्जयिनी एम ३ नगरनां नाम छे. एम लागे के मेदिनीपुर, ज वर्णन कवि करतां होय अने तेने आ ३ नगरो साथे सरखावतां होय ! अथवा तो आ वर्णन 'अयोध्या'नुं पण होई शके. ३२ मा पद्यमां अयोध्या- विशेषण "या राममन्दिरमनोहरपार्श्वमध्या'' ए ऐतिहासिक दृष्टिए बहु महत्त्व- जणाय छे. तो पद्य ५-६मां ढुण्ढकमतीओना पराभवनो उल्लेख पण नोंधपात्र छे.
पछीनां ४ पद्योमा मेघविजय द्वारा विज्ञप्ति-रचनानी वात छे. ते पछीनां १६+२१ पद्योमां वळी नगरवर्णना छे. तेमांनां १३-१४ पद्योमां 'रामपुर' एवं नाम जोवामां आवे छे, जे कदाच अयोध्या माटे होय. २२ थी ३८ पद्योमा ते पुरमा थयेल सत्कार्योनुं वर्णन छे, जेमां पर्युषण, अमारिप्रवर्तनादि वातो छे, ते पछी छेल्लां ३६ पद्योमां गुरुराज-वर्णन छे. छेल्ला, त्रुटक पद्यमां गुरुने वन्दनानुं निवेदन थयुं छे. सौथी नीचे ते पत्रना मूळ स्थान आदि विषे संकेत तेनां प्रतिलिपिकारे आपी दीधो छे.
__ जे हो ते, परंतु आ पत्र द्वारा कविनी कविप्रतिभा सुपेरे जळहळती अनुभवी शकाय छे, ते निःशङ्क छे.
(पत्र ३) आ पत्र सम्भवतः एक स्वतन्त्र विज्ञप्तिपत्रना अंश रूप लागे छे. उपाध्याय मेघविजयजीए लखेल होवानुं जणातो आ पत्रांश, चित्रकोश-पत्रकाव्यना ज एक भागरूपे, श्रीविनयसागरमहोदये लख्यो होय तेम जणायुं छे. तेनी प्राप्ति
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पण, तेथी, चित्रकोशकाव्य साथे ज थई छे. अहीं तेना बे अंशो छे, तेमां प्रथम २८ पद्यात्मक अंशमां पत्रलेखक ज्यां हशे ते नगरमां थयेल धर्मकार्योनुं वर्णन छे. तेमां प्रभातनुं वर्णन ध्यानाकर्षक छे. बीजो अंश त्रुटित, २१ पद्यो जेटलोज छे, तेमां गुरुवर्णन थयुं छे. तेमां छेल्ला आपेला टिप्पणमांनां बे. पद्योमा कविए स्वरचित 'पार्श्वनाथस्तव'नो हवालो आपी, चन्द्रनी तथा रात्रिनी उपमाओ ते स्तव थकी जाणी लेवानुं सूचव्युं छे, जे कविनी अलङ्कारप्रियता दर्शावी जाय छे.
(पत्र ४) ___ आ पत्र सूर्यपुर (-सूरत) बिराजमान भट्टारक श्रीविजयसेनसूरिजी म. पर वैजलपुर (-प्रायः अमदावाद-वेजलपुर)थी विद्याविजयजीओ पाठव्यो छे. पत्रमा श्रीविजयसेनसूरिजी म.नो नामोल्लेख नथी. सूरीश, तात जेवा सामान्य शब्दोथी ज व्यक्तिनिर्देश थयो छे. परन्तु पत्रगत ५५मा श्लोकमां म्लेच्छ राजाओने प्रतिबोध करवानो निर्देश, सूरीश्वरना सहवर्ती साधुओमां उपा. नन्दिविजयजीनो उल्लेख, पत्रना पाछळना भागमां लखेलां स्तोत्रोमां विजयसेनसूरिजीनी कृपाना उल्लेखो व. ने आधारे पत्र श्रीविजयसेनसूरिजी म. पर लखायो छे तेवू अनुमान कर्यु छे. पत्र कया वर्षमां लखायो छे ते पण साक्षात् उल्लिखित न होवाथी अनुमान ज करवानुं रहे छे. नन्दिविजयजी सं. १६५६मां उपाध्याय बन्या छे अने विजयसेनसूरिजी सं. १६७२मां काळधर्म पाम्या छे. तेथी ते वच्चेना कोई वर्षमां आ पत्र लखायो हशे.
पत्र ते युगना जैन साधुसमाजमा प्रवर्तती विद्वत्तानी झांखी करावे तेवो छे. शार्दूलविक्रीडित छन्दमा ८० श्लोकोमां आ पत्र रचायों छे. एक ज छन्दनुं आटलुं निर्वहता कर्ता- असाधारण कौशल दर्शावे छे. पत्रना प्रारम्भे करवामां आवेली कलिकुण्ड पार्श्वनाथनी स्तुति वेजलपुरमां तेमना जिनालयनी सूचक लागे छे. वीरधवल राजानी पट्टराणीओ वैजलदेवी अने जैतलदेवीओ अनुक्रमे वैजलपुर अने जैतलपुर वसाव्या होवानो उल्लेख दर्भावती (-डभोई)नी दुर्ग प्रशस्तिमां छे तेवी ऐतिहासिक हकीकत पत्रमा ३६मा श्लोकनी टिप्पणमां नोंधाई छे. आ नगरो अत्यारना वेजलपुर (अमदावाद) अने जेतलपुर (बारेजा पासे) होई शके.
पत्र कागळना लांबा वींटा (a scroll) पर सुंदर अक्षरोमां लखायो छे. पत्रना पाछळना लगभग अडधा भागमां गरबडिया अक्षरोमां ७ स्तोत्रो
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उपा. अमरचन्द्र
लखायेलां छे. आ स्तोत्रोना हांसियामां एक स्थळे 'जीर्णलेखः' अवी नोंध छे. पत्रमा ५-६ जग्याओ टिप्पण पण आपवामां आवी छे. आ पत्र तेमज पत्र क्रमांक ५, ६, १०, ११, १२, १४ १५, १६ अने १७ना Scroll मुनिराज श्रीधुरन्धर विजयजी म. पासेथी अमने मळ्या छे. आ बदल तेओनो जेटलो आभार मानी तेटलो ओछो छे.
__ (पत्र ५-६-७) __ आ त्रणे पत्रो भट्टारक श्रीविजयदेवसूरिजीने उद्देशीने लखाया छे. पत्रोनी तालिका - पत्र पत्र लखनार
क्यां लखायो ? देवसूरिजी क्यां
बिराजमान हता? ५ पं. लावण्यविजय योधपुर(-जोधपुर) राजनगर
(-अमदावाद) भुज
सिंहरोधिका
(-शिरोही (?)) ७ उपा. धनविजय राजपुर
सूर्यपुर (-सुरत) आमां प्रथम बे पत्रोमा भट्टारक श्रीविजयसिंहसूरिजी- पण नाम छे. आ बंने पत्रो कया वर्षमां लखाया ते जणाव्युं नथी. पण सं. १६८५मां बन्ने आचार्यो सिरोहीमां चातुर्मास हता तेवी जैन परम्परानो इतिहास भाग-३मां नोंध छे. तेथी ते वर्षमां बीजो पत्र (पत्र-६) लखायो होय तेम बने. उपा. धनविजयजीओ सूरत मोकलेलो त्रीजो पत्र सं. १७०४मां का.व.५मे लखायो छे. आ वर्षमां देवसूरिजी म. ईडर चोमासुं रह्या हता तेवो उल्लेख जै.प.इ.-भाग ३मां छे. तेथी आ विगत वधु चकासणीलायक जणाय छे.
त्रणे पत्रो काव्यकला, कल्पनावैभव, शब्दवैविध्य व.ने लीधे आस्वादनीय बन्या छे. भट्टारक विजयदेवसूरिजी केवा गुणवन्त अने आदरपात्र हशे ते आ पत्रोमां तेमनी स्तुति जोतां बराबर समजाय छे. एक स्तुतिपद्य नमूना खातर
निरीक्षितेऽस्मिन् गणनातिरेक-प्रोद्भूतसद्भूतगुणाम्बुराशौ । सदोदयान् दृष्टिपथं प्रपन्नान्, मन्यामहे सम्प्रति पूर्वसूरीन् ॥
___- पत्र ५, श्लोक ६५
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श्री देवसूरिजीनां संसारी माता 'रूपाई' ओ पण दीक्षा लीधी हती तेवी औतिहासिक विगत पत्र-६ श्लोक १०६मां नोंधाई छे.
(पत्र ८) १०१ श्लोकोमा विस्तरेलो आ विज्ञप्तिपत्र पण गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर उपाध्याय श्रीमेघविजयजीनी काव्यमय विज्ञप्तिरूप छे. आ अंकगत तेमना त्रण विज्ञप्तिकाव्यो उपरांत, 'विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रह'मां मुद्रित तेमना, 'मेघदूतसमस्यालेख' तथा अन्य एक विज्ञप्तिपत्र-एम २ पत्रो, अनुसन्धानना ३३मा अंकमां प्रकाशित पत्र 'सेवालेख' - अम तमाम प्रगट पत्रोनी संख्या ७ जेटली थाय छे. एवो वहेम पडे छे के आ कवि-साधु निरन्तर काव्यविहार अने नूतन ग्रन्थनिर्माणमां ज मशगूल रहेतां हशे !
पत्रना प्रथम २२ पद्योमां श्रीऋषभदेवनी स्तुति छे. विविध भावभङ्गीओ वडे एकज जिननी आ स्तवना असामान्य प्रतिभा सिवाय असम्भवित छे. पछीनां २३ थी ४७ काव्योमा गच्छपति ज्यां बिराजे छे ते 'वगडी' नगरनुं वर्णन छे. नगरोनुं वर्णन ए विज्ञप्तिपत्रोनो एक आगवो विशेष छे. उपलब्ध पत्रोमां आवतां नगरवर्णनोनो विशद अभ्यास थाय तो कोईने Ph.D. नी पदवी मळी शके तेटला ते वर्णनो समृद्ध छे.
आ पछी, प्रतिलिपिकारे मूकेला शीर्षकने यथार्थ मानीए तो, नडुलाई शहेरमां वर्तता उपाध्याय मेघविजयजी प्रासङ्गिक नगरवर्णन (नाम नथी) पूर्वक विज्ञप्ति करतां धर्मकृत्योर्नु बयान आपे छे. ४८ थी ७९ पद्योमां ते पूर्ण थाय छे. त्यां 'इति समाचाराः' कहीने वात आटोपी छे. छेल्ले २२ पद्योमा पुनः गुरुनुं वर्णन-स्तवन थयुं छे. त्यां पत्र समाप्त थाय छे. नीचे लिपिकारे करेली नोंध मुजब आ मूळ पत्र जोधपुरना प्राच्य शोधसंस्थानमा छे, अने कर्ताए स्वहस्ते लखेल होवानुं अनुमानवामां आव्युं छे.
आ पत्र पण पत्र २-३ नी माफक ज मुनि सुयश-सुजसचन्द्र विजयजी तरफथी प्राप्त थयेल छे.
. (पत्र ९) आ पत्र द्वीप-दीवमा रहेला गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर उपाध्याय विनयविजय गणिए रामपुरथी लख्यो छे. मागशर वदि ८ भृगुवारे लखायेल
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पत्रमा क्यांय वर्षनो उल्लेख नथी. आ पत्र पाटणना हेमचन्द्राचार्यज्ञानभण्डारमां डा. १९७ क्र. ८००९ मां छे. सम्भवत: कर्ताना स्वहस्ताक्षरनो ते पत्र छे. ३ पत्रोना पत्रनी झेरोक्स नकल, वर्षो अगाउ, पाटणथी ज मेळवेली, तेनो आमां उपयोग कर्यो छे. ते पत्रनी नकल आपवा माटे भण्डारना कार्यवाहकोनो आभार मा छु.
पत्र काव्यात्मक गद्य-पद्यमां छे. गद्यांश कादम्बरी अने तिलकमञ्जरीनी स्मृति करावे छे. अदूषित विदग्धता केवी होय ते आ पत्र वांचवाथी समजाय तेम छे. विनयविजयजी, विपुल साहित्य अने तेमनी विद्वत्ता जाणीतां छे ज, पण आ पत्रमा तेमनी जे कविप्रतिभा प्रगटे छे, ते तो अद्भुत छे.
प्रारम्भमां प्रथमाथी सप्तमी विभक्तिना 'यद्' शब्दनां एकवचनमां रूपो थकी महावीरस्तुति करी छे, अने पछी ते ज रीते सात विभक्तिओथी ७ पद्यो आलेख्यां छे; ते केवां मनोहारि छे ! ते पछी प्रथम गद्यखण्डो वडे ७ विभक्तिमां अने पछी ८ पद्यो वडे सात विभक्तिमां ज द्वीपबन्दरनुं सोहामणुं वर्णन थयु छे. ते पछी रामनगरना संक्षिप्त वर्णनपूर्वक लेखक धर्मकार्योनो वृत्तान्त रजू करे छे २ गद्यखण्डोमां. तेमां 'सुबोधिका'ना वांचननो उल्लेख ध्यानार्ह छे. _ पछीना गद्यखण्डोमां ७ विभक्तिमां गुरुवर्णन छे, अने पछी पद्योमां पण ते ज वर्णन छे. पद्य १४-१५मां पत्रोत्तरनी विनति, गुरुनिश्रामा रहेला साधुओनुं नामस्मरण, तेमज पोतानी निश्राए वर्तता मुनिओना नामोल्लेख साथे पत्र समाप्त थयो छे. एक अनुपम रचना !
_ (पत्र १०) उपलब्ध पत्रसाहित्यमां सौथी वधु पत्रो आ. श्रीविजयप्रभसूरिजी पर लखेला मळे छे. हवेना आ आठे पत्रो भट्टारक श्रीविजयप्रभसूरिजीने उद्देशीने ज लखायेला छे. पत्रोनी तालिका - पत्र पत्र लखनार क्याथी लखायो ? - प्रभसूरिजी क्यां
बिराजमान ? १० उदयविजयजी सिद्धपुर
जीर्णदुर्ग (-जूनागढ) ११ पं. नयविजयजी भवाल
देवकपत्तन
क्र.
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१२ पं. कमलविजयजी पत्तन (-पाटण) जीर्णदुर्ग १३ लालविजयजी नीतिपद्र (-?) पुरबन्दिर (-पोरबन्दर) १४ पं. लालकुशल प्रह्लादनपुर (-पालनपुर) दीव १५ पं. हीरविमल साहिज्यपुर (-?). देवकपत्तन १६ पं. कल्याणसागर रामदुर्ग
पुरबन्दिर १७ पं. आगमसुन्दर* मालेपुर
जीर्णदुर्ग आ पत्रो कोई विशेष अतिहासिक विगत धरावता नथी. अलबत्त पत्रोमां सहवर्ती साधुओनां नाम, प्रणाम, अनुप्रणाम, नगरनां नाम व. पर विचार करीओ तो तिहासिक विगतो सांपडे खरी. जेमके पत्रक्रमांक ९ के जे उपा. विनयविजयजी द्वारा लखायो छे तेमां श्रीविजयप्रभसूरिजीना सहवर्ती वाचक विनीतविजयजीने अनुनति जणाववामां आवी छे. बीजी तरफ पं. नयविजयजी (पत्र-११) विनीतविजयजीने प्रणाम जणावे छे जे सूचवे छे के उपा. विनयविजयजी पं. विनीतविजयजीथी ज्येष्ठ हशे. आवी अनेक विगतो आ पत्रोमांथी मळी शके, पण ते माटे अन्य सामग्री विपुल प्रमाणमा जोईओ.
तिहासिक विगतोनी अल्पताने नजरअंदाज करीओ तो काव्यतत्त्व अने गुरुभक्तिनी रीते आ पत्रसाहित्य अजोड छे. जगतनी कोई अन्य गुरुशिष्य परम्परामां आवा पत्रो आटला विपुल प्रमाणमां लखाया होवानुं जाणमां नथी. पत्र लखनार व्यक्ति चाहे मुनि होय के चाहे पण्डित अथवा उपाध्याय होय - पत्र लखती वखते तेने हैयुं गुरुबहुमानमां वहावी दीधुं होय तेवी प्रतीति आ पत्रो वांचती वखते थया सिवाय रहेती नथी. पत्र लखनारे पत्र लखवा खातर नथी लख्यो, पण लखती वेळा पोतानी तमाम विद्वत्ता अने प्रतिभाने भक्तिना वाहन तरीके कामे लगाडी छे. परिणामे आ पत्रोना घणाखरा श्लोको काव्यकला के कल्पनावैभवनी दृष्टिले उत्कृष्ट कोटिना बन्या छे. जुओ -
लक्ष्मालयो मङ्गलपङ्क्तिहेतुः, स्वकीयरूपाल्पितमीनकेतुः । संसारवारांनिधिसान्द्रसेतुः, शिवाय भूयाच्चतुरङ्गकेतुः ॥ श्लोक ८, पत्र १६
पत्रना बहारना भागे पं. पुण्यसुन्दरनुं नाम छे, जेमनो पत्रमा लेखकना सहवर्ती तरीके उल्लेख छे.
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मुहुः कुहूभस्मनि कश्मलत्वं, हर्तुं विधिर्धर्षति शर्वरीशम् । तथापि ते वक्त्ररुचिर्न तस्य, स्वाभाविकात् कृत्रिममन्यदेव ॥
पत्र-१५ श्लोक-९३ अयत्नवालव्यजनीभवन्ति, चलत्पताका जिनसौधमूर्ध्नि । रवेरपीन्दोर्गगनभ्रमोत्थ-खेदापनोदाय कृतोद्यमेव ॥ पत्र-१३, श्लोक-२३
पत्र १०-श्लोक ३९-४२मां उदयविजयजीओ श्लेष द्वारा चाडीचुगली करनाराओ प्रत्ये व्यक्त करेली नाराजगी, पत्र-११मां विबुध नयविजयजीओ प्रयोजेली कादम्बरी, स्मरण करावती समासप्रचुर शैलीथी शोभता गद्यखण्डो, पत्र-१२मां विरोधाभास जेवा अलङ्कारोथी मण्डित गद्यांशो, पत्र-१७मां श्रीचन्द्रप्रभस्वामीनी चन्द्रना लाञ्छन अंगे विविध कल्पना द्वारा करेली स्तुति - आ बधानी रमणीयता अनुभवैकगम्य छे. साहित्यरसिक सहदय जीवोने आ पत्रोमांथी अनुपम खजानो मळशे ते निःशङ्क छे. 'वदन्तां, पतन्ताम्' (विबुध नयविजयजीना पत्रमा) जेवा विलक्षण प्रयोगो पण आ पत्रोमांथी सांपडे छे.
आ पत्रोमां उल्लिखित व्यक्तिविशेषोनो परिचय आपी शकायो नथी, मुख्यत्वे बे कारणे - १. आमानां घणां नाम आ सिवाय अन्यत्र नोंधायां नथी. २. ते युगमां समान नाम धरावता मुनिओ घणा हता. अटले नाम साथे उपलब्ध विगृत व्यक्ति साथे जोडवी के नहि ते मूंझवण रहे. जेमके आ पत्रोमां प्रभसूरि महाराज साथे पं. यशोविजयजी, नाम वांची आपणे प्रसिद्ध उपा. यशोविजयजीनी ज पूर्वावस्था कल्पी लईओ, पण आ पं. यशोविजय ओ महोपाध्यायथी जुदा ज छे, ते पं. नयविजयजीना पत्रमा बे यशोविजयनो उल्लेख जोइने खबर पडे. शिलालेखो, प्रतिमालेखो, ग्रन्थप्रशस्तिओ, लेखनपुष्पिकाओ, विज्ञप्तिपत्रो अने अन्य जैतिहासिक उल्लेखोने आधारे व्यवस्थित पट्टावलीओ घडवानी केटली ताकीदे जरूर छे ते आवां कार्योमां अनी ऊणप साले त्यारे ज समजाय छे.
विज्ञप्तिपत्रोनो विशेषाङ्क करवानुं नक्की कर्यु त्यारे पचासेक पत्रो अने तेनो बे विभागमा समावेश-आवी धारणा हती. परन्तु ते समय जतां सामग्री सांपडती गई ते, तथा पत्रोनी विशालता जोतां काम जरा मोटु तथा अटपटुं थतुं गयु. ते ज कारणे अंक तैयार थवा, पण विलंबातुं गयु. बधा पत्रोनी प्रतिलिपि करवानुं काम पण साव सहेलुं तो नहोतुं ज.
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आ पत्रो, आ विशेषाङ्क माटे मेळवी आपवा माटे सौ पहेलो आभार कविमित्र धुरन्धरविजयजीनो मानु. तेमणे निजी संग्रहमांथी १३ पत्रो अमने आप्या छे. हजी पण तेमना विपुल खजानामांथी पत्रो मळवानी आशा छे. बीजो ऋणस्वीकार उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजीनो करवो छे. तेमणे पोताना राजस्थानप्रवास दरम्यान, घणो श्रम लईने जोधपुर, बीकानेर, नागोर आदिना खानगी तथा सरकारी ग्रन्थागारोमांथी केटलाक पत्रो मेळवी आप्या छे. त्रीजो आभार आ. श्रीविजयसोमचन्द्रसूरिशिष्यो मुनि सुयशचन्द्र-सुजसचन्द्र विजयजीनो मानु. ते बे शोधरसिक तथा उत्साही मित्रोए कोबाना कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, ला.द. विद्यामन्दिर, सूरतना श्रीनेमिविज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, पाटण, राधनपुर तथा अन्य विविध ज्ञानभण्डारोमांथी, अथाग महेनत/मथामण करीने अनेक पत्रो मेळवी आप्या छे, अने प्रतिलिपिपूर्वक सम्पादित पण करी आप्या छे. आ विशेषाङ्क-योजनानो महत्तम यश ते बेने ज आपवो जोईए. तेमना द्वारा मळेल पत्रो अमारा सुधी पहोंचे ते अगाऊ ज आ प्रथम भागनुं मेटर तैयार थई प्रेसमां गयुं होवाथी, ते पत्रो क्रमशः बीजा-त्रीजा विभागमा आवशे.
पत्रोनी नकल तथा प्रफवाचन वगेरे करवानी महत्तम जवाबदारी मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए स्वीकारी छे तेथी घणी बधी रीते अंक स्पृहणीय थयो छे. मुनि कल्याणकीर्तिविजयजीए पण सहयोग को छे.
जो के बधा पत्रोनां तमाम काव्यो वगेरे समजाई गयां छे तेवं नथी. ते कारणे पाठशुद्धिमां, पदच्छेद आदिमां भूल थई गई के रही गई होय तो ते बनवाजोग छे. जाणकारो ते सुधारे अने ते प्रत्ये ध्यान दोरे तेवी विज्ञप्ति. बीजो विभाग शक्य त्वराथी प्रगट करवानी भावना छे.
हजीये जो क्यांय, कोईनीय पासे के भण्डारमां आ प्रकारनां विज्ञप्तिपत्रो होय तो तेनी नकल अमने पाठववा विनंती छे.
__टाइटल २ तथा ३ उपरनां चित्रोनी फोटोकोपी मेळवी आपवा माटे साबरमतीना श्रुतोपासक श्रावक बाबुलाल सरेमलजी बेडावालानो आभार मानीए छीए. तेमना प्रयत्नथी ज कलकत्ताना गुजराती जैन श्वे. मू. पू. संघे आ फोटोकोपी आपेल छे, तथा प्रगट करवानी संमति पण आपी छे.
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अनुक्रमणिका
'अनुसन्धान 'नो नवो पडाव : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क विज्ञप्तिपत्र :
अवरङ्गाबादस्थ-भ. श्रीविजयदेवसूरिं प्रति सरोतरात: श्रीविजयसिंहसूरेर्लेखराजहंसः
भ. श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति प्रेषितं महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिगुम्फितं श्रीगुरुविज्ञप्तिलेखरूपं चित्रकोश-काव्यम्
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श्रीमेघविजयवाचकलिखितं विज्ञप्तिपत्रं खण्डितप्रायम् सूर्यपुरस्थ-श्रीविजयसेनसूरिं प्रति
वैजलपुरात् श्रीविद्याविजयस्य लेख: राजनगरस्थ-श्रीविजयदेवसूरिं प्रति योधपुरतः पण्डितलावण्यविजयस्य लेख: सिंहरोधिकास्थ-श्रीविजयदेवसूरिं प्रति भुजनगरतः
उपाध्याय - अमरचन्द्रस्य लेख:
श्रीविजयप्रभसूरिविज्ञप्तिलेखः
जीर्णदुर्गस्थ -श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति
सिद्धपुरतः उदयविजयस्य लेख: देवकपत्तनस्थ-श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति
जावालत: विबुधनयविजयस्य लेख: जीर्णदुर्गस्थ -श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति
- मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी
पत्तनतः पण्डितकमलविजयस्य लेख: पुरबन्दिरस्थ - श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति नीतिपद्रतः लालविजयस्य लेख:
सूर्यपुरस्थ - श्रीविजयदेवसूरिं प्रति राजपुरात् श्रीधनविजयोपाध्यायस्य लेख: (सं. १७०४) – मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १०० वर्गवटी (वगडी) नगरस्थित - गणाधिपश्रीमद्विजयप्रभसूरीणां पार्श्वे नाडुलाईतः महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिप्रेषितं विज्ञप्ति - पत्रम्
उपाध्याय - श्री विनयविजयलिखितः
- महो. विनयसागर - महो. विनयसागर
१
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ६४
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ८३
२८
५६
-
• मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ९१
-
- महो. विनयसागर १०७
- विजयशीलचन्द्रसूरि ११५
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १२४
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १२९
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १३७
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १४२
1.
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दीवबन्दिरस्थ- श्रीविजयप्रभसूरि प्रति
प्रह्लादनपुरात् पण्डितलालकुशलस्य लेख:- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १४९ देवकपत्तनस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति
साहिज्यपुरतः पण्डितहीरविमलस्य लेख:- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १५२ पुरबन्दिरस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति रामदुर्गत:
पण्डितकल्याणसागरस्य लेख: - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १६३ जीर्णदुर्गस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति मालेपुरात्
पण्डित-आगमसुन्दरस्य लेख: - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १७३ शोधलेख: जैनों का प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण
- प्रो. सागरमल जैन १८३ ग्रन्थावलोकन : निर्ग्रन्थ परम्परानी अतीतनी शोधयात्रानो परिपाक
- उपाध्याय भुवनचन्द्र म. २०२ कहावली : एक सीमास्तम्भ रूप प्रकाशन – उपाध्याय भुवनचन्द्र म. २०४ विहंगावलोकन
- उपाध्याय भुवनचन्द्र म. २०९ पत्रचर्चा
- उपाध्याय भुवनचन्द्र म. २१२ पत्रनो प्रतिभाव
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय २१६ सम्पादकीय नोंध
- विजयशीलचन्द्रसूरि २१९ वर्धमान जिनरत्नकोश अंगे विनन्ति
२२१
पत्र
आर्थिक सहयोगः श्रीभावनगर जैन श्वे. मू. पू. तपा संघना
___ ज्ञानद्रव्यमांथी आ ग्रन्थ-प्रकाशननो लाभ लीधेल छे.
-
-
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जान्युआरी - २०१३
(१)
अवरङ्गाबादस्थ-भ. श्रीविजयदेवसूरि प्रति सरोतरात: श्रीविजयसिंहसूरेर्लेखराजहंसः
___- मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी श्रीविजयदेवसूरीश्वरचलननलिनेभ्यो नमः ॥
(स्रग्धरा) स्वस्ति श्रीमुद्यदुद्यधुसदधिपनमन्मौलिमौलिस्थरत्नप्रोत्सर्पद्दीप्रदीप्तिप्रकरसरभरोन्मग्नमूर्त्तिः स्वयं यः । चित्रं नानाभवाविर्भवभयसलिलोन्मज्जदङ्गिव्रजेभ्यः प्रस्फूर्जद्भक्तिभाग्भ्यो जगति जिनपतिस्तारयेत् स श्रिये स्तात् ॥१॥ स्वस्तिश्रीप्रष्ठभासः क्रमणनखभुवः सर्वदिङमण्डलेषु प्रांशुप्रत्युग्ररज्जुव्रजवदिव समाकर्षयन्त्यः स्फुरन्ति । सद्भयः किं दातुकामा प्रभवसमरमा अष्टदिग्वैभवस्य यस्योच्चैर्वश्यभावं नयतु स भगवान् माद्यदन्तर्विपक्षान् ॥२॥ स्वस्त्यस्माभिः समत्वं किमवयवनखैस्तज्जिनेन्दोः पदानां लब्धुं शक्नोति साकं स्वदशशतकरैरप्यहो व्योमरत्नम्? । यस्मादन्तस्तमोघा वयमिव च हसन्त्युच्छ[ल]द्भिः करैस्तं यत्पादोद्यन्नखौघाः स मयि निजदृशौ तुष्टिपुष्टी विदध्यात् ॥३॥
(शार्दूलविक्रीडितम्) स्वस्तिश्रीसमवायि वीरभगवत्पादद्वयं स्तान्निजाद्वैतध्यानविधानशुद्धमनसा तच्छ्रेयसे भूयसे । नम्राखण्डलमण्डलप्रतिफलन्मौलिस्थमौलिस्फुरन्मालालीसुमनोव्रजः किमपि सत्तेजोऽभजद् यद्गुणात् ॥४॥ स्वस्तिश्रीप्रतिबद्धरागरसिका यत्पादकामाङ्कशाः प्रोच्चैः स्वीयकरप्रसारकरणैः संसूचयन्तीति किम् ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
अस्मद्वच्चरणाश्रितौ भगवतो ये रक्तचित्ताः स्वयं . ते के नोर्ध्वगतिं भजन्ति सततं निश्छिद्य सद्यस्तमाः? ॥५॥ स्वस्तिश्रीरिति यस्य शस्यचरणाम्भोजन्मयुग्माश्रितेः श्रीरेव प्रतिवासरं समभजद् यस्मिन् प्रकृष्टान्वयम् । मन्ये तच्च विचित्रकृद् भगवतो यद् भक्तियुक्ताङ्गिनः सद्यः स्वस्तिसमन्विताः प्रतिभवं भूयासुरस्मिन्न के? ॥६॥ स्वस्तिश्रीरिव नः समाश्रयकृतेरासाद्यतां वन्द्यता स्वर्लोकादिजगत्त्रयेषु भविनः संवीक्ष्य किं सन्मुखम्? । जल्पन्तीति करप्रसारकरणाद् यत्पादकामाङ्कशाः स श्रेयस्तनुतां सतां स्तुतिकृतां तां तां ततां तां पुनः ॥७॥ स्वस्तिश्रीर्बहुरूपिणी(णीं) समभजत् विद्यां यदमिश्रयात् तद्भक्तिप्रणताङ्गिनोऽनुगमनो(ना)द् यस्याऽनुभावात् स्फुटम् । तत् सत्यं यदनेकनम्रभविभिस्तत्पादकामाङ्कशश्रेणीषु प्रतिबिम्बितैः प्रतिदिनं कैष्कैर्न साऽऽसाद्यते? ॥८॥ स्वस्तिश्रीपरिभूषिताः प्रतिदिशं यत्सन्नखाभीषवो दीप्यन्ते किममर्षतस्त्विति सदारक्तास्तमोध्वंसिनः । अस्मद्भक्तिकृतां कथं परिभवत्येतज्जगज्जन्मिनां स श्रेयोव्रततीततीनवघनः श्रीवर्धमानः श्रियः(ये) ॥९॥ स्वस्ति श्रीपरिपूर्णतां तनुमतां दत्तां स वीरप्रभुर्यस्योद्यन्नखराः करैर्दिशि गतैः किं ज्ञापयन्तीत्यहो ! । अस्माकं द्युतिनिर्झरेषु विहितैः स्नानैः शुचीभूय भोः श्रीमन्तः प्रतिपद्यतां नतिकृते शस्यात्मतां जन्मिनः ! ॥१०॥ स्वस्तिश्रीस्मितवारिजन्मवदनाद् वक्षःस्थलस्थायिनी मुक्ताहारलतेव यत्क्रमभवस्फूर्जन्नखानां ततिः । तस्याः किं स्फुरदोष्ठसङ्क्रमणतश्चञ्चत्प्रवालद्युतिर्भाति स्वस्ति तनोतु वः स भगवान् श्रीत्रैशलेयो जिनः ॥११॥ स्वस्तिश्रीततिसद्मनः परिणमत्तापैः स्वयं मूर्ति यान् धृत्वाऽऽसादि समस्तशस्तकमला दुष्टांहसां च क्षयः ।
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लिप्सोस्तत्तुलनां हियोऽपि न हि ते नो कैः पुरस्कुर्वतः सूर्यं यस्य नखाः करिव हसन्त्येवं स वः श्रेयसे ॥१२॥ स्वस्तिश्रीजनकोऽस्तु यन्नखततिर्भास्वत्करैः संनमत्सन्मौलिं परिमृड्य सन्मुखमिवाऽऽलोक्येति वक्ति स्फुटम् । चेदभ्यन्तरदुस्तमोहतिपरास्तन्नः स्वचित्ते स्थिति धत्ताऽस्मत्स्थितितः प्रयाति न कुतो यस्मात् तमः सर्वतः? ॥१३।। तस्याऽस्त्वस्तु जिनेश्वरस्य चरणोद्भूतप्रभूतप्रभास्फारीभूतनखोत्करस्य च रवेः साम्यं कुतश्चिद् गुणात् । एकं किन्तु समाश्रिता अपि विभा माद्यत्तमोनाशका नीचैस्तत्परमाश्रितास्तु नितरामुच्चैर्गतिं प्राप्नुयुः ॥१४॥ स्वस्तिश्रीगरिमागरिष्ठभगवान् सत्पुण्यपुष्टः प्रथं(थां) शिष्टानां श्रयतां मतां मतिमतां तन्यात् प्रकृष्टः(ष्ट)श्रियम् । यस्योद्यन्नखरोच्छलत्करभरः पिण्डीकृतस्तय॑ते रागः स स्तुवतां जयादिव पदे लग्नोऽस्ति रागोऽथवा ॥१५।।
(वसन्ततिलका) स्वस्तिश्रियः समधिगम्य यतः प्रसारं मन्दारतो व्रततिवन्मरुतां प्रजग्मुः । सच्छायकायरुचिरः शरणं भवान्तद्घता(र्धान्ता?)ङ्गिनामिह स मोक्षफलं प्रदत्ताम् ॥१६।। स्वस्तिक्रमाब्जनखदर्पणमण्डलेषु .. यः पश्यति स्ववदनं नतिकृत् प्रभाते । श्रीवर्धमान इव कः खलु वर्धमानो न स्यात् स यन्नयविदुक्तिरनन्यवाक्यात्? ॥१७॥ स्वस्तिप्रशस्तपदपद्मपुनर्भवश्रीसङ्क्रान्तमद्भुततरश्रि विलोकयन्ति । पद्मं तडाग इव वक्त्रममर्त्यगौर्यश्चित्रं तदत्र जडतोपचितं न तद् यत्! ॥१८॥
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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
स्वस्तिश्रियाऽऽश्रितविशिष्टपदारविन्दद्वन्द्वस्य यस्य जिनपस्य समाश्रयेण । आमोदलब्धिरभवन्मधुपायितानां चित्रं समापि मधुपत्वमहो न तैर्यत्! ॥१९॥ स्वस्तिश्रियं प्रथयतात् प्रथितां स देवो यस्य प्रभोर्जगति चित्रकरं चरित्रम् | स्वर्वासमौलिमणिकान्तिजलाशयेषु स्वस्नानतोऽतिविमलीकुरुते स्म तान् यः ||२०||
(शालिनी)
स्वस्ति श्रीभिर्भास्वदस्यांऽहियुग्मं यत् संस्ताभिः श्रीयते तच्छ्रयेण । यद्वद् वृक्षैः सङ्गतेश्चन्दनस्या - ऽऽमोदाश्लिष्टैर्भूयते नैव कैः कः ? ॥ २१ ॥ स्वस्तिश्रीभिस्तत्पदं शिश्रिये श्राग् मत्वा तत्त्वाश्रित्य बाध्यां किमाह्वाम् । यस्मादस्मिन्नो तदन्या भवान्त - भ्रान्तिश्रान्त श्रेणिकानां पदाप्तिः ॥२२॥ सत्पादाम्भोजन्मपद्माङ्कितं यत्, तस्मात् त[त् ] स्यात् तन्निधानावलब्धिः । युक्तं यत् साऽन्वर्थसृष्टिविधातु- र्यद्वल्लोके शीतरश्मिः सुधांशुः ||२३|| मन्ये गत्वा तत्पदाम्भोजपद्मा - ऽचौर्यं पद्मं तोयदुर्गप्रविष्टम् । पश्चादन्यच्चोरवत् तत् तदादि, तस्माल्लेभे ऽन्तः पुरस्थायितां नो ॥२४॥ तत् तन्नाऽपि प्राप तत्तुल्यभावं, किन्तु स्वस्मिन् दूषणं पङ्कजत्वे । युक्तं यस्माद् यद् यदूर्ध्वं विधत्ते, स्वः सल्लोकस्तत् तथा किं तदन्यत् ? ||२५|| साम्यानाप्तौ स्पर्धितस्याऽभवत् तत्, पद्मं लब्ध्वाऽगाधपानीयदुर्गम् । मत्वा त[त्]सत्पादपद्मः स्वरूपं मन्ये जज्ञे कोपटोपात् स रक्तः ||२६|| पश्चाद् धृत्वा वज्रचक्रादिचक्रं तत्पादस्तत्स्वीयलक्ष्म्या जिगाय । अप्युच्चैस्तं जाड्यदुर्गप्रभेदे (दं) सल्लोकानां निर्मिमीते तदादिः ||२७|| तस्मान्मन्ये तत्पदस्यैव भीत्या, पद्मश्रेणिः कम्पतेऽद्याऽपि नित्यम् । गुञ्जद्वायुप्रेरिताङ्गच्छलेन, किं नैजं तं तोयदुर्गं प्रविश्य ? ॥२८॥ चित्रं चित्रं यस्य सत्पादपद्मो, नीरागोऽपि स्पष्टरागी स्वयं यः । भक्त्या नम्रप्राणभाक्षु द्विधाऽपि तद्धर्ता यत् तद् विशेषाज्जनानाम् ॥२९॥
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तं लब्ध्वाऽपि प्राणभाजो भजन्ते, ततः (तं तं?) सिद्धिद्रङ्गवासं परत्र । . चित्राच्चित्रं तत्सतामेति चित्ते, किं वा सन्तोऽचिन्त्यमाहात्म्यभावः(वाः) ॥३०॥
(उपजातिः) किञ्चिन्निजध्यानविधानतो यो, नयंस्त्रिलोकी निजवश्यभावः (वम्?) । विश्वत्रये यः किल पूज्यतेऽहं-श्चित्रं स लेभे न हि धूर्तभावम् ॥३१॥ यदुत्तमानामिह मध्यवर्ती, जहाति नो मानसतस्करत्वम् । विचित्रकृत् तस्य चरित्रमेतत्, श्रीवर्धमानस्य विलोकयन्तु ॥३२॥ धत्ते स वक्त्रप्रमुखान् स्वपाणा-वपि(?) स्फुटं हन्ति विपक्षपक्षान् । निश्छिद्य पापानि तथाऽपि लेभे, सिद्धिं स्वयं तत् खलु चित्रकर्तृ ॥३३॥ चोद्यं कथं मुक्तिपदप्रगामी, भवेज्जिनेन्द्रस्त्रिशलाङ्गजन्मा । अद्याऽपि यावन्महतां मनोभ्यः, स्पष्टं समाप्नोति नयंश्च मुक्तिम् ? ॥३४॥ चित्तं सतां वासगृहं विधाय, तत्र स्थितस्तद् विमलीकरोति । यः श्रीजिनाधीश्वरवर्धमान-श्चित्रं तथाऽप्येष ममत्वभृन्नो ॥३५।। यं संस्तुवन्तः पुनरेव निन्दा-परायणाः स्वोचितमाप्नुवन्ति । शुभाशुभं यच्चरणाद् विचित्रं, स रागविद्वेषहरस्तथाऽपि ॥३६॥ अगम्यलक्ष्मीरपि योगिनां यो, न दानदाता तदपि क्षमायाम् । तदेकरक्तात्मजनव्रजस्य, चित्रं तथाऽप्येष समीहितप्रदः ॥३७|| येभ्यो जिनाधीश्वर ! योगभृद्भयः, कदाऽपि नो दूरतरं भवान् यः । तेषां न दत्ते निजगम्यभावं, चित्रं स कादर्यधरः कथं नो ? ॥३८॥ जिनाधिपानाकलनीयरूपं, किञ्चिच्चरित्रं भुवने यदीयम् । जाग्रन्महिम्नाऽपि निवासगेहं, मनःकृतं यत् परमाणुरूपम् ॥३९।। स्वस्तीन्दिरा यस्य सदैव सेवां, तदेकलुब्धा सरसां विधत्ते । सच्छङ्ख-पद्मावपि यो बिभर्ति, स्वपाणिपञ स तथाऽपि दुर्गतः ॥४०॥ भक्तिप्रगल्भाङ्गभृतां मनोब्धि-मध्यं वचोवीचिगणास्तु यत्तः । यथा यथा जग्मुरहो! तथा तथा, चित्रं बभूवेत्यजडाशये तत् ॥४१॥
अथ चित्रकाव्यानि जनानां विहितामोदं, वन्दे श्रीवीरतीर्थपम् । परमश्रीपदं देवं, दमकानननीरदम् ॥४२।। मुशलम् ।।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
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जनय श्रीजिनाधीश !, भववारकसन्मत! ।
तत्त्वज्ञ! ज्ञत्वतत्सार - रसातं तततं ततः ॥४३॥ त्रिशूलम् ॥ जंजनीतुं ततं सातं, तत् सामर्हन् सदा भुवि । विभुर्दासजगल्लोकः, कलोदयिकलायुतः ॥४४॥ शङ्खः ॥ जम्भजिद् भक्तिभरभाग्, यस्य तं संस्तुवे समम् । मतिमन्तमहं मत्यमममत्वमतामसम् ||४५ || चामरः ॥ जगत्तारकविस्तारि - गम्भीरवरवाक्वयम् । यशोभरलसद्राजजगद्व्याप्तततश्रियम् ॥४६॥ युग्मम् ॥ श्रीकरी ॥
जय त्वं जगदानन्द!, पदप्रास्तमहाभय! |
यत्नतः स्तुतिकृद् विश्व - दैवतो दममोदरः || ४७|| हलम् ॥ जन्तुजातजयश्रीतत्, तन्याद् वः परमं पदम् ।
दरभूग्नसंघात (?), तरणिश्चञ्चदायतः ॥४८॥ भल्लः ॥ जगदुद्धृतिमातन्या - न्यायवल्लीपयोधरः । रञ्जितानेकभूपालो, गतितर्जितसामज: ॥ ४९ ॥ धनुः ॥
जय श्रीकरपत्कञ्ज!, निजामलकुलध्वज ! ।
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जगदुद्धर वीर! त्वं प्रमदप्रकरं ददत् ॥५०॥ द्वाभ्यां खड्गः ॥ जनुर्जरामहाकंस- संभेदसुरपानुज! ।
जलोद्यत्सद्घनाराव!, राजद्गुणभरो जनुः ॥ ५१ ॥ शक्तिः ॥ जन्मिनां मङ्गलव्रातं, जनय श्रीविभो ! ततम् ।
शम श्रीललनाक्लृप्त-सङ्ग! विश्वविबोध ! तत् ॥५२॥ छत्रम् ॥ जहीहि भगवन्नित्यं, मदन्तं तनुतं दम [म् ] । कुरु भक्तियुतं लोकै-र्नगधीर ! रधीगण ! ॥५३॥ रथः ॥ जगतीगतसत्कीर्ति-जिन! निर्जितदुःस्मर !
रक्ष तातारभिद् वीर! सुमनोमनदत्त सः ॥ ५४ ॥ कलशः ॥ जय दासेभवोत्तंस!, परदानप्रदः सतः ।
खण्ड १
दादानधरमादोवो (?), सेनधनवरप्रभा ॥५५ ॥ युग्मम् ॥ अर्धभ्रमः || जज्ञे येन नृता सर्वा, सद्बुद्धिः सिद्धिगामिनि ! | भजे तं तप्तदुस्तप्य - तपसं सकलं जिनम् ॥ ५६ ॥ शरः ॥
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जग्मुर्यस्माद् विपत्त्योघा, भजेयं भवभेदकम् । कम्बुकण्ठं कलाकनं, रङ्कताकककं तकं ॥५७॥ मुद्गरः ॥ जवात् त्यक्त्वा मदं भव्य !, भज सन्ततमीश्वरम् । रजनीनाथवदनं, गत्या सममतङ्गजम् ॥५८॥ वज्रः ॥ जडताभेदिपादाम्भो-जन्मानं जिनपुङ्गवम् । जनतातारकं वन्दे, जपापुष्पौघपूजितम् ॥५९॥ स्वस्तिकः ॥ जङ्घास्तम्भयुगश्रीभि-जितशुण्डलसत्प्रभम् । भक्तियुग्मविसम्भारतमोरविकरं परम् ॥६०॥ पताका ॥ कल्याणवत् कान्तकरो जनव्रज-कष्टातिभिन्न्यायकजे विभावसुः । कल्याणवृन्दानि करोतु निर्धमः, कलायुतः कञ्जकरो नमद्हरिः ॥६१॥ जयश्रियं चेद् वरितुं समुत्सुका-स्तं त्रैशलेयं भजतां कथं न तत् । यदीयसत्कीर्तिसुपर्वनिम्नगा, निर्माति नित्यं विमलं जगत्त्रयम् ॥६२॥
अष्टारचक्रम् ॥ आनन्दनं जनमनस्यनयेन मान-श्रीनन्दनत्रिनयनं विनतिं नयैनम् । नूनं जिनं विनयनम्रनरानरेनं पीनध्वनद्घनघनस्वनमानतेनम् ॥६३।।
२८ दलकमलम् ॥ सुरनरभरपरशरणं, रदरम्यरमारतारतरवक्त्रम् । सुरवरकारस्करमार-हरभरं वरकरं धीरम् ॥६४॥ स्मरपरवरकरचरणं, रतिरकरं दरहरं निरस्तारम् । नरवारपरस्थिरतर-परमारं मारमारहरम् ॥६५।। विनमेनमनंतेन, विनतं नयि[न?]न्दनम् । भिन्नमानवनं ध्यान-स्थानं सन्नयनञ्जन ! ॥६६॥ गोमूत्रिकात्रयम् ॥ मादान्तरायमदनोत्कटदुष्टकुम्भि-कुम्भिद्विषन्प्रवरभागतभीरनीतिः । नीतिप्रयुक्तनतसङ्गतपाददामा-दामानवान् प्रति कुरुष्व जिनेन्द्र! सन्माम् ॥६७॥
दर्पणः ॥ संसारापारसारप्रबलसममहाकष्टक(क)न्नक्रवाससंयुक्ताम्भोधिसाधिबृ(ब्रु?)डदसमनृणां पात्त्रिपाच्छ्रीविलासः ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
सत्त्वान् पायादपादत्तभवसकुशलस्तारहारप्रकाशः सर्वज्ञप्रत्तसातप्रणतसततसत्सिद्धिसिद्धिप्रदः सः ॥६८॥ श्रीवत्सः ।। श्रीवर्धमानभगवानसमानमान श्रीवर्धमानभगवानसमानमान । श्रीवर्धमानभगवानसमानमान श्रीवर्धमानभगवानसमानमान ॥६९।। महायमकम् ।। इत्थं वर्णनपद्धति प्रणयतां नानाविधालङ्कृतिश्रेणीभूषितनैकवृत्तनिवहैरानन्दनं सर्वतः । नत्वा तत्त्वविदं महोनिधिमिमं सैद्धार्थितीर्थङ्करं हीश्रीबुद्धिनिवासमन्दिरमहो ! संस्फूर्ति(त)कीर्तिश्रियम् ॥७०॥ ॥ इति श्रीवर्धमानजिनप्रणामकरणपद्धतिः ॥
(वैतालीयम्) अथ सा नगरी नरामरा-सुरसद्विस्मयकारिणी पुरा । पथिकैः प्रथमं निजागते-रतिथित्वं समनायि चक्षुषोः ।।७१।। परिपीय तदेकमन्दिरं, नवनव्यं प्रथमानमुत्सवम् । अपि तैर्जनितं विचित्रितै-रिव जीवद्भिरहो सविस्मयैः ॥७२॥ वरवर्त्मविवर्त्तिनस्ततो, विषयीभूतविनोदिवस्तुनः । विशदास्पदमेत्य तत्पुरं, परमानन्दपदं विजज्ञिरे ॥७३॥ तदवेक्षणतः स्वचक्षुषोः, किल निर्माय सुपारणां ततः । पुरि तत्र विमेनिरे निजं, स्थितिमाधाय कृतार्थमागमम् ॥७४।। स्फटिकाद्रिसमस्फुटस्फुर-त्स्फुटिकागारकराकरैरिव । दधती परिहासिकां तु या, प्रथितायास्तत एव किं दिवः ? ॥७५।। किल तत्र समस्तवस्तु यत्, सकलं तन्नगरे सदूषणम् । सकलङ्कतया त्वनीदृशं, नगरेऽत्राऽस्ति तदद्भुतत्वभृत् ॥७॥
॥ अर्थतः षड्भिः कुलकम् ॥ तथाहि- धनदः पुरि तत्र योऽस्त्यहो !, स पुनः किम्पुरुषेश्वरः स्मृतः ।
इह ते प्रतिसौधमद्भुता, विजयन्ते नवनव्यभोगिनः ॥७७।। किल तत्र य ईश उच्यते, स च षण्ढससुतोऽस्थिमालिकः । इह ते शतशो विरेजिरे, सुपुरोऽनर्घ्यविभूषणं महत् ।।७८।।
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न च तत्र तपोगुणाश्रिता, सुमनःपङ्क्तिरहोऽवतिष्ठते । इह सा च तदादिसद्गुणा-वलिकेलीप्रवरास्पदं मुदा ।।७९।। अपि तत्र महत्यहो ! वने, किल पञ्चैव चकाशिरे द्रुमाः । कुसुमैः सुरभि(भी?)कृतान्तरे, विपिनेऽस्यामपसङ्ख्यपादपाः ॥८०|| विबुधाधिप एककः पुनः, स तु गोपाभिधया प्रसिद्धिभाक् । इह वासकृतः परःशता, विजयन्ते तडदी(डिदि?)त्वरश्रियः ॥८१।। नगरीयगरीयसो गुणानिति, तस्या अमरावती पुरी । अनुगच्छति किं यदत्र वै, स्फुरति श्रीमहिमा प्रभोर्महान् ॥८२।। विविधामलरत्नजालयो-त्थितब्रह्माण्डदृतस्ववेगतः । प्रणमत्करसङ्घतः पुनर्दिवि वैचित्र्यमधाद् यतस्त्वियम् ॥८३॥ द्युविमानविमानताकृतोऽतिविशिष्टत्वरिष्ठधार्मिकाणाम्(? धर्मिणाम्?) । स्फटिकोपलकल्पितालयाः, किमु तद्दानजकीर्तयो बभुः ॥८४|| विधुबिम्बमिलत्स्वमौलयो, बहुरूपालिकनेत्रताभृतः । स्फुटिकाग्रिमविग्रहा गृहाः, किमु नाऽऽपुर्ध्वजगङ्गयेशताम्? ॥८५॥ रविकान्तमयालयाभया, कृतमार्तण्डभिया यया स्यात् । वदनं सदनं कुतीथिना-मदधत् प्रापितभीतिदुस्तमः ॥८६॥ प्रसृतायतया पताकया, वृणुते चञ्चलया यदालयाः । निजकाञ्चनकुम्भसन्निभं, समवेक्ष्य धुमणि स्वलज्जया ॥८७॥ विमलाङ्गभृतां शिरस्सु नः, सकलङ्कः स्थितवान् कथं भवान्? । इति यन्निलयः पताकया, ददते चन्द्रमसोऽतिताडनाम् ।।८८|| परमार्थभृतोऽमलात्मनः, सकलङ्का विकलङ्किनः पुनः । निगदन्त इदं यदालयाः, शशिलक्ष्मा वृणुते ध्वजोच्छ्रयैः ॥८९॥ सततं पुरतश्च पृष्टतः, प्रसरन्नीलमणिगृहत्विषा । परिचुम्बितदृष्टभूतला-स्तृणबुद्ध्या पशवोऽभवन्नताः ॥९०॥ यदगारशिरःस्थगैरिको-द्धटितस्पष्टघटोपलब्धितः । अभवद् धुमणिभ्रमान्निशि, धुनदीपद्मगणो विकाशभाक् ।।९१।। सुदतीवदनानुबिम्बतो, यदगारे विधुबिम्बशङ्कया । कृतपञ्जरसंस्थितिर्दिवा, विकटं कूजति चक्रमण्डली ॥९२।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
निशि तारकबिम्बितेक्षणा-च्छशिकान्तालयभित्तिभूमिषु । कजबुद्धिभृतो म तत्यजु-मधुपास्तान् धृतवार्मधुभ्रमाः ॥१३॥ वियदायतवम॑गाहना-दिव किं स्विद्यति शीतदीधितिः? । गलदच्छसुधामिषादिति, व्यजनत् वीक्ष्य यदालयध्वजः ॥१४॥ शशिकान्तजयद्गृहावली, विगलद्वारिझरा बभौ निशि । स्वभया विजयादिवाऽभवत्, श्रमखिन्ना द्युविमानसन्ततिः ॥९५।। अत एव किमत्र मीयते, धुसदैश्वर्यभृता कृता इव । प्रतिबिम्बिततारकोत्कर-च्छलतः सत्कुसुमौघवृष्टयः ॥९६।। युग्मम् ।। परिकीर्णमणीन् यदापण-स्थल इङ्गालधियाऽवलोक्य तान् । ग्रहणोचितविक्रमोऽभव-न्नगरे यत्र चकोरपक्षिणः ॥१७॥ गुरुपादविलोकनेच्छया, दिव एत्य धुपुरी तपस्विनी । अभवत् परिखामिषादसौ, सनिमित्तो हि विधिविधेयजः ॥९८|| क्रमतस्तपसोपलभ्य सा, समभीष्टं पदसेवनादि यत् । चलवीचिजलानुबिम्बित-च्छलतो नृत्यति किं प्रमोदतः ? ॥९९॥ युग्मम् ।। न चमत्कृदिदं क्षणेऽगुणं, प्रथमे द्रव्यमतर्कि तार्किकैः । प्रथमानगुणाः परःशताः, सह यद्यत्र जनुर्जनैर्दधुः ॥१००॥ गुणिनां गणनातिगा गुणाः, पुरि यत्र प्रसरन्ति सर्वतः । इव तद्भुव एव कीर्तयः, परिपूर्णेन्दुविभा इवाऽमलाः ॥१०१॥ अपि यत्र च सङ्घ ईप्सितैः, किल वर्षत्यखिले महीतले । अभवत् समशस्यवस्तुनः, परिलब्धिः सुखिनस्ततोऽर्थिनः ॥१०२।। अपि राजसमं विरेजिरे, कृतिनो यत्र विशिष्टदीप्तयः । अतिनिर्मलतामिताः पुरी, ललनाहारसमानसम्पदः ॥१०३।। जिनशासनमग्र्यभूषणं, शुशुभे यत्र दधन् जनव्रजः । नगरी पुनरेव तं ततो, वसुधामण्डलमेव तां पुरीम् ॥१०४।। अधिगम्य कलाः सदीप्तितां, किल जग्मुर्यदनेकनागरान् । कमलासुतमित्रमुन्नता, इव सर्वा क्षितिरुट्परम्परा ॥१०५॥ अपि यत्र निवासिनः पुनः, सदृशौपम्यमुदन्वतः कुतः ? । अपि दिक्षु विदिक्षु विस्तृतं, गुणरत्नैरितरस्य यत्त्वधः ॥१०६।।
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नयशास्त्रमनन्यथापदं, जनतोदाहरणान्नयत्यदः । तपनीयमिव स्वशुद्धितां, कषपाषाणपरीक्षणे क्षणात् ॥१०७।। इति रम्यगुणालिमण्डिता, नगरी नागर-नागरीभृता ।
जयति प्रथिता विचित्रकृत्, स्वभया भूतलवर्तिचेतसाम् ॥१०॥ अपि च, यस्यां सं(?)
वराकाराः स्मराधारा, राजन्ते मुगलोचनाः । कलाकलापराजिन्यो, न्यस्तकण्ठैकभूषणाः ॥१०९॥ सारागारावली चारु-रुचा ध्वस्ततमोभरा । गुणप्रणयिसद्दार-रञ्जितामरमण्डला ॥११०।। रुचिरानेकसद्वस्तु-विस्मितानन्तमानसा । लुलन्मुग्धकनीवक्त्र-कान्तिस्मितलसद्दिशा ॥१११।। गुणवत्यः स्फुरद्वा(द्धा)रा, रुचिरद्युतिभासुराः । नानाविहितशृङ्गारा, राजत्पीनपयोधरा ॥११२॥ जयन्ति समलङ्कारा-स्तेजस्विन्यः कलस्वराः । पुरीगौर्यो मनःसाराः, लीलया रतिजित्वराः ॥
(तिलकांशुतमोहराः ॥११३।। इति वा पाठः) ॥ इति चम्पकमण्डितसिंहासनबन्धचित्रम् ।।
मारायशस्त्रं स्फुटदीप्तिराजी, राजीवनेत्राऽतिगुणाभिरामा । रामाङ्गनाशीलगुणा सुरामा, रामालिवत्यत्र भृदस्य नामा(?) ॥११४॥ दर्पणम् ।। यत्राऽऽभाप्रभमन्दिराणि च मा(म)हायासंशयानेकशोऽशोकं श्रीदलल(स?)दृशा वितनुते श्रीभाजनं भासिनी । तत्त्वातत्त्वविचारसारचतुरालीसत्सलीलं सदा दासश्रीतततत्तदद्भुतमहादानं मुदा तत्त्वभृत् ॥११५।। मत्स्ययुगलम् ॥ रङ्गत्कासारसारं जलभरनिभृतं कोककोट्याढ्यतीरं लब्धानन्तस्य शस्यश्रितिवरममलं सारसानन्दधारम् । रत्नौघाबद्धशुद्धप्रसृमरविमलाशोभिसोपानमालं लग्नोद्य(?)द्धृङ्गावबद्धरजलजततीराजि राजत्यजस्रम्(?) ॥११६॥ श्रीवत्सः ।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
यस्यां पुर्यां सदारामे, नन्दनप्रतिमोपमे । त्यु(उ?)त्फुल्लत्कुसुम श्रेणिविकाशितदिगन्तरे ॥११७॥ सदालवालं किल रत्नविग्रहं, हन्ति प्रसारिस्फुटदुस्तमस्तमम् । विभ्राजिसत्काननमद्भुतं तरोः, सानन्दलोकाश्रितमुन्महःश्री(श्रिकम्?)॥११८॥
शरावसम्पुटः ॥ यस्मिन् महाहारिगुणो नरौघो, ललत्कलोद्यद्यतनः ससम्पत् । चञ्चच्चरित्रः सुसुमालितत्तत्कृताततश्रीपरमेष्ठिपूजः ॥११९॥ यस्यां सदा दानरुचिश्चिदाढ्य-ससंमदा सत्समरूपपट्वी । [---]वरं(?)रम्भाललना हि नाना-शृङ्गाररम्याऽपगताभिमाना ॥१२०॥ यत्राऽङ्गनानामसमो महस्वि-गाङ्गाम्बुदीप्रप्रभ एव वर्यः । गुणो नरान् सन्ततमोददोऽदो-ऽघभेददत्तादर एव भाति ॥१२१॥ यदिभ्यसंसत्सदनं नगेन्द्र-भाभामलश्रि श्रितताररम्यम् । सत्यं त्यजद्वान्ततरं सुशंसं, रराज जम्भारिविमानतुल्यम् ॥१२२।।
॥ ४ वृत्तैः नन्दावर्तचित्रम् ॥ सद्वाससौधप्रविराजमाना, नानागुणौघाप्रतिसन्निवासम् । सद्वासना सल्ललनाऽस्ति यत्र, त्रपालुरुद्यद्यशसां निवासम् ॥१२३।। भद्रासनम् ।। देवतेन्द(न्दु)मुखी जिष्णु(ष्णू)-रामासङ्घः स्फुरद्वचाः । राजते स्वर्णराजिश्री, यत्राऽसङ्ख्यकलावली ॥१२४॥ नागपाशबन्धः ।। इत्यादिचित्रकलितं, यन्नगरं लेख इव विभातितराम् । विविधालङ्कारगृहं, विबुधव्रजवर्णनीयगुणम् ॥१२५।। तत्र श्रीमति प्रवरे, अवरङ्गाबादसञ्जके नगरे । विविधविलासर्द्धिधरे, तातपदन्यासपूततरे ॥१२६।।
॥ इति श्रीपूज्यपदन्यासपवित्रितअवरङ्गाबादनगरवर्णनम् ॥ अभ्रंल्लिहानि सुधया धवलीकृतानि देवाधिदेवभवनानि सतोरणानि । नानाविधानि पुरि यत्र विभाति सम्यक् हारश्रियं किल दधन्ति पुरेन्दिरायाः ॥१२७।।
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श्रीवर्धमानजिनराजगृहं विभाति यस्मिंश्च देवकुलिकाश्रितमद्भुतश्रि । किं नीतिरीतिविधिमीक्षितुजातकामः शृङ्गालिमण्डितगिरीशगिरिः समागात् ॥१२८।। यस्मिंश्च वीरजिनराजगृहे प्रदीपाः शोभां दधुः पवनप्रेरणधूर्णिताङ्गाः । श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्दितुमिच्छया किं भास्वानिवेत इह कल्पितभूरिरूपः ॥१२९।। विपक्षपक्षक्षयकार्यदक्षो, विराजते यत्र महीमहेन्द्रः । विशेषतो न्यायविधेर्विधाता, स्वीयप्रजापालनबद्धरागः ॥१३०॥ तस्मात् कलाशालिजनालिभास्व-च्छ्रियं दधानाद् गुणराजमानात् । भूभामिनीसत्तिलकायमानात्, सरोतरातोऽनिशलब्धमानात् ॥१३१।। संयोजितश्चारुसुभक्तिमात्रा, भावाभिधानस्य पितुर्निदेशात् । औत्सुक्यभूमीपतिशासनेन, निमन्त्रितः सम्मदधीसखेन ॥१३२।। उल्लासवान् स्नेहभरप्रबुद्धः, प्रमोदसम्पूरितचित्तवृत्तिः । उत्कण्ठयाऽकुण्ठकृतप्रमाद[:], संयोज्य पाणिद्वितयाम्बुजन्म ॥१३३।। विज्ञप्तिकां वितनुते सुविधिप्रधाना-मानन्दतो विजयसिंहशिशुः प्रवर्हाम् । आवर्त्तकैस्तरणिमूर्तिमितैविधाय, सद्वन्दनं विनयनम्रशरीरयष्टिः ॥१३४|| कृत्यं यथोद्गच्छति तिग्मभानौ, जम्भारिदिग्भूधररत्नसानौ । प्रध्वस्तविस्तारितमःसमूहे, सच्चक्रवाकीमुदमादधाने ॥१३५।। पयोजिनीखण्डितनायकानां, हिमांशुसम्मार्जनकृत्यकृत्यौ । प्रसारितस्मेरतदीयवक्त्र-प्रलम्बनैजप्रथितांशुपाणौ ॥१३६॥ माङ्गल्यगीतध्वनिपूरितोद्य-द्दिङ्मण्डले कूजति पत्रिपङ्क्तौ । बालार्करक्तद्युतिकुङ्कमौघ-विलिप्तधात्रीललनाननाब्जे ॥१३७॥ स्मेरीभवत्पङ्कजपुञ्जगर्भ-प्रसुप्तषट्पादपदापघातैः । पतत्प्रभूताद्भुततत्पराग-सौरभ्यसम्पूरितजीवलोके ॥१३८।। मृदङ्ग-भेरी-तत-ताल-नाली-वीणाद्यवाद्यक्वणितिप्रसारैः । व्यामोहितानेकसुविद्यविद्या-धरव्रजस्तम्भितसद्विमाने ॥१३९॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
धराट्टसचट्टनपिष्टसक्तु-प्रादुर्भवत्सौरभरज्जुराज्या । स्वसद्मसंसर्पणबद्धराग-शस्वत्समाकर्षितपान्थसार्थे ॥१४०॥ विनिर्मितस्वस्तिकपूरणाया-ममात्यभूपालविराजितायाम् । श्रद्धाभिरामप्रवरार्हतार्हती-सम्पूरितायामनिशं सभायाम् ॥१४१।। स्वाध्याये सद्विधिना, श्रीमत्प्रज्ञापना जिनाभिहिता । विविधविचाररसालाऽभिवाच्यते मोक्षतरुबीजम् ॥१४२॥ व्याख्यानवाचनविधिः प्रथमाङ्गसूत्र-वृत्तेर्बभूव वरिवर्त्ति विदां पुरस्तात् । अध्यापनं दमिजनेऽध्ययनं स्वयं च, सार्वप्रणीतवरशास्त्रगणस्य शश्वत् ॥१४३।। योगोपधानवाहन-मनिशं तद्योग्यताविशिष्टेषु । सानन्दनन्दिमण्डन-पूर्वकमुद्यव्रतोच्चारः ॥१४४॥ इत्यादिधर्मकृत्ये, प्रवर्तमाने प्रमोदसन्दोहात् । कृतसङ्केतमिवाऽगाद्, वार्षिकपर्वाऽपि पर्ववरम् ॥१४५।। तस्मिन् द्वादशदिवसान्, यावदमारिप्रवर्तनं प्रकटम् । षष्टाष्टमादिदुस्तप-तपसस्तपनं विशेषेण ॥१४६।। दुष्टकुकर्मनिवृत्तिः, साधर्मिकपोषणं सुसन्तोषम् । श्रीफल-पूगफलाद्यैः, प्रभावनाविरचनं लोके ॥१४७।। महोत्सवाद्वैतनवक्षणेषु, सदिभ्यसभ्याग्र्यसमाजिकायाम् । गीर्वाणकारस्करकल्पकल्प-सूत्रस्य वृत्त्या सह वाचनं च ॥१४८॥ गम्भीरशब्दबधिरीकृतजीवलोकं, वादित्रवृन्दविधिवादनपूर्वकं च । नानाविलासयुवति(ती)जनगीयमाने, श्रीजैनचैत्यपरिपाटिकया प्रवृत्तम् ॥१४९॥ इत्यादिधर्मकृत्यं, प्रवर्तितं जायते च निर्विघ्नम् । श्रीतातनाममन्त्र-प्रसादतः श्रेयसा सहितम् ॥१५०॥ अपरम् अथ श्रीगुरुराजवर्णनम् - विचित्रचित्रकरचित्रैः को दुग्धाब्धिभवां बभार समरे ?, कीदृग् भवेद् भाग्यभाक् ? कः कृष्णाग्रजभूः ? पुनः सुकृतिनः कृत्येषु कां कुर्वते ? । पुण्याङ्गिप्रतिबोधका भगवतः का ? चन्द्रतुल्यं च किं ? । कः प्रद्युम्नरिपुर्जनान् प्रतिशिवं गन्तुं वितन्वन्ति काः ? ।।
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पाश्चात्याक्षरयुग्ममुक्तित इह स्याद्यस्तमानन्दतः कुर्वे संस्तुतिगोचरं सुविधिना श्रीमद्गणाधीश्वरम् ।। १५१ ॥ इति षट्पदी ॥
_श्रीमद्विजयदेवसूरिगुरवे नमः ॥ सकलभूतलमण्डनमद्भुतं, विजयकारिपदद्वयपङ्कजम् । भविककल्पितदानकरं सदा, मतिततिप्रकरं करुणाधरम् ॥१५२।। भविककोककदम्बकभानुभं, जगति विस्तृतवामयशःश्रियम् । विमलकोमलकोकनदप्रभ-क्रमयुगं गजभासुरगामिनम् ॥१५३॥ निजकुलामलपङ्कजकानना-रुणसमं शमतारससागरम् । करणकान्तिजितामरभूधरं, विजयदेवगुरुं नुतिमानये ॥१५४||
॥ इति परिधिः ॥ . कमलाकरकर्तारं, भूविस्तृतयशोभरम् । लक्ष्मीलीलासुकमल-ललत्सत्पाणिपुष्करम् ॥१५५।। मनोज्ञोद्यत्कलाधारं, तन्वन्तं भूरिमङ्गलम् । जन्तुसङ्घातकमल-काननाम्भोजसोदरम् ॥१५६॥ पद्मन्यत्कारिसुकर-द्वयं भाभारभासुरम् । पटिष्ठसद्गुणाधारं, जनोद्धृतिकृतादरम् ॥१५७।। विशदाचारनिकर-करणं प्रणतामरम् । ततकल्कदरं धीरं, नरप्रश्नकृतोत्तरम् ॥१५८॥ रम्यानेकगुणागारं, दासीकृतनरामरम् । तिरस्कृतद्वेषिवारं, तिथ्याद्याराधने परम् ॥१५९।। कलाभृत्समसत्तेर-कमलं सिद्धिकृत्करम् । नाथं कलाचक्रवाल-रत्नसन्ततिसागरम् ॥१६०॥ विस्तारिज्ञानसम्भारं, कोमलक्रमपुष्करम् । कर्पूरभररुक्चौर-बन्धुरश्लोकविस्तरम् ॥१६१॥ भासुरानेकचतुर-भक्तलोकप्रियङ्करम् । गणनातिगसत्सारं, विनतानेकनागरम् ॥१६२॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तप्तानन्ततपोवारं, मतिमद्वरबुद्धिरम् । संशयालीरसासीरं, यवनोद्बोधतत्परम् ॥१६३।। मदनादिविजेतारं, कोपपादपकुञ्जरम् । रत्नत्रितयदातारं, कमनीयवचोभरम् ॥१६४।। दर्शनामोदितापार-भव्यभव्यजनोत्करम् । मन्दराचलवद्धीरं, गन्धमातृप्रभाकरम् ॥१६५।। जयश्रीप्रस्फुरद्दार-सुभगाभोगभास्वरम् । गात्रसौरभ्यमन्दारं, नगप्रतिमताधरम् ॥१६६।। जगत्स्थवस्तुवेत्तारं, लावण्यावलिबन्धुरम् । रत्नाकरसुगम्भीरं, कष्टाटवीदवानलम् ॥१६७॥ कारुण्यजलनेतारं, नारीगीतगुणोत्करम् । नयनानन्दधातार-मज्ञतानलपुष्करम् ॥१६८॥ मधुकृच्छितिसत्तारं, रत्नातिनखोत्करम् । सागरोन्मादभेत्तारं, रङ्गत्सिद्धान्तसागरम् ॥१६९।। रसज्ञहृद्रुमे कीरं, काञ्चनद्युतिवत्करम् । जिनोक्तानुगगीर्वार-मभीप्सितपदार्थरम् ।।१७०।। भूत-प्रेत-निशाच(चा)र-लब्धभीत्यभयङ्करम् । जगज्जनगणाधारं, देव-देवीमनोहरम् ।।१७१।। गुरुतापाराकूपारं, नुवत श्रीमुनीश्वरम् । मानवास्त्रिजगत्तारं, ये समिच्छन्तु मङ्गलम् ॥१७२।। महानन्दपुरीद्वारं, जन्तुव्यामोहकृत्स्वरम् । देशनाभिन्नसंसारं, सूरिसन्मौलिशेखरम् ।। गुरुं सर्वार्थविस्तार-वेत्तारं हतभीभरम् ॥१७३।। षट्पदी । ॥ इति कङ्कणबन्धचित्रम् ॥ एकोनविंशतिभिः कुलकम् ॥ · रसेननन्दनं सार-लक्षणामरकीतिरम् । रक्षकं कमलाकारं, रङ्गद्भभूषणं स्मर ॥१७४।। ॥ इति कङ्कणमध्यस्थितस्वस्तिक-चामर-बीजपूर-कमल- .
धनुःस्थापनिकादिचित्रमयः ॥
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(भुजङ्गप्रयातम्) कुमत्युच्छलद्दर्पकंसप्रणाश-प्रसृष्टौ मुकुन्दप्रबर्हप्रशंसम् । ललन्नीतिसद्रीतिकृत्कम्रकीर्ते !, भवन्तं स्फुरद्ध्यानमानौम्यशङ्कम् ॥१७५॥ महानन्तभावारिमालाविशाल-द्रुमोद्भेदमत्तद्विपेन्द्रकसारा ।। सदा तावकी नाकिनम्य ! प्रकुर्यात्, सुमूर्तिःप्रशंसापदं मामगम्यम् ॥१७६।। चकास्ति प्रभाप्रास्तसान्द्रामतन्द्रा-न्धकारां वचश्चातुरीतेतिचन्द्रा । नमत्सच्चकोरावलीनां प्रमोद-प्रदाने हि नक्तन्दिवा सावधाना ॥१७७॥ तितीर्षा यदि स्यादपारं विसारं, प्रसारि प्रति प्राज्ञ! संसारनीरम् । कथं तन्न भक्तः प्रभो ! प्रत्नसंसा-रपारस्य कत्तत् भयालीप्रकम्प्रम्(?)॥१७८॥ भजेयं भवन्तं भवद्दम्भनाशं, भदन्ताऽभयानाभमार्येभसिंह(?) । सहायः स्फुरत्तत्त्वसद्दत्तभासं, विसन्तापमानातिसद्येतिभीह ॥१७९॥
॥ लघुनायकमणिः ॥ प्रतिष्ठाप्रकृष्टः सुरैर्वन्द्यपादः, स्फुरत्तीक्ष्णप्रज्ञावता गम्यभावः । रतीशक्षितीशाभिमानप्रहर्ता, शिवं रातु रम्भासदागीयमानः ॥१८०॥ खरांशुप्रभस्ते प्रभोऽरं प्रतापो, जनाम्भोजखण्डप्रमोदैककारः । प्रकाशी यतः सर्वदिक्ख्यातकान्ति-र्यतोऽनेकप्रद्वैषिघूका असौख्या: ॥१८१॥ तरीकोपमानाऽस्ति ते श्रीमुनीश!, प्रमज्जत्सतः सन्ततं तारणश्रीः । . प्रभो ! हृत्पयोजे भभैवं(?) विचित्रं, जडत्वं न प्रस्पृष्टमस्ति त्वयैव ॥१८२।। हृतानन्तलोकौघपर्क मनोजा-न्धकारापहं सम्भज ध्वस्तकल्कम् । रसायां यतः स्युः स्फुरद्ब्रह्मभाज-स्तमोमण्डलं ध्वंसतो नारतीव्रम् ॥१८३॥
. . (उपजातिः) जम्भारिमुख्यानतसर्वदेवं, वन्दे सदा प्रास्तकुमानमायम् । यमासमश्रीपरिसेविताङ्गं, गतामयं श्रीकरमङ्गभाजः ॥१८॥ नयश्रियं दारितसर्वकोप-स्ततस्वगीर्वारितपापपङ्कः । यशोमलः सन्ततवीतशङ्को-ऽकोपप्रभुस्तापहरः शिवाय ॥१८५॥ वशाभिगीतोऽवतु सूरिराजो, वन्दारुनृणां शिववर्धकश्रीः । विवर्जितावज्ञजिनावलीनां, वरेण्यसम्भोधिवचःप्रपञ्चः ॥१८६॥
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
(भुजङ्गप्रयातम्)
तितिक्षाक्षमं प्रीतिगीतं भजामो जगत्यां रति- प्रीतिकृच्चारुगीतम् । तिलोत्फुल्लपुष्पाभरूपस्वनासा- सुदीर्घाकृतिन्यत्कृतोद्यत्प्रदीपः ॥ १८७॥ तिरश्चीनमुच्चैः प्रकाशं जगाम, प्रतापैकतिग्मद्युतिस्ते मुनीश ! | तथा चेन्नतद्युस्तमस्तत्कथं भो ऽतिनीचैर्गतं दृश्यते तत्त्वतस्तत् ? ॥१८८॥ तमानम्यतां मुक्तदुर्दम्भमादं, जनौघायितप्रत्तसातप्रमोदम् । दरोद्भेदबद्धादरं प्रस्फुरच्छ्री- भरं सम्मदं बोधितानेकविप्रम् ॥ १८९ ॥ महासूरिसंसन्मणे! दम्भभीते!, पदं ते समं सेवते यः समोदम् । प्रशस्यश्रियो भूरिसत्तिग्मभानु प्रतापेन प्रष्ठाः लभेत् कः सुनीति: (तीः) ॥ १९०॥ नतामानमायानघाले! नमस्या, नरस्येन ! चन्द्रानन श्रीर्नमस्ते ।
असामाद्भुताया गदाले ममास्या, नतस्येह भद्राम्बुज श्रीगभस्ते ! ॥१९१॥ यशः पूरिताशं तमानुन्नपाशं, भजामो जयश्रीपयोजैकभानु । तवांऽह्रिद्वयं सूरिसत्पञ्चवक्त्र !, प्रभप्रीणितप्रस्फुरत्सर्वभूप ! ॥ १९२॥ रमा भारविस्तारसत्सारकारं, स्मिताशं वरश्लोकसोमैकभासा । तपोद्युम्नभाजं हताकामसार्थं, नमस्यामि तं संहरन्तं विशङ्काम् ॥१९३॥ तनु श्रीप्रभो ! ज्ञानदानं विशालं, मयि प्रत्ततत्त्वस्वधैर्यासमान! । महामोहमत्तेभनाशप्रकृष्ट-द्विपारे: (रे!), समाक्रीडितस्वस्तिवासः ॥१९४॥ कपाटाभवक्ष:स्थलं राजमान - स्फुरत्कीर्तिकम्रं सृजन्तं गतारम् । सुलोकावल संश्रये रञ्जितोद्य-ज्जनौघं वसुस्फारसद्दीप्तिभारम् ॥ १९५॥ (उपजाति:) कुकर्ममत्तद्विपदन्तिशत्रु- र्महद्वनि: (?) कामितकामकुम्भः । रङ्गद्गुणोऽमन्दमुदः प्रकुर्यात्, तमः प्रहर्ताऽमितमोहभेत्ता ॥ १९६ ॥
॥ इति मध्यमणिद्वयमण्डितवृत्तरूपपदकडीकलितहारबन्धचित्रम् ॥
१८
कुशलकमलासम्यक्चन्द्राननातिलकप्रभ!
प्रवरनखरप्रख्यात श्रीप्रबर्हकरव्रजः ।
यतिततिपतिः सन्तन्तं तं ददन् प्रमदं प्रति
नयनुतपरं सातं कान्तं नमत्सकलासुर ! ॥ १९७॥ दवरककाव्यम् ॥
खण्ड १
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नयेऽहं तरुणीगीतं, वरानन्तयशोभरम् । रङ्गद्घनघनारावं, तं नुतिं धीरतानगम् ॥१९८॥ मुशलम् ।। नमस्यं श्रीकरं सत्त्व-चित्तेप्सितमरुन्नगम् । । गणतातानगन्तार-रतागं सुममं सुग! ॥१९९।। त्रिशूलम् ॥ नंनममत्पसापापं, सापारश्रीदमच्छगम् । गच्छ मन्दं मसंभार-रम्भागर्जदनेकपम् ॥२००॥ शङ्खः ।। नय त्वं तपसा पञ्च-प्रमाददहनो तपा । परमः ससमत्वश्रीः, श्रीसमारं रसज्ञप! ॥२०१॥ श्रीकरी ॥ नमस्तमस्तमक्षिप्रभेदनतत्परनैकप! । परपद्मापरम्परा-परास्पदपदापता(त!) ॥२०२॥ चामरः ॥ नतमाहं महोधामा पमानारा मयाऽस्ति तम् । तत्त्वभृत् वां महद्ध्यानं, भजे महत्सुसाहसम् ।।२०३॥ हलः ॥ न मानस्विन्नयामोदं, परमार्थप्रदैनसः । सदा क्षयङ्करामन्द-दमनन्ददयाप्रद! ॥२०४॥ भल्लः ॥ नन्दाकम्प्रप्रभो! दक्ष-स्तुत्येष्टप्रकरप्रद! । दमिमानदसत्पाद!, तुष्टिपुष्टिभवज्जन! ॥२०५॥ धनुः ।। नयसद्वनकन्दान-सदागदविनाशन! । नमामि त्वां सतां शर्म-प्रदं परमसत्पन! ॥२०६।। द्वाभ्यां खड्गः नमन्नरवराधाम-मतिप्रशमभृन्मन! । नरानन्ददजीयास्त्वं, यावारप्रकरानम! ॥२०७॥ शक्तिः ॥ नरौघाभिनतो वाम-यमनाममनामय! । यत्नतो हर सूरीन्द्र!, दमभाररभामद! ॥२०८।। रथपदम् ॥ नसममहं प्रकामं, नवीमि समनिर्धमम् । मम सदं हतापायं, महन्मद्रप्रदाभय! ।।२०९।। छत्रम् ॥ ननु भानुसमीज्ञान-गुणवन्! गुरुतास्पद! । दमीन! नदरः कञ्ज-नयनो जय सच्छमी ॥२१०॥ कलसः ।। नमभीमं नदाभीमं, मनमानदनिर्धमी । भीमाभतारयोनिन्दा-मनतानन्तरन्दनम् ।।२११॥ अर्धभ्रमः ।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
नतवासवनागेन!, नगेनासमधीरन! । नरधीप्रद! सद्वान-नदासङ्गम्यवातन! ॥२१२॥ कमलम् ॥ नमन्तु वरविद्यादि-प्रदं कम्रसुलोचनम् । नराश्चञ्चद्गुणं तं श्री-विष्टरारामतासमम् ।।२१३।। शरः ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। नव्यनिन्दा कजश्वासं, घ्नन्तं च सकलं तमः । मदमद्यमहामन्द-दमधामसमं नमः ॥२१४॥ मुद्गरः ॥ नक्षत्रदमिभिः क्लुप्त-चक्षुःसर्ववरोद्गमः । । मंक्ष्विन्दुरिव निर्भिन्द्या, दुस्तमस्ततमीश! नः ॥२१५॥ वज्रम् ।। नन्दि वितनु सद्ध्यानिन्!, नद्धमाशु तमोगणम् । नराणां हर सद्रि(द्री)ति-नयशर्मपदः सदा ॥२१६॥ स्वस्तिकः ॥ नदीव सारवाग् ज्ञाता, तमलाकामदुर्गदान् । दातो हन्त्येव यत्पङ्कान्, संसारशङ्करस्वर! ॥२१७॥ पताकाबन्धः ।। तं श्रीमन्तं महस्विप्रवरमभिनुमः सर्वदा दत्तसातं तत्त्वं पञ्चप्रमादक्षनभनमनमं नो दिशन्तं नितान्तम् । तत्तत्श्रीदं परार्थप्रदससमगुणं सम्रसर्वं सुकान्तं रङ्गद्गं पत्यतत्सद्यननमयदमीनं नमन्मंनदारम् ॥२१८॥ इति परिधिकाव्यम् ।।
॥ एभिश्चित्रैविंशतिदलकमलबन्धचित्रम् ॥ सतां मुत्प्रकरो पारि-भद्रं भुवि गतोलयः । दत्तानिस्तारकृद् भव्य-गुणैस्तारतरोरुकः ॥२१९।। श्रीमन्मुनीन्द्र! पापानि, छिद्याद् भुवनमण्डनः । भक्तिनिर्भरसद्भव्य-वन्दितांहिसरोरुहः ॥२२०॥ नागपाशबन्धः ।। ससम्मदमुदानारं, नूनं मां कुरु रञ्जक! । यशोघः सुनुताधीति-कारः सन्न्याययादरः ।।२२१॥ पतनाश्रीर्हरानाय-रजमोघमदानिह । नय तत्तमहो! रम्या-भापरो निर्दरस्तु वः ॥२२२॥ जगत्तादमनेभावं, हतप्रयासधीवर! । प्रत्तमोनयमन्दार-प्रभस्वश्रेयसं ददन् ॥२२३।। जय सद्गतसन्ताना-ऽमन्दश्रीदमहन् मुने! । रादाभानाना(नन?)वद्यार-दरनूतजन! प्रभो! ॥२२४।।
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जान्युआरी - २०१३
मायाघकुसमं रुग्घी - दारवं निर्जरं हकम् ।
प्रणयन्तं यशोमन्तं, धनतत् सुयमं नुमः ॥ २२५॥
हन्तादारधीरम्यानि, प्रभाकामपरस्वर! |
सत् श्रेणिन्यापदो यः स, रयादनुददन् वरम् ||२२६|| परिधियुग्मम् ॥
कम्रपादद्वयाम्भोज-श्रीकृताम्भोजसज्जयम् ।
संबरारिसमाभासं, सस्फूर्ति श्रीकलामृतम् ॥२२७॥ तत्त्वाधारं गजेन्द्राभ-गमन श्रीप्रधारकम् । कष्टाम्भोधिनिमज्जन्नृ-तारणैकतरीप्रभम् ॥२२८॥ नानागुणकलावासं, दम्भदावाग्निवारिदम् । श्रीमुनीशं स्फुरज्ज्ञानं, दरवारनिवारकम् ॥ २२९ ॥ कलसं मरुतां कामं(म) - कामिते कर्ममर्महम् । प्रणमन्मानवानां मुद्दायकं तत्यकं ( ? ) सताम् ॥२३०॥ राजमानं तपः श्रीभि-मुषां विहताघकम् । कलधौतप्रभोद्यत् श्री भासुरं महिमाकरम् ॥२३१॥ नाराचभ्रूलतं माना-रभेदविहतादरम् । द्यां प्रति प्रगतश्लोकं, वर्णितग्रन्थपेटकम् ॥२३२॥ कन्दगर्जवं मोह - भिदं कन्दर्पशङ्करम् । तिग्मभानुस्फुरदनू-नप्रतापश्रियं सदा ||२३३|| जगज्जनगणाधारं तपस्विव्याधिवारकम् । कथितानन्तसन्मार्गं, प्रभूतविजयश्रियम् ॥२३४॥ भोजभानतभूपं मा- कुशलारामनीरदम् । घनतीर्थकदम्बैक-यात्रासुविधिकारकम् ॥२३५॥ कज श्रेणिसमाश्वासं, प्रकाशितमहागमम् । तपागणपतिं भीरु - रयनिर्भयदायकम् ॥२३६॥ दासीभूतसुरश्रेणि, धीरसङ्घाततायकम् । कदर्थितमहाकोपं, वरचन्द्रसमाननम् ॥२३७॥ निरवद्यतपोभाजं, कलयाकलयाश्रितम् । हंसाभगमनश्रीभी, रञ्जितानेकलोककम् ॥२३८||
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करुणाजलधिं विप्र - दत्तधर्मं सुमानिनम् ।
विच्छिन्नप्रबलापायं शोकभूधरवज्रिणम् ॥२३९॥
यशस्विगुणविख्यातं तन्त्रादिजयकारकम् । कच्छपोन्नतपादाब्ज-मरुणाधरपल्लवम् ॥२४०॥ ततप्रदत्तसद्बोधं, सुन्दराकारमण्डितम् । तथैव कृतसिद्धान्तं, नयशास्त्रादिधारकम् ॥२४१॥ कमनीयमहान्यायं, भवभ्रान्तहत श्रमम् । नख श्रेण्युच्छलद्भानुं तारस्वर्णमणीकरम् ॥२४२॥ हरिवर्ण्ययशोभार-मष्टदुष्कर्मभेदकम् । कलिकालेऽपि गरिम-दायकं सर्वशङ्करम् ॥२४३॥ रक्षाकरं जनव्याधि- विध्वंसकरणे परम् । याचकावलिसङ्गीतं, लक्षणान्वितमूर्तिकम् ॥ २४४॥ कदनच्छेदकं क्षिप्रं तन्वन्तं दिक्षु सुप्रभाम् । संहरन्तं जगच्छङ्कां रत्नद्युतिरदप्रभम् ॥ २४५ ।। परोपकरणे दक्षं, भट्टारकविशेषकम् । कल्पितत्वच्छरण्यानां स्वर्गापवर्गसौख्यदम् ॥२४६||
लक्ष्म्यालिविशदावासं, न्यायसिन्धुनिशाकरम् । निन्दावल्लीकुठाराभं श्रेयस्ततिविधायकम् ॥२४७॥
कलाशालिमहापाय- चाणूरैकमुरच्छिदम् ।
गणाधीशं जगद्ध्येयं, यानरलं शिवाध्वनि ॥२४८|| ललितप्रस्फुरद्वाचं, सङ्कीर्तिकृतनारकम् ।
कमलोपमपादाब्जं, दलभीत्यपहाभिधम् ॥ २४९ ॥ तुष्टचित्त: ससम्मोदं, रञ्जितो मुखदर्शनात् । वन्दामि श्रीधि(ध) रासूनुं, दर्शनस्य प्रभावकम् ॥२५०॥
अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
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चतुर्विंशतिभिः कुलकम् ॥ ॥ गतप्रत्यागतरीत्या परिधित्रयराजितं ९६ दलकमलचित्रम् ॥ तपगणकमलविकाशन- दशशतकिरणैकसममहं वन्दे । श्रीविजयदेवसूरिं, कामितवरकामकुम्भनिभम् ॥२५१॥ परिधिः ।
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तमपथदशशतकिरणं, पञ्चजनप्रतिशरणसमचरणम् । गणसिन्धुशीतकिरणं, नवपातकपङ्कभरहरणम् ॥२५२।। कमलैकतुल्यचरणं, मदरेणुमरुत्समानताधरणम् । लब्धिविधिनीतिकरणं, विश्वामण्डलविभाकरणम् ॥२५३।। कारुण्यासमभवनं, सम्पूर्णप्रवरशीतकरवदनम् । नयनविभावरनलिनं, दर्शनसम्मोदिताङ्गिजनम् ।।२५४।। शशधरकरवरसुगुणं, संसारस्यैकतारणं तरणम् । तपनीयचारुकरणं, कितवदिवान्धैकवरतपनम् ॥२५५।। रवगर्जत्सजलघनं, नैकमहः श्रीनिवासपदनलिनम् । कष्टौघकंसभेदन-संवररिपुजनकतुल्यगुणम् ।।२५६।। मदमत्तमहावारण-मतङ्गजारिं मनोभवेशानम् । हंसगमनासमानं, वरतेजःपादपालिवनम् ॥२५७।। देवीविगीतगानं, श्रीमद्गुरुविजयदेवनामानम् । विद्याक्षितिरुहकानन-जलदसमानैकमहिमानम् ।।२५८|| यतनाविधाननिपुणं, देशनया रज्य(ज्य)मानमघवानम् । वचनरचनासमानं, सूरिसमज्यारमाभरणम् ।।२५९।। रिक्तीभवदभिमानं, कासारसमं महोजले(लैः) पूर्णम् । मिषभेदविधिविधानं, तन्त्रादिवशीकृतौ निपुणम् ॥२६०।। वर्णितशास्त्रार्थगणं, रम्यरमानिकरकेलिवरभवनम् । कार्यङ्गतततकदनं, मन्दरगिरितुल्यमहिमानम् ॥२६१।। कुमतिमदमृगमृगेनं, भज भो जन! प्रवरसूरिराजानम् । निजविद्योतितजननं, भक्तमनोवनकुरङ्गेनम् ॥२६२।। इन्द्राणीमनमोहन-यश:समूहं प्रसारिसज्ज्ञानम् । पण्डितसंशयहरणं, रिपुगणसम्भेदिसद्ध्यानम् ॥२६३।।
॥ ४८ दलकमलम् ।। द्वादशभिः कुलकम् ॥ नवीमि सूरिराजानं, ब्रह्माण्डसुयशोवधिम् । कल्पितानल्पदातारं, सुराचार्यलसन्मतिम् ॥२६४॥ वन्दितानेकराजानं, स्वस्तिश्रीश्रेणिसन्निधिम् । नुवामि दमिनां नाथ, निर्मलाचारराजिनम् ॥२६५।। कर्णिका ।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
श्रीमन्तं विगलद्भीति, विशदस्वर्णवद्युतिम् । जगद्विस्तारिसत्कीर्ति, यशोजितनिशापतिम् ॥ २६६ ॥ देवप्रशस्यसज्ज्ञाति, वंशाकाशदिवापतिम् । सूरीन्द्रं विस्फुरन्नीति, लिपिचकृतस्तुतिम् ॥ २६७॥ श्रीपर्णपर्णसद्वर्णं, स्थिरराजस्य नन्दनम् । राजमोहितनाकिनं, गणस्थगणतारणम् ॥२६८॥ जन्तुसार्थकृतज्ञानं, माननिष्पाद्यकारणम् । वामि सत्कलापीन-मगण्यगुणधारिणम् ॥ २६९ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ ॥ कमलोपरि भ्रमिद्वयम् ॥
'कौकककककाकङ्को, कुककेकां कां ककः । ककुत्क (क्क?) ककिकां काको, ककक कककाककः ॥२७०॥
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खण्ड १
आ(मा) ममेनममानामं, नमन्मुनिमनूनमम् । मुनीनामेनमुन्मानिन् !, मुनेनेना अ (म) नाममम् ॥ २७९ ॥ व्यञ्जनद्वयचित्रम् || तत्तत्तां तनुतां ताता, नन्तानं ते नतानतम् ।
ततनीतिततेतेना - तत (नन ) नूने तितां ननु || २७२ || व्यञ्जनद्वयचित्रम् || ममोद्दाममहाकाम-मदहाममते ! नमः ।
मद्रासममविनमन् !, मर्त्यानाममहागम ! ॥ २७३॥
॥ एकव्यञ्जनचित्रम् ॥
॥ इति बीजपूरादि ९ चित्रमयश्लोकः ॥
इत्थं सतां चित्रकरैः सुचित्रैः स्तुवन्ति साध्या (ध्वा ? ) सुरमानवौघा: । यान् पूज्यपादान् सुरराजपूज्यान्, शिवाप्तये वाञ्छितऋद्धिवृद्ध्यै ॥२७४॥ ॥ इति गुरुवर्णनम् ॥छ
गतप्रमादैरपि सत्प्रमादै वक्त्राब्जसन्तर्जितशीतपादैः । तैस्तातपादैरवधारणीयो- पावैणवं भक्तिभृतो नतिर्मे ||२७५ || प्रमोदपात्री पृथुहर्षदात्री, सम्यग्विधात्री हितहेतुमात्री । कल्याणकर्त्री निखिलार्त्तिहर्त्री, कृपैकपात्री गुणपङ्क्तिधर्त्री ॥ २७६ ॥ इत्यादिगुणविशिष्टा, सौवाङ्गारोग्यकथनचारुतरा । पूज्यैः प्रसादनीया, त्वरितं प्रतिपत्रिसितपत्री ॥ २७७॥৷
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किञ्च ममाऽनुप्रणतिः, प्रशंसनीया प्रसादमासाद्य ।
श्रीतातचरणपङ्कज-सेवनधन्यात्मनां शमिनाम् ॥२७८।। तथाहि- तत्रत्यानां वाचक-कुलकोटिकिरीटरत्नतुल्यानाम् ।
निरवद्यहृद्यविद्या-विशारदानां विमलधाम्नाम् ॥२७९।। वैयाकरण-सुतार्किक-सैद्धान्तिकपङ्क्तिलब्धशोभानाम् । परमोपकृतिरतानां, विद्याधनदानधनदानाम् ।।२८०॥ श्रीतातपादपादाम्बुज-सौरभलीनचित्तवृत्तीनाम् । श्रीकुशलसागराणां, सद्धर्मविधानकुशलानाम् ॥२८१।। लाभाणन्दबुधानां, प्रशस्तसत्तर्कतर्कनिपुणानाम् । श्रीपूज्यपादसेवा-विधानसंलब्धश्लोकानाम् ॥२८२।। मानादिमविजयानां, मुनिजनशिक्षाक्षणैकदक्षाणाम् । मुनिचन्द्रविजयनाम्नां, विधुहाससमानगमनानाम् ॥२८३।। क्षेमयुतविजयनाम्नां, सुलेखलिखनादिकृत्यदक्षाणाम् । सदुदयविजयगणीनां, काव्यरसास्वादविदुराणाम् ॥२८४।। अभिरामरामनामक-विजयगणीनामनन्यवृत्तीनाम् । सुमतिमतिविजयनाम्ना-मनेकमुनिकोटिशस्यानाम् ।।२८५|| चारित्रसागराणां, दर्शन-चारित्रसद्गुणधराणाम् । कल्याणसागराणां, कल्याणसमानकान्तिभृताम् ॥२८६।। नययुतनयविजयानां, प्रभुपादाम्भोजभजनचित्तानाम् । कर्पूरपूरचञ्चल-यशस्विकर्पूरविजयानाम् ॥२८७।। गणिहीरसागराणां, हीरोज्ज्वलहारिविशदरदनानाम् । सदयाद्यपदाभ्यर्थित-सागरपदनामधेयानाम् ॥२८८।। सुविनीतविजयनाम्नां, सुविनेयविनेयपङ्क्तिप्रष्ठानाम् । कृष्णपदयुक्तविजया-ह्वानानां तातकृत्यविदाम् ॥२८९॥ कमलाणन्दगणीनां, कोमलकमलाभवदनकमलानाम् । विजयाणन्दमुनीनां, पठनोद्योगप्रधानानाम् ॥२९०॥ मुनिविजयसागराणां, सारस्वतपाठपठनचञ्चूनाम् । सुविशालसागराणां, मुनिविस्मयकारिकवनानाम् ॥२९१।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
शान्तेविजयमुनीनां, चीवरवरकोशरक्षणपराणाम् । लालादिमविजयानां, मुमुक्षुसन्तोषणपराणाम् ।।२९२।। सुप्रीतप्रीतिसागर-नामकदमिनां गणित्वयुक्तानाम् । शैक्षकउत्तमसागर-नाम्नामाह्लादितान्यधियाम् ॥२९३।। षष्ठाष्टमादितपसो, विधायकानां सुपार्श्वविजयानाम् । गणिवरमतिविजयानां, गोचरविधिसावधानानाम् ॥२९४।। मुनिगजसागरनाम्नां, जयादिविजयाभिधानसाधूनाम् । रत्नत्रयसत्यापन-कुशलानां रत्नकुशलानाम् ।।२९५।। चाम्पश्री-प्रेमजी( श्री)-सहजश्रीप्रभृतिसाधु-साध्वीनाम् । नत्यनुनती प्रसाद्ये, अत्रत्यानां मुनिजनानाम् ॥२९६।। प्रीतेविमलबुधानां, रोहाभिधग्रामवेदभासकृताम् । लालकुशलाख्यविदुषां, शिष्याध्यापनप्रवीणानाम् ॥२९७॥ गणिहस्तिविजयनाम्नां, रु(ऋद्धिसोमाभिधानशमिनां च । सत्यादिमविजयानां, सिद्धेविजयाभिधानानाम् ॥२९८॥ दीपाद्विजयमुनीनां, गणिदर्शनविजयसझकयतीनाम् । उदयविजयाभिधानां, सुमुक्तिपदयुक्तविजयानाम् ॥२९९।। दर्शनविजयगणीनां, हर्षादिमविजयसज्ज्ञकगणीनाम् । गणिवीरकुशलनाम्नां, जीताद्विजयाभिधानानाम् ॥३००।। वीरादिमविजयानां, शिवपदसंयोजनाप्तविजयानाम् । लक्ष्मीविजयगणीनां, रविविजयानां गणित्वजुषाम् ॥३०१॥ कुशलादिमविजयानां, लब्ध्यादिमकुशलसञ्जकमुनीनाम् । ऋषिलाडिकाख्यदमिनां, देवय॑भिधानधातृणाम् ॥३०२॥ मुनिविजयसोमनाम्नां, चाम्पर्षि-वृद्धिविजयदमिनां च । वृद्धिविमलाख्यशमिनां, मेराख्यऋषेश्च किञ्चाऽन्यत् ॥३०३॥
(विद्याविमलाभिधानस्य) डाभेलाख्यं स्थितः सत्य-विजयः कुरपालयुक् । प्रह्लादनपुरे विज्ञाः, विबुधादिमसागराः ॥३०४।। गोलाग्रामे स्थिता: श्रेष्ठे, रवेविमलसज्ञकाः । पार्श्वस्थिते राजपुरे, देवाद्विजयनामकाः ॥३०५।।
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जान्युआरी - २०१३
रामजी-रामविजयौ, दन्ताख्यग्रामसुस्थितौ । इत्यादयः ससङ्घास्ते, प्रणमन्ति प्रभोः क्रमान् ॥३०६॥ . तथाऽत्रत्यः सङ्घः प्रणमतितरां भव्यविधिना विधायोमापुत्राम्बकततिमितावर्तकनतिम् । नितान्तं ताताज्ञां शिरसि निवहन् पुष्पपटलीमिवाऽऽसाद्याऽऽमोदं मुदितमनसाऽनूनकलया ॥३०७।। आनन्दकारी विबुधव्रजाना-माह्लाददः श्रोतृजनव्रजेषु । यस्य ध्वनिर्धावति धूतपक्षः, स्वपक्षरक्षाक्षणबद्धकक्षः ॥३०८।। विद्वेषिमार्जारभयप्रणाशी, प्रेक्षावतां रञ्जतु मानसानि । नवाङ्कषट्कैरवबन्धु (१६९९) वर्षे, दीपालिकापर्वणि लब्धजन्मा ॥३०९।। श्रीमद्गणाधीशगुणप्रकर्ष-मुक्ताफलस्रग्लतयाऽभिरामः । क्रीडन् गणाधीशशयाब्जयुग्मे, सोऽनघे सौख्यकरोऽस्तु शश्वत् ॥३१०॥ यतिततिपतिभक्तिव्यक्तिसम्पूर्णचेताः प्रथमविशदवृत्ताभ्यासनिर्माणदक्षः । प्रणमति सुविशेषात् तातपादाब्जयुग्मं .
सदुदयविजयाह्नः सिद्धिवृद्ध्यै श्रिये च ॥३११।। ॥ इति लेखक-वाचक-श्रोतृणां लेखराजहंसः कल्याणमालायै भवतात् ।।
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C/o. 'अरिहंत' समृद्धि पासे, हाई वे
डीसा (ब.कां.)
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
(२)
भ. श्रीविजयप्रभसरिं प्रति प्रेषितं
महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिगुम्फितं श्रीगुरुविज्ञप्तिलेखरूपं चित्रकोश-काव्यम्
२८
स्वस्तिश्रीसर्दनं भजानि सुगं श्रीविश्वसेनाङ्गजं, स्वस्तिश्रीसदनं भजानिसुभंगं श्रीविश्वसेनाङ्गजम् । स्वस्तिश्रीसँदनं भर्जानिसुभगं श्रीविश्वसेनाङ्गजस्वस्तिश्रीसदनं भजानिसुर्भगश्रीविश्वसेनाङ्गजम् ॥१॥
खण्ड १
महायमकालङ्कारकाव्यम् I अहं श्रीविश्वसेनाङ्गजं भजानि-सेवां करवाणि । किं० ? मङ्गललक्ष्मीगृहं । पुनः किं० ? सुभगं - सौभाग्यभाजम् ।
अथास्य व्याख्या
हो. विनयसागर
स्व:- स्वर्गस्य भावः स्वस्ता, सा विद्यते येषां ते स्वस्तिनो - देवास्तेषां श्री: - कान्तिः तस्याः सदनं प्रापणं यस्मात् स तम् । भानि - नक्षत्राणि जाया यस्य स भजानि-श्चन्द्रस्तद्वत्तेजस्विनं । पुनः किं० ? श्रीश्च विश्वञ्च जगत् सेनायां अनुचरत्येने (?) येषां ईदृशाः अङ्गजाः पुत्रा यस्य स तम् ।
पुनः किं० ? स्वस्तिरूपा श्रीर्वप्रत्रयरूपा तस्यां सीदति - तिष्ठतीति स्वस्तिश्रीसत् । न विद्यते नो-बन्धः कर्मणां यस्य स अनस्ततो विशेषणसमासस्तम् । भजन्ते-सेवन्ते ते भजा:- सेवकाः पचाद्यच् । ईदृशा: आनिन:- प्राणिनस्तेषां शुभं - शुभकर्म स्मरणादि, तद् गच्छति - प्राप्नोति इति तथा तम् ।
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पुनः किं० ? श्रिया युक्तं विश्वं जगत् सेना यस्य ईदृक् अङ्गज:कन्दर्पस्तस्य या स्वस्ति श्रीर्दिव्य- लक्ष्मीस्तस्याः सदनं - विशरणं यस्मात् स तं कामजेतृत्वात् । पुनः किं० ? भजानिश्चन्द्रश्च सुष्ठु - शोभनो भगः सूर्यः तयो: श्री: शोभा लक्ष्मीर्वा, विश्वानि - समग्राणि सेनाङ्गानि - हयादीनि जनयतीति भजानि१. गृहम् २. सौभाग्यभाजम् ३. तेजस्विनम् ४. स्वस्तिश्रीसच्चाऽनश्च स्वस्ति श्रीसदनम् ५. नो बुद्धौ ज्ञानबन्धयोरिति सुधाकलशः ६. भगोऽर्कज्ञानमाहात्म्ययशोवैराग्यमुक्तिषु, रूपवीर्यप्रपन्नेच्छाश्रीधर्मैश्वर्ययोनिषु ॥ इत्यनेकार्थः ।
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जान्युआरी २०१३
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सुभगश्री विश्वसेनाङ्गजस्तमित्यर्थः ॥ १ ॥
कः स्तोतुमीष्टे तपनथसूत्रतः कम्रप्रतापं नवसूर्यमुद्गतम् ।
४
ततं नमस्युग्ररुचा कृतोत्सवं, तपं बलात्तेङ्गितमोपहं ध्रुवम् ॥२॥ छत्रचित्रम् कदेशदेवांशकदेहशस्ता, लोकं नु धृत्वा शिरसाहितं वः । वर्ते वरं वस्तु बले वशीव, देवस्य वन्द्यं बत वंशवन्तम् ॥३॥
चामरचित्रम् कं कं जनं भाववरं पुनाति ना, नानाप्रभावैः स शर्मस्य भावना । ततः प्रभोर्ज्ञानर्मंहः परोङ्गिनां पापापहारी न न विष्टपेधुना ॥४॥
२९
स्वस्तिकचित्रम्
कल्याणराशा - विह या घना सा दीप्तिस्तवेशास्ति तनौ निलीना । नाकेपि नानाकविना स्तवेन, नवेन नाव्या कर्थनेसु नाथ ! ||५|| श्रीकरीचित्रम्
करिहरिस्वरभासुरविस्तृत, वरनवच्छविशुद्धमरुत्पथ | र्थं इव मन्जुलदाग्रिमनिसैम जय विभो ! सुर्रभास्वरभौरभाः ॥६॥
कलशचित्रम्
कल्पद्रुर्भूतेस्त्वैमभीष्टदाता, कलाभरेणेन्दुसमः कैलाभात् । भाव्यस्तमस्संहरणेन भाले भाग्याधिको भानुविभाप्रभावः ॥७॥
कथञ्चन श्रीजिनभूमिजाने नेतैर्वचः सारमवाप्य जीवः । बध्नाति सम्यक्त्वदशां सरागं, गंता शिवं तर्हि सुखासिकं तत् ॥८॥
धनुश्चित्रम्
द्वाभ्यां खड्गचित्रम्
कं नुत्य भूशर्मभरं सभासु सुधीः पदं सञ्चितनुकं तत् । तपार्य ! संपूज्य लभेत नाना तवेश ! विश्वे हृतपातकं नु ॥९॥ शक्तिचित्रम्
१. हे नाथ, संक्षेपाद् तथा ऋषयः । २. इव ।
३. ईशाः समर्थाः ये देवाः तेषां शाः यस्मिन् एवंविधो यो देहः तस्मिन् शस्तः प्रशस्तः लोको यस्य स तं ।
४. युष्माकं, ५. एतादृशं ते भगवतः ६. तेजः, ७. सा, ८. स्तोतव्या, ९. वर्तते, १०. यस्मात् ११. तुल्य, १२. देववत् १३. समूह, १४. स्वयं राजते १५. उपमाः, १६. सुख, १७. हे, १८. तेज:
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
करोति सांमुख्यकलां गभीर-ज्ञानक्रियोत्तस्थविचित्रभानुः । नुतोऽतिभक्त्या भगवान् सभासु सुरासुराधीशवरैः सदासु ॥१०॥
भल्लचित्रम् कष्टामयादिप्रशमे प्रतीतं तन्त्रेडितं मुक्तिधियां सुधांशुम् । शुभ्रं यशोमिः प्रकटाङ्गशोभं कल्याणवान् को न भजेददम्भम् ॥११॥
वज्रचित्रम् कर्माङ्कमातक्ष्णु हि दिव्यचारु-श्रियां प्रसादं कुरु वीतलोभ ! । भद्रङ्करोत्पादय बोधगर्भं शुभं स भव्ये भविसंहयङ्गम् ॥१२॥
मुद्गरचित्रम् कन्दर्पनिर्मन्थनकर्मभीम-मभीतिमायं रविभास्वदङ्गम् । गन्धर्वगीतं भज सप्रमोदं सुहृज्जिनेन्द्रं मनसा ह्यनन्तम् ॥१३।।
हलचित्रम् कल्याणगेहस्य कुलध्वजोरे बोधस्य ते भृत्यतयाऽस्मि पूतः । तथा कुरु त्वं जिन ! शुद्धभावो रुजो यथा याति कथाऽतिदूरात् ।।१४।।
मुशलचित्रम् कथं नु भासा तुलयेत राज-बिम्बं ग्रहान्तं कितया तवाऽऽरोत् । राजन्मुखब्जेिन नतेन्द्रनित्या यतोऽभ्युदीताततिकान्तिराका ॥१५॥
शरचित्रम् कन्दर्पदानप्रतिमाऽस्ति भूत-पते प्रथा शुष्कलतेव रङ्का । कामं जयंस्त्वं जयरङ्ग! सां सा-गरं वरीरावरकं स शङ्कर ॥१६।।
त्रिशूलचित्रम् कं कं तरन्तं इम सामम्मसाम्मवं भरांतरामं क्लमहारि संबर । रवं सरित्थं क्षमया श्रितं रसा सौर तवाऽधीश ! न वेद सुव्रतम् ।।१७।।
शङ्खचित्रम् १. कुले ध्वज इव, तत्सम्बोधनं हे. उरु-महत् बोधो यस्य स तस्य, समान; २. भूरि, ३. तव, ४. रोगस्य, ५. हे, ६. मुखात्, ७. कीर्तिः, ८. दीना, ९. लक्ष्मी, १०. वरस्य इष्टस्य वस्तुनः अरं अवरक:-आच्छादकं, हे वक ! हे श्रीद ! वको रक्षोभिदि श्रीदे शिवमल्लिबकोटयोः । ११. देह, १२. धनं, १३. सारं धनं यस्य हे ।
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कराम्बुजारूढरुंचात्र देवो भक्त्या नतं मां सततं सर्मान्तं । तनोतु सिद्धेर्महसां समृद्धं, स साहसं भासुररंसुभासम् ।।१८।।
रथचित्रम् कविसम्पत्कयासन्ध, वितराशावशावश । सरां तर शयाशायां, पसार तत शम्बक ॥१९॥ अर्द्धभ्रमचित्रम् कपालशोभं गिरिशं कलङ्क-करं कविं तन्वमना भजेत्कः । कजे भवन्तं मनसीशमेकं कमेशयालुं धृतशीलपाकम् ॥२०॥
कमलचित्रम् करप्रसादं कमलां नितान्तं देहीश ! शोभा महसां प्रकाशम् । शम्भो ! क्रमाम्भोजमहं श्रितोऽस्मि सदाऽवदातं कृतसातजातम् ॥२१॥
ध्वजचित्रम् तं देवं शाश्वतश्रीसमुदितमहसानन्तरूपं भदन्तं त्रस्तानां सातदाने सुरतसमरुजं तत्त्वबोधं कतन्त्रम् । नत्वा सन्तं सुरेशार्चितमुदयभृतं शुक्लमांसान्तभाज तन्वन्तं नाथ ! भावं तनुसुभगतराकारतः सङ्कसन्तम् ॥२२॥ इति श्रीचित्रकोशकाव्ये लेखरूपे श्रीजिनवर्णनाधिकारः ।
नगरवर्णनादिकं समाचारचक्रमप्यन्तरान्तर्गतः ।
अथ श्रीगुरुराजवर्णनम् स्वस्तिश्रीरमणीमणीस्रजमिव श्रेणी नखानां विभोर्यस्याऽवेक्ष्य वितर्कयन्ति कवयः शोणत्विषं भेजुषीम् ।
१. कया २. मा. लक्ष्मी तस्या अन्तं-निश्चयः तेन सहवर्त्तते समांतः तं समान्तं, अन्तः स्वरूपे
निकटे प्रान्ते निश्चयनाशयोरवयवेपीति - अनेकार्थः । ३. हे कविसम्पत् ! कया संधा प्रतिज्ञा । ४. तव स्तव कर्तुमशक्य इत्मनः । ५. शुक्लं मांसे येषु ईदृशा अन्ताः अवयवाः तेषु भानं शोभने यस्य ते, अन्तः
स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चयनाशयोरवयवेऽपीति । ६. रक्त
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
जाग्रद्पनिरूपणेऽतिनिपुणं स्वीयप्रतापप्रभं, कूरं पूरयति स्म विस्मयकरं स्वामी किमेतमिषात् ॥२३॥ देव विस्तृतमहो महोष्मणा, दग्धपादरुणवज्रनेऽरुणः । स्यादनूरुरिह चेन्न सिञ्चति, शीतलैर्निजकरैः सुधाकरः ॥२४॥
अथ द्वितीयाधिकारे नगरवर्णनम् । यथा - यत्र चित्रभरचित्रितचैत्य-श्रेणिरुन्नततरा मनुजानाम् । नृत्यगुञ्जदुरुम मृदङ्ग-निस्वनैर्धनमिहाऽऽह्वयतीव ॥१॥ प्रत्यहं जिनवरप्रतिमानां, पूजनासु सुजना रतिभाजः । भक्तिचित्ररचनैविबुधानां, तन्वतेऽनुकरणं विविधानाम् ॥२॥ फुल्लपङ्कजदृशः कृशमध्याः, विस्मयेन वनिता-विनिमेषाः । उद्भटस्फुटकटाक्षविशेषाः, स्वर्वधूरिह जयन्ति सुवेषाः ॥३।। श्रीगणेन्द्रपरमेश्वरसेवा, सज्जनद्विरदनर्मणि रेवा । तामवाप्य नरदानवदेवाः, स्वं पुनन्ति ललनैर्ननु के वा ॥४॥ भूरिभूरिभरदायिवदान्याः, संवसन्ति नृपराजिषु मान्याः । सत्रसद्मनि वितीर्णसुधान्याः, रागिणः सुगुरुभक्तिभवान्याः ॥५॥ यानवेक्ष्य ददतः किल दानं, नीरदाः स्वजनितोऽप्यवदानम् । स्वं मदं जहति ते सनिदानं, लज्जयैव दधतोऽम्बुनिदानम् ॥६॥ स्वर्गवी-सुरमणिप्रमुखानि, यैर्जितान्यथ ददन्ति सुखानि । सद्वसूनि धनिभिः प्रमुखानि, स्पर्द्धते क इह तैर्वृषखानिः ॥७॥ यत्र चैत्यशिरसि स्थितिशाली, शातकुम्भकलशः किरणाली । मोचयन्निह बभंस्ति विशाली, भूतभाः किमुदितः शुचिमाली ॥८।। सत्कायकान्ताः सुमनःकुमारा, मारादतिस्फारतरा रमन्ते । दृशा विशालाः श्रितलेखशालाः, शालाभुजाः पाठकृतः प्रभाते ॥९॥
१. नखस्य
२. अरुणः ३. नूरु सारिथेरिव ।
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जान्युआरी - २०१३
का मानमानन्दकृते पतीनां, नारी न धत्ते धृतशीलसारम् । रसालसा रम्यवपुः स्वरूपा-ऽपाङ्गेक्षणक्षोभितदेवतारम् ॥१०॥
द्वाभ्यां सिंहासनचित्रम् नालीकभाजः सुतरङ्गसम्पदः पदं रसानां रणदुच्चहंसकाः । नार्यो विलासिप्रसवैमनोरमाः, समाः सरस्यश्च सुमार्गपालिकाः ॥११॥
द्वयर्थः । सिंहासनस्य पृष्ठे फलकचित्रम् । श्रीवीरुधां पल्लवने पयोधरः, श्रीकण्ठवद् यत्र महाव्रती चिरम् । विवस्वदुद्भासितप्रभाभरः, जयस्तपोभिः स्मरयोधमुद्धरम् । .
यतीश्वरस्तिष्ठति लोकशङ्करः ॥१२॥
पञ्चपदी प्रज्ञानिधिस्तस्य जनो निरन्तरं, भक्तिं करोति प्रसभं धनाकरः । सूर्योदये दानविधिं दधत्परं, रित्थैर्मुदा पूरयतेऽर्थिनां करम् ॥१३॥
सिंहासनोपरितनं पुष्पम् । सर्वाङ्गीणोपतापं हरति सरसिजालीषु लीनोच्चहसं, सम्यग्विस्तारिवारिप्रवरशमभृतां तीर्थतीरप्रदेशम् । संसक्तं वीचिरोचिर्मुदितशफरिकानर्त्तनं सप्रशंसं, संसाराम्भःसरस्यं निहितसरिदयं यत्र यक्षेन्द्रवासम् ॥१४॥
श्रीवत्सचित्रम् । तीर्थं श्रीवरकाणपार्श्वभगवद्दीप्रप्रदीपोदितं, तद्दिव्याः पददं परीतममरैर्नेतुर्जयश्रीकरम् । प्रोल्लासेन विनोदकारि जगतां यत्र त्रयं वासवावासस्य भ्रममभ्रसङ्गिशिखरैर्धत्ते जिनासेवने ॥१५॥
मत्स्ययुगलचित्रम् । यत्र श्रीपरमेशितुः गणपतेः पादाम्बुजन्यासतः, सन्तस्तं परिपूजयन्ति जगतीदेशं सुरूप्यादिभिः ।
१. "पाथोजनेत्राः" इत्यपि पाठान्तरं । २. "पाठीनपोतैः प्रमदामनोरमा" इत्यपि पाठान्तरम् ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तेनैतन्नगरं पुरन्दरपुरं साक्षाद् हसत्युच्चकै
रुच्चश्रीमति विन्ध्यशैलनिकटोपस्थायिनि श्रीपुरे ॥१६॥ अथ श्रीसादडीनगरवर्णनम् -
मनोऽभिरामं महसां निधानं, मनोस्तनूजं जयकृत् पुनानम् । भद्रङ्कराभं भविसन्निधान-मत्राऽस्ति जैनं नवचैत्यभानम् ॥१७॥
स्वस्तिकचित्रं, बीजपूरकचित्रं वा । शृङ्गत्रयी यत्र विहारराजः, शक्तित्रयीव प्रकटा रराज । विश्वत्रयीकीर्णविहारराज, पूर्णा नमन्मानव दारराज ॥१८॥ यस्यां जिनानां महनं नरार्याः, ससम्प्रदाय यतिनां विविक्तम् । स्रजंजलिक्षेपपथोदितं त-त्सरागगन्धर्वजनैः सृजन्ति ॥१९॥ यतो जनानामनृशंसभावो, मुमुक्षुलोकः कमनेन नम्रः । पदं दया याहि हितोऽङ्गनानां, वर्गो ललज्जे त्रिदिवं ततोऽस्मात् ॥२०॥ यस्मिन्नृपः पक्षबलं रथादे-रलङ्कृतं संसदि भूरिरित्थैः । सर्वं वरिष्ठां ससहः प्रशंसं, दधाति तिग्मांशुविभाप्रभावः ॥२१॥ . यक्षेश्वरारामसमं मनोज्ञं, ममन्दवृक्षं क्षणदाररङ्गम् । वनं नरैः सन्ततसेवितं तद्, रसालरम्यं नगरोपकण्ठे ॥२२॥
चतुर्भिः नन्दावर्त्तचित्रम् । वाचंयमानां निलयो नवीनो, मनोविनोदं तनुते सभावात् । वाचं यतेराननतः शृणोति, तिरोहिताघं घनधीः सभावा ॥२३।।
भद्रासनचित्रम् । नृपालभालस्थलतेजसा बलं, रयादरीणां व्रजति द्रुतं द्रुतम् । तस्मिन्पुरे चौररवः क्व सम्भवेत्, शौरं महः किं सहते तमोररिम् ॥२४॥
शरावसम्पुटचित्रम् । वशाऽवशा यत्र सुपात्रदाना-दानाकवित्ता सहसां जिनानाम् । नानागुणान् गायति यत्र सारा, सा रागतोऽङ्के दधती सुशावम् ॥२५॥
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जान्युआरी २०१३
वंशावतंसे निजकीयनाथे, भक्तेरुपायं नितमां दधत्सु । सायं वराऽर्हद्गुरुवंशगाना - न्नारीजनेष्वस्ति सुधर्मभावः ||२६|| द्वाभ्यां दर्पणचित्रम् । धनं धनं मानवनन्दनं वनं, जनः सनर्भानवनन्दनः पुनः घनस्वनस्तानमनं कनं वनं, श्रीनन्दनन्दानदिनं सुनन्दिनः ॥२७॥ एतानि सर्वाण्यपि यन्नगर्यां वर्यां सपर्यां प्रथयन्ति लोके । स्वर्वासिनां स्वर्गनिवासकर्म - सुवासनां च श्लथयन्ति सद्यः ||२८|| गोमूत्रिकाचित्रेण चतुर्विंशतिदलकमलचित्रेण वा सममर्थतो युग्मम् । वसन्ति यस्यां नवभूषणान्विता, वदान्यमुख्या भुवनाभिनन्दिनः । वरिष्ठदानैरवनौ सुनीरदाः, वंशावतंसाः शिवमार्गसाधकाः ॥ २९ ॥ कामस्वरूपा धनदाधिकाः श्रिया, तालध्वज श्रीविभुताद्भुताः सदा । नरेन्द्रमान्या वरपूजने लया दाद्यप्रभोस्ते रसिका महर्द्धिकाः ||३०|| युग्मम्, अष्टारचक्रचित्रम् । विलासिनीनां कलगानमङ्गलै - महं गता सर्वसुरासुरादयः । स्वमानिनीमिः सह मानवस्थले - ऽन्वहं समीयुर्वसुधाकृतोदयम् ॥३१॥ नागसङ्गमचित्रम् |
जिनेन्द्रचैत्याग्रिमगोपुरस्फुरत्- कपाटलक्ष्मीपटुतादिह क्षया । साक्षादिवायादिह देवसायकः, शिरः स्थितश्वेतगजेऽधिरुह्य सः ॥३२॥ गजराजः पुरोभाग-गर्भारोहादिना नगः । गणनायकसाराङ्ग-गलांसाक्षः सुराजगः ॥३३॥
सद्भाजनस्तत्त्वविचारवेदी, सभाजनव्याप्तमना मुनीनाम् । स भाजनं श्रेष्ठविदां जहार, सभां जनं श्रीजिनपूजनेन ||३४||
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मालतीपुष्पचित्रम् |
पदादियमकम् ।
लङ्कापि रङ्काशयभृद् यदग्रे, प्रभाऽपि साऽऽभात् किल निष्प्रभावा । तस्याः सुपुर्या विबुधाश्रितायाः, सप्तच्छदीत्याह्वयविश्रुतायाः ||३५|| स्मरन्निव स्मेरमनोम्बुजात - र्जाग्रत्स्वरूपं गुरुराजरूपम् । तद्वासनाद्वैतसुधासरस्यां, ललन्निवाऽनन्तरसप्रसङ्गे ||३६||
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
पुरः प्रपश्यन्निव सूरिपादान्, नमत्स्वशिष्ये विहितप्रसादान् । मूर्द्धानमानन्दभराद् दधानः, प्रधानभावात् प्रभुपादपद्मे ||३७|| शिशुः समेघाद् विजयो जयोर्वी-पतेर्मतेः स्फातिकरस्य सम्यक् । गणप्रभोर्भक्तिभरेण नम्रः, संयोजयन्नञ्जलिना स्वभालम् ||३८|| चित्रैर्विचित्रैर्युवतीव जीव - प्रागल्भ्यहेतुः सुमनोऽभिगम्या | विज्ञप्तिपत्त्री महसः सवित्री, सोज्जीवयंस्तामिति वावदीति ॥ ३९॥ चतुर्भिः कलापकम् ।
यथाकार्यं चाऽत्र
-
"
जाते रवेरभ्युदये प्रभाते, द्विजेशपक्षः क्षयमाप तापात् । पापान्नभःश्रीस्तिमिरप्रपञ्चाद्, विमोचिता पङ्कजबान्धवेन ||४०|| ग्रहप्रणाशाद् रविहव्यवाहे, जोहूयमाने विधुधामदुग्धे । तारावतारैस्तिलपिञ्जभारैः समं समङ्गल्यविधिर्बभूव ॥ ४१ ॥ स्वाध्यायकर्माद्रियते तदाऽत्रो - त्तराभिधानाध्ययनैः क्रमेण । व्याख्या पुनः श्राद्धविधानवृत्ते विधीयते रञ्जितचित्तवृत्तेः ॥४२॥ तपोधनानामपि शास्त्रपाठः, प्रस्तूयते सन्तपने तथैव । एकान्तरैरप्युपवाससारै -विशाऽर्हतस्थानकचिन्तनाद्यैः ॥४३॥ उद्घोषणा मासचतुष्टयेऽपि, विधापिता जीवदयां प्रतीत्य । अभूतपूर्वा नृपसन्निधानाद्, भक्तैर्गुरूणां वचनानुरक्तैः ||४४|| क्रमागतं वार्षिकपर्व सार्व महार्चनैरुत्सवनर्त्तनैश्च । षष्ठाष्टमाद्यैः सुतरां तपोभि - दनैर्निदानैश्च शुभोदयस्य ॥४५॥ परस्परं लम्भनिकां विकाशैः, पक्वान्नवृन्दैः सह पारणाभिः । नवक्षणैः सक्षणभावनाभिः श्रीकल्पसूत्रार्थविबोधनेन ॥ ४६ ॥ सञ्जायते स्मोपचितं सुपुण्यै - रानन्दपूर्णं कृतपापचूर्णम् । मनाग् न तत्राऽभवदन्तरायः, श्रीपूज्यपादस्मृतिरत्र बीजम् ॥४७॥
इति श्रीगुरुविज्ञप्तिलेखरूपे चित्रकोशकाव्ये श्रीनगरवर्णनाधिकारोऽयं द्वितीयः ॥
खण्ड १
त्रिभिर्विशेषकम् ।
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जान्युआरी - २०१३
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अथ तृतीयाधिकारे श्रीपरमगुरुराजवर्णनं, यथा - अनाहार्या भूषा भवति वपुषः का, नरपतेः, प्रियः संग्रामे कः, किमिह कुसुमं दानतरुजम् । रवेर्लक्ष्मी का स्याद्, भवति सुकृतात् किं जनहितं, पुरस्ताद् युद्धे कः, किमिह गृहिणां मण्डनमहो ॥१॥
विद्या, जयः, यशः, प्रभा, भद्रं, शूरः, रित्थम् । एषां यदन्त्याक्षरमार्जनेन, पुरोगवर्णैर्मिलितैः क्रमेण ।। येषां भवेत् श्रीसहिताऽभिधाऽस्मिन्, भट्टारकांस्तानथ संस्तवीमि ॥२॥
भट्टारकश्रीविजयप्रभसूरिः ।
प्रश्नोत्तरजातिः । 'जननतः शुचिरागमनायकः, स नयतां गणभृद्विजयप्रभः । जननतः शुचिरागमना यकः, सनयतां गणभृद् विजयप्रभः ॥३॥
समुद्गकचित्रं पादयमकं च । जयति भानलदेतनुजश्चिरं, जयविभारुचितो जनुषध्यरम् । जनितभावभरैरनुसञ्चरद्, जनशुभाशय एष नुतोत्तरः ॥४॥
अकण्ठ्यव्यञ्जनं बीजपूरचित्रम् । भवप्रिया विश्वसुखप्रदा का, डाः के षिदां विसहमुक्तशङ्काः । रतेः पदं किं प्रवदन्ति लोकाः, कः स्वैर्धनैरत्र बिभर्ति रङ्कान् ॥५॥ श्रीवल्लभः कः सुमनो हृदो का:, विद्वान् किरातीयकृदत्र कः का । जगत्प्रसारोद्धरणक्षमा का, यत्नात् कृताः शोभनसाधुताः काः ॥६॥ प्रकर्षतः कं प्रणयन्त्यभीकाः, भवेच्च को मोचयिता कलङ्कात् । सूदं स्मरादर्हति कः शशाका-रिष्टं निहन्तुं भुवि कः सुधीकः ॥७॥
सूर्यमुखीपुष्पचित्रम्, प्रश्नोत्तरजातिश्च ।
१. जननत:- जन्मतः वंशतो वा शुचिः- पवित्रः । आगमः परम्परा तस्य पतिः । २. यक:- यः ईदृशः स गणभृद् विजयप्रभः सनयतां- न्यायवत्तां नयतां- प्रापयताम् । किं० जनैः प्रणतः शुचौ- शुद्ध धवले वा रागस्तत्र मनो यस्य सः । पुनः किंविशिष्टः? गणभृद्- ईश्वरः, तद्वत् विजयस्य प्रभा यस्य सः । *प्रश्नस्याऽस्योत्तरं कोष्टके नाऽस्ति -सं. ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
वा | भ म य ध र | ग त | सं | ष | र्य | राः |
| ट्टाः णी | कः रः | विः | ति | यः | गं | भः कः | रि
पदाद्यवर्णोदितनामधेयाः, श्रीसूरिराजाः स्मररूपधेयाः । लोकेऽभ्युदीताद्भुतभागधेयाः, सन्तः सदाऽमी हृदि सन्निधेयाः ॥८॥
चतुर्दलं देवकुसुमम् । शिवाङ्गजो लब्धरजोऽङ्गवासि, शुभाशयः शस्तशयः सभासु । बभार शान्तः श्रुतसारभावं, सदानमासन्नसमा न दासः ॥९॥
वहीं श्रीं अहँ श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथाय ऐं नमः । जयति नगरे यस्मिन्नर्हन्निकेतनकेतनं,
द्विविधतनुभृत्तापव्यापव्यपोहसचेतनम् । अनुगुणगुणैर्मोदोधानात् कृतामृतवेतनं,
- समहिमहिमच्छयामायाप्रमोदितचेतनम् ॥१॥ जिनवरगृहश्रेणीमेणीदृशो धुसदां सदा,
त्रिदिवभवनादभ्यायान्तीकृताम्बरडम्बराः । तरणिसरणिव्यासादाप्तश्रमोदविनोदनात्,
सुखयति मुदा हेतुः केतुः समीरसमीरणैः ॥२॥ दिनकरकरास्तापव्यापत्करा रसतस्करा,
जगदपि पराशोक्ष्यन्नेते कृशानुनिशानुगाः । यदि जिनगृहश्रेणीप्रौच्चैर्ध्वजाञ्चलचालनैः,
शिशिरमनिलं दैवान्नैवाऽकरिष्यदहनिशम् ॥३॥ तुलयितुमिवाऽऽनाहोत्साहप्रपञ्चविशेषणै
- स्त्रिदशनिलयानध्यारूढानुदूढमदाद्दिवम् । दनुजमनुजस्थित्या चैत्यावली समहोच्छ्रया,
ननु वितनुते दूरान्मार्गाद् ध्वजाञ्चलतर्जनैः ॥४॥
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जान्युआरी - २०१३
जिनपतिपुरो नृत्यद्दिव्याङ्गनाजनवादिता
तिगुरुमरुजवानैश्चैत्यावली खलु गर्जति । विबुधभवनान्युच्चैर्नीत्वा ध्वजाञ्चलवायुभि
लघुतरतया मुक्ताधारे भ्रमन्ति नभोऽध्वनि ॥५॥ भवजलनिधौ मज्जज्जीवव्रजोद्धरणाशया,
प्रवहणततिर्धामा सज्जीकृतेव कृपालुना । नवजिनगृहश्रेणीव्याजान्निजध्वजविभ्रमै
रिति निदिशतीवाऽत्राऽऽयन्तु ध्रुवं शिवलिप्सवः ॥६॥ अनलसरसा वेशादेशादुपेत्य सुरासुरा,
जिनपतिपरिक्लृप्ताऽर्चासु स्वभावविभावनम् । मधुरमदधुर्नृत्यादृत्या ततिर्जिनवेश्मनां,
तदनुकुरुतेऽभ्यासाल्लास्यं चलाचलकेतनैः ।।७।। जगदपि वशीचक्रे येनाऽभयेन मनोभुवा,
___ सहचरमधोः सांनिध्येनाऽधिकेन धनुर्बुताम् । तमथ सहसा जित्वा तीर्थप्रभुः स्थितवानिह,
विलसति ततः केतुर्हेतुर्जयस्य तदीयकः ॥८॥ त्रिजगतिगतिः पावित्र्यं वा विचित्रजलागमे
प्यमरमनुजैः पूज्यं तीर्थं समर्थमनर्थहृत् । इति बहुयशो गङ्गारङ्गादलप्स्यत सिन्धुषु,
कथमिह न चेत् केतूभूयाऽकरिष्यत सेवनाम् ॥९॥ सुरपुरवराद्देवा देव्यो जिनेन्द्रनिनंसया,
सरभसतयाऽभ्यायान्तीति ध्रुवं गगनाध्वनिम् । सृजति सुतरां चैत्यश्रेणी स्वकेतनवाससा,
___ चरणरजसामातिथ्येनोत्सुका परिमार्जनम् ॥१०॥ क्षितितलमलं चैत्यश्रेणी निजामलकेतुभिः, .
___सपदि धवलीचक्रे सम्यग्दृशां मनसा समम् । गगनमलिनीभावं दूराच्चिकीर्षुरिवोच्चकैः,
क्षिपति विलसत्केतुं हेतुं द्रुतं धवलश्रियाम् ॥११॥
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४०
अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
शरदि जलदव्याजादभ्यागतांत्रिदशालयान्,
___ मधुरिमधुरा बन्धूनुच्चैमिमीलिषया रयात् । ध्वजपटमिषादूर्ध्वं बाहुं वितत्य जिनालया,
मरुजनिनदैः पृच्छन्ती वाऽर्चनासु सुखागमम् ।।१२।। त्रिभुवनगुरोबिम्बार्चानां क्षणेषु मृगेक्षणा,
ललितचलनन्यासैर्हासैरतीव विचक्षणाः । मुदितमनसो वेल्लद्वल्लीसकैर्जिनरासकान्,
ददति सुदतीवृन्दैः सत्राऽभितः स्थितलासकाः ॥१३।। मणिमयमहाचैत्यस्तम्भानुबिम्बितमूर्तयः,
मुदितनयनाः केषां वेषाञ्चितावयवश्रियः । विविधरचनाश्चर्यादुत्तानितेक्षणवीक्षणात्,
त्रिदशरमणीभ्रान्ति नोत्पादयन्ति मनस्विनाम् ॥१४॥ करकुवलये यासामासांबभूव विभूषणं,
. बहुवितरणं वक्त्रे तद्वद्वचोरचनामृतम् । मसृणघुसृणैश्चित्रं चैत्यार्चनात् कुटिलध्रुवां,
त्रिदशदयितास्तासां नूनं हियेव तिरोहिताः ॥१५॥ परिमितदिनान्येता लोके पयोदघटा छटा
प्रविरलतया वृष्टा दृष्टास्तथा दिविषद्गवी । कतिपयपयोदानादिष्टा जनस्य नु कस्यचित्,
बहुवितरणैर्यस्यां स्त्रीणां न सा समतां भजेत् ॥१६॥ गणधरगुरोरागादुच्चैर्घनस्तनकैतवाद्,
किमिव हृदयं यस्यां स्त्रीणां समुन्नतिमासदत् । करजलरुहं दानं वर्षद् विलोक्य सनातनं,
स्वयमपि तथा भावाभ्यासाद् भृशं प्रसरद्रसम् ॥१७॥ वसति सुजनो यस्यां विद्याविनोदविचक्षणः,
प्रकृतिसुभगो लावण्याद्यैर्गुणैः कृतलक्षणः । विशदचरितैर्गेयोऽमेयप्रदानधृतक्षणः,
स्वजननभसो देशे भास्वानिवाऽद्भुतलक्षणः ॥१८॥
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जान्युआरी - २०१३
धनवितरणैर्येषां रेखा पयोधरदैवत
द्रुमसुरगवी चिन्तारत्नाह्वयेषु पुरस्सरा । मतिरतिशयादर्हद्भक्तौ प्रसक्तिमुपागता
नयविमृशनैस्तेषामग्रे जडा हि तथा गताः ॥१९॥ कृतयुगदृढोत्साहाद् वाहा युगे करयामले,
विमलकमलाभोगः श्रेयोगतिवृषमानुगा । हृदि परिचिताः शुद्धा मुक्ता नृणां शुचिमानसं,
कलियुगकलाभूमी यस्यां मनागपि नाऽस्पृशत् ॥२०॥ उषसि विहितं श्राद्धैर्यस्यां विसर्जननैपुणं,
गुणमनुगुणं चक्रे कर्णोत्तमर्णनृपस्य तत् । अहमहमिकावृत्त्यारब्धे पुनर्भुवि वार्षिके,
धनवितरणे तैरभ्यस्ता कलाम्बुमुचः किमु ॥२१॥ क्षितिपतिमतिक्रम्य श्राद्धाः क्रमाज्जनमेजयं,
वितरणकृतो यस्यां यामान् यथेष्टमथाष्ट ते । ऋतुषु सकलेष्वेतद्वृत्त्या जगज्जनरञ्जना
ज्जलधरवरादप्याधिक्यं दधुर्मधुरश्रियः ॥२२॥ त्रिदशतरवः स्वर्णक्ष्माभृच्छिर:समधिष्ठिता,
बलिरपि नृणां पातापाताद् रसातलमाविशत् । सुरसुरभिरप्याधाद् वक्त्रे तृणानि निरीक्षिते,
वरवितरणे श्रद्धालूनां सुसज्जितलज्जया ॥२३।। सकलकलयाऽतन्द्रश्चन्द्रः क्षितावमृतद्रवं,
किरति विहितालोकं लोकम्पृणैर्बहुभिः करैः । भवति न तथाप्याशा पूर्णा यथा द्रविणार्थिनां
पुरनिवसतः श्राद्धस्याऽस्यां करादमृतद्रुतेः ॥२४|| जलवितरणं लोके ख्यातं ललज्जलदायिनां
गिरिशसुहृदस्तद्वद्रव्यप्रदाननिदानकम् । तदुभयसमुत्सर्गाद् यस्यां जना जिनरागिणः,
सुरपतिसदःश्लाघ्यां कीर्तिप्रथां पृथुमिग्रति ॥२५॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
सुचरितफलान्याप्तुं रात्रिन्दिवाङ्गणनायकै
दिशमणिमन्वास्ते रागाज्जनोऽञ्जनवर्जितः । विविधविनयैर्जीवाजीवादितत्त्वविमर्शनैः,
प्रवचनपरिज्ञाता मोहं विजित्य शनैः शनैः ॥२६॥ तपगणगुरोः सूत्रव्याख्याश्रुतेः श्रुतिपावनं,
विदधति दृशोः साफल्यं तन्निरीक्षणकौतुकात् । जिनमतदृढश्रद्धायोगान्मनोमलशोधनं,
धनवितरणैर्वंशौन्नत्यं भृशं सुदृशो जनाः ॥२७॥ जिनवरमते ये कौशल्यं सदा हृदि बिभ्रति,
त्रिविधमचिरात् कौशल्यं द्राग् विमुच्य विदूरतः । वितरणविधि कौलीनं तेऽनुशील्य महाजनाः,
विजहति रयात् कौलीनं तत् पुरे कृपणार्जितम् ॥२८॥ कलयति कलां यस्यां द्वेधा स वै श्रमणादृतां,
श्रुतगुरुवचः सङ्घः सर्वः प्रदानतपः स्थितौ । भवति समये प्राप्ते यो वैभवादरमोहितः,
स खलु सहसा दुर्गत्यां वैभवादरमोहितः ॥२९|| प्रकृतिसुकृतोल्लासीदासीकृतत्रिदशद्रुमः,
प्रसृमरयशःस्थित्या नित्यावदातजगत्त्रयः । मनसि रसिकस्तत्त्वाऽतत्त्वावमर्शनिदर्शने,
जयति यतिनां रागाद् यस्यां जनो भजनोद्यतः ॥३०॥ नयपरिचयादस्यावश्याऽभवन्ननु मेदिनी,
. सुभुजमनुजाऽऽकीर्णाऽजीर्णालयाद्यनुमोदिनी । गणगुरुपदैस्तस्यामस्यामलत्विषि मेदिनी
पुरमिदमिति ख्याताख्यायां पुरि प्रचुरत्रियाम् ॥३१॥
यस्यामनेकसविवेकमहेभ्यलोक
निर्मापितार्हतमहाभवनानि नूनम् । उच्चैः प्रसृत्वरसुधाकरसङ्करण,
व्याधामधारि वरधाम हसन्ति कामम् ॥१॥
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जान्युआरी - २०१३
यस्यां मणीमयजिनालयभित्तिदेशे,
संक्रान्तिमेत्य बहुविस्मितसुस्मितास्याः । उत्तम्मिता रतिवशाद् भ्रममादिशन्ति,
पाञ्चालिका इव परस्परबालिकानाम् ॥२॥ तीर्थेशबिम्बमविलम्बतयाऽऽर्तयन्तः,
सन्तो दिवा कुसुमवृष्टिमलं सृजन्ति । रात्रावुदित्वरपरच्छवितारकाणां,
संक्रान्तिक्रान्तिरिह तत्तुलनां तनोति ॥३॥ चैत्यावनीशशिमणिद्रुतविद्रुताम्भः,
संप्लावनेन भुवि पावनकर्म कृत्वा । प्रातर्नभोमणिमणिस्फुटरूपवला,
वह्नाय धूपघटिकाविधिमादधाति ॥४॥ भास्वन्मणीमयजिनप्रतिबिम्बराजि
स्नात्राम्भसा प्लुततनुर्द्विविधोऽपि पङ्कः । विश्रान्तिमाप हृदि पापकढुण्ढिकानां,
__ तेनोच्छ्वसन्ति न मनागपि साम्प्रतं ते ॥५॥ व्याख्याक्षणे नवनवक्षणवीक्षणेन,
मार्गापमार्गविधियत्नपरीक्षणेन । श्रीजैनधर्मतरणेस्तरुणोदयेन,
मूकाः कृतास्तदिह दुण्ढिकलोकघूकाः ॥६॥ श्रीमन्मुनीन्द्रवरशासनभासनेन,
दुष्कर्ममर्मरजसां परिनाशनेन । गान्धर्वगीतरतिवादिततूर्यनादै
नित्यप्रभातमिव यत्र गुरोः प्रसादैः ॥७॥ यत्रोपनिःक्रमणपण्यनिकायराजी,
राजीविनीवनविराजिसरस्वती च । नारीगतागतकृतै रससंप्रयोगै
रस्या पुरः प्रमदसम्पदमेव दत्ते ||८||
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
रङ्गत्तरङ्गचपलाश्च समूहगत्या
वंशध्वजान्वितचलाचलचारुपोतैः । सा मौक्तिकैर्मणिगणैर्बहुकङ्कणैश्च,
संस्पर्द्धतेऽत्र सरितासममट्टराजी ।।९।। सच्चक्रवालकलितोभयतीरदेशा,
श्रीराजहंसवयसामुचितप्रवेशा । यस्यां सदापणततिर्बहुलक्ष्मणाढ्या,
श्रोतस्विनी च समताभुभयं दधाति ॥१०॥ यस्यां कुशेशयरुचिद्विजराजिरम्या,
नालीकसक्तमधुपायिभिरीक्षणीया ।। सा चित्रवल्लिकलया धनजीवनार्था
दालीव यत्र सरितः परितोऽट्टकाली ॥११॥ यत्र स्त्रियः सुकृतिनां कृतिनां कृतार्थाः,
नम्राः पयोधरभरेण पयोजनेत्राः । पात्रे रसेन परिपोषणमादधाना,
दिव्या लता इव सुविभ्रमसन्निधानाः ॥१२॥ भावोज्ज्वलेन मनसा वदनेन यासां,
दानावदानचरितं सततं निरीक्ष्य ।। मन्ये पयोधरघटाविरलच्छटामि
स्त्यागानुरागवशतः स्वत एव कृष्णाः ॥१३।। मान्याः श्रियै सुमनसः सुतरां वदान्या,
धन्याः स्त्रियः समवलोक्य भुजङ्गकन्याः । पातालमाशु विविशुर्विवशा ह्रियेव,
__श्यामाः स्वजङ्गमभुजङ्गमसङ्गमेन ॥१४|| याभिः सुकृत्यचरितैः स्ववशीकृतेव,
वेणीमिषाद् भजति देवलता नितान्तम् । दास्या दिवाऽस्य कमलस्य निरस्यमान
मिन्दुः पदोर्नखमिषादलगत्सगोत्रः ॥१५॥
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जान्युआरी - २०१३ विद्युल्लतेव वपुषा धृतगौरकान्तिः,
प्रोच्चैःपयोधरतया रसनिम्नगेव । दानेन चोन्नमितहस्ततया गजानां,
स्पष्टं घटा विजयते पुरि यत्र नारी ॥१६॥ यस्यां पुरन्दरवधूपमिताः पुरन्ध्यः,
___ तारस्वरेण परपुष्टवर्धू विजित्य । निन्युर्वनं विलपितत्रपयाऽसिताङ्गी,
प्राप्तां ततोऽपि सहकारतरोर्हकारम् ॥१७॥ कल्पद्रुमाः किल वदान्यकलाविलासं,
यस्यां वधूजनकरव्यपदेशभाजः । पुष्णन्ति भूतलमुपेत्य कृतार्थितार्थि
सार्था विमार्गणतया त्रिदिवे गतार्थाः ॥१८॥ दत्ते पयोधरचतुष्टयवर्षणेन,
__यावद्रसं सुरगवी गतवत्सयोगा । यस्यां पयोधरयुगेन ततोऽतिशायिं,
पुष्णन्ति पुंसवनम युगे मृगाक्ष्यः ॥१९॥ सत्साधुपात्रपरिपूरणवत्सलानां,
तीर्थेशभक्तिकरणे विलसत्कलानाम् । गीतश्रुतेरिव सदा वणिजाबलाना
____ मन्तश्चमत्कृततयाऽनिमिषा यथार्थाः ॥२०॥ श्रद्धालवोऽपि पुरि यत्र वसन्ति सन्तः,
सर्वाङ्गिनामुपकृतविधयोल्लसन्तः ।। श्रीजैनधर्मपरिकर्मणि बद्धकक्षाः,
शास्त्रावमर्शनसुदर्शनभावदक्षाः ॥२१॥ हंसा इवाऽमलतरोभयवंशपक्षाः,
दुर्वादिपर्षदि विनिश्चितजैनपक्षाः । दानोत्सवप्रमुदितप्रसरत्सपक्षाः,
स्फूर्जयशोभिरभितः सततं वलक्षाः ॥२२॥ युग्मम्
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
येषां मनः प्रवचने सुतरां निलीनं,
तेनैव दुर्मततमः सहसा विलीनम् । न ध्यानमाविशति रौद्रमतो मलीनं,
तेषां कदाऽपि भविनामिह साम्प्रतीनम् ॥२३।। ज्ञानक्रियापरिणतात्मतयाङ्गभाजां,
___ व्याजाङ्करः स्फुरति नैव कदाऽपि चित्ते । श्रीमद्गुरोर्गुणकथाधिकवर्णनेषु,
___ व्यापारितश्रुतितया विनयाश्रयाणाम् ॥२४॥ ये लक्ष्मणा अपि भवन्ति विशिष्य रामाः
कामानुरूपवपुषोऽपि विमुक्तकामाः । नूनं विचारचतुरा अपि नैव चाराः,
हारावसक्ततनवोऽपि लसद्विहाराः ॥२५।। कर्णं जयन्ति विषमेषुविसर्जनेन,
बीभत्सतां दधति ते न कदाऽपि भव्याः । जैवातृका अपि कलास्सकला वितत्य,
दोषाकरत्वमिह बिभ्रति नांऽशतोऽपि ॥२६।। सन्मार्गतत्त्वपरिभावनया नयानां,
सम्यग्विवेचनधुरा मधुराः स्वचित्ते । श्राद्धाः प्रशान्तरसमेव हि नाटयन्ति,
सामायिकादिविधिषु त्रिविधात्मशुद्ध्या ॥२७|| पादैश्चतुर्भिरिह भव्यमनस्सुधर्मः,
स्थैर्य बिभर्ति विहितोत्तमकार्यधैर्यम् । तस्मात् कलिनिरवकाशतया चकास,
मासाभिवासमधिगत्य कलिद्रुमेषु ॥२८॥ आशिश्रियुर्यवनलोकमुखानि कूर्च
व्याजेन जैनजनताभिरिहोन्नताभिः । स्वेष्टप्रकृष्टधनदानविसृष्टतो यै
रुत्सारिताः सलिलशूकलता समन्तात् ॥२९॥
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जान्युआरी - २०१३
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सङ्घार्णवः समधिगम्य सुपर्ववेलां,
__ सर्वज्ञशीतकिरणोदयदर्शनेन । उद्भूय वर्षति महोत्कलिकारसेना
ऽगण्यैर्हिरण्यनिवहैस्तु वनीपकेषु ॥३०॥ सेयं प्रभामधिगता विभवोद्भावेन,
धर्मोदयेन मधुरा स महोदयश्रीः । ब्रह्मस्थितेरथ कुशस्थलमाश्रयन्ती,
तीर्थैः परं शिवपुरी महसा त्वयोध्या ॥३१॥ नानापुरीमयतया पुरुषोत्तमेन,
श्रीशम्भुनाऽतिविदिता भुवि नाभिजेन । या राममन्दिरमनोहरपार्श्वमध्या,
तस्याः पुरः प्रथितनामभृदुज्जयिन्याः ॥३२।।
प्रादुर्भवत्पुलककञ्चकिताङ्गदेशः,
संयोजिताञ्जलिपयोरुहसन्निवेशः । सर्वाङ्गसाङ्गविनयस्थितिनर्मशाली,
चेतोगृहेऽभ्युदितसद्गुरुभानुमाली ॥१॥ भालस्थलेन परिमीलितभूतलत्वात्,
पञ्चाङ्गवन्दनविधानकृतावधानः । ध्यानेन चिन्तितजगद्गुरुसन्निधानः,
स्पष्टीकृताद्भुतनिजाशयसन्निधानः ॥२॥ पञ्चेन्द्रियप्रमदसम्पदमादधानं,
पश्यन्निवाऽऽन्तरदृशा पुरतः प्रधानम् । श्रीमद्गुरुं सुरतरुं सहसाभिधानं,
तस्य स्मरन्निव धृतातिकृपोपधानम् ॥३॥ शिष्यो भुजिष्यरुचिनम्रतनुर्विशिष्य,
___नाम्नाऽथ मेघविजयः किल तन्तनीति । विज्ञप्तिवल्लिवनपल्लवनं रसेन,
लेखात् वियोजनविपल्लवनं विधाय ॥४||
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
श्रीशङ्केश्वरपार्वाय एँ नमः । जयति जगति सीमा यस्य रामस्य नीते:,
सततविजयिराज्यं लब्धवर्णेन वर्ण्यम् । पुरमिदमिदमीयाख्याविशेषात्प्रतीतं,
गुणगणगणनायां तस्य कः शीतकः स्यात् ॥१॥ कलिमलकलया न स्पृष्टमेतत्कदाचित्,
न किल कलिबलेनोद्दिष्टमेतद् दृशाऽपि । मलपरिमलमात्रं नाऽत्र लेशात् प्रदेशे,
क्वचन रचनया न तुल्यता क्वाऽस्य दृश्या ॥२॥ कृतदुरितविरामः शर्मणा यत्र रामः,
प्रभवति पुरुषाणामुत्तमत्वं हि तत्र । प्रतिकृतिमपि पूज्याऽसौ जगन्नाथनाम्ना,
___ऽद्भुतमिह कमलाया नित्यवासेन किञ्चित् ॥३॥ अमलकमलगन्धैनिःप्रबन्धैः प्रसूनै
र्धनदवनमिवाऽत्राऽऽमोदभावादनूनैः । उपवनमवनिस्त्रीवक्त्रमुत्फुल्लवल्ली,
__ कुसुमसुरभि धत्ते द्वन्द्वचातुर्यकार्यम् ॥४|| नगरमुभयतो यत् सारसंसारसम्पत्,
युगममलपयोभिः शोभते पूर्णमत्र । सुभगनगरलक्ष्म्याः कुण्डलद्वैतमेतत्, - प्रसरति परितस्तत् पत्रपान् पावनानि ॥५॥ पुरमिदमभिरामं रूपसम्पन्नराम,
वसति सकललोको लक्ष्मणस्तेन धाम्ना । वचसि ननु सुमित्रानन्दनः कौशलार्थी,
जयति स सहसा त्वां नाऽत्र पौलस्त्यचित्रम् ॥६॥ बहुललितगुणाढ्या यत्र सीता प्रतीता,
__ वहति मनसि शश्वज्जानकी प्रीतिमुच्चैः ।
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त्रिविधविमलपातिव्रत्यसंसर्गलीना,
कुशलवसुतरङ्गोद्भावनी पद्मनेत्रा ॥७॥ श्रमणगुणविमर्शी श्राद्धवर्गो निसर्गा
नवविधशुचितत्त्वव्यक्तिविज्ञानशाली । जिनवरबहुधा कर्मनैपुण्यभूमिः ।
ह्युपशमसमतादेः स्थानमास्थानरूपम् ॥८॥ परमगुरुगुणानां वर्णनैस्तच्चरित्रा
ऽभ्युदयिविविधगीताकर्णनैः श्राद्धवर्गः । गमयति समयं द्राग् भक्तिरागेग पूर्णः
सुकृतरसमयेनोद्भूतपद्मोदयेन ॥९॥ मनसि वचसि शुद्धा जैनमार्गावबुद्धा
ववसितपरमार्था सर्वदा श्राद्धसार्था । सदसि रसिकरीत्या विश्वसिद्धान्ततत्त्वं,
श्रुतिपथमथ भक्तीः प्रोन्नयन्तो नयन्ति ॥१०॥ स हि महिमविशेषः स्वेष्टदानैर्जनानां,
विविधरचनयाची साधनैः श्रीजिनानाम् । क्रमुकफलसमूहैनित्यशोभा वनानां,
भवति गुरुगणस्यौन्नत्यशोभा वनानाम् ॥११॥ सुरयुवतय एताः किन्नु साक्षात्समेता,
जिनदिनकरबिम्बश्रेणियात्राक्रियायै ।। कृतबहुतपसः श्रीसन्नियोगात् सुरूपा,
___गुरुदृढतरभक्तेः पात्रदानेऽनुरक्ताः ॥१२॥ प्रकृतिसुकृतरागी यत्र सर्वोऽपिलोकः,
कविरिव बहुवेत्ता पाप्मनः स्वस्य भेत्ता । विबुधपरिचयेन प्राप्तवैदुष्यमुख्य
स्तत उदितपुरात् श्रीरामनाम्ना प्रसिद्धात् ॥१३।। स्पृशति न कलियोगः पापकार्यप्रयोगः
च्युतनयविनियोगश्चौर्यकार्याभियोगः ।
गुप
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
नगरमुकुटरत्नं यत्पुरं रामनाम्नः,
प्रविततबहुधाम्नः श्रीपुरादेव तस्मात् ||१४|| विनयनयविधानात् प्राञ्जलिर्भूप्रदेशे,
मिलितललितमौलिः श्रीगुरोर्ध्यानधारी ।
प्रणयति यतिभर्तुः स्वीयविज्ञप्तिमेना
मभिनवशिशुमेघो द्वादशावर्त्तनत्या ॥ १५ ॥ करकमलमलीके संनियोज्य प्रयोज्यः
प्रणतिपरवशाङ्गः श्रीमदाचार्यसूर्यान् । मनसि परिनिधाय स्वीयविज्ञप्तिमेतां
रचयति शुचिवृत्त्या मेघनामा भुजिष्यः ||१६||
अथोदयार्द्रागिरिवर्गराज्य - प्रख्यापनं मौलिरिवोष्णरश्मिः । स्पष्टीबभूवाऽरुणभानुयोगा-दभ्यञ्जयन् सर्वभुवः प्रदेशम् ||१|| पूर्वाद्रिकुञ्ज प्रचरत्तमिस्र - मिश्रद्विपानां हननादिवाऽर्कः । समन्ततः शोणितभावमाया-दुष्णांशुमायामयपञ्चवक्त्रः ॥२॥ प्राचीवधूर्भालतले निधाय, नव्यप्रभाकृत्कुरुविन्दबिन्दुम् । व्यालोकयद् विश्वमिदं तदीया, शोणप्रभा सन्निहिता समन्तात् ॥३॥ कलाविशेषादिह कामचारो, द्विजाधिराजः किमयं प्रवृत्तः । इतीव कोपारुणभालनेत्र - मर्कश्रिया प्रादुरभूत् भवस्य ||४|| उज्जृम्भमाणाम्बुजिनीमुखेभ्यः प्रासीसरत् श्वासमहोष्णवायुः । तारागणम्रक्षणपिण्डलेशाद्भुतास्ततः सूर्यरुचैक्यमीयुः ॥५॥ निशापिशाच्या द्विजराजरागः, कामाधिसाचिव्यवशादुदीतः । नष्टाऽथ सा शूरभिया तदीय-स्तारास्थिहारोऽप्यभवन्न दृश्यः || ६ || द्विजाधिनाथेन यदन्वभावि, ह्येकातपत्रं भुवनस्य राज्यम् । तच्चित्रभानौ ज्वलिते जुहाव, तारा च तारानिव शालिपिण्डान् ॥७॥ नवावतारे दिननाथरामे, तेजोऽभिरामे शशिपर्शुराम: । मृगाजिनं विस्त्रसयाऽवगूढः संवीय मन्येऽस्तगिरिं जगाम ॥८॥
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जान्युआरी - २०१३
तमोऽम्बुराशिः परिपीयतारा-रत्नैः समं तुन्दिलतामवाप्य । गभस्तिरूपान् मुनिराडगस्ति-र्दूरे जहौ तद्विधुमार्गचमी(चर्मी?) ।।९।। वसुक्षये मामनुसृत्य जज्ञे, द्विजाधिराजोऽपि महामहस्वी । [प्र]स्पर्द्धिरासीत् क्रमतो ममेति, धिगेनमर्कोऽपहरत्ततोऽचिम् ॥१०॥ तारास्वरूपा रुचयोऽस्तकाले, सङ्कुच्य भानोः समयं विनिन्युः । प्रातर्दिनेशेऽभ्युदिते पुनस्ता-स्तथैव विस्तारमुपेत्य रेजु ॥११॥ . स्वयं कलङ्काद् द्विजनायकस्य, तेजोऽधिकारिस्थलशून्यभावः । प्राबोधि धात्राऽप्युडुबिन्दुरूपैः शूरेऽभ्युदीतेऽपहतानि तानि ॥१२॥ राज्ञः कलाकौशलदर्शनेऽपि, मनाग् न रागो गगनश्रियोऽभूत् ।। सहस्ररश्मेरुदयेऽथ रागं, प्रकाश्य साऽऽसीन्मुदिता समन्तात् ॥१३।। उल्लासनाऽकारि करैर्न राज्ञा, यत् पद्मिनीनां वदनेषु काचित् । तदस्य जाड्यं नहि किन्तु तासां, पतिव्रतानामियमेव लक्ष्मीः ॥१४|| कलङ्कभाजा द्विजराजिराजा, मुरारिपादस्य महीयसोऽपि । ताराशतच्छिद्रविधिय॑दर्शि, भासांशुमांस्तं पिदधे निरङ्कः ॥१५|| ताराच्छटाश्चन्दनघर्षजन्या, द्विजेशराज्ये बभुरभ्रदेशे ।। विलुम्पिताः क्षत्रियतीक्ष्णभासा, तामांशुसिन्दूरविलेपतस्ताः ॥१९।। नभोऽम्बुधौ विस्फुरितानि चक्षु-स्तारामिषेणाऽनिमिषा यथेच्छम् । समागतेऽहर्मणिहस्तिमल्ले, भयेन लीनाः क्वचनान्तरा ते ॥१७॥ विस्तार्य वीतंसमुडुभ्रमेण, दोषाकरो व्योमवने मृगार्भम् । लात्वा ययौ व्याध इवाऽस्तशैलं, त्रयी तनोदर्शनतः सशङ्कः ॥१८॥ मुक्त्वा यथेच्छं गगनस्य लक्ष्मी-दत्त्वोडुमुक्ताभरणानि राज्ञा । प्रातः सरागा पुनरुष्णभासा, रेमे चरित्रं सुदृशामचिन्त्यम् ॥१९॥ तारासरच्छिद्रयुतं द्विजेशः, करैर्बभाराऽम्बरमुग्रलोभात् । विवस्वतस्तन्मुखमल्लरूप-मासीदहो भाग्यविधिर्बलीयान् ॥२०॥ प्रातर्दिने श्री वने प्रवेष्टुं, नभोऽङ्गणे शोधनिकामकार्षीत् । निर्माल्यमुत्सारितमृक्षरूपं, निवेशितः पूर्णघटोऽर्कलक्ष्म्या ॥२१॥ तस्मिन् जनानां गुणभाजनानां, सभाऽऽविरास्ते समयेऽभिरूपा । तस्यां तृतीयाङ्गसवृत्तिशुद्ध-व्याख्याविधिनित्यमुदीर्यतेऽत्र ॥२२।।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
ततो मुनीनां सवितर्कतर्क - ज्योतिर्महाकाव्यचरित्रपाठः । योगाभियोगः समयोपयोगः, कथा यथायोग्यतया भवन्ति ||२३|| तपांसि षष्ठाष्टमकानि तद्वद्, अभिग्रहस्याऽऽग्रहयालुता च । निर्विक्रिया जैनजनप्रियाऽपि क्रियाक्रियावादिपरिस्क्रियेव ॥२४॥ श्रद्धालवोऽपि त्रिजगत्प्रभूणां, महोत्सवैः सप्तदशप्रमेदैः । भक्तेर्वितन्वन्ति विशिष्टपूजा:, सम्यक्त्वभाजाममृताञ्जनानि ॥ २५ ॥ श्राद्धीजनः श्रीजिनशासनस्य, रागात् सदा तन्मयतामवाप्य । दानादिभिः श्रीगुरुसच्चरित्र - गानादिभिः स्वं सफलीकरोति ॥ २६ ॥ श्रीपुण्यनैपुण्यविधिप्रवृत्ता-वेवं समाकृष्टमथ क्रमेण । नेदिष्टमत्यद्भुतमब्दपर्व - सुपर्वराजां प्रियमाससाद ||२७|| तत्राऽभवत्तत्र भवज्जिनाना - मर्चाविधानैरिह सज्जनानाम् । द्वेधाऽपि पावित्र्यदशाप्रसादः, श्रद्धासमृद्धक्रियया प्रसिद्धः ॥२८॥ दुष्पापता पौषधधर्मधारी, सपौषधः श्राद्धजनो विचारी । षष्ठोपवासादिभिरात्मशुद्धिं व्यधत्त चित्ते प्रणिधाय बुद्धिम् ॥२९॥ श्राद्धेन खण्डप्रपुटस्वभाव-प्र - प्रभावनाभिः सह नालिकेरै: । श्रियाः फलं सञ्जगृहे गृहेषु, सुपारणाद्युत्सवतोरणेन ॥३०॥ कौशल्ययोगात् समयस्य भव्यः, कौशल्यमेव स्वमुपाजहार । कृता जुगुप्साऽसुमतां च तेन, तथा जुगुप्सा निजपापवृत्तेः ||३१|| परस्परं लम्भनिकानिकायै - दयैर्विदायैरपि मार्गणानाम् । गान्धर्वलोकस्य विशिष्टतुष्ट्या, पुष्टाऽभवच्छ्रीजिनशासनश्रीः ||३२|| संकल्पकल्पद्रुमकल्पवृत्तेः, श्रीकल्पसूत्रस्य सवृत्तिभावम् । व्याख्याविशेषाच्चरितप्रबन्धै- जनप्रबोधाय बभूव पर्व ||३३|| कैश्चिन्मुदा नृत्यमकारि चैत्ये, स्तोत्रेण कैश्चिद् रसना पवित्रा ।. प्रशंसनैः पुण्यविधेर्विधेय- वृत्त्या निजात्मा विशदो व्यधायि ||३४|| प्रत्याश्रयोत्तम्भितकेतुमालं, चैत्यावलीवन्दनकं वितेने ।
सङ्घः पुरश्चारिगजाश्वभास्वन्, महोत्सवैर्भूपजनोपगेयम् ||३५|| जीवानुकल्पाकरुणाऽसुभाजां स्पष्टं पुरे घोषणमेतदीयम् । यथेष्टदानैरिह मार्गणानां दयालुलोकः पटहादकार्षीत् ||३६||
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जान्युआरी २०१३
सांवत्सरं दानमपि प्रदत्तं तथा यथाऽत्राऽर्थिजनेन नृत्तम् 1 परस्परक्षामणकेन कृन्त-मजल्पनं श्राद्धजनैः सुवृन्तम् ||३७|| इत्यादिके पुण्यविधिप्रधाने, महोत्सवे सज्जनसन्निधाने । निरन्तरायत्वमभूत् प्रभूत- प्रभावभाजा गुरुराजनाम्ना ||३८|| अथ श्रीपरमगुरुराजवर्णनम्
यस्य प्रभोर्नाम सुधाबुधानां वृन्दैः पटुश्रोत्रपुटैर्निपेया । प्रमोदलीलां प्रसभं प्रदत्ते, विधाय तेषामजरामरत्वम् ॥१॥ गणाधिराजो ह्यभिधा सुधायाः परा सुधा नास्ति सुधाशनानाम् । तदत्र नित्यं वसुधामुपेत्य शृण्वन्ति ते तामुपगीयमानाम् ॥२॥ सुधा निपीताऽप्यसकृन्न तुष्टिं नूनं समुत्पादयते सुराणाम् । श्रीमद्गुरोर्नामसुधा विधत्ते श्रुताऽपि सर्वेन्द्रियवर्गतोषम् ||३|| मुधा सुधायै स्पृहयालवोऽमी, दिवौकसस्तत्पशुतैव तेषाम् । बर्हिर्मुखत्वं कथमेषु गेयं, न चेत् वाऽनिमिषत्वधर्मः ||४|| मुक्त्वा गुरोर्नामसुधां परस्यां रक्ताः सुधायां दिवि ये सदैव । बाला हि ते नूनमनूनजाड्या - स्त्यजन्त्यतोऽमी नहि लेखशालाम् ||५|| अत्युज्ज्वलत्वं खलु गच्छभर्तुर्नाम्नः सुधायाः सकलातिशायि । यद्वर्णमात्राश्रयणेन सर्वे तनूभृतो निर्मलतां प्रयान्ति || ६ || सुधाभुजोऽप्यस्य गणाधिभर्तुर्नाम्न्येव नित्यं दधतेऽनुरागम् । अन्तःसभं यत्परिपानतृप्तौ नाऽऽहारलिप्सोदयतेऽप्यसी (मी)षाम् ॥७॥ सुधां निपीयाऽपि सुराः सुरागा, भवन्ति तत् किं धवलत्वमस्याः । गणप्रभोर्नामसुधाधिपानाद्, ध्यानं परं शुक्लममी वहन्ति ॥८॥ पीत्वा गुरोर्नामसुधां विशेषान्माधुर्यलुब्धास्त्रिदशा रसाढ्याः । ध्यायन्ति तामन्यसुधां विहाय, मन्ये तदेषामनिमेषभावः || ९ || यदा परस्मिन्नमृतेऽभविष्यत्, माधुर्यधुर्यत्वममर्त्यलोके । तदाऽभविष्यन् क्रतुभोजिनः कि- ममी ज्वलद्वह्निमनुप्रविश्य ॥ १० ॥ जाने तदस्य प्रभुनामधेयः सुधाऽपजहे मधुरस्वभावम् । तत्पानतोऽस्याः सकलोऽपि पश्य - त्यवश्यमन्तस्त्वमृतं बहिश्च ॥ ११ ॥
अर्थतो युग्मम् ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
कलाभृताऽपि ध्रुवमेतदीशा-भिधा सुधाऽऽधायि हृदि प्रसह्य । सुधाकरस्तत्तमसो ग्रहेपि, न मण्डलीखण्डनमेति किञ्चित् ॥१२॥ गान्धर्वलोकैरुपनीयमानां, यस्याऽभिधारूपसुधासुधाराम् । श्रुत्या पिबन्तो विबुधा भजन्ते, गुरुत्वमेते यदि वा कवित्वम् ॥१३॥ यः स्यात् प्रभो मसुधाधिपाने, बद्धादरः शुद्धधिया त्रिसन्ध्यम् । न गोत्रभेदी न कलङ्कशाली, जनार्दनो वा स कदाऽपि न स्यात् ॥१४॥ यस्य प्रभो मसुधारसस्या-ऽऽस्वादेन मेदस्वलता न किञ्चित् । शनैश्चरोऽयं तमसा सरूप-स्त्रासाय विश्वस्य पदेन मन्दः ॥१५॥ चन्द्रः प्रकृत्याऽमृतमादधाति, देवास्तदेवाऽशितुमुत्सहन्ते । तथाऽपि नो सौम्यदशाऽदसीया, यथा गुरो मसुधाभृतां स्यात् ॥१६॥ रसा: सुधायां खलु पञ्चषाः स्युः, तथाऽपि तस्यां विबुधाः प्रसक्ताः । नामामृते गच्छगुरोरनन्त-रसा श्रयेत प्रियता न चित्रम् ।।१७।। स्पृष्टं न दृष्टं न कदापि शिष्टै-मनुष्यलोकेऽमृतपानमेतत् । श्रीमद्गुरो मसुधा त्रिलोक्यां, लोकम्पृणा तत्तुलनाऽस्य किं स्यात् ।।१८।। भृष्टं कटु स्यात् कटुमृष्टमिष्टं, दृष्टं पुनर्निश्चयमार्ग एवम् । अयं मुनीन्दोरभिधासुधाया-मेकान्तसुस्वादुतया न कान्तः ।।१९।। सुधा मुधाकृद् गुरुनामधेयं, ध्येयं जनैर्यैर्मनसा त्रिसन्ध्यम् । तेषां यशोभिर्धवलीभवन्ति, जगन्ति राकाहिमकान्तिकान्तैः ॥२०॥ आकर्णपानादभिधासुधायाः, गच्छाधिनेतुः सुहिता नितान्तम् । मन्यन्त एते रमणीयराज्यं, प्राज्यं धनाद्यै रमणीमनोवत् ॥२१॥ अहो महीयान् महिमा हिमांशु-ज्योत्स्नातिशायी गुरुराजनाम्नः । तृष्णापहारी जगतः समन्तात्, तमोविनाशी स्मृतिमात्रवृत्त्या ॥२२॥ कैश्चिज्जडस्याऽप्यमृतत्वमूचे, सञ्जीवनत्वं हृदि सन्निधाय । परैः सुराणामशनस्य नश्य-ज्जरानुभावादिगुणं विमृश्य ॥२३॥ वयं वदामः प्रभुनामधेया-दन्यस्य न स्यादमृतस्वभावः । यतः स्मृतेरस्य विषान्निवृत्तिः, कलाविलासः कमलाविकाशः ॥२४॥
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जातं पयोधेलवणावकीर्णात्, पीयूषमेतन्मतमेव मिथ्या । जानीमहे गच्छमहेन्द्रनाम्नः, पीयूषभावं त्रिजगत्सुखत्वात् ॥२५।। सुधा बुधानां गणनायकाख्या, यत्पानतश्चित्तमुपैति शैत्यम् । तृष्णाकरी या लवणाब्धिजत्वात्, सुराधिपानां तु सुधा तदन्या' ॥२६।। मोहो भ्रमो वा यदि नाऽभविष्यत्, स्वाहाभुजां पानकृते सुधायाः । तदाऽर्थसामर्थ्यकथाऽदसीया, न चेत् प्रभो मसुधेव सत्या ॥२७|| प्रियं यदेकस्य न हि प्रियं तत्, तत्त्वेन सर्वप्रियमेव तत् स्यात् । सुधा तु धातुप्रचयाय नाके, नामप्रभोः शर्मकरं त्रिलोक्याम् ॥२८॥ न देवभोज्यत्वधिया गुरुत्वं, चिन्त्यं सुधायाः गुरुराजनाम्नः । तूर्णा न पूर्णाऽपि रसैविशिष्य, जनैर्न वाच्या किमु देवधान्यम् ॥२९।। यद् दुर्लभं तद् भुवने मह(हा)घु, स्पृहाऽपि संधावति तत्र नृणाम् । इत्यद्भुतत्वं प्रथते सुधायाः, परं गुणैरग्निममी(गुणैरस्ति गणीश?)शनाम ॥३०॥ प्रातर्निपीतं प्रभुनाम कर्णैः, सुधां प्रदत्ते वसुधातलेऽपि । सम्पादयेद् दिव्यवधूपभोगं, नैतत्सुखं स्यादमृते धृतेऽपि ॥३१।। कलाभृदन्तःसुधयैव मात्रा, निष्पादिता श्रीप्रभुनामवर्णाः । जज्ञे तदेभ्यो भुवनोपकारः, सम्यग्दृशामुन्नयनेन कामम् ॥३२॥ प्रादुर्बभूव प्रभुनाममन्त्रः, सन्तापहारी जगति प्रसारी । सुधा मुधासाविति यत्सुधाब्धे-हृता विधोस्तत्पृषतो हि ताराः ॥३३|| द्विजाधिराजः सकलाकलाः स्वाः, सुधाभृतान्युञ्छनकीक्रियन्ते । नाम्नः प्रभोः सर्वगुणौघधाम्नः, तारावतारा पृषतस्तदीयाः ॥३४॥ मृष्टा सुधा चेद् गणनायकाख्या, पावित्र्यकृच्चेत् सुरसिन्धुरेखा । स्वेष्टं प्रदत्ते घुसदां लता चेत्, तदेतदीयैव सुवर्णमाला ॥३५।। तैस्तातपादैः प्रसरत्प्रसादै-र्यशोभिराक्षिप्तहिमांशुपादैः । नत्यस्त्रिसायं शिशुना क्रियन्ते, ता मानसाध्यक्ष[....] ॥३६।।
-X[राजस्थानप्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय बीकानेर, मोतीचन्दजी खनांची संग्रह 'श' २८४, पत्र संख्या ४-६] १. मुधाऽसौ ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ श्रीमेधविजयवाचकलिखितं विज्ञप्तिपत्रं खण्डितप्रायम्
- महो.विनयसागर ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीशद्धेश्वराय एँ नमः । अथ गगनरमायाचित्रमायानुकारी,
निजकरनिकरेण ध्वान्तधारापहारी । समयरसिकयोगिस्वान्तपद्मप्रचारी,
धृततनुरिव बोधः सूर्य आसीत्प्रकाशी ॥१॥ गगनसरसि फुल्लत्तारतारोत्पलानां,
निचयमुचितचैत्याभ्यर्चनायोदयाद्रौ । सपदि समुपचिन्वन्नंशुमाली समागा
दरुणवसनशाली ध्वस्तमोहान्धकारः ॥२॥ दिशि दिशि निशि माद्यत्कामसैन्यस्य पांशु
स्तिमिरनिकरदम्भात् प्रासरत्तं विधूय । द्विजपतिपरिणामोद्भूतदोषातिशोषात्,
___जगत इव विदासीत् केवलं शूरलक्ष्म्या ||३|| उदयविकटगोत्रे विस्तृतं चाऽप्रदोषात्,
कपटपटमलीनं ध्वान्तमाशु प्रलीनम् । भुवनगुरुनियोगाद् रागिणोप्युष्णरश्मे
र्घनरुचिचरणानामुद्धृतायां क्रियायाम् ।।४।। विकसति कमलानां कानने तुङ्गपूर्वा
गिरिशिरसि सरस्यां पूर्वदिग्नाथदन्ती । विकसितशतपत्रं व्योम्नि चिक्षेप भानो
श्छलत इति विनेशुधिष्ण्यपारापतास्ते ॥५॥ वियति मदनबाणास्तारतारावतारात्,
क्षितिवलयमपीयुः सर्वतो दीपमूर्त्या ।
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स्मरहरहरनेत्रच्छात्रता पात्ररूपे
___ऽभ्युदयति रविबिम्बे तेऽप्यदृश्या बभूवुः ॥६॥ गगनशयनभागे कीर्णताराप्रसूने
ऽतनुत रजनिजानिर्भोगलीलां रजन्या । उदयति दिननाथे सर्वनिर्माल्यमेतत्,
किमिव समुपजहे वायुभृत्यः प्रवृत्त्या ॥७॥ हिमकरकरपातैः पद्मिनी ग्लानिमाप्ता
मरुणघुसृणलिप्तैः संस्पृशन् स्वैः करैस्ताम् । अनुनयति किमर्कः स्फारनीहारबिन्दु
प्रकरविशदमुक्ताभूषणानि प्रदाय ॥८॥ व्रजति मयि विदेशं मत्प्रियां पद्मिनी द्राक्,
कथमिह हिमरश्मेऽपीडयंस्त्वं विमुद्र्य । दिनपतिरिति रोषात् ताम्रदीप्तिर्जहार,
___समममृतसुधाम्ना तत्प्रियास्सर्वताराः ॥९॥ द्विजपतिरधिकारी प्राप्य ताराप्रकारा
द्रजतविततमुद्रा यत्कलङ्की बभूव । इति विधिरतिरुष्टस्तस्य सर्वस्वहत्या,
__ व्यधित किरणपाणिं प्राप्तविश्वाधिकारम् ॥१०॥ सदसि रसिकलोके सङ्गते सङ्गतेन,
प्रवचनविनयार्हे वाच्यते प्राच्यवृत्त्या । अनजपजपपूर्वं ज्ञातधर्मप्रथाङ्गं,
दिनमुखसमयेऽस्मिन्मेघचारित्रचारु ॥११॥ तदनु. मनुजबोधः शास्त्रसंशोधनेन, .
हृतसमयविरोधः शिष्यपाठानुरोधः । जिनवरनवरश्मिस्नात्रकर्माभियोगः
प्रकृतिकृतिजनेनाऽऽरभ्यते तत्प्रयोगः ॥१२।। इति कतिपयजाग्रत्पुण्यनैपुण्यवृत्त्या,
परमगुरुकृपायाश्चाऽनुभावस्वभावात् ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
दशभिरथ मदीयैरुत्सवेनोपवस्त्रै
जिनमतमतिशुभ्रं निर्मितं षष्ठयुक्तैः ॥१३|| प्रतिदिनमपि तस्मिन्नुत्सवे श्राद्धनार्यः,
क्रमुकफलसमूहैर्भावनां द्विस्त्रिकृत्वः । विदधुरनुपमानैर्निर्विगानैश्च गानैः,
सममसमसमग्रानन्दमुद्भावयन्त्यः ॥१४॥ परमपि रमणीयं षष्ठभक्ताष्टमादि,
दुरितचरितहारिश्रीतपस्तप्यतेऽत्र । श्रमणगणमहेन्दोस्सद्गुणध्यानवृत्त्या,
जनमनसि रसाढ्ये स्थाप्यते भक्तिवल्लिः ॥१५।। अथ समयबलेनाऽऽहूतमुद्भूतरूपं,
मुदितसुकृतरूपं वार्षिकं पर्व मत्वा । सकलजिनगृहेषु प्रौढधर्मानुरागात्,
विरचनमिह भव्याश्चक्षुरर्चार्चनानाम् ॥१६॥ द्रविणवितरणेन स्वेच्छया प्राणभाजां
विशरणमचिरेण श्राद्धमुख्यै→षेधि । अतिचरितगदानामौषधैः पौषधैश्च,
वरमुनिजनसाम्यं लीलयैव व्यधायि ॥१७॥ अकृत बहुतपोभिः पाक्षिकाष्टाहिकाद्यैः,
सरसिजनयनानामुत्सवाडम्बरेण । जननयशसि पुष्टिं तुष्टिमर्थिव्रजस्य,
श्रमणचरणसेवाशिक्षितः श्राद्धपक्षः ।।१८।। अधित रजतमुद्रां वाङ्मयाभ्यर्चनेषु,
___ परिणतधृतिमाद्यद्वाद्यनिर्घोषपूर्वम् । वितरणमतिसाम्ना मार्गणानां गणस्य,
युवतिनवतपस्यादृत्य भन्नुवृत्त्या ॥१९॥ स्मरणमनिशमर्हत्सिद्धसूर्यङ्गसूरि
श्रमणपदपवित्रस्याऽत्रमन्त्राधिराजः ।
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जान्युआरी - २०१३
श्रवणमपि च कल्पानल्पसूत्रस्य वृत्त्या,
सह महति महेऽस्मिन् भव्यसोऽभ्यकार्षीत् ॥२०॥ सविनयमपरोषस्तोषमासाद्य सद्यः,
सुविहितदृढरागः स्वागसः क्षामणानि । उपशमसमतायां सम्मतायां चकार,
वचसि मनसि दोषानुज्जिहानो विवेकी ॥२१॥ कलिललितवशेन व्याप्तिमात्रं समन्तात्
विमतमतमतः स्याद् विस्मयो धर्मकार्ये । अहह निरपवादः श्रीमदिष्टप्रसादः,
प्रभवति सति यस्मिन्नाऽत्र कोऽप्यन्तरायः ॥२२॥ कृतयुगयुगलश्रीः किं सहैवाऽभ्युपेता,
परिणमति सचेता यज्जिनार्चादिधर्मे । प्रवहति कलिकाले पापलोकैः कराले,
सुकृतमतिरिहेदृग् जायते यद्विचाले ॥२३॥ धृतवसनविशेषैश्चारुवेषैरशेषै
व्रजति युवतिवर्गश्चैत्यमाश्रित्यवृन्दम् । जिनगुणमभिनीतं सुस्वरेण प्रतीतं,
पथि कथितसुखेनोच्चारयन् चारुगीतम् ॥२४॥ शरदि विहितपापक्षालनं पालनं च,
सकलतनुभृतां द्राग् वृद्धया श्रद्धयाऽभूत् । अवसितपरमार्थः सार्थ एवाऽर्थभाजां
प्रतिगृहमदित श्रीलम्भनां मोदकानाम् ।।२५।। सुमधुरमधुधूलीसम्पुटानां प्रदान
___ मजनि रजनिजन्मन्याब्दिकत्यागकाले । इतरदपि यथार्ह वस्त्ररूप्यादिदानं,
भुवनगुरुगुणौघे गायनैर्गीयमाने ॥२६।। विविधरससमृद्धैः सिद्धपक्वान्नभोज्यैः,
प्रवचनचतुराणां पारणाधारणाभिः ।
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६०.
अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
प्रविदितमहिमाभृत्सर्वपर्वालिमुख्यं,
क्रमत इति तिरोऽभूत् पर्वसांवत्सराख्यम् ॥२७॥ विलसति कमलानां काननेषु प्रबोधे,
परिमलकमलाऽसौ सौरभासा यथैव । सुकृतसरसलक्ष्मी: सौरभासा तथैवौन्नयनमनुबभूव प्रोद्भवत्सौरभा सा ॥२८॥ श्रीः
श्रीशङ्खेश्वर ऐँ नमः । श्रीमान् सूरेर्जयति विजयी लक्षणैः पञ्चशाखश्चञ्चल्लक्ष्मीभरवितरणैर्नन्दितः श्राद्धशाखः । सेव्यः शश्वद्विबुधनिवहैरङ्गवान्पारिजातः,
प्रातर्भास्वानिव हततमस्तेजसाऽपारिजातः ॥ १ ॥ किं कल्पद्रोरिव किशलयः प्रादुरासीज्जगत्या -,
मत्यादृत्याऽभिनतजनताऽभीष्टसम्पत्तयेऽसौ । शोभां बिभ्रद् गणधरगुरोर्गौरहस्तप्रशस्त्या,
नानालेखाश्रयणमिह तद् दृश्यते व्यक्तमेव ||२|| नूनं दूनं भवति विभवे यत्कलाभृत्कलानां,
वक्राङ्गानामपि परिचितं वेष्टितं कण्टकै । वासायैतन्मम समुचितं नेति मुक्त्वा पयोजं
लीनः पीनच्छविरिह करः पद्मया गच्छभर्तुः ॥३॥ पद्मः क्वाऽयं जडपरिचयी लक्ष्मणाम्प्लि(च्छ्लि? ) ष्टकायः, स्पष्टं पङ्कावकरभरजः कण्टकानां निकायः । क्वाऽयं पाणिस्तपगणगुरोर्नित्यपाण्डित्यकर्त्ता,
दूरे पङ्कात् प्रसरति चयः सौकुमार्यं प्रधार्य ॥४॥ नाऽयं न्याय: श्रयति समतां लोकवार्त्ताप्रसङ्गेप्यम्भोजन्मश्रमणनृपतेः पाणिना सार्द्धमेतत् ।
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जान्युआरी - २०१३
बोधायैवं किमिति निदधे स्वर्णसावर्ण्यमस्मिन्,
धात्राम्भोजे पुनरधृतितस्तद्वराटस्य कूटम् ॥५॥ लेशोद्देशादपि न सदृशं पङ्कजं स्वामिपाणेः,
स्पर्धां धत्ते तदपि किमिति प्राप्तकोपाधिरोपः । शङ्के पङ्केरुहवनशिरस्याशु चिक्षेप साक्षात्,
धाता पांशुप्रकरमभितस्तद्रजोराजिदम्भात् ॥६॥ चञ्चत्कान्त्या किशलयकुले शोणभावातुलेऽपि,
___ बोधप्राप्त्या कमलवलये शुद्धबुद्धस्वरूपे । लेभे लेखासमुदयमयं स्वामिपाणिर्विवादात्,
तेनौपम्यं कलयति कलामात्रतः कोऽतिरम्यम् ॥७॥ प्रातः किञ्चित्तुलयितुमलं निर्मलं नीरजन्म,
धत्ते धाष्टय गणधरगुरोः पाणिना सार्द्धमत्र । तावदैवादलिकुलमिषाल्लीयते पातकेन,
स्पर्धाबन्धः किमिह महतां क्वाऽपि कस्याऽपि दीप्त्यै ।।८।। मग्नं नीरे भ्रमरललिते नाऽक्षसूत्रे विलग्नं,
___ नग्नं साक्षान्मलिनमसकृज्जातनीहारपातात् । नालीकस्वं नलिनमनिशं स्वामिनः पाणिलक्ष्मी
प्राप्तुं किं किं तपति न तपः कष्टमुद्दिष्टयोगात् ॥९॥ तुल्यं नाऽभूच्छतपरिमितैर्वा सहस्रप्रमाणैः,
पात्रैनित्यं परिवृतमपि श्रीनिवासेऽम्बुजन्म । यस्य श्रीमत्तपगणभृतः पञ्चशाखस्य पाणेः,
तस्यौपम्यं विटपमिलित: पल्लवः किं बिभर्ति ॥१०॥ बाल: पात्रं न भवति मनाक् पञ्चशाखाप्रदीप्तेः,
तत्कि भासा भजति तुलनामाख्यया यः प्रवालः । श्रीमत्सूरेः करपरिकरज्योतिषां लज्जयैव,
जाने तस्मादुदयसमयेप्येष सङ्कोचमेति ॥११॥ लक्ष्मी मान् वसति चतुरः पङ्कजे पञ्चषान् वा,
घस्रांस्तद्वत् किशलयकुले सङ्कले पात्रवृन्दैः ।
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६२
अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
श्रीमत्सूरेः शयमतिशयस्थानमासाद्य माद्यत्
चेता नित्यस्थितिसुखमियं प्रप निस्तापरीत्या ||१२|| नित्योल्लासं कमलविपिने जायते मित्रदृष्टेः,
रागाधिक्यं किशलयदले वर्द्धतेऽम्भोदवृष्टेः । सूरे: पाणौ द्वयमपि समं वर्तते तत्स्वभावात्,
तेनैवाऽस्य प्रसरति नृणां तद्वयं स्पर्शनेन ॥ १३॥ धात्रा छत्रं विहितमहितध्वंसनाद् भूरिभासं,
खण्ड १
धृत्वा तत्त्वाभ्युदयविधये स्वामिनो हस्तवृत्त्या । यस्मिन्नुच्चैः स्फुरति शिरसि प्रष्टवासप्रकाशाद्,
दिष्ट्या वृष्टि विकिरति भवेद् राज्यपट्टाभिषेकः ॥१४॥ न्यस्तो हस्तः शिरसि कृपया यस्य गच्छाधिभर्त्रा,
कर्त्रा सृष्टेस्तदुपरि धृतं मूर्त्तमेवाऽऽतपत्रम् । युक्तं भुङ्क्ते भुवनभवनाभोगसाम्राज्यलक्ष्मीं,
श्राद्धस्तस्मान्मुनिरपि गुरुः स्यादुपाध्यायसिंहः || १५ || कल्पद्रूणां विजितममुना पञ्चकं पाणिना यत्,
सूरेर्दूरे वितरणमदं तस्य सर्वं निरस्य । शाखावेषाद् भजति तदिदं सोऽप्यतः पञ्चशाखः,
ख्यातिं धत्तेऽन्वयपरिणतमिष्टदानादिसृष्ट्या ॥ १६ ॥ चिन्तारलं रव (वि ? ) रुचिशिखासञ्चयेनैव सूरे
जित्वा पाणिर्विजयमहसा चक्रवर्त्ती बभूव । चक्रं छत्रं स्फुटतरमतश्चामरोत्क्षेपयुक्तं,
व्यक्तं सिंहासनमपि दधात्येष लेखाविशेषात् ॥१७॥ देवी पञ्चाङ्गुलिरपि गुरोः पाणिपञ्चाङ्गुलीनां,
मैत्रीपात्रीभवति नितरामत्र संवासयोगात् । दण्डे तस्माद् दृढपरिचयः शस्त्रमैन्द्रं वितन्द्रं,
स्पष्टं दृष्टः स्वयमपि शयः सङ्गतोद्यत्सुर्व्या ॥१८॥ प्राज्यं राज्यं स भजति पुमान् यस्य शीर्षे मुनीन्दोः, पाणिर्धत्ते कमलललितोत्तंसलीलां प्रसद्य (ह्य ? ) ।
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जान्युआरी - २०१३ मौलिं बिभ्रन्नखमणिमिषादात्मना भूपरूपः,
स्थाने राज्ञा कृतनिजरुचिस्थापनात् सोऽपि राजा ॥१९॥ शङ्के पङ्के पतितमभितः पक्षपातैर्द्विजानां,
कम्पप्राप्तं जडमपि पदं तत्सपत्नाकृतीनाम् । प्रातर्बोधान्नलिनवलयं सौरपाणेः कथञ्चित्,
श्रुत्वौपम्यं विहसतितरामुन्मुखीभूय भूयः ॥२०॥ वासोल्लासप्रकटकपटादुद्गिरन् पोष्यरागं,
___ लक्ष्मीलीलाभवनविभया सूरिराजस्य पाणिः । अम्भोयोनेरपि च लभतां सौरभेणोपमानं,
श्यामाभासा यदिह रमते भृङ्गमालाऽक्षमाला ॥२१॥*
(एतावन्मात्रभेवेदं पत्रम् ।)
* उपमानानि चन्द्रस्य बहूनि सन्ति मत्कृतात् । पार्श्वनाथस्तवात्तानि ज्ञेयानि विदुषां वरैः ॥३०॥ सर्ग-११ बहुधाऽत्रोपमानानि सन्तु जानन्तु तान्यपि । मत्कृतायाः तारकितायाः यामिन्या वर्णकाद् बुधाः ॥७१॥ सर्ग-११ इति टि.
C/o. प्राकृत भारती, 13 A, मेन गुरुनानक पथ, जयपुर
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
(४) सूर्यपुरस्थ-श्रीविजयसेनसूरि प्रति वैजलपुरात् श्रीविद्याविजयस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
[शार्दूल०] स्वस्ति श्रीसुखसञ्चयं रचयति स्फारीभवत्संवरो,
यो लोकस्य लताकदम्बकमिवाऽम्भोदः श्रितो विद्युता । प्रास्ताशेषतमोभरः प्रभवतात् पङ्कापहाराय वः,
____ स श्रीमान् कलिकुण्डपार्श्वजिनराड् नाथोऽब्जिनीनामिव ॥१॥ यन्नाम्नो महिमाभरस्य पुरतः शश्वत्प्रवृद्धौजसः,
किं तेजः सरसीजिनीप्रणयिनः शोभा दिवैवैति यत् । आलोकश्शशिनश्च कः श्रयति योऽवश्यं परिक्षीणतां,
नृणां स्वान्तसमीहितं वितनुतां शाखीव स स्वर्गिणाम् ।।२।। काष्ठानामिव चित्रभानुरसुमत्स्तोमस्य तेजःपदं,
क्लेशानां दहनं प्रपञ्चयति य: प्रध्वस्तजाड्योत्करः । लोकैस्तत कलिकुण्ड* इत्यभिधया सान्वर्थया गीयते,
सामोदं तमुपास्महे श्रितखगं पान्था इवाऽनोकहम् ॥३॥ गम्भीरे सुतरां यदीयमहिमाम्भोधौ निमज्जन्ति ये,
ते तिष्ठन्ति सुखं व्यतीतसमया दुःखं तटस्थाः पुनः । अस्माभिः परिपृच्छ्यतेऽद्भुतमिदं दक्षस्य कस्याऽग्रतः,
स स्तात् पूर्णकलोत्करः कुवलयोल्लासीव शीतद्युतिः ॥४॥ सन्तापं सततोदयो वितनुते मिथ्यादृशामेव य
श्छिन्ते मानवहत्तमश्च सृजति प्रीतान् पुनः कौशिकान् । नाऽपूर्वं कथमामनन्ति महिमादित्यं यदीयं बुधाः,
श्रीमन्तं कलिकुण्डपार्श्वजिनपं प्रेम्णा नमस्कृत्य तम् ।।५।। * कुडुङ् दा - - - - - [हे इति व]चनात् - टि. ।
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जान्युआरी - २०१३
॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ यच्चैत्यालयमण्डली कलयति श्रीसञ्चयं सर्वतः,
सर्वज्ञैः समुपासिता परिलसत्तेजोव्रजालङ्कृतैः । हाराणां पटलीव पावनतरैरासेविता नायकैः,
सद्वृत्तत्वविराजिभिधृतगुणग्राममनोहारिभिः ॥६॥ यत्सर्वज्ञनिशाधिनाथसदनश्रेणी नृणां पद्मिनी
प्राणेशद्युतिधोरणीव नयति प्रध्वंसमार्ग तमः । पुण्योद्योतकदम्बकं गमयति स्फाति स्फुरन्ती पुनः,
___प्रीतिप्रापितसच्चकोरनिकरा दोषापहारक्षमा ||७|| यत्रत्या जिनचित्रभानुभवनाः शोभा वहन्तोऽद्भुतां,
लक्ष्यन्ते निलयावलीषु सहसा पार्थक्यतः पूरुषैः ।। शैलालीषु कुलाचला इव नरवातेषु भूपा इव,
स्वःसद्भूमिरुहा इव क्षितिरुहश्रेणीषु भास्वद्रुचः ॥८।। यज्जैनेश्वरवेश्मभासुरसुधालेपाट्यभित्त्यावली
सङ्क्रान्त-द्विजराज-वारिरुहिणीप्राणेश-तारादयः । युष्माकं पुरतो वयं किमपि नो तेजस्वितापात्रतां,
यामो वक्तुमितीव देवपदवीमार्गादिहेवाऽऽगताः ॥९॥ यत्र प्रेक्ष्य पदे पदे जिनगृहव्यूहे चकासत्सुधा
श्रेणी भित्तिगतामतीवधवल श्रीकां कलङ्कोज्झिताम् । स्वं शोचन् प्रसरत्कलङ्कमलिनं सान्द्रार्तिसंसर्गतः,
क्षीणः कैरविणीहृदीश्वर इव व्यालोक्यते व्योमनि ॥१०॥ यच्चैत्यप्रकरे सुधाधवलिता भित्तिप्रथा सर्वतः,
सन्त्यक्ताम्बरसङ्गमाऽपि लभते राढां दृढं सर्वदा । तच्चित्रं निजतेजसा जयति यच्छीतद्युतेर्मण्डलं,
विस्तीर्णाम्बरलब्धडम्बरभरं कुर्वत् कुवेलोदयम् ॥११॥ यत्र श्रीजिनयामिनीश्वरमहाचैत्यालिचञ्चत्सुधा
सन्दोहप्रतिबिम्बिता गृहमणीमाला चिरं राजते ।
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दद
अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
नित्यं श्रीभगवन्निषेवणसमुद्भूतोरुपुण्यप्रथा
संश्लेषादिव दर्शितोदयचयाद् वैगुण्यमासादिता ॥१२॥ यत्रोच्चैर्भगवद्विहारनिकरे नित्योत्सवानन्दिनि,
प्रोद्यद्भित्तिविभागसञ्जितसुधाऽपूर्वैव विभ्राजते । यस्याः प्रेक्षणनिर्मितेरपि सतां व्राता विशुद्धाशयाः,
सद्यो जन्मजरामृतिप्रभृतिजं क्लेशं निराकुर्वते ॥१३।। यत्राऽऽभान्ति जिनालयावलिगताः कुड्यप्रदेशाः सुधा
श्रेणीभिर्धवलीकृता जनमनःप्रीतिप्रकर्षप्रदाः । स्वर्भाणुप्रभवं(व)प्रभूतभयतस्त्यक्त्वा धुसत्पद्धति,
सूर्याचन्द्रमसव्रजा जिनवराभ्यर्णं प्रपन्ना इव ॥१४॥ यच्चैत्यप्रकरे निशाकरकरश्रेणीसमाना सुधा,
नेयं राजति रामणीयकपदं सर्वत्र विस्तार[भाक्] । किन्त्वेषा किल दर्शनाय भविनां प्रादुष्कृता क्ष्मातले,
कीर्तिः श्रीजिनपुङ्गवैः सुरगवीक्षीरोज्ज्वला भ्राजते ॥१५॥ यत्रत्यालयराजयो रतिकृतश्चञ्चन्त्यतीवोच्छ्रिताः,
संश्लिष्टाः स्तनयित्नुभिः सुगुरुभिः स्वर्वासिनामध्वनि । स्यात् सख्यं हि समानशीलविभवैः क्लृप्तं निदानं श्रिया
मेतां रीतिमशेषविश्वविदितां स्पष्टं विधातुं किमु ॥१६॥ यत्राऽऽवासपरम्पराः सुरपथे प्राप्ताः पयोमुग्भरा
__नेवं वक्तुमिवाऽऽदरेण कमलाधारत्वतो गर्जतः । मा गजन्तु विसज्जनैकरसिका! दध्मोऽपि विश्वे वयं,
विस्तारं कमलोत्करस्य जगतीजन्तूपकारप्रभुम् ॥१७॥ यत्राऽऽवासकदम्बकं जलमुचां मालाभिरुच्चस्तरं,
सम्बन्धं विदधाति देवपदवीक्रोडे प्रचण्डोदयम् । अत्यासन्नतया मरुत्पथमणेस्तत्पादतापप्रथा
पीडाकाण्डमिव व्यपोहितुमनस्तेजोऽपहारक्षमम् ॥१८॥ यत्रोत्तुङ्गतमालयावलिरलं विभ्राजते शीतरुक्,
स्वःसत्कुञ्जरकुन्दकैरवकुलश्वेता सुधालेपतः ।
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जान्युआरी २०१३
देवानां पथि कज्जलालिशितिरुक्पाथोमुचामालिभिः, संश्लिष्टैक्यमुपागते इव तनू श्रीकण्ठवैकुण्ठयोः ॥ १९ ॥ लोलत्केतुकरैर्यदुच्चभवनश्रेण्यः किलाऽऽकारय
न्त्यम्भोदानिव दातुमित्युरुमुपालम्भं वियद्वर्त्मगान् । अस्माकं शिखरस्थिता किमु सुधामालिन्यमानीयते,
युष्माभिर्यमुनाञ्जनालिशितिभिः पङ्कोदयोल्लासिभिः ||२०|| यत्राऽनेकसहस्रगोधनजुषां सौधावलीनां श्रियं,
कर्तुं नेत्रपथेति मत्सरितया नेशोऽल्पगुर्गोपतिः । पन्थानं परिहाय मङ्क्षु सरलं व्योमन्युदग्दक्षिणा
दिग्मार्ग श्रयतीति चेन्न हि तदा वाच्यं निदानं परम् ॥२१॥ उच्चैर्यत्र निकेतनीयनिकरा वेल्लत्पताकाकरैः,
सर्वाशास्विव तर्ज्जयन्ति गगनज्योतिर्विमानावलिम् । अस्माकं पुरतः स्थिरत्वमयतां नित्योत्सवानन्दिनां,
का राढा वरिवर्त्ति वश्चपलताभाजां दिवाऽस्तद्युताम् ॥२२॥ यत्रत्यामतितुङ्गगेहपटलीमालोक्य लोकैरिदं,
चित्तेऽचिन्ति सुतर्ककर्कशतरप्रज्ञाप्रकर्षावहैः । ऋक्षाणां व्रजतां विहायसि निरालम्बे विलम्बं कृते,
वाऽऽधारार्थमियं नृभिः प्रपतनभ्रान्त्या चिरं श्रान्तिः ||२३|| यत्तुङ्गालयपेटकस्य पुरतो दीर्घा अपि दुव्रजा,
बिभ्राणा लघुतां प्रयान्ति सहसा पन्थानमक्ष्णां नृणाम् । आसन्नत्वमयन्ति यस्य शशभृत्सूर्यग्रहाद्याः पुनः,
६७
शृङ्गे यस्य च शेरते जलमुचो विश्रामलाभेच्छ्या ॥२४॥ यत्राssवासभरा विदोषविभवः केतून् वहन्त्युच्चकै
रेवं दर्प्पकदम्बकादिव पुरः केऽस्माकमन्ये गृहाः । भण्यन्ते भुवि दानवारिनिकरप्राप्ताधिपत्या घुस
नेहा नागगृहा भुजङ्गपटलीसाम्राज्यभाजः पुनः ||२५|| यद्वेश्मप्रकरः सुवर्णकलितः सन्नन्दनः सङ्कलो, रम्भौघैर्विबुधावलीपरिगतो विभ्राजितो विद्रुमैः ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
गोसम्पत्तिमनोहरः स्फुटवसुः स्वर्णाद्रिवत् कस्य नो,
प्राप्तो लोचनगोचरं प्रथयति प्रीतिप्रकर्ष हृदि ॥२६॥ यल्लोको वरिवर्ति भाग्यभवनं भाग्यात् पुनः सम्पदं,
सम्प्राप्नोति समीहितं वितनुते दानं पुनः सम्पदा । दानादर्थिकदम्बकं सुखयति प्राप्नोति तस्माद् यशः,
पीयूषांशुविराजि तेन सहसा विश्वं बरीभर्ति च ॥२७॥ यल्लोकः कमनीयतासुरसरित्प्रालेयशैलः कला
___वल्लीकाननमृद्धिसिन्धुजलधिर्विद्यामणीरोहणः । दाक्षिण्योडुवियद् यशोऽम्बुजसरः पुण्यप्रसूनद्रुमः,
__ सद्यः सन्तनुते गतोऽक्षिपदवीं सन्तुष्टिपुष्टिं नृणाम् ॥२८॥ रूपत्याजितमन्मथस्मयचयाः प्रोल्लासिदेहातो,
भालाभोगपराकृतेन्दुशकलास्तुङ्गा महादोर्युगाः । पुष्टाः शिष्टधियो धराधिपमता: पद्माप्रपूर्णौकसः,
स्वैरं यत्र वसन्ति पूरुषभराः कारुण्यपुण्याशयाः ॥२९।। सम्पूर्णामृतरश्मिकल्पवदनाः कन्दर्पकेलीगृहाः,
__ प्रोद्बुद्धाम्बुजलोचनाः स्मरवधूधिक्कारिरूपश्रियः । वाक्चातुर्य्यवशीकृतत्रिभुवनाः कामं कटाक्षच्छटा
श्रेणीप्रीणितकामिचित्ततरवो राजन्ति यत्र स्त्रियः ॥३०॥ स्फूर्ज़द्दानसुशीलदुस्तपतपःसद्भावनाभिश्चतु
र्भेदं धर्ममनन्तशर्मजननं सम्यग् समाराधयन् । कुर्वन् श्रीजिनशासनस्य महिमां विश्वत्रयीविश्रुतां,
स्तुत्यो यत्र चकास्ति देवगुरुपत्पाथोजसेवापयो
धौतस्वान्तमल: कलासु कुशलः श्राद्धो जनः सज्जनः ॥३१॥* अर्हत्सूरितपोधनादिकगुणग्रामैकगानप्रथा
पाथोनाथनिमग्नमानसतिमिर्मन्दाक्षदाक्षिण्यभाक् । शीलालङ्कृतिशालिनी सरलधीः सन्मार्गसंसर्गिणी,
. श्राद्धीराजिरुपैति यत्र सुषमामारब्धधर्मादरा ॥३२॥
★ पञ्चपदी - टि. ।
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जान्युआरी २०१३
यत्र श्रीजिनपद्मिनीपतिगृहे दण्डो दरीदृश्यते,
बन्धो लोलदृशां शिरोरुहभरे तन्मानसे वक्रता । बौद्धेऽत्र क्षणभङ्गिता मुनिजने गुप्तिर्जडत्वं जले,
ववाहे च करग्रहो गृहमणौ स्नेहक्षयो नो जने ||३३|| स्फूर्ज्जत्तीव्रतरप्रतापपटलीनिर्भर्त्सिताहर्मणिः सम्यग्न्यायजनप्रपालनसमुद्भूतोरुकीर्तिव्रजः ।
वैरिव्रातविघातकर्मठ भुजादण्डः प्रचण्डोदयो,
राजा राजति यत्र वासव इव प्रोल्लासिसम्पद्धरः ||३४|| यत्राऽऽनन्दनिदानतामधिगतं दानादिदीप्तादरं,
चातुर्वर्ण्यमुपैति वासमधिकं रैरत्नविभ्राजितम् । तत्र श्रीमति तातपादचरणाम्भोजद्वयीरेणुभिः,
पुण्ये सूर्यपुराख्यबन्दिरवरे विश्वम्भराभूषणे ॥ ३५ ॥ प्राग् यत्नाज्जितवीरवीरधवलोर्वीशस्य पत्नीपदं,
प्रीतेर्वैजलदेव्यतीव मुदिता यत्कीर्त्तयेऽवासयत् । * श्रीसिद्धाचलगामिसङ्घनिकरावस्थानपुण्यीकृत
क्ष्मोद्देशादभिरामवैजलपुरात् सच्चैत्ययुग्मात् ततः ||३६||
नीरन्ध्रोत्कलिकाकलाधरकलादूरीकृतान्तस्तमाः ।
अश्रान्तस्तुतिभृङ्गङ्गङ्कृतिलसद्वक्त्राम्बुजन्मास्फुर
द्भक्तिर्मौलिललाटपट्टघटित क्षोणीतलस्पर्शनः ||३७|| रोमाञ्चप्रकटप्रसूनपटलीरोचिष्णुदेहद्रुमः,
सम्बद्धाञ्जलिसम्पुटः प्रभुपदान् नत्वा विधेर्वन्दनैः । रामेन्दूज्झितसाङ्ख्यतत्त्वतुलितावत्तैर्विशुद्धाशय
हर्षोत्कर्षतरङ्गिणीशलहरीनिर्मग्नचेतस्तिमि
श्रीविद्याविजयः शिशुर्वितनुते विज्ञप्तिपत्रीमिमाम् ॥३८॥
कृत्यं चाऽत्र यथा प्रभातसमये पुष्पन्धयानां कुले, निर्मुक्ते रजनीमुखे सरसिजकोडे चिरं बन्धतः ।
६९
★ नृपश्रीवीरधवलपट्टराज्ञीभ्यां वैजलदेवी - जैतलदेवीभ्यां वैजलपुर- जैतलपुरे वासि इति दर्भावतीदुर्गप्रशस्तौ - टि. |
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
निश्शकं तुमुलच्छलादिव नवप्रारब्धसङ्गीतके,
निर्याते परितः स्मिताम्बुजवनाद् गन्धे प्रकाशादिव ॥३९।। मोहक्षोणिपतिप्रयाणपटहारावोपमे झल्लरी
नादे श्रीजिनचन्द्रचैत्यनिचये प्राप्ते स्रवोवम॑नि । आनन्दस्पृशि चक्रवाकवयसां वृन्दे वियोगक्षया
नृत्ते स्वीयविपक्षभूतरजनीकालप्रणाशादिव ॥४०॥ आरूढे शिखरं सुराधिपतिदिक्क्षोणीभृतो भास्वति,
द्रष्टुं स्पष्टमितीव महसुभरोद्योतादभूत् किं भुवि । पूर्णे सभ्यसितच्छदैः सुपरिषत्पद्माकरे सर्वतः,
सत्सूत्रार्थपरिस्फुरद्भगवतीव्याख्यामृणालस्थितिः ॥४१॥ निर्ग्रन्थाध्ययनास्तिकस्मरवती लोकोपधानक्रिया,
श्रीसर्वज्ञसरोजिनीहृदयराट्स्नात्रार्हणापत्त्रभाक् । पर्यायागतसर्वपर्वतिलकश्रीवार्षिकोद्यन्महा
पर्वण्यङ्गिनिबर्हणोद्भवभयाभावाद्भुतामोदयुक् ॥४२॥ *प्राकारत्रितयाकृतिप्रणयनस्फारीभवत्केसरः,
सन्मासक्षपणाष्टमादिकतपःसम्भारसौगन्धिकः । श्रीकल्पाध्ययनीयवाचनमधुः सद्धर्मसाधर्मिक
श्रेणीभक्तिभराग्रभोजनमहासंवर्तिकासुन्दरः ॥४३।। अर्थिवातविनिर्मितस्तुतिलसद्रोलम्बझङ्कारवा
नित्याद्यद्भुतधर्मकर्मसरसीजन्मव्रजः पावनः । वृद्धि प्राप यथोचितं स्फुटमहः प्राप्नोत्यविघ्नः पुनः, श्रीमत्तातपदप्रसादशरदः पङ्कच्छिदः प्रोद्गमात् ॥४४||
॥ अथ श्रीगुरुवर्णनम् ॥ श्रीसूरीश! भवत्स्फुरद्गुणगणस्तोत्रप्रबन्धे बुधा
यत्ते यत्नमयं जनो जनयते शक्त्युज्झितो भक्तितः । भित्तिस्थापितचारुचित्ररचनारूपं द्विपं दृक्पथं,
नीत्वाऽर्भः किमु नो कुतूहलवशादारोढुमाशंसते ।।४५|| ★ समवसरणरचनेत्यर्थः - टि. ।
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हस्तेनेव सरोजिनीहृदयराट्स्पर्शस्य वारांनिधे, __ रोधस्येव वशीकृतेरिव बृहद्भानूष्णताया: किल । भूरित्वद्गुणवर्गवर्णनविधेः श्रीसूरिचूडामणे!,
सिद्धेवर्त्म मया मनोरथमरः सम्प्रापणीयः कथम् ॥४६॥ बह्रीं त्वगुणधोरणी त्रिपथगाकल्लोलमालोज्ज्वलां,
सामस्त्ये[न] नुतिक्रमे प्रणयितुं कः स्यात् प्रभूष्णुः प्रभो! । विद्याशैवलिनीहदीश्वरतरीसंकाशसंविज्जुषः,
कुण्ठत्वं कलयन्ति यत्र सुतरां वाचोऽपि वाचस्पतेः ॥४७॥ मूलं श्रीजिनशासनं व्रतविधिः स्कन्धः कलाः पल्लवाः,
पत्राण्यागमयुक्तयः परिमलस्फीतिर्यशःसंहतिः । छाया धर्मकथा फलं शिवसुखं भव्याङ्गिनः पक्षिण
स्त्वं प्राप्तः फलदोऽपवर्गपदवीपान्थेन पुण्योद्गमात् ॥४८॥ स्वामिस्त्वत्प्रबलप्रतापतपने दम्भोलिसौदामनी
पाथोनाथधनञ्जयोच्चयनिभे देदीप्यमानेऽभितः । यत्ते कीर्तिकलापकैरववनं प्रत्यूहपुरोज्झितं,
वृद्धिं याति निरन्तरं मनसि तं मन्यामहे विस्मयम् ॥४९।। किं मार्तण्डविभामयोऽयमतुलं नृणां तमो हन्ति यत्,
किं पीयूषमयो जरामृतिभयं मथ्नाति यन्मोहकृत् । किं शीतांशुकलामयः कुवलयं यद् बोधयत्यक्षतं,
भव्यान्तष्करणेऽजनीति घटना चक्षुःपथाप्ते त्वयि ॥५०॥ कामं काममपाकरोषि हरसे कीर्ति कुवादिव्रजाद्,
हिंसां हन्सि निराकरोषि कलुषं क्रोधं नयस्यापदम् । मानं मानविवजितं रचयसे मनासि मायां तथा
ऽप्याख्यान्ति प्रतिभाधनाः प्रशमिराट्! त्वां सर्वदोषोज्झितम् ॥५१॥ कामं पूरयसि प्रभो! तनुमतां मायाविलासं सृजन्,
प्रोद्दामप्रमदानुषङ्गजननः सक्तः परार्थग्रहे । सेव्यः पुण्यजनैरनीतिसहितः स्वष्टापदध्यानवान्,
वैराग्यैकमनास्तथाऽपि भणित: सभ्यः पुनः पण्डितैः ॥५२॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ सर्वत्रप्रसृतोरुदुर्दिनभरः पङ्कोत्करं वर्द्धयन्,
क्षामत्वं कमलाकरस्य रचयन् मित्रप्रभा भ्रंशयन् । लुम्पन् राजकलाकलापमखिलं निर्मुक्तमार्गं जनं,
कुर्वन् कः पुरतस्तव व्रतिपते! दोषोज्झितस्याऽम्बुदः ॥५३।। कर्पूरामृतकान्तिकुन्दकुमुदवातानुकारित्विषो,
___भूयस्त्वेन गुणास्त्वदीयवपुषि स्थानानवाप्तेः प्रभो! । तारामण्डलदम्भतो दिविषदां मार्गेऽथ मुक्ताफल
श्रेणीकैतवतः सरित्प्रणयिनो मध्ये स्थितिं कुर्वते ॥५४॥ म्लेच्छीयान्वयसम्भवक्षितिभृतः सत्कर्मनिवर्त्तने,
निष्णातान् सृजतः निरीक्ष्य भवतो माहात्म्यमाश्चर्यकृत् । ऋक्षाणां कपटेन कण्टकभरं धत्ते तनौ सर्वतः,
प्रादुर्भूतमहाप्रमोदपटलाटोपः सुधाभुक्पथः ।।५५।। गत्या ते विजितो वृषो वृषपतिं देवं किमाराधय
त्यम्भोजं वदनेन मर्दितमदं किं हंसगं शीलति । नीतो धिक्कृतिवर्त्म किं खगपतिर्देहधुता दैत्यभि
त्सेवामेति निषेवते किमु मृगश्चन्द्रं दृशा तज्जितः ॥५६॥ विद्यावैभवभासुरेण भवता मेधावितां बिभ्रता,
____ पीयूषाशनसूरि-दानवगुरू दूरीकृतौ क्रीञ्च(ड)या । एकस्तत्र विशेषविद् वितनुते कि लेखशालाश्रितः,
शास्त्राभ्यासमथाऽपरः किमसुराभ्यणे करोति स्थितिम् ॥५७॥ नम्रक्षोणीपते! त्वदीयरदनवातधुता दीप्तया,
मुक्तामण्डलपुण्डरीकपटलीधिक्कारसन्नद्धया । नक्षत्रप्रकरः पराजयपदं वाक्यातिगं प्रापित
__ श्चन्द्रं शीलयतीति किं कुरु कलादानेन मेऽनुग्रहम् ॥५८॥ शूरो मे द्युतिहाऽमुना तृणमिव स्फूजत्प्रतापोदयाद्,
विश्वेऽकारि महोपकारजनकः पूज्यो मयाऽसावतः । संचिन्त्येति सितद्युतिर्ग्रहगणव्याजेन मुक्ताफल. स्तोमं स्वस्तिकपूर्तये तव पुरो धत्ते किमु प्रोज्ज्वलम् ।।५९॥
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जान्युआरी - २०१३
गाम्भीर्येण वचोऽतिगेन भवता किं निर्जितो निस्तुषं, .. .
गर्जारावमुखो भवद्गुणनुर्ति निर्माति नीरेश्वरः । वेलालोलतटद्वयाधरपुटो डिण्डीरपिण्डस्फुर
दन्तव्रातमनुष्णरश्मिकिरणस्तोमाभमुद्भावयन् ॥६॥ गाम्भीर्येण गरीयसा तव जितः कल्लोलिनीवल्लभ
श्चेतोऽन्तःप्रकटीभवद्बहुतराक्षान्तिव्यथाव्याकुलः । पञ्चत्वाय गृहीतवानिव निजक्रोडे प्रचण्डोदयं,
... बोहित्थोद्धतकाष्ठवर्द्धितमहस्सन्दोहमौर्वानलम् ॥६॥ पद्माकौस्तुभकौमुदीपतिसुधास्वर्गिद्रुविश्वम्भर
____ स्थानं निर्मलरत्नराजिरुचिरः कूलङ्कषाणां विभुः । मां गम्भीरतया जयेन्मुनिरसौ किं मुक्तमेभिर्गुणै
रप्येवं रुषया समुच्छलति किं सिन्धुस्तरङ्गैः करैः ॥६२।। अस्त्येवाऽभिनवः प्रतापदिविषन्मार्गाध्वगस्तावकः,
कामोत्पादनकर्मठो जलधरानुच्छेद्यमाहात्म्यवान् । स्वर्भाणुग्रसनव्यथाविरहितः सन्तापसंहारकृद्,
राजश्रीप्रथनोद्यतः कुवलयोल्लासक्रियालालसः ॥६३।। श्रीसूरीश! भवत्प्रतापहुतभुगज्वालावलीभिस्तव,
प्रत्यर्थिप्रकरोरुकीर्तिलतिकोद्यानानि दग्धानि यत् । तत् तेषां भसितं न्यवेशि किमु तैरात्मीयवस्तुत्वतो, .
वक्त्रे स्वस्य यदीति नाऽजनि तदा तन्मेचकत्वं कुतः ॥६४॥ दम्भोलिर्भवतः प्रतापपटलीनिर्भसितः किं श्रितः,
स्वर्मध्यं वडवानलः किमुदधेरभ्यन्तरं वाऽविशत् । मध्येमेघपथं पुना रचितवान् वासं किमम्भोजिनी
प्राणेशो बहु भण्यते किमथवा स्थातुं क्षमोऽग्रेऽस्य कः ॥६५॥ एवं सद्गुणवर्गवर्णनविधिप्रह्वप्रबुद्धोत्करैः,
श्रीतातैः स्ववपुष्परिच्छदवपुःस्वास्थ्यप्रवृत्त्यम्बुमान् । . शिष्याम्भोदसुहृन्मुदे चिरमनस्तापव्यपोहक्षमः,
पुण्यः पत्त्रघनः प्रसादगगनोत्पन्नः प्रसाद्यः पृथुः ॥६६।।
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७४
अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
किञ्च - माकन्दं कलकण्ठवद् भ्रमरवत् पङ्केरुहं क्रोडवत्,
___ कन्दं कोकवदब्जिनीप्रणयिनं पाथोमुचं केकिवत् । शीतांशुं चलचञ्चुवत् करटिवद् विन्ध्योर्वराभृद्वनं,
श्रीतातं स्मरति प्रतिक्षणमसौ बालः प्रमोदोद्धरः ॥६७।। अपरं – वर्षान्तर्विहितापराधपटलीत्यागाम्बुमुग्दूरिता
ऽशेषस्वान्तवसुन्धरातलमलः पञ्चाङ्गसंस्पृष्टभूः । भालाभोगनिवेशिताञ्जलिपुट: श्रीतातपादक्रमा
म्भोजद्वन्द्वमयं शिशुः प्रणमति प्रीत्या त्रिसन्ध्यं त्रिधा ॥६८॥ अन्यच्च – प्रोद्दामोदधिमेखलाहृदयचित्तैकपुष्पन्धय
श्रेणीप्रीणनकर्मठा विजयते यत्कीर्तिपाथोजिनी । तेषां वाचकचक्रिणां सुगुणिनां श्रीतातपादैः शिशो
विश्वानन्दिसुनन्दिनन्दिविजयाह्वानां प्रसाद्या नतिः ॥६९।। अपि च - गूढार्थग्रहणप्रसाधनपरप्रेक्षाप्रकाशोच्छिता
स्तोकश्लोकजलाभलाभविजयाख्याः प्राज्ञपुण्ड्रा बुधाः । प्रोद्दामप्रतिभाप्रकर्षरचिताधीशोरुकृत्योत्करा
श्चारित्रोज्ज्वलरङ्गरङ्गविजयाः प्राज्ञाः प्रतिज्ञाभृतः ॥७०।। कामं कर्कशतर्कशास्त्रतटिनीप्राणाधिराटपारगा, ।
हेलाहेठितरामरामविजयाह्वाः पण्डिताग्रेसराः । साक्षीकृत्य गुरुं गृहीतविलसन्निश्शेषविद्याभराः,
सौजन्याद्यभिरामविजया आसन्नविद्वत्पदाः ॥७१।। सद्भक्त्युद्गतकीर्तिविजयाश्चामीकराङ्गत्विषः,
कल्याणाचलधीरधीरविजया विस्तारिविद्योद्यमाः । रूपानङ्गसधर्मधर्मविजया नीलोत्पलश्यामलाः,
कम्राभाः कमलादिमाश्च विजयाः सौजन्यवन्यम्बुदाः ॥७२।। इत्याद्यस्य मुनिव्रजस्य च मुनीराशेः प्रसाद्ये क्रमात्,
तत्र प्राप्तपदस्य नत्यनुनती श्रीतातपादैः शिशोः । माणिक्याद्विजया विवेकविजयाः कुंरर्षयोऽत्र स्थिता,
ज्ञेयैषां प्रणतिश्च नत्यनुनती ज्ञाप्ये परेषां क्रमात् ॥७३॥
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जान्युआरी - २०१३
नम्रोरुक्षितिपालभालफलकक्रोडस्थपुण्ड्रावली
गोशीर्षद्रवशीर्षपुष्पपटलीपूज्यक्रमाम्भोरुहान् । गीर्वाणाधिपधोरणीकृतयशःसन्दोहगानान् नम
त्यत्रत्यः पुलकाङ्कुराङ्कितवपुः सङ्घः समग्रः प्रभून् ||७४।। भव्याम्भोरुहराजिबोधनविधौ बद्धोद्यमान् दुष्कृत
ध्वान्तवातविघातजातयशसश्चैत्याम्बरस्थायिनः । अत्रत्यान् जिनराजवासरमणीन् संसारनिद्राद्रुहः,
श्रीताताभिधया नमत्यनुदिनं शिष्यः प्रमोदोदयात् ॥७५।। अथ च – तातास्तत्र पवित्रयन्ति पृथिवीपीठं विनेयः पुन
स्तिष्ठत्यत्र मनोरथः कथमहो सिद्धयत्यशेषस्ततः । आनन्देन तथाऽपि वस्तदुचितादेशादिविश्राणन
स्फारानुग्रहलाभतः सुखयतादात्मानमेषोऽर्भकः ॥७६।। किञ्च - नो कौतूहलपूर्तये न मतिमत्सन्तुष्टये[.....],
नो ब्रह्माण्डविसारिसुन्दरयशःस्फातिश्रियो हेतवे । पत्त्री प्रीतिकरीमिमां रचितवान् सद्वृत्तविभ्राजितां,
किन्तु प्रौढगुणौघरत्नजलधेर्भक्त्यै गुरोः केवलम् ॥७७॥ इतरच्च – बिभ्राणा प्रसरद्विवेकविभवं सन्मानसोल्लासिनी,
चञ्चद्वर्णविराजिताऽद्भुतपदन्यासश्रिया पेशला । हंसीवाऽम्बुरुहोदरे करतलक्रोडे चिरं क्रीडनं,
कुर्वाणा कमलाकरे विजयतां श्रीसूरिचूडामणेः ॥७८॥ . तथा – अत्राऽलङ्कृतिवज्जितं भवति यन्निद्रव्यवत् खञ्जवत्,
पादोनं च यदस्तधर्म्यधनवन्मात्राविहीनं च यत् । क्षन्तव्यः स परास्तकोपकलुषैः श्रीतातपादैः समो,
मन्तुः प्राथमकल्पिकस्य करुणाकल्लोलिनीवल्लभैः ॥७९।। अथ - मासस्याऽऽश्वयुजस्य वृद्धरजनीराजप्रकाशोत्करे,
पक्षे प्रीणितसच्चकोरनिकरे नन्दाद्वितीयातिथौ । पीयूषधुतिनन्दने कलयता प्रीतिप्रकर्षं मया, __ पत्त्रीयं रचिता महोद्यमवता भूयात् सतां भूतये ||८०॥
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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
॥ इति श्रीगुरुराजविज्ञप्तिपत्रिका समाप्ता ॥ ॥ श्रीजिनः ॥
किञ्चाऽर्भः प्रभुपावनक्रमसरोजन्मद्वयीशीलने, रोलम्बस्य तुलां चिकीर्षति चतुर्मास्यां समाप्तिस्पृशि । प्राप्यस्तस्य मनोमनोरथभरः सिद्धिक्रमं सत्कृपैः, श्रीतातैः सकलेप्सितार्थघटनापीयूषभुपादपैः ॥१॥ ॥ इति भद्रम् ॥ श्रीः ॥
-X
स्तोत्राणि
(१)
ध्येयध्यानधुरन्धरं गुणधरं ध्यात्वा स्फुरत्सिन्धुरं, गत्या तं गुणधोरणीमणिगणस्फारस्फुरद्वैभवम् । बिभ्राणं क्षितिभृत्सुताविभुवदुल्लासिप्रभापेशलं,
कल्याणाचलचूलिकाशिखरवद् यः स्थैर्यमेवाऽऽदधत् ॥ १ ॥ [शार्दूल० ]
अन्तर्देशपदं निधाय विधिना सारस्वतं स्वैं नमः,
शश्वत् कोविदवृन्दकाव्यरचनाशक्तिप्रदां शारदाम् । स्मृत्वा तां कमनीयकान्तिकमलालङ्कारिणीमद्भुत
स्फूर्त्यभ्युन्नतिमूर्त्तिसल्लवणिमालक्षेण संलक्षिताम् ॥२॥ यं लक्ष्मीः समशिश्रियज्जिनमिव श्रीवज्रतुण्डध्वजं,
कुर्वे तं स्तुतिगोचरं जिनवरं श्रीआदिदेवं मुदा । सर्प्यद्दर्प्पकदर्प्पसर्प्पपटलीप्रध्वंससर्पद्विषं,
ध्वान्तध्वंसविधायकं परिलसत्श्रीपद्मिनीनाथवत् ||३|| लोकालोकमलञ्चकार वृषभ ! त्वत्कीर्तिसीमन्तिनी,
तत्राऽऽसन्ननिषिन्नकिन्नरवधूवृन्दैः समं सङ्गमम् । तद् भ्रान्त्या बहुभिर्भृशं च बभुजे सा तद् बभूव श्रमः, तस्मान्निर्मलगन्धवाहपदवीपीठे जगाम स्फुटम् ||४|| तस्याः स्वेदवितानवर्षणवशात् तत्राऽभवद् वैभवः, पीयूषाशनानिम्नगापरिणत श्रीशारदेन्दुद्युतिः ।
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जान्युआरी - २०१३
७७
यत् सा तद् गुरुगौरवर्णकमलालङ्कारिणीव्यक्तितो,
वीक्ष्य व्योमवहां वदन्ति विबुधा एवं निजान्तधिया ॥५॥ युग्मः ॥ यस्य स्फारयशः सहस्रनयनस्तम्बेरमाडम्बरं,
यद् धौतद्युतिधोरणीभिरनिशं शीतयुतेर्मण्डलम् । न्यक्कारैकपदं नयत् स्फुटतया प्राचीनबर्हिःप्रियः,
स्वर्गाबद्धनिवासभृत् स तु पुनस्त्रैलोक्यब_लप:(बद्धालयः?) ||६|| इति वृषभजिनेन्द्रः संस्तुतो भक्तियुक्त्या,
गुरुगुरुचरणाब्जद्वन्द्वपुण्यप्रसादात् । प्रकटकपटकोटीस्फोटनस्पष्टशक्ति
दिशतु सकललोकान् दर्शनज्ञानशक्तिम् ॥७॥ [मालिनी]
मन्दारं सहितं जयन्तसहितं तीर्थेश! तीर्थेशगा
वासंसूदनसूदनप्रतिभटप्रध्वंसनप्रोद्भटम् । श्रीमन्तं वृषभप्रभो! भ्रमभयभ्रंशाय भव्यं भजे, देवानन्दविधायकप्रवचन! श्रीदेवदेवाकर! ॥१॥४॥ [शार्दूल०]
(२) गङ्गागौरतरङ्गरङ्गिततटे श्रीसिद्धसिद्धाङ्गना,
गायन्ति प्रकटप्रतापपटलं यस्य प्रभोर्भक्तितः । ध्येयं ध्यानधुरां निधाय विधिना तं श्रीकमानन्दनं,
तं स्तोष्ये वृषभं मृगाङ्कममलं श्रीशम्भवं सर्वदा ॥१॥ [शार्दूल०] यत्र त्रस्तकुरङ्गशावनयना पादारविन्दद्वयं,
यस्य श्रीजगदीशितुस्त्रिजगतीमाह्लादयन्ती सती । प्राचीप्राणपतेः स्वकीयवपुषो ज्योतिर्लसन्मण्डलैः,
प्रौढप्रीतिपरम्परापरिवृता नम्राङ्गमातन्वती ॥२॥ सत्सीमन्तनिबद्धशुद्धविलसन्मन्दारमालावली,
प्रोत्फुल्लामलकोमलोत्पलदलैर्याऽपूजयत् प्रत्यहम् । सा संसारमसारमाशु शमनं नीत्वा लभेताऽमृतं,
किं चित्रं ननु तत्र शम्भवविभुर्जीयाज्जगन्मण्डले ॥३॥ युग्मम् ॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
अहो पारावारे मणिगुरुगणो गर्जतितरां,
मयि ज्योतिर्जालाकलितकमलोल्लासिनि सति । इति क्रोधादेवाऽऽदधदविरतं पादकमले,
नखश्रेणी(णीं) यस्य त्रिभुवनपतेः शोणकमलाम् ||४|| [शिखरिणी] वः श्रेयांसि प्रथयतु विभुर्नाभिभूपालसूनु
भव्याम्भोजप्रकटविलसद्भानुभानुप्रकाशः । कालव्यालप्रबलकमलोच्छेदने वज्रतुण्डः,
प्रद्युम्नश्रीपरिहतिविधौ श्रीभवानीगुरुश्रीः ॥५॥ [मन्दाक्रान्ता] कमलयामलया कलितालयं,
जिनवरं वृषभं भज सम्भवम् । कमलकोमललोचनयामलं,
परिणतेन्दुपटिष्ठयश:श्रियम् ॥६॥ [द्रुतविलम्बितम्] इत्थं वृषभजिनेशो, नीतः स्तुतिगोचरं प्रथितपुण्यः ।
श्रीविजयसेनसूरेः, पादाम्भोजप्रसादेन ॥७॥ [आर्या] प्राज्यप्रौढपटुप्रतापपटलस्तम्बेरमाडम्बरं,
वल्गवैरिवितानवल्लि(ल्ली)विलसद्वन्दैकविध्वंसकम् । सिद्धान्तं वृषभं मृगाङ्कममरं श्रीशम्भवं संस्तुवे, बिभ्राणं भवभारभञ्जनकर श्रीदेवदेवाकरम् ॥१॥४॥ [शार्दूल०]
(३) यस्येशस्य यश:कदम्बकडमड्डिण्डीरपिण्डं स्फुटं,
प्रेक्ष्य प्रीतिपरम्परां प्रतिदिनं प्रापुस्त्रिलोकीजनाः । ब्रह्माण्डं स्फुटकोटरप्रकटनप्रारब्धपुण्यप्रभं,
स्फूर्जद्धामसुधामरीचिनिचयस्फारस्फुरद्वैभवम् ॥१॥ [शार्दूल०] प्रोद्यद्दपकदर्पसप्पटल श्रीवज्रतुण्डद्युति
श्रीभामण्डलमण्डलोल्लसितसत्प्रद्योतनद्योतकः । पुण्यां वः स जिनेन्द्रचन्द्रनिवहः पुष्णातु पुण्यश्रियं,
यस्य ध्यानमपाकरोत् किमपि नो दैवीवधूटीपटी ॥२॥
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जान्युआरी - २०१३
बिभ्राणं शक्तिमाशु द्विरदमदभिदः शौर्यवर्यैकमूर्त्तिः,
___ प्रौढप्राग्रप्रतापप्रकटपरिकराक्रान्तदुर्दान्तशत्रुः । प्रद्युम्नद्युम्नचक्रद्विरदमदसमुच्छेदबद्धाभियोगः,
सिद्धान्तः सज्जनानां जनयतु नितरां सिद्धिसौधाधिपत्यम् ।।३॥ [स्रग्धरा] व्यालोलस्फारतारामलकनकलसत्कुण्डलभ्राजिकर्णः,
पद्मश्रीपर्णवर्ण्यस्फुरदतनुलसल्लोचनश्रीविशिष्टः । श्रेयांसि श्रीजिनेन्द्रक्रमकमलकलद्वन्द्वभृङ्गायमानः, ___ पुष्णातु श्रीगुरूणां त्रिदशकृतनुतिर्यक्षराजः प्रबर्हः ॥४॥
॥ इति स्तुतिः ॥
(४) मन्दाकिन्याः प्रवरपुलिने जम्भभिद्भामिनीभि
र्यस्योल्लासाद् गुरुगुणगणो गेयगीतैः प्रगल्भैः । गीयन्ते तद्गुरुगुरुपदाम्भोजयुग्मं प्रणम्य,
प्राचीप्राणप्रियमृगवधूलोचनागीयमानम् ॥१॥ [मन्दाक्रान्ता] नत्वा तत्त्वश्रवन्तीपरिवृढपटलोल्लासपूर्णेन्दुबिम्बं,
नम्रक्ष्मापालमालामुकुटपटुपटीस्पृष्टपादारविन्दम् । आद्यं तीर्थाधिराजं जलनिधिशच(म)नं कालचाणूरमल्लं,
ह्लादोल्लासावलीभिः पुलकितकरणं शम्भवं संस्तुवेऽहम् ॥२॥ [स्रग्धरा] सम्बन्धादेकनाम्नस्त्रिजगदधिपतेर्धर्मचक्रं विरञ्चि
श्चक्रे यस्येति शम्भोः प्रबलबलवतः कुर्वतः सातिरेकम् । द्वन्द्वं कन्दर्पदर्पप्रतिभटपटलैः साकमुन्मूलनार्थं,
चक्रं चक्रीव नो चेदिति भवति तदा तीर्थराजः कुतः स्यात् ॥३।। शक्रश्चक्रे मनसि मुदितः श्रीजिनेन्द्रस्य वाक्यं,
पीत्वा तत्त्वार्णवशशधरं शुद्धधर्मोपदेशे । सद्विज्ञप्तिं कलयति भृशं भारती किं समेत्य,
लक्ष्म्या साकं कलहमनिशं नाशय त्वं जिनेश! ॥४॥ [मन्दाक्रान्ता]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
मोदामन्दनवेन्दुमण्डलमुखीपौरन्दरीसुन्दरी
श्रेणीवन्दितपादपद्मयुगलं श्रीदेवराजं मुदा । तं वन्दे वदनं विलोक्य सुधियः सन्तर्कयन्तीति किं,
सम्मोदादुपढौकअ(य?)ज्जिनपते! कल्लोलिनीवल्लभः ॥५॥ [शार्दूल०] पूर्णापूर्णशशाङ्कमण्डललसल्लक्ष्मीकलापेशलं, ___लोकालोकगतं यशःपरिकरं श्रुत्वैति यस्येशितुः । सिद्बामनि गीतमाशु मिलितुं तं विस्मयादागतः, ___ कर्पूरप्रकरप्रभापरिणि(ण)तं डिण्डीरप(पि)ण्डं स्फुटम् ॥६॥युगलम्।। कलाकेलिलीलोक(त्क)लापोच्छलद्वालकल्पान्तकालानिलोच्छालितोत्ताललोलोल्ललव्यालकल्लोलमालाकुलीभूतच(न)क्रादिचक्रादिभिर्भीषणीभूतकल्लोलिनीवल्लभान्तर्निमज्जज्जनश्रेणिमुद्धर्तुमाबद्धशुद्धाभियोगः, प्रतापप्रकारप्रभासम्भराक्रान्तसङ्क्रान्तदुईण्डमार्तण्डचण्डातिशायिस्फुरन्मण्डलोद्यच्चमत्कारकार्युत्पुराचि(चि?)प्रचारोदयो दप्कन्दर्पसर्पप्रसर्पत्परी स्फोटनस्पष्टदुष्टद्विजिह्वद्विषत्सोदरश्रीः । मदोन्मत्तदुर्वादसन्दोहदुर्वादिवृन्दश्रवन्तीपतित्रस्तसारङ्गसीमन्तिनीलोचनाप्राणराड्मेखलाभृद्भरभ्रंशजाग्रत्स्फुलिङ्गस्फुरत्स्फारसारैकसारप्रसारज्वलद्वज्रसाधारणावारपारप्रसूता पटिष्ठसदानन्दसन्दोहकन्दैकवृन्दाम्बुदों(दो) देवदेवं स देयादमन्दं महानन्ददीप्रास्पदं सर्वदं सर्वदा सम्पदादायकं स्वीयपादारविन्दद्वयानिन्द्यशोभापराभूतराजीवराजीरुचां सञ्चयः सज्जनानां जनानाम् ॥७॥ [दण्डकजातिः] अमरपतिकरीन्द्रस्फारहाराभिराम
त्रिदिवसदनगङ्गागौरकीर्तिप्रतानः । जयतु जिनवरेन्द्रः पुण्यपुण्याब्धिचन्द्रः,
प्रणतनरवरेन्द्रः सान्द्रमुद्रासमुद्रः ॥८॥ [मालिनी] इत्थं स्तुतः सकललोककलाकलाप
राजीवराजिरमणीयपयोजपाणिः ।
१. पङ्क्तावस्यामक्षरत्रयं न्यूनं प्रतिभाति ।
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श्रीशम्भवो जिनवरो वृषभः स पायात्, शश्वत् सतां विजयसेनगुरुप्रसादात् ॥९॥ [वसन्त०]
॥ इति स्तवनम् ॥
(५) आनम्य पादकमलं विमलं गुरूणा
मानन्दकन्दनववारिददीप्तिदीप्तम् । शान्ति प्रशान्तहृदयं सदयं स्तवीमि,
संसारसागरपतज्जनयानपात्रम् ॥१॥ [वसन्त०] पादारविन्दयुगलं भवदीयमेनं,
यः सेवते प्रतिदिनं प्रकटप्रभावम् । हर्षप्रकर्षपुलकाङ्कितकान्तकायः,
श्रेयःश्रियं स लभतेऽत्र किमस्ति चित्रम् ॥२॥ कन्दर्पदर्पप्रतिपक्षपक्ष
स्तम्बेर[मा] डम्बरपञ्चवक्त्र! । जगज्जनानन्दन! हे सुरे! को,
भूयात् सतां पारगतस(गमनस्य) सिद्ध्यै ॥३॥ [उपजातिः] धामाभिरामनवधामसुधामरीचि
न्यक्कारिकीर्तिकमलाविमलालयो वः ।। पुष्णातु पुण्यपदवीं प्रकटप्रताप
मार्तण्डमण्डलकलाकुशलो जिनेन्द्रः ॥४॥ [वसन्त०] इति विजयसेनसूरेः, पादपयोजप्रसादतो नीतः ।
स्तुतिगोचरतां शान्तिः, शान्तितति दिशतु शान्तमनाः ॥५॥ [आर्या]
सुवर्णवर्ण्यसौवर्ण-सवर्णनववर्णकम् । गुरुं प्रणम्य श्रीशान्ति, संस्तुवे शान्तिसागरम् ॥१॥ (अनुष्टुप्)
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
अनन्तज्ञानमाहात्म्य-प्रकाशितजगत्त्रय! । जगन्नाथ! जिनाधीश!, तुभ्यं भगवते नमः ॥२॥ कल्याणकमलाकेलि-निलयं जिनचन्दिरम् । प्रेक्ष्य प्रीतिपदं प्रापुः, सत्कैरवपरम्पराः ॥३।। आनम्रामरभूपाल-भूपालस्मितलोचना(नाः) । गुणान् गायन्ति ते देव!, गाम्भीर्यक्षीरनीरधे! ॥४॥ इत्थं स्तुतः सदानन्द-कन्दवृन्दनवाम्बुदः । स्तुतो विजयसेनाह्व-प्रसादान्मृगलक्षणः ॥५॥
कलाकलापकुशलं, कल्याण(णा)मलदीधितिम् । नत्वा विजयसेनाहूं, संस्तुवे शाम्भवं जिनम् ॥१॥ (अनुष्टुप्) यदीयवदनाम्भोज-प्रभाभिय॑क्कृतो जगौ । इन्दुर्गगनगङ्गायां, झम्पां दातुं स लज्जितः ॥२॥ कीर्तिकीयुत्करोद्गीर्ण-हस्तिमल्लसमो जिनः । पिनष्टु दुष्टकष्ट(ष्टानां), श्रेणि भूमण्डले सताम् ॥३॥ नमामि जिनराजेन्द्र, राजिराजीवराजिवत् । बिभ्राणं पञ्चशाखं तं, कोमलं कमलालयम् ॥४॥ इति स्तुतो जिनाधीशः, प्रचण्डोद्दण्डविक्रमः । गुरोविजयसेना(सेनस्य), प्रसादात् शम्भवो विभुः ॥५॥
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जान्युआरी - २०१३
(५) राजनगरस्थ-श्रीविजयदेवसूरि प्रति योधपुरतः पण्डितलावण्यविजयस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्तिश्री: श्रयणीयमंहिकमलं श्रान्तेव यस्याऽऽश्रयत्,
त्रैलोक्ये किमितस्ततो भ्रमणतो जङ्घालतां बिभ्रति । चाञ्चल्यं परिचीयमानमनिशं संत्यज्य सुस्थैर्यतः,
स श्रीपार्श्वजिनस्तनोतु सुतरां श्रेयांसि भूयांसि वः ॥१॥ [शार्दूल०] स्वस्तीन्दिरा संश्रयति स्म यस्य, प्रभोः पदद्वन्द्वममर्त्यपूज्यम् । त्यक्त्वा नितान्तं मधुपैः प्रकृत्या, मलीमसैश्चुम्बितमम्बुजन्म ॥२॥ [उपजातिः] स्वस्तिश्रियो यत्पदपुण्डरीकं, भेजुर्यथा सिन्धुपति स्रवन्त्यः । स स्तादभीष्टाय विशिष्टमूर्ति-भूयिष्ठकीर्तिः परमेष्ठिनाथः ॥३॥ स्वस्तिश्रिया संश्रितपादपद्मः, पद्मां स पार्श्वः सततं वितीर्यात् । राजेव यो राजति भव्यभव्य-चकोरचक्रप्रमदप्रदाता ॥४॥ स्वस्तिश्रिया श्रितपदाम्बुरुहं यदीयं, नेदीयसी शिवरमां समुपासितं सत् । विश्वत्रयीतनुभृतां वितनोति सद्यः, सोऽस्तु श्रिये जिनपतिस्त्रिजगत्प्रतीक्ष्यः ॥५॥
[वसन्त०] सन्नम्रसङ्क्रन्दनकोटिकोटी-किरीटसंटङ्किमणिप्रभाभिः । । मितद्रुभूयं लहरीभिरेव, लेभे यदंहिद्वयमद्वितीयम् ॥६।। [उपजातिः] यद्भूघने पूर्णघने विनीले, हरेर्धनुर्भूयमियति भूयः । किर्मीरितं नैकविधेन्द्रमौलि-मणिप्रभाभिः पदपद्मयुग्मम् ।।७।। यदंहिपद्मद्वितयं चकास्ति, प्रवालबालारुणपाटलथि । नमत्सुपर्वाधिपसुन्दरीणां, किं सङ्क्रमात् कुङ्कमरागकान्तेः ॥८॥ यस्य प्रभोः पादतलप्रभायाः, सिन्दूरपूरद्युतिपाटलायाः । व्याजाद् ध्रुवं सद्गुणरत्नसिन्धोः, प्रवालवल्लीव तटान्तलग्ना ॥९॥ स्वकीयगत्या विजितैः प्रसह्य, स्तम्बेरमैौकनिकीकृतेव । सिन्दूरलक्ष्मीः किमु सन्धिहेतो-विभ्राजते शोणरुचिर्यदंड्योः ॥१०॥
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ
सुव्यक्तभक्तिप्रणमत्समग्र-सुपर्वसौवर्णकिरीटकोटौ । माणिक्यलीलां बिभरांबभूवुर्नखा ययोः स्फुटरागयुक्ताः ॥११॥ नभोमणिर्यस्य विभोः सपर्यां, चरीकरीति प्रमदान्नितान्तम् । विधृत्य शङ्के दशमूर्तिभावं, नखच्छलेन प्रकटप्रभावाम् ॥१२॥ तं श्रीमन्तमनन्तसगुणमणिप्राग्भाररत्नाकरं,
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दृप्यद्दर्पकभूरिदर्पदमनप्रोन्मत्तगङ्गाधरम् ।
कल्याणद्रुमसिञ्चने जलधरं कारुण्यपुण्याकरं,
-
श्रीमत्पार्श्वजिनं प्रणामपदवीमानीय विश्वेश्वरम् ॥१३॥ [शार्दूल० ] ॥ इति श्रीदेववर्णनं सम्पूर्णम् ॥
भूभामिनीकण्ठतटे वितेने, स्वयंभुवा गुर्जरतारहारः । तत्रेदमत्यद्भुतनायकस्य, बिभर्ति तौल्यं नगरं गरीयः || १४ || [ उपजातिः ] स्वर्लोकभूलोकगतानि नूनं भवन्तु भूयांसि पुरोत्तमानि । शश्वद् यदस्योपमितिं बिभर्ति, श्रुतं न तत् क्वापि निरीक्षितं च ||१५|| विश्वंभराप्रौढवधूविशाल - भालस्थलीशायिललामतुल्यम् । निःशेषविश्वाद्भुतऋद्धिगम्यं विराजते यन्नगरं नितान्तम् ||१६|| आकस्मिकं विस्मयमादधानां श्रियं समुद्वीक्ष्य पुरस्य यस्य । मन्ये समुत्पन्नमन:प्रभूता तङ्का पयोधौ विशति स्म लङ्का ||१७|| दिने दिने यत्सुषमां समीक्षितुं, व्याजं विधृत्याऽरुणसारथेश्चिरम् । पुरी हरेर्विस्मयदर्शनोत्सुका, विभर्ति किं दर्पणमद्भुतद्युतिम् ॥१८॥ [ वंशस्थ ] भोगावती भुवनभूषणमद्भुतश्रि, विभ्रत् पुरन्दरपुरी रुचिरोपमत्वम् । संवीक्ष्य राजनगरं परमर्द्धिपूर्णं, तूर्णं पलाय्य बलिसद्म विवेश मन्ये ||१९|| [ वसन्त०]
खण्ड १
यस्मिन् विभाति त्रिजगत्प्रभूणां प्रासादपतिर्विमला विशाला । भास्वत्सुधादीप्ति भराभिरामा, जगज्जनानन्दिविचित्रचित्रा ||२०|| [ उपजाति: ] चतुःपथे यत्र विचित्रचित्रैः, किर्मीरिता राजति हट्टपङ्क्तिः । अगण्यपण्यैः परिपूर्णमध्या, गवाक्षलक्षैः किल वीक्षणीया ||२१|| सम्यक्त्वमूलार्कमितव्रतानि, सम्यग् दधानाः श्रुतसावधानाः । जीवादितत्त्वैकविचारदक्षा:, सुश्रावका यत्र वसन्त्यनेके ||२२||
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जान्युआरी - २०१३
श्राद्धीततिः कल्पलतेव यत्रा-ऽऽभाति प्रसर्पत्शुभशीलमूला । दानोल्लसत्स्फारफलाभियुक्ता, सौभाग्यसद्वासनवासिताङ्गा ।।२३।। विमानमभ्युन्नतमभ्युपेत-मुपाश्रयस्य व्यपदेशतः किम् । श्रीमद्गुरुं वन्दितुमीशितार्थ-सार्थप्रदानप्रवणाभ्युपायम् ।।२४|| उपाश्रये यत्र विभाति शश्वद्, वितानमाला वरवर्णवा । छिट्टैविमुक्ता चतुरन्तयुक्ता, काव्यावली किं कविभिर्निबद्धा ॥२५॥ जलार्थमायातनितम्बिनीना-मुन्निद्रवक्त्राम्बुजराजमाने। कूलङ्कषास्वच्छजले यथेच्छं, यस्योपकण्ठे करिणां शतानि ॥२६॥ कुर्वन्ति केलि कलभैर्वृतानि, समुन्नताम्भोधरसन्निभानि । उच्चस्तराणीव समागतानि, किमञ्जनाद्रेः शिखराणि साक्षात् ।।२७॥ [युग्मम्] श्रीमज्जैनविहारहारिवसुधादेशे निवेशे श्रियां,
श्रीमत्तातपदारविन्दरजसा पावित्र्यमाबिभ्रति । नम्रानेकविवेकिलोकविहितश्रीजैनधर्मोत्सवे । विख्याते भुवि तत्र राजनगरे राजन्वति श्रीमति ॥२८॥ [शार्दूल०]
॥ इति श्रीनगरवर्णनम् ॥ त्रैलोक्यलक्ष्मीललनाविलास-निवासभूताद् धनधान्यपूर्णात् । प्रभावकश्रावकराजमानात्-पुरोत्तमाद् योधपुराभिधानात् ।।२९॥ [उपजातिः] सानन्दं सोल्लासं, सोत्कण्ठमकुण्ठभक्तिसंयुक्तम् । सप्रणयं रणरणक-प्रपूर्णहद्युक्तिसुव्यक्तम् ॥३०॥ [आर्या] हर्षोत्कर्षविशेषो-दञ्चद्रोमाञ्चकञ्चुकवपुष्कम् । विनयावनतशिरस्कं, प्रमोदमेदुरितचेतस्कम् ॥३१॥ भालस्थलसंस्थापित-योजितकरकमलयमलकुड्मलकः । श्रीतातपादचरणा-म्भोरुहमधुपायितस्वान्तः ॥३२॥ पङ्कजपाणिप्रमिता-वर्तेरभिवन्द्य विधिवदादरतः । विज्ञप्तिपत्रमुपदी-कुरुते लावण्यविजयशिशुः ॥३३॥ यथाकृत्यमिह प्राची-पुरन्ध्रीतिलकायिते । भास्करे तत्करोत्फुल्ल-कमले कमलाकरे ॥३४॥ [अनुष्टुप्]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
प्रध्वंसप्रतियोगित्वं, प्राप्तेऽशेषतमोभरे । परस्वहरणादिभ्यो, विनिवृत्तनिशाचरे ॥३५॥ बालार्कातपकालेय-च्छटासिक्तचराचरे । वियोगविगमात्यन्त-तुष्टे द्वन्द्वचरे वरे ॥३६।। मागधोद्गीतमाङ्गल्य-गीतनिर्निद्रनागरे । प्रभातावसरे श्रीमत्-सभ्यशोभितसंसदि ।।३७।। श्रीश्रावकप्रतिक्रान्ति-सूत्रसद्वृत्तिवाचनम् । प्रस्तुताध्यापनं योगो-पधानादिकवाहनम् ॥३८॥ नन्दिमण्डनमानन्दि-पक्षिकापारणानि च । इत्यादिसौकृतं कृत्यं, निष्प्रत्यूहं प्रवर्तते ॥३९॥ तथा क्रमागते सर्व-पर्वगर्वापहारिणि । श्रीमत्पर्युषणापर्व-ण्यतुच्छोत्सवहारिणि ॥४०॥ श्रीमदर्हत्सप्तदश-भेदपूजाप्रवर्तनम् । सक्षणैः क्षणनवकैः, कल्पसूत्रानुवाचनम् ॥४१।। साधर्मिकजनाकण्ठ-पोषणं पुण्यजोषणम् । भूरिवित्तप्रदानेना-ऽनेकयाचकतोषणम् ॥४२।। इत्यादिधर्मकर्माणि, सशर्माणि महामहः । निरपायमजायन्त, संजायन्तेऽधुनाऽपि च ॥४३॥ सर्वार्थसाधनव्यग्र-भाग्यातिशयशालिनाम् । श्रीमतां तातपादानां, प्रसादोदयतोऽपरम् ॥४४।।
॥ अथ श्रीगुरुराजवर्णनम् ।। श्रीवर्धमानेशपदप्रतिष्ठः, सद्धैर्यगाम्भीर्यगुणैर्गरिष्ठः । जीयाच्चिरं देवकृतांहिसेवः, सूरीश्वरः श्रीविजयादिदेवः ॥४५॥ [उपजाति:] शरत्सुधादीधितिजिष्णुशङ्ख-जिष्णुद्युतिविष्णुपदीमिषेण । क्षीराब्धिवीचीचयचारुरोचिः, कीर्तिस्त्रिलोक्यां स्फुरति त्वदीया ॥४६।। दिशो दशाऽपि प्रसरधशोभिः, श्रीमद्गुरुर्दाग् विशदाः प्रकुर्वन् । श्यामत्वशुभ्रत्वभवं जनानां, बिभेद मेदस्वितरं विरोधम् ।।४७।।
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जान्युआरी - २०१३
भवद्यश:कल्पमहीरुहस्य, प्रशस्यमूलं भुजगाधिराजः । स्कन्धश्च गौरीगुरुरेष शैलः, शाखा: समग्राः खलु दिग्गजेन्द्राः ॥४८॥ तेषां च दन्तावलयः प्रशाखाः, सुगन्धिफुल्लत्कुसुमान्युडूनि । फलं विधोर्मण्डलमद्भुतश्रि, स्वचेतसीति प्रकटं प्रतीमः ॥४९॥ [युग्मम्] क्षीराब्धिरङ्गत्तरलातितुङ्ग-तरङ्गमालाविलसदुकूला । सम्पूर्णशीतद्युतिसप्तसप्ति-भ्राजिष्णुताडङ्कयुगं वहन्ती ॥५०॥ विशुद्धकैलाशतुषारशैल-प्रोत्तुङ्गपीनस्तनरम्यरोचिः । कीतिर्नरीनति गुरो! त्वदीया, सन्नर्तकीवाऽऽडम्बरमण्डपेऽस्मिन् ॥५१॥
॥ युग्मम् ॥ जगत्त्रयीं गन्तुमनास्त्वदीय-कीर्तिस्त्रिधामूर्तिरभूत् किमेषा । सुधाशनानेकप-शैवशैल-शेषोरगेन्द्रच्छलतो मुनीश! ॥५२॥ त्वत्कीर्तिकान्ता किल भूरिबद्धा-दराऽपि वृद्धा भुवनप्रसिद्धा । विशिष्य सर्वान् विषयान् नितान्तं, संबोभुजीति स्फुटमद्भुतं तत् ॥५३॥ ऐरावतः स्प्रष्टुमनर्ह एव, मातङ्गभावं न जहाति जातु । दुग्धोदधेः सन्निधिरेव नाऽर्हः, कुसङ्गरक्षं स बिभर्ति यस्मात् ॥५४।। न तुष्टिपुष्टिं शशभृद् विधत्ते, कुरङ्गसङ्गः किल येन दभ्रे । इत्यादयो दोषविशेषभाजः, कथं लभेयुस्त्वत्कीर्तिसाम्यम् ॥५५॥ युग्मम् ॥ स नैव पीयूषमयूखबिम्बे, न कुन्दवृन्देऽपि न पुण्डरीके । कर्पूरपूरेऽपि च नैव नैव, स्निग्धेषु दुग्धेषु न दुग्धसिन्धौ ॥५६।। पद्मेशयस्याऽपि न पाञ्चजन्ये, नोच्चैःश्रवः-श्वेतगजेश्वरेषु । हिमाद्रिकन्या-हरशैल-हंस-डिण्डीरपिण्ड-धुनदीषु नैव ॥५७।। श्रीखण्डखण्डे न च चारुहार-मन्दारतारास्वपि जातु नैव । अदभ्रशुभ्रेऽपि न शारदाभ्रे, य: शुध्रिमा त्वद्यशसः समूहे ।।५८॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। यत्कीतिः शशिमौलिमौलिनिपतद्गङ्गातरङ्गोज्ज्वलप्रालेयाचलकन्यकाकुचतटीसण्टङ्किहारद्युतिः । प्रोद्यत्पार्वणशारदेन्दुविशदा विश्वत्रयं व्यानशे, शेषाहि-स्फुटिकाचला-ऽभ्रमुपतिव्याजेन जानीमहे ।।५९।। [शार्दूल०] भीतः शीतरुचिर्विवेश सहसा छायाच्छलात् पार्वणः, पाथोदुर्गमिवेक्ष्य दुर्घहतरं यस्य स्वजैत्रं यशः ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
प्रालेयाचलनिर्गलत्सुरसरित्कल्लोलमालाप्लुतक्रीडदाजमरालमूर्तिरुचिरच्छायातिरस्कारकृत् ॥६०॥ भूयस्तारकतारहारविकसन्मन्दारजिष्णुधुता, स्पर्धिष्णुस्तव सूरिसिंह! यशसा वर्द्धिष्णुशोभाभृता । मन्ये कैरविणीप्रियः समजनि प्रोद्भूतदाघज्वरः, स्वच्छायाव्यपदेशतोऽम्भसि कथं तेनाऽन्यथा स्थीयते ॥६१।।
॥ इति यशःषोडशकम् ।। यस्याऽनन्योपमेयं स्फुटमहिममयं विश्वभास्वत्प्रभावं, सद्धैर्यं वीक्ष्य लज्जाभरनिचितमनाः स्वर्गिशैलः प्रकामम् । चैतन्याभावमेष त्वरितमुपगतश्चेतसीति व्यतर्कि, स श्रीमान् सूरिराजः प्रभवतु भविनामीप्सितार्थकसिद्ध्यै ॥६२॥ [स्रग्धरा] आस्वाद्याऽभिनवं वचोऽमृतरसं माधुर्यवर्यं मुदा, विश्वे विश्वजना बभूवुरमृते त्यक्तादरा: सन्ततम् । ज्ञात्वेतीव नव स्वकीयमनसा पीयूषकुण्डानि किं, जग्मुर्दानवमन्दिरं प्रतिदिनं सोऽस्तु श्रिये श्रीगुरुः ॥६३।। [शार्दूल०] विश्वाशेषसमीहितार्थकरणप्रडं समीक्ष्येव किं, यस्यौदार्यमनन्यतुल्यमसकृत् सञ्जातभूरित्रपाः । जग्मुः स्वर्गिमहीरुहा अपि समे स्थानं दृशोऽगोचरं, स श्रीसूरिशिरोमणिविजयताद् विश्वत्रयीवत्सलः ॥६४॥ निरीक्षितेऽस्मिन् गणनातिरेक-प्रोद्भूतसद्भूतगुणाम्बुराशौ । सदोदयान् दृष्टिपथं प्रपन्नान्, मन्यामहे सम्प्रति पूर्वसूरीन् ।।६५।। [उपजातिः] यस्य प्रभोः फणिपतिः शरदिन्दुधाम-विभ्राजितं गुणगणं गणनातिरेकम् । जिह्वाः सहस्रमपि बिभ्रदभून्न शक्तो, वक्तुं द्विजिह्व इति विश्रुतिमाप तस्मात् ।।६६।।
[वसन्त०] इत्थमनेकसकर्णैः, संवर्णितवर्ण्यवर्णवादानाम् । ऊकेशवंशवारिधि-वृद्धिविधौ शीतपादानाम् ॥६७|| [आर्या] सच्चक्रचक्रचेतः-प्रह्लादननवसहस्रपादानाम् । निरुपमबुद्धिविनिर्जित-दुर्धरतरवादिवादानाम् ॥६८॥
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गतसकलविषादानां, स्वसेवकप्रत्तसुप्रसादानाम् । सजलाम्बुदनादानां, श्रीमच्छीतातपादानाम् ॥६९।। कोऽपि प्रसादवरलेखनवाम्बुदोऽथ, संप्रीणयिष्यति मदीयमनोमयूरम् । ते नाथ! सस्वकशरीरपरिच्छदोद्य-न्नीरोगतादिसदुदन्तजलाभिरामः ॥७०।।
[वसन्त०] सद्यः प्रसद्य निजशिष्यमनोमयूर-प्रौढप्रमोदविधये सततं प्रसाद्यः । किंचोपवैणवमथ प्रणतिर्मदीया, श्रीयुक्ततातचरणैरवधारणीया ॥७१॥ गाम्भीर्यौदार्यधैर्याद्यनणुगुणमणीरोहणक्ष्माधरेन्द्रान्, प्रेङ्घत्पीयूषयूषानुकरणनिपुणप्रौढवाणीविलासान् । प्रादुर्भूतप्रभूतप्रवरतरपटुप्रोल्लसद्भक्तियुक्त्या, वन्दे विश्वप्रतीक्ष्यान् भुवनजनहितान् श्रीमदाचार्यसिंहान् ॥७२।। [स्रग्धरा] निश्शेषवाङ्मयार्णव-पारंगमिनः प्रशस्तमतिविभवाः । श्रीमद्धनविजयाा, वाचककुलमौलिसन्मणयः ॥७३॥ [आर्या] जैनप्रमाणसधुक्ति-तर्जितानेकवादिनः । । श्रीऋद्धिविजयाह्वानाः, प्राज्ञाः सद्गुद्धिऋद्धयः ।।७४।। [अनुष्टुप्] उदयश्रीपरिरम्भण-निपुणः श्रीउदयविजयवरविज्ञाः । शमरसभावितचित्ता, विबुधाः श्रीशान्तिविजयाश्च ॥७५॥ [आर्या] कर्पूरविजयविबुधाः, सुयशःकर्पूरवासितदिगन्ताः । वैराग्यरञ्जितान्त:-करणा रामादिविजयबुधाः ॥७६॥ वाचस्पतिसममतयो, मत्यादिमविजयनामवरविबुधाः । नयविजयनामधेया, विपश्चित: परमनयनिपुणाः ॥७७।। यतिजनपोषणदक्षाः, कृष्णाद्विजयाभिधानवरविज्ञाः । सुविनीतशिरोमणयो, विनीतविजयाश्च विद्वांसः ॥७८।। श्रीपूज्यचरणसेवा-रसिका अमरादिविजयवरसुधियः । यतिजनशिक्षादक्षा, विचक्षणा वीरविजयाश्च ॥७९।। इत्यादिसाधुसाध्वी-प्रमुखाणां तातचरणभक्तानाम् । नत्यनुनती प्रसाद्ये, श्रीमत्तातैः प्रसादपरैः ।।८०।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
किञ्चाऽत्रत्या अपि च, प्राज्ञाः कनकादिविजयनामानः । गणयश्च ऋद्धिविजया, गणयो मेर्वादिविजयाश्च ।।८।। लब्धिविजयगणयो गणि-दयादिविजयश्च मुक्तिविजयगणिः । भक्तिविजयगणिनामा, नयादिविजय-हर्षविजयगणी ॥८२॥ मुनयश्च धीरविजया, मुनी तथा सत्यविजय-सुखविजयौ । क्षेमविजयमुनिनामा, तेजविजयोदयविजयमुनी ॥८३।। सौभाग्यश्रीः साध्वी, साध्वीवृद्धा तथा च राजश्रीः । सुमतिश्रीरिति साध्वी, कनकश्रीनामसाध्वी च ॥८४।। इत्येवं यतियतिनी-समुदायोऽत्रत्यसकलसङ्घश्च । श्रीतातचरणचरणा-म्बुरुहयुगं नमीति मुदा ।।८५।। किञ्च शिशूचितकृत्यं, प्रसादनीयं प्रसादमाधाय । पार्वणशशधरसुन्दर-वदनैः श्रीतातचरणवरैः ॥८६।। श्रीतातचरणनाम्ना-ऽत्रत्याः श्रीजिनवराः प्रणम्यन्ते । तन्नतिसमये तातैः, शिशुलेशश्चेतसि विधेयः ॥८७।। लेखं लिखता मयका, यदिह झूणं लिपीकृतं भवति । तत् सर्वं क्षन्तव्यं, श्रीमत्तातैः प्रसादपरैः ।।८८।। कोशीकृतकरकमलो, भूमितलन्यस्तमस्तकः सततम् । शिष्याणुमेरुविजयो, विशेषतो नमति सद्भक्त्या ॥८९।। विज्ञप्तिपत्री विलसत्कनीयं, श्रीतातपाणिग्रहणाभिलाषा । विशुद्धवर्णादियुताऽस्ति तस्मात्, फलान्विता स्याच्च तथाऽवधार्यम् ॥१०॥
[उपजाति:] मार्गशीर्षसिते पक्षे, पूर्णिमायां लसत्तिथौ । मया सद्भक्तियुक्तेन, लेखोऽलेखीति मङ्गलम् ॥११॥ श्रीः ॥ [अनुष्टुप्]
[बहारना भागे-] योधपुरनगरात् पं. लावण्यविजय ग. लेख ५८ ॥
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जान्युआरी - २०१३
( ६ )
सिंहरोधिकास्थ - श्रीविजयदेवसूरिं प्रति भुजनगरत: उपाध्याय- अमरचदस्य लेख: मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
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स्वस्ति श्रीर्यत्पदाम्भोजं, भेजे भृङ्गीव सादरम् । स श्रीवृषभतीर्थेशो, देयादमलमङ्गलम् ॥ १॥ [ अनुष्टुप् ] गाहनाद् भवपाथोधे-र्युगादिस्कन्धमण्डले । लग्ना शेवालवल्ली किं, केशालीव्यपदेशतः ॥२॥ निर्गता श्रवणद्वारे, शुक्लध्यानभरोद्भिया । शङ्के किं कृष्णलेश्येयं, जटाया मिषतः प्रभोः ||३|| सुधाकुण्डसमं मत्वा, यस्य वक्त्रं मनोरमम् । पन्नगी किं जटाव्याजात्, पातुं पीयूषमागता || ४ || पुरुषोत्तमं हि मत्वा, यं जिनं नाभिनन्दनम् । यमुना मिलनायाऽऽगात्, जटाकपटतः किमु ॥५॥ मुक्तिस्त्रियाः परिष्वङ्ग-सङ्गमव्यग्रचेतसः । किमु वेणी जटादम्भा - दंसे श्रीनाभिजन्मनः ||६|| जटाव्याजवशात् स्कन्धे, दधे श्रीनाभिसूनुना । निहन्तुं कर्मप्रत्यर्थीन्, कृपाण: श्यामलच्छविः ॥७॥ सिद्धिकन्याविवाहाय, केशालीमिषतः प्रभोः । यवाराङ्करराजी किं, वप्ता मङ्गलहेतवे ॥८॥ शिखामिषाद् वृता शीर्षे, जङ्गमा कृष्णवल्लरी | नाभिभूपालजातेन, कर्मव्यालविषापहा ॥९॥ मरुदेव्या यतः स्वप्ने, दृष्टः प्रथमतो वृषः । आदिनाथेन तेनाऽयं, रक्षितश्चरणे निजे ॥१०॥
भारोद्वहनसम्भूत-श्रमबाधाविबाधितः ।
वृषभो लाञ्छनव्याजाद्, रावां कर्तुमिवाऽऽगतः ॥ ११ ॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
एनं श्रीनाभिभूजानि-वंशाब्धिरजनीधवम् । प्रणामं मृडमूर्धान-मानीय नतवासवम् ।।१२।। सकलसुविहितभट्टारकपुरोवर्तिभट्टारकश्री-श्रीविजयदेवसूरीश्वरचरणकमलविन्यासपवित्रित-श्रीसिंहरोधिकानगरीवर्णनम् ।। यत्र नन्दनसङ्काशं, विरेजे वनमुत्तमम् । माकन्दाशोकमन्दार-लवङ्गलवलीयुतम् ॥१३॥ प्लक्षाक्षनागनारङ्ग-नागवल्लीसमन्वितम् । पुन्नागपिप्पलीवृक्ष-सप्तच्छदगणाश्रितम् ॥१४॥ तगरागरुकल्हार-कपित्थबकुलाकुलम् । हिन्तालतालजम्बीर-बीजपूरविराजितम् ।।१५।। प्रियालबिल्वबब्बूल-प्रियङ्गुकदलीकलम् । नालिकेराम्लिकानिम्ब-कदम्बतिलकाङ्कितम् ॥१६।। चम्पकैलातमालेक्षु-पाटलापरिमण्डितम् । खादिरामलखर्जूर-द्राक्षामण्डपसंश्रितम् ॥१७॥ न्यग्रोधसल्लकीसाल-सागचन्दनसंयुतम् । पलासधवकक्कोल-शिरीषादिद्रुसङ्कलम् ॥१८॥ षड्भिः कुलकम् ॥ सखातिकः पुरे रम्यो, वप्रो यत्र विराजते । ॐकारवर्णवन्नित्यं, रक्षकः पुरवासिनाम् ॥१९॥ सदण्डा यत्र राजन्ते, प्रासादाश्चाऽर्हतां सदा । अङ्गल्या दण्डमिषतो, दर्शयन्ति दिवं किमु ॥२०॥ ध्वस्तान्धकारैः कलशैः, प्रासादशिखरस्थितैः । निशादिवसयोर्भेदो, लक्ष्यते यत्र नो पुरे ॥२१॥ व्याघ्रपञ्चास्यवक्त्रेषु, स्वैरं क्रीडन्ति पक्षिणः । जिनगेहेषु रम्येषु, महिम्ना महतां न किम् ॥२२॥ यत्र योषिज्जनो भाति, भूरिभूषणभूषितः । असंमातः सुरपुरे-ऽप्सरोजन इवाऽऽगतः ॥२३॥ एकाकिन्योऽपि कामिन्यो, गच्छन्त्यश्च गृहान्तरम् । ससखीका इवाऽऽभान्ति, सङ्क्रान्ता रत्नभित्तिषु ॥२४॥
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जान्युआरी - २०१३
वातायनतस्थुषीणां, कामिनीनां मुखाम्बुजैः । वितर्कयन्ति किं विज्ञाः, शतचन्द्रं नभस्तलम् ॥२५।। कामिनीनां कटीदेश-शोभालज्जितमानसाः । मृगेन्द्राः कृशतां प्रापु-र्वनवासं च संश्रिताः ॥२६।। हृदये जिनराजोऽस्ति, योपितां स्वपतिस्तथा । गुरुस्तथापि विद्वांसः, सतीत्वं प्रवदन्ति ही ॥२७॥ रामा इव रमा यत्र, क्रीडन्ति धनिनां गृहे । चपलत्वमपाकृत्य, कार्मणेनेव यन्त्रिताः ॥२८॥ मृगाः कुरङ्गतां प्रापुः, पुरस्त्रीनेत्रतर्जिताः । महान्तोऽपि हि वैवयं, लभन्ते मानभङ्गतः ॥२९।। रतिरूपजित्वरीणां, पुरस्त्रीणां स्तनैः समम् । स्पर्धातः कुम्भिनां कुम्भाः, सहन्ते शृणितो व्यथाम् ।।३०।। यत्र रामा इवाऽऽरामाः, पत्रालीपरिमण्डिताः । विनम्राः फलभारेण, सद्वृत्तितिलकाङ्किताः ॥३१।। हारा इव पुरीलोकाः, सद्वृत्ता गुणशालिनः । शोभन्ते निर्मला यत्र, मध्यसुन्दरनायकाः ॥३२॥ महिष्यः श्यामला यत्र, घनाघनघटा इव । पयोभारभराक्रान्ता, गर्जनारावराजिताः ॥३३॥ रमा चापल्यमृत्सृज्या-ऽकरोद् यत्र स्थिति सदा । शङ्के किं भ्रमणोत्पन्न-श्रमाद् विश्राममग्रहीत् ॥३४॥ यत्र द्रुमेषु नाना-वियोगो न जने कदा । सरोगा विहगा एव, तिथावेव क्षयः सदा ॥३५।। कुजन्मानो वने यत्र, न कदापि हि मानवाः । मदोद्धता गजा यत्र, तुच्छकर्णा हयास्तथा ॥३६।। नगरोपान्तधात्रीव, राजते रमणीततिः । सधवा सदोच्चगोत्रा, समाशोकसमन्विता ॥३७|| धनुर्वल्लीव पौरस्त्री, नम्रा च सरलाशया । शुद्धवंशसमुत्पन्ना, गुणकोटिसमावृता ॥३८॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
करिणीवद् वारिहर्त्यः, कुम्भमण्डितमस्तकाः । उच्चहस्ता(स्ताः) सदाश्यामा(मा?), मन्दसंचरणप्रियाः ॥३९।। यत्राऽऽपणतती रेजे, संकीर्णा सत्क्रयाणकैः । जङ्गमा कल्पवल्लीव, व्यवसायविधायिनाम् ॥४०॥ दातारः सुलभा यत्र, कृपणा दुर्लभास्तथा । पुरे यल्लभ्यते सर्वं, लोकोक्तिः सा तु निःफला ॥४१॥ इभ्या यत्र पुरे नित्यं, कमलाबद्धमानसाः । मत्ताश्च षट्पदा यत्र, कमलाबद्धमानसाः ॥४२।। उदारा दानिनो यत्र, कृतोन्नतकराः सदा । मदोद्धता गजा यत्र, कृतोन्नतकराः सदा ॥४३॥ चान्दनास्तरवो यत्र, भुजङ्गगणसंश्रिताः । सुरूपाः पण्यवनिता, भुजङ्गगणसंश्रिताः ॥४४॥ माहेश्वरा जना यत्र, शिवसंबद्धमानसाः । श्रद्धालवः शुभाचाराः, शिवसंबद्धमानसाः ॥४५॥ अशोका यत्र मोदन्ते, योषिच्चरणताडिताः । कामिनो विह्वला नित्यं, योषिच्चरणताडिताः ॥४६॥ विष्णुधर्मरताः सर्वे-ऽजिनभक्तिपरायणाः ।। सम्यक्त्वधारिणः श्राद्धा, जिनभक्तिपरायणाः ॥४७॥ भित्तिरुच्चस्तनी यत्रा-ऽवरोधे च नृपाङ्गना । असूर्यम्पश्याऽदृष्टान्य-नरा नित्यं विराजते ॥४८॥ लङ्का शङ्काकुला जाता, चम्पा कम्पमवाप्नुयात् । अपतद्वारका वार्डों, शिवपुर्याः पुरः सदा ॥४९॥ इत्यादिगुणयुक्तायां, मुक्तायां दुष्टमानवैः । पुर्यां श्रीशिवसंज्ञायां, ख्यातायां जगतीतले ॥५०॥
॥ अथ श्रीभुजनगरवर्णनम् ॥ दीर्घकूर्चा जना यत्र, मालका इव पक्षिणाम् । यत्र लम्बालका बाला, कुमार्यो बहुवत्सराः ॥५१॥
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जान्युआरी - २०१३
यत्राऽस्ति व्यसनी लोकः, परद्रव्यकृतौ सदा । न दण्डो यत्र चौराणा-महिंसा तेन भूयसी ॥५२॥ वृक्षा गुग्गुलिका यत्र, प्रस्तरा बहवोऽध्वनि । सरेणवः सरित्सार्थाः, परित्यक्ताम्बुबिन्दवः ॥५३॥ तापपीडितगात्राणां, चलतां मार्गगामिनाम् । स्ववपुःप्रतिबिम्बानां, छाया नैवाऽन्यथाऽध्वनि ॥५४॥ यत्राऽस्ति भूपतिर्भार-मल्लो मल्ल इवाऽरिणाम् । दाता भोक्ता सदा न्यायी, कीर्तिपूरितदिग्गणः ॥५५॥ प्रासादा यत्र भूयांसः, कैलासस्याऽनुजा इव । व्योमसंलग्नशिखराः, जिनबिम्बविराजिताः ॥५६।। यत्राऽस्ति नगरोपान्ते, भुजाह्वो नगनायकः । श्रीमद्भुजनगरस्य, कीर्तिस्तम्भ इवाऽशुभत् ॥५७।। उच्चैःश्रव:समानाना-मुत्पत्तिर्यत्र वाजिनाम् । रविरथादिवोत्तीर्णा, द्रष्टुं चित्रमिलातले ॥५८।। इत्यादिगुणसंयुक्ताद्, महेभ्यजनसंश्रितात् । समुद्रतनयावासाद, भुजादिनगरोत्तमात् ॥५९।। इलातलमिलन्मौलिः, संयोजितकरद्वयः । शिष्याणुरमरचन्द्रो, विज्ञप्तिं तनुतेतराम् ॥६०॥ यथाऽत्र - विकाशिपङ्कजश्रेणी-कोशमुक्तपरागतः । जहर्षुरुच्चैरानन्दाद्, गन्धलुब्धा मधुव्रताः ॥६१॥ सकङ्कणरणत्पाणि-कामिनीकरसंहतेः । गोरसस्य शुभो गन्धो, विस्तारं प्राप सर्वतः ॥६२।। त्रियामाविरहोद्भूत-ज्वरापगमकोविदम् । अवाप विधुरा चक्र-वाकी हृदयवल्लभम् ॥६३।। कुण्डोघ्न्यः प्रक्षरद्दुग्धा, जिह्वालेहिततर्णकाः । दामनीबन्धनत्यक्ता, ययुर्गावो वनान्तरम् ॥६४॥ सस्नेहाः सगुणाश्चैव, तमोदर्शितमार्गकाः । पात्रसंस्था अपि प्रापु-ग्लानि कज्जलकेतवः ॥६५।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
लूतातन्तुपटाशङ्का-मवाप रजनीकरः । अपश्रियः कुमुद्वत्यो, भेजुः सङ्कोचमुल्बणम् ॥६६॥ गुहासु वसतिं भेजे, यदा भीत्या तमोभरः । गतोद्यमा इव नृपाः, क्षयमापुश्च तारकाः ॥६७|| यदा जिनेन्द्रगेहेषु, श्रूयते झल्लरीरवः । पुरतो जिनमूर्तीनां, क्रियन्ते दीपका जनैः ॥६८॥ शब्दायन्ते यदा ताम्र-चूडास्तरुषु संस्थिताः । महेभ्या आपणश्रेणौ, यदा तिष्ठन्ति तुष्टिताः ॥६९।। तदा महेभ्यसत्सभ्य-पूरितायां सुपर्षदि । इन्द्रानुजतनूजस्य, वाचनं प्रविधीयते ।
चरित्रं परिवाच्यते ।।७०॥ पाठ्यते शिष्यवर्गस्य, शब्दशास्त्रादिकं सदा । वाच्यन्ते चाऽन्यशास्त्राणां, पुस्तकानि बहूद्यमात् ॥७१॥ अभवन् जिनगेहेषु, स्नात्राणि बहुभक्तितः । सप्तदशभेदभिन्ना, जिनार्चा वसुसङ्ख्यया ॥७२।। इत्यादिपुण्यकृत्यानि, क्रियमाणे निरन्तरम् । सर्वपर्वशिरोरत्न-मगाद् वार्षिकनामकम् ॥७३।। दुष्टाष्टकर्मसङ्घात-घाति षष्टाष्टमादिकम् । विधानं तपसो जात-मात्मनः शुद्धिहेतवे ॥७४।। व्याख्यानैर्नवभिस्तत्रा-ऽनल्पसङ्कल्पपूरणे । वाचनं कल्पसूत्रस्य, कल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥७५।। सूर्यमितघस्रावधि, जीवामारिप्रवर्तनम् । कुलालचक्रिरजक-कुकर्मश्रेणिवारणम् ॥७६।। पूगीफलखण्डपुटा-दानं धार्मिकपोषणम् । सत्साधर्मिकवात्सल्य-करणं कारणं श्रियः ॥७७|| याचकानां मनोऽभीष्ट-साधनं ख्यातिकारणम् । दानं श्रद्धालुभिर्दत्तं, वार्षिकं पुण्यपुष्टये ॥७८।। महामहःसमं जाता, चैत्यानां परिपाटिका । मन्ये सिद्धिवधूभाले, पत्रालीव मनोरमा ।।७९।।
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इत्यादिपुण्यकृत्यानि, बभूवुस्तातनामतः । जायन्ते च तथा नित्यं, तातानां सौम्यचक्षुषा ॥८०॥ अथ तपागच्छहस्तिमल्लस्कन्धविभूषण-वासवसमानभट्टारकश्री५ श्रीविजयदेवसूरीश्वरगुणवर्णनम् ॥ तपोगणमहाम्भोधि-समुल्लासनिशामणिम् । श्रीविजयदेवसूरि-मानयामि स्तुतेः पथम् ॥८१॥ सूरेविजयदेवस्य, कोऽहं सद्गुणवर्णने । यत्कीर्तिकामिनीभाले, कस्तूरीतिलकं नभः ॥८२॥ अयि त्वत्कीर्तिकामिन्या, भ्रमन्त्या जगतीत्रये । तारतारामिषान्मुक्ता-हारोऽयं त्रुटितः किमु ॥८३।। यत्रतत्राऽभ्रमत् कीर्ति-कामिनी ते निरर्गलम् । का शिक्षा दीयते तस्याः, क्षिप्तः शीर्षे ययाऽञ्चलः ॥८४|| त्वत्कीर्तिभ्रंमती विश्वे, श्रमं प्राप्नोति नो कदा । सत्यलोकोक्तिरेवैषा, चरणे भ्रमरोऽस्ति यत् ॥८५॥ जगद् धवलितं कीर्त्या, पङ्क्तिभेदः कृतः कथम् । न कालिमा दुर्वचसां, मुखस्था दूरतः कृता ॥८६।। शरदभ्रपटलीशुभ्रा, कीर्तिस्ते जगतीतलम् । पावयन्ती पावनाय, गता गगनमण्डलम् ॥८७।। लाटे धाटे च कर्णाटे, गूर्जरे मालवे तथा । यत्र तत्रापि ते कीर्ति-नटीव बहुरूपिणी ॥८८॥ यशःकीर्तिभरौ क्लान्तौ, भुवनत्रितयाटनात् । हिमोर्वीधरकैलास-मिषात् किं भुवि संस्थितौ ॥८९॥ अहार्यधैर्य निर्माय, निर्मायं त्वामहो! गुरो! । विधिर्जगति विख्यातो, नररत्नविधानतः ॥९०॥ वर्यात् तुर्यारकाच्छस्यः, पञ्चमोऽयं विशेषतः । यत्र स्वामिस्त्वमुत्पन्नो, भव्यानां तारको भुवि ॥९१।। यदीयवक्त्रसौभाग्य-मालोक्य रजनीकरः ।। विषमत्ति त्रपाभाना-ल्लाञ्छनच्छलतः किमु ॥९२।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
त्वदास्येन तुलीकर्तु-मीष्पतिः किमु पङ्कजम् । तटाकमध्य आकण्ठं, मन्त्रमाराधयत्यसौ ॥९३।। मुखे तेजोऽमृतं वाचि, प्रदत्तं तव सद्गुरो! । तेन पुण्येन शशिना, सम्प्राप्तं शिवमस्तकम् ॥९४॥ विश्वशस्यगुणग्राम-सम्भृतैकतनो! मुने! । पवित्रचारित्रनिधे!, चिरं जय कृपाम्बुधे! ॥९५॥ जय त्वं श्रीतपागच्छ-पयोनिधिनिशामणे! । [वर्धमा] नजिनाधीश-[पट्टा?]नुक्रमधारिणे ॥९६।। जय त्वं वीतरागाजा-परिपालन[तत्पर!] । स[मग्र?] जै[न]सिद्धान्त- स....... ॥९७।। श्रीजिनशासनव्योम-प्रकाशननभोमणे! । अपारभवपाथोधि-तारक! त्वं चिरं जय ॥९८॥ जय त्वं जितकन्दप!, दर्पसर्पगरुन्मते! । अनन्यरूपसौभाग्य-तिरस्कृतमनोभव! ॥९९।। एवं समग्रसद्गुण-रत्नरोहणभूधरैः । त्रिसन्ध्यं नतगात्रस्या-ऽवधार्या मे नतिः सदा ॥१००।। तथा तत्रत्यतातपादपदद्वन्द्व-सेवाविधिपरायणाः । सूरयो विजयसिंहाः], सर्वानूचानपुङ्गवाः ॥१०१॥ चारित्रगुणसंयुक्ता-श्चारित्रविजयाभिधाः । वाचकपदं दधानाः, क्षमेव क्षमयाऽन्विताः ॥१०२।। श्रीकीर्तिविजयविज्ञा, विज्ञाः श्रीकुमरास्तथा । श्रीऋद्धिविजयविज्ञा, वादीभध्वंसपञ्चास्याः ॥१०३।। कुशलाद् विजयाह्वानाः, पण्डिता गुणमण्डिताः । अमात्यपदसंयुक्ता, गच्छकार्यधुरन्धराः ॥१०४।। सोमवत् सोमविमला, गणयो हंसनामकाः । क्षेमतो विजयाह्वानाः, साधुतो विजयास्तथा ॥१०५।।
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जान्युआरी - २०१३
मृगावतीसमा साध्वी, साध्वी गुणसमन्विता । रूपाई भगवन्माता, विख्याता भुवि सद्गुणैः ।।१०६॥ इत्यादिसाधुसिंहानां, तातपादाब्जसेविनाम् । प्रसाद्ये नत्यनुनती, यथार्ह शमिपुङ्गवैः ॥१०७॥ तथाऽत्रत्यगणिविवेकचन्द्राह्वो, जयचन्द्राभिधो गणिः । व्रतिनी विजयाल्लक्ष्मी-निलक्ष्मीस्तथाऽपरा ॥१०८।। इत्यादिसार्वसाधूनां, तातप्रणतिकारिणाम् । त्रिसन्ध्यं नतगात्राणा-मवधार्या नतिस्तथा ॥१०९।। यदत्र लिखितं लेखे, न्यूनं वाऽधिकमेव हि । क्षन्तव्यं तत् क्षमासारै-गुरुभिर्गणधारिभिः ॥११०॥ यतःछद्मस्थो हि यथा ब्रूते, तथा कर्तुमशक्नुयात् । सम्यक् शयितुमशक्तः, पृष्ठग्रन्थिः पुमान् यथा ॥१११॥ कार्तिकस्य सिते पक्षे, द्वितीयावासरे वरे । वारे जम्भद्विषः सूरा-विति मङ्गलमुत्तमम् ॥११२।।
शुभमस्तु मम गुरूणाम् ॥
[पाछली तरफ-] ऐ नमः ।। स्वस्ति श्रिये प्रथमतीर्थपतिस्त्रिसायं, सस्तात् सतां वृषभलाञ्छितपादपद्मः ।...
[बहारना भागे-] उ. श्रीअमरचन्द्रग० लेखः ॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
(७) सूर्यपुरस्थ-श्रीविजयदेवरिं प्रति राजपुरात् श्रीधनविजयोपाध्यायस्य लेखः (सं. १७०४)
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्तिश्रीसुकनी स्वयंवरवरा चञ्चत्कलाशालिनी, तीर्थेशं श्रयति स्म यं सुरसरित् शम्भु मुकुन्दं रमा । श्रीमद्दाशरथिं यथा जनकजा सर्वाचलं मेनिका, शीतांशुं किल रोहिणीव विलसत्पृथ्वी च पृथ्वीपतिम् ॥१॥ [शार्दूल०] स्वस्तिश्रीः श्रयति स्म यं जिनपतिं निश्शेषशोभाभरं, वैकुण्ठं प्रसभं पुराणपुरुषं गोपाङ्गनासङ्गिनम् । दासाहँ स्वपतिं जनार्दननरं प्रोत्सृज्य कृष्णद्युति, ज्ञात्वा वारिधिशायिनं च सहसा दामोदरं केशवम् ॥२॥ स्वस्तिश्री: कलहंसिकेव भजते यस्येशितुर्नित्यशः, पादाम्भोजयुगं स्वभावसुभगं संसारनीरातिगम् । सल्लक्ष्मैकसुकेसरं गतमलं दुःकण्टकैर्वजितं, वन्द्यं विश्वनरामराधिपतिभिर्विघ्नौघनिर्नाशकम् ॥३॥ स्वस्तिश्रीः कमलाभिराममनघं यत्पादपद्माकर, शि[श्रायाऽ] भयदं सदा मुनिजनैः संस्तूयमानं स्तवैः । ज्ञात्वेति स्वकजं सकण्टकमहाभृङ्गारवैर्भीषणं, सीतं क्लेशपदं जडैः परिचितं दुष्टैर्बकोटैर्हतम् ॥४|| स्वस्तिश्रियः सर्वत एव सर्वा, जिनोत्तमं प्राणपतिं प्रपन्नाः । यं प्रास्तदोषं जितरोषपोषं, विभाव्य चित्ते परयाऽतिभक्त्या ॥५॥ [उपजातिः] यस्याऽष्टकर्मक्षपणोद्यतस्य, नताङ्गिवृन्दारकपादपस्य । कथा स्मृताऽपीह पिपर्त्यभीष्टं, सतां नृणां कामगवीव वन्द्या ॥६।। यो मूर्त्तिमान् जङ्गमकल्पवृक्षः, समप्रदः सर्वजनैरिहोच्यते । समञ्जसं तन्न विभासते यद्, भयप्रदो नैव जनेषु कहिचित् ।।७।।
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यस्य क्रमाम्भोरुहिलाञ्छनस्थं, तुरङ्गमावीक्ष्य दधामि तर्कम् । तिर्यक्त्वमास्फेटयितुं स्वकं किं, सेवां तनोत्येष जिनाधिपस्य ।।८।। तापाकुले तापनमण्डलेऽहं, रथस्य भारोद्वहनेऽप्यशक्तः । ततः क्व यामीति विचार्य लक्ष्म-च्छलाद्धयो यत्पदमाश्रयत् किम् ।।९।। संसारनीराकरतस्त्वयोद्धृताः, स्वामिन्! नरौघा भवतांहिलीनाः । कृपां विधायोद्धर मामितीव, शङ्के हयः शंसति लाञ्छनस्थः ॥१०॥ यस्याऽर्हतोऽस्वप्नगणार्चितस्य, मुक्तिं प्रति प्रस्थितिमादधातुम् । सम्प्रेषितः किं विधिनाऽतिभक्त्या, हयः पदस्याऽङ्कमिषेण मन्ये ॥११॥ जातस्तिरश्च्यामहमष्टमङ्गलः, स्वप्नेऽपि नाऽदर्शि कथं जनन्या । इतीव विज्ञप्तिकृते यदंहि-लक्ष्मच्छलाद्यत्पदमाश्रयत् किम् ॥१२॥ येनाऽर्हता स्वर्णरुचा स्वकान्त्या, स्थैर्याच्च किं निज्जित एव मेरुः । तत्साम्यमाप्तुं व्य(वि)जने तपोऽर्थ, जगाम यद् दृग्विषयोऽधुना न ॥१३।। यत्पृष्टिभामण्डलकैतवात् किं, निषेवतेऽहर्पतिरेव मन्ये । खरां श्रुतामत्र जनेऽतिनिन्द्यां, निषेधनार्थं सुमनाः स्वकीयाम् ॥१४॥ गर्भे समागत्य जिनेन येन, निर्धाटिता दोषततिर्जनानाम् । सातं समासादितमेव यत् तत्, तथ्याऽभवत् शम्भव इत्यभिख्या ॥१५॥ यदब्ददानाम्बुदवर्षणेन, नृणां परिप्लावितदौस्थवृक्षाः । न ते प्ररोहन्ति पुनर्यथा सरित्-पूरेण संप्लावितपार्श्ववृक्षाः ॥१६॥ संवेद्मि कालत्रयमेव तत्त्व-त्रयं च विश्वत्रयमित्यवैमि । प्रज्ञापनार्थं शिरसि स्वकीये, छत्रत्रयं योऽत्र जिनो बभार ॥१७॥ - - - - - - - जानिरासीद्, यस्तीर्थराडित्यवधारयेऽहम् । [यत्पार्श्वतो भक्तिभृतां न चैवं, ज्ञानादिरत्नस्य कुतोऽन्यथाप्तिः ॥१८॥ सेनासतीकुक्षिसरोमरालं, जितारिसर्वावनिनाथसूनुम् । तत्तीर्थनेतारमनन्तसारं, प्रेम्णा प्रणम्याऽमलशम्भवाख्यम् ।।१९।।
॥ इति श्रीदेववर्णनम् ॥ पुरं स्फुरत् सूर्यपुराभिधानं, मनुष्यरत्नप्रवरं निधानम् । कस्याऽस्ति नाऽऽह्लादकृते सुतेज-श्चक्षुःपथस्थं हि यथा सुवर्णम् ॥२०॥ वैडूर्यमुक्ताफलशङ्खशुक्ति-प्रवालमुख्यैर्विविधैः पदार्थैः । भृशं भृतायाः [पुर]तो हि यस्या, जलावशेषत्वमवाप वार्द्धिः ॥२१॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
श्रीमद्गुरूणां चरणारविन्द-रजोऽम्भसा क्षालितभूतलायाः । अनेकसत्पुण्यजनाश्रिताया, यस्याः पुरस्तादलका लकाभा ॥२२।। जाने दृशोदिकरं जनानां, पुरं सुधाकुण्डमवेत्य यत् किम् । तद्रक्षणार्थं स्वयमेव मूर्त्तः, शेषोऽत्र वप्रच्छलतोऽभ्युपेतः ॥२३॥ पुराद्यतः श्रीनिलयादलक्ष्मी-प्रवेशलेशप्रतिषेधनार्थम् । मन्येऽहमेवं विहिता विधात्रा, किं खातिका वारिभृता समन्तात् ॥२४॥ यस्मिन् पुरासन्नवने निकामं, पिकाङ्गनानां मिषतस्समेताः । किं नाकनार्यः सुरलोकतो दाग, सङ्कीर्तयन्त्यः सुगुरोर्यशोऽत्र ॥२५।। अगण्यपुण्यप्रभवस्य लक्ष्मी, निरीक्ष्य यस्याऽमरपत्तनं किम् । स्वर्गे निवासं कृतव]त् वितर्के, विषण्णचित्तं धनलज्जयैव ॥२६|| [चन्द्रा]नना वारिजपत्रनेत्रा, यत्राऽङ्गना वीक्ष्य गवाक्षसंस्थाः । ऊहं दधुर्जा इति पूर्णिमाया-मुदेति किं चन्द्रशतं रजन्याम् ॥२७॥ तेनुः सकर्णाः प्रविलोक्य तर्कं, यस्योपकण्ठे तपनात्मजां नदीम् । समागताऽस्तीति विलोकितुं किं, पितुः स्वकीयस्य पुरं प्रबर्हम् ॥२८॥ सुश्रावकान् यत्र निरीक्ष्य मन्ये, जीवादिसत्तत्त्वविचारदक्षान् । स्वात्मानमाधाय सहस्रधा किं, समागतः स्वर्गिगुरुर्गरीयान् ।।२९।। संप्रेक्ष्य नारीददतीः सुदानं, मध्यन्दिने यत्र गता मुनीशाः । कलौ युगे सन्ति न कल्पवल्ल्य-श्चक्रुर्विचारं तदलीकमेव ॥३०॥ सुरालयात् स्वायतिसाधनाय, सुराङ्गना एव समागताः किम् । श्राद्धाङ्गनानां मिषतोऽत्र मन्ये, दानं ददन्त्यो(त्यो) व्रतिनां हि यत्र ||३१|| यत्राऽब्जदृग् रत्ननिबद्धभित्तौ, सङ्क्रान्तमालोक्य निजं स्वरूपम् । निहन्ति पादेन रुषा सपत्नी-बुद्धयेति मन्ये दिवसावसाने ॥३२॥ यत्राऽऽगताः पान्थजना विशेष, विदन्ति नो घस्रनिशीथिनीनाम् । रत्नप्रदीपैश्च गृहप्रदीपै-वियत्प्रदीपैर्दलितान्धकारे ॥३३॥ यत्राऽर्हतश्चैत्यशिरःप्रदेशे, प्रोत्तम्भितं दण्डमवेक्ष्य मन्ये । श्रीतीर्थनाथद्विषतो निहन्तुं, किं वेधसोर्वीकृत एष दण्डः ॥३४॥ यस्मिन् नराणां च जिनेश्वराणां, नरेश्वराणां वरमन्दिराणि । स्वतोऽधिकान्येव विलोक्य जग्मु-र्मन्ये सुरौकांसि विमानतां किम् ॥३५॥
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सद्वर्णवर्ण्यं वरशब्दयुक्तं, विभक्तिवन्मूर्खजनैरगम्यम् । बह्वर्थभृल्लक्षणवच्च यत् पुरं, विशारदैः संश्रितमेव भाति ||३६|| प्रद्वेषो यत्र पापे दृशदि कठिनता निर्दयत्वं कृपाणे, रुद्रत्वं व्योमकेशे दिनकरकिरणे तापकर्तृत्वमस्ति । जाड्यं न्यक्षे च वृक्षे कचवरनिचये बन्धनं वर्णी (णि) नी नां, दुष्टाचि (ची) र्णे विषादो बहलमलिनता कज्जले नैव लोके ॥ ३७॥ [ स्रग्धरा] श्रीमत्तपागच्छ्गुरोः पदाब्ज - न्यासेन संपावितभूप्रदेशे ।
निरन्तरं साधुजनप्रवेशे, श्रियान्विते श्रीमति तत्र देशे ||३८|| [ उपजाति: ] ॥ इति श्रीनगरवर्णनम् ॥
श्रीतातपादांह्निपयोजसेवा - स्पृहालवः श्राद्धगणाः सुभक्ताः । वसन्ति यस्मिन् नगरे प्रकृष्टे, पुरात् ततो राजपुराभिधानात् ॥ ३९ ॥ संयोजितकरद्वन्द्व- पद्मपेशलकुड्मलः ।
विनयावनतः सर्वाङ्गो, धनादिविजयः शिशुः ||४०|| [अनुष्टुप् ] सानन्दं सप्रमोदं च, बहुमानपुरस्सरम् । सौत्सुक्यं सादरं जाग्र-द्भक्तिसम्भारपूर्वकम् ॥४१॥ विनयनयाञ्चितचेता, हर्षात् संवर्द्धमानभक्तिरसः । सातिशयसौवाशय-निवेदनाय प्रगटवचसा ॥ ४२ ॥ [आर्या] योगाभिमतपदार्थै-गणितावर्तैः सदा समभिवन्द्य |
प्रणयति विज्ञप्तिमिमां, विधिवद् रोमाञ्चकञ्चुकितः ||४३|| कार्यं यथा चाऽत्र सहस्ररश्मौ, समागते पूर्वगिरीन्द्रशृङ्गे । सदिभ्यसभ्यैः परिपूरिताया - मानन्दतः संसदि सङ्गतायाम् ||४४|| [उपजाति:] श्रूयमाणं सुधापान- मिव श्रोतृसुखावहम् ।
श्रीमतः पञ्चमाङ्गस्य, व्याख्यानं दुरितापहम् ॥४५॥ [ अनुष्टुप् ]
सिद्धान्तन्यायशास्त्रादेः पाठनं पठनं मुदा । योगोपधानयोर्नित्य मुद्वाहनमनेकधा ॥ ४६ ॥ भविनां नन्दिकृन्नन्दि-भवनं विधिसंयुतम् । द्वादशव्रततुर्यादि-व्रतस्योच्चारणं शुभम् ||४७|| इत्यादिनित्यकृत्यानि, निर्विघ्नानि समाधितः । सिद्धि प्राप्तानि सर्वाणि, संजायन्ते स्म चाऽधुना ॥ ४८ ॥
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क्रमागते श्रीमति सर्वपर्व-गर्वान्धकारे दिवसेश्वराभे । श्री [वार्षिके?] पर्वणि सर्वदेवैः, कृतोत्सवे धर्मभराभिरामे ॥४९॥
[उपजातिः] स्नात्रं श्रीजिनसदने, पूजा जिनपस्य सप्तदशभेदैः । गीतनृत्यादियुक्ता, पुस्तकपूजाऽङ्गपूजा च ॥५०॥ [आर्या] श्रोतृजन[चि]त्तकल्पित-कल्पद्रुमकल्पकल्पसूत्रस्य । सक्षणनवक्षणैरपि, व्याख्याऽखिलशास्त्रसारस्य ॥५१॥ षष्टाष्टमवराष्ट[क-प]क्षक्षपणमुख्यकः । तपोविधिरष्टकर्म-क्षपणप्रवणों[ऽशुमान्?] |॥५२॥ [अनुष्टुप्] साधर्मिकजनपोषण-मघसन्ततिशोषणं सुकृतकरणम् । बहुजिनगुरुगुणगायन-मनुजानां(?) द्रविणदानं च ।।५३।। [आर्या] द्वादशदिनानि याव[-ज्जीवा?] भयदानघोषपटुपटहः । चैत्यपरिपाटिकायाः, करणं सङ्घार्चनं चैव ॥५४॥ इत्यादिपर्वकर्माणि, ससौख्यानि निरन्तरम् । निरपायतया सम्यग्, प्रावर्तन्त महोदयम् ॥५५॥ श्रीतातनाममन्त्र-स्मरणासाधरणैककारणतः ।
यद्वद् दिनकरकिरणै-स्सहस्रपत्राणि विकसन्ति ॥५६॥ अपरं- यन्ना[म]मन्त्रस्मरणं सुधातो-ऽधिकं परिप्रत्यवधारयामि । आद्यं [स]दाऽऽनन्दकरं जनानां, पीता सती तुष्टिकरा यतः सा ॥५७।।
[उपजातिः] येनाऽऽत्मरूपेण तृणीकृतः प्राग, श्रीनन्दनः साधुजनोपगीः । भवाम्बकोद्भूतहिरण्यरेतसा, नो चेत् कथं दह्यत एव शीघ्रम् ॥५८।। यद्वक्त्रराकाशशिना समत्वं, संबिभ्रता चन्द्रमसा यदाप्तम् । दुश्चिह्नमद्यापि घनाश्रमस्थ-स्तद्दर्शयत्यङ्कमिषात् किमिन्दुः ॥५९॥ कैलाशशैलोदरगौरकान्ति, यशो यदीयं नितरां भ्रमत् किम् । कृत्वा त्रिलोकी धवलामवैमि, मरुत्पथे क्रीडति चन्द्रदम्भात् ॥६०।। धर्मोपदेशावसरे यदीय-मुखेन्दुसंसूतवचःसुधां यत् । निपीय केचित् सुमनःस्वभावं, केचिद् व्रजन्त्यक्षरतां च धन्याः ॥६१।।
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इष्टेष्वनिष्टेषु च यस्य साम्यं, संवीक्ष्य दोषाः कृतरोषपोषाः । कुशिक्षशैक्षा इव ते स्वदोष-मज्ञायमाना हि परं प्रपन्नाः ॥६२।। यस्योत्कटं ध्यानबलं विचार्य, दूरं गताः सप्त दरा भियेव । तेऽप्राप्यमाणा वसति जनेऽस्मिन्, यद् वैरिणां वासगृहं प्रविष्टाः ॥६३।। येन स्वगत्या जितराजहंसो, विलज्जितोऽगाद् वरमानसे किम् । यद्वक्त्रमित्रं कमलं निरीक्ष्य, वैरं स्मरन् चञ्चपुटेन हन्ति ॥६४।। निषेवते यं जलधिस्समेत्य, पदोवरेखाच्छलतः किमेषः । विज्ञप्तिकां कर्तुमितीश! जह्याः, मे क्षारदोषं जगतामनिष्टम् ॥६५॥ योऽगाधसंसारपयोधिमध्ये, पतज्जनानां करुणास्पदानाम् । स्ववाक्तरण्यामधिरोप्य पारं, नयत्यजस्रं वरनाविको यथा ॥६६।। कर्पूरपूरोपमया यदीय-कीर्त्या त्रिविश्वं भृतमेव मन्ये । चेन्नैवमेषा जगति प्रपूर्णे, कुतोऽन्यथा प्राज्ञजनैः प्रगीयते ॥६७|| सद्विद्यया वज्रमुनीश्वरस्य, लब्ध्येन्द्रभूतेस्तपसोज्ज्वलेन । श्रीमज्जगच्चन्द्रमुनीशितुः सद्-ध्यानेन च श्रीमुनिसुन्दरस्य ॥६८|| श्रीसिद्धसेनस्य कवित्वशक्त्या, साम्येन च श्रीगुरुहीरसूरेः । षट्त्रिंशदाचार्यगुणैर्गरिष्ठो(ष्ठा), यः(ये) साम्यमाबिभ्रति सूरिराजा(जाः) ॥६९।। गुणैकसरत्नसुरोहणानां, कृपारसप्रीणितसज्जनानाम् । स्वस्थैर्यतस्तर्जितमन्दराणां, गाम्भीर्यतो धिक्कृतसागराणाम् ।।७।। श्रेयोवतां भाग्यवतां तपस्विनां, महात्मनां पुण्यवतां यशस्विनाम् । भक्त्योल्लसद्वासववन्दितानां, तेषां गुरूणां नयनन्दितानाम् ॥७१।। स्वहस्तलिखितस्याऽऽशु-लेखस्याऽऽगतिमुत्तमाम् । समीहते शिशुर्नित्यं, मनःसन्तुष्टिपुष्टये ॥७२।। [अनुष्टुप्] तेन श्रीमगुरुभि-र्गुणगुरुभिः प्रवरबुद्धिजितगुरुभिः । छन्दोऽलकृतितर्का-ऽऽगमशास्त्रे निहितनिजमतिभिः ॥७३।। [आर्या] सौवश्रीसारवपुः-परिकरनैरुज्यसूचनाचतुराः । लेखा: प्रसादनीयाः, प्रसद्य सद्य: स्वकीयशिशौ ॥७४।। प्रणतिरवधारणीयो-पवैणवं शैशवी विशेषेण । श्रीतातैरभ्रान्तै-निष्णातैविश्वविख्यातैः ।।७५।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तत्रापि विगततन्द्राः, श्रीमत्श्रीवाचका अमरचन्द्राः । श्रीतातचरणवारिज-सेवारसरसिकमधुपेन्द्राः ॥७६।। विबुधाः खिमादिविजया, विबुधवरा रामविजयगणयश्च । प्राज्ञा विनीतविजया, धृतहृदयाः परमगुरुकृत्ये ॥७७|| सद्विद्या नयविजया, विबुधा विबुधाश्च वीरविजयाह्वाः । मतिमन्तो मतिविजया, विबुधवराः परमगुरुभक्ताः ॥७८॥ कृष्णविजयविबुधा अपि, पण्डितमुख्याश्च शान्तिविजयाह्वाः । अमरविजयवरविबुधा, विबुधवरा लीलचन्द्राश्च ॥७९॥ गणयोऽपि गङ्गविजया, जसविजयगणिवराश्च गणयोऽपि । रामविजयनामानो, गणयोऽपि च लालविजयाख्याः ॥८०॥ जयविजयाभिधगणयो, गणिनी चांपां तथा सती प्रेमां । शीलवती च जयश्री-निश्रीः सत्यशीलधरा ॥८॥ इत्यादिसाधुसाध्वी-वर्गाणां तातचरणभक्तानाम् । अनुनतिरपि प्रसाद्या, सद्यो वन्द्यैस्त्रिदशततिभिः ॥८२।। अत्रत्या धीमन्तः, प्रेमविजय-कुंअरविजयगणयश्च । सौभाग्यसिंघविजयाः, तेजविजयगणिवरा अपि च ।।८३।। सहजश्री-जयतश्री-प्रमुखाः प्रणमन्ति तातगुणरक्ताः । सङ्घः सकलोऽवत्यो, विशेषतो भक्तितो नमति ॥८४॥ न्यक्षं विज्ञप्त्यनौचित्यं, क्षन्तव्यं क्षन्तुमहितैः । हिताशिषः प्रसाद्याश्च, विशेषोदन्तगर्भिताः ॥८५॥ [अनुष्टुप्] नमतितरां वरभक्त्या, विशेषतः सिंघविजयशिशुरणुकः । बाहुलबहुलपक्षे, पञ्चम्यां सशिवमिति भद्रम् ॥८६॥ [आर्या]
॥ छः ॥ श्रीरस्तु ॥ छः ॥ [बहारना भागे-]
॥ पूज्याराध्य ।। सकलभट्टारकवृन्दवृन्दारकेशभट्टारकश्री१९
श्रीविजयदेवसूरीश्वरचरणेन्दीवराणां विज्ञप्ति ।
राजपुरात् उ० श्रीधनविजय ग० लेखः । सं. १७०४ वर्षे सूरतिबन्दिरे ।। काव्य ८६ ।।
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(८) वर्गवटी (वगडी) नगरस्थित-गणाधिपश्रीमद्विजयप्रभसूरीणांपार्वे नाडुलाईत: महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिप्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम्
- महो.विनयसागर ॐ ह्रीँ श्रीँ अहँ एँ नमः । सिद्धम् । स्वस्तिश्रियामाश्रयणीयमूर्तिः, सुरद्रुवन्निर्मितकामपूर्तिः । स्फूर्तिर्यदीया महसस्त्रिलोक्यां, सर्वापि निर्वापितशत्रुकीर्त्तिः ॥१॥ [उपजातिः] अनाश्रयाणामभयाश्रयो यः, शरण्य एवाऽशरणं गतानाम् । श्रीमारुदेव: शिवसम्पदे वः, स्तात् भक्तियुक्त्या नतपूर्वदेवः ॥२॥ न यस्य किञ्चिद् विनयस्य धैर्यं, न यस्य चातुर्य-महार्यशौर्यम् । तस्याऽप्यवश्यं विदधाति वश्यां, साम्राज्यलक्ष्मी सुदृशः प्रभुर्यः ।।३।। न बन्धुरागद्रढिमानबन्धुरा, महीयसा प्रीतिरपि क्षमाभुजा । . भुजाबलं वा प्रबलं न यस्य, तस्यापि भृत्यस्य ददाति राजताम् ॥४॥ किं सेवितेन प्रभुणा घृणाक्षर-न्यायेन येन क्रियतेऽनुगः सुखी । जीयात् प्रभुः श्रीवृषभः सनातनी, श्रियं ददानः सकृदाश्रिते जने ॥५।। स्मृतोऽपि दूरात् परमां रमा जने, दधाति नाऽतिश्रमतः ससम्मतः । युक्तं जगत्यां प्रभुरद्भुतप्रभा-प्रभाकरः श्रीऋषभः सशाङ्करः ॥६॥ यावन्निषेवेत जनस्सचेतनः, सदा स दासः प्रभुवल्लभस्तदा । ततः परं नेति गतिर्न नेतरि, स्पृष्टा न यस्मिन्नियमादिमेऽर्हताम् ॥७॥ वयं स्मरामः किल रामभूपते-र्न राज्यनीतिं बहुभिः स्तुतामपि । यस्यां परं भक्तजने हनूमति, स्थितिः स्मृताऽमुद्रदरिद्रतायाः ||८|| अद्यापि चाद्यस्त्रिजगद्विनेता, ध्येयः परं यः स्मृतिमात्रकर्तुः । जनस्य नश्यत्तमसः प्रशस्यां, श्रीसम्पदं नन्दयति प्रसद्य ।।९।। सकृन्नमस्यादिविधानवश्या, नित्यश्रिये ते प्रभवो यशस्याः । एषु स्वभावे यदुपज्ञ एव, देवः शिवायाऽस्तु स मारुदेवः ॥१०॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
धिगस्तु तेषामधमाधिपानां, धर्मं कुराजन्यसुराधिपानाम् । ये भृत्यदुःखं ददते विनाग-श्छागं घ्नतामग्रगतं सुराणाम् ॥११।। आद्योऽर्हतां माद्यदमन्दशान्तितः, कृताऽपराधेऽपि परे कृपापरः । साम्राज्यदानेऽस्य निजानुजीविनां, किमद्भुतं संस्मृतिमात्रभाविनाम् ।।१२।। निजोदये मोदमृदम्बुजानां, शूरो विदूरादपि बोधहेतुः । तथा जिनानां प्रथमो विमुक्तः, स्वभक्तिभाजामियमुत्तमास्था ।।१३।। किं स्वामिभिस्तैरनुजीविनां ये, न स्युः प्रसन्नाः शिरसो व्ययेऽपि । जगत्प्रभुः श्रीऋषभस्तु युक्तं, श्रुतोऽपि यः सर्वसमृद्धिकर्ता ॥१४॥ ब्रह्मानुरक्तं गुणिनं स्वभक्तं, भृत्यं गणाधीशमिव प्रभुर्यः । प्रपीडयेदीश्वरतां प्रपद्य, श्मशानवेश्मा नियमात् स रुद्रः ॥१५॥ मन्ये किमित्येव विचिन्त्य भद्रं, लक्ष्मामिपक्षान्न जहाति दूरे । जटापटिष्टः स्वयमीश्वरोऽपि, श्रीनाभिभूइँनमनूनतेजाः ॥१६।। श्यामोऽपि कौटिल्ययुतोऽपि पूर्व-मामाश्रितोऽयं चिकुरस्य भारः । आद्योऽर्हतामित्यधिगत्य जाने, तं नोच्चखानावसरे व्रतस्य ॥१७।। नमिस्तथा श्रीविनमिनिषेवे, वनेऽपि मां ध्यानधियामधीनम् । इतीव तौ खेचरचक्रिणौ य-श्चकार कारुण्यमहो महत्सु ॥१८॥ दूरे न दूरेऽथ लघुर्गुरुर्वा, प्रमादवान् उद्यमवान् विधेयः । नाऽयं विमर्शो महतामितीव, यः कच्छमुख्यान् पुनरुद्दधार ॥१९।। साम्राज्यभोगे सुकृताभियोगे, निजाश्रितान् यः सुखिनो विधाय । पुत्रांश्च भृत्यान् सकलान् [मनुष्यान्?], सिद्धावपि स्वस्य समानकार्षीत् ॥२०॥ तस्य प्रभोराद्यजिनस्य युक्तं, जगद्गुरुत्वं जगदीश्वरत्वम् । वृथाभिमानादपरे विमाना-धीशाः सुरास्तत्तुलनां न यान्ति ॥२१॥ ध्यायन्नमन् भक्तिभरात् त्रिसन्ध्यं, तं देवदेवं जितकामदेवम् । श्रीमारुदेवं विलसन् महोभिः, सहस्रधामानमिवाभ्युदीतम् ।।२२।। इति श्रीयुगादीश्वर-जगदीश्वर-वर्णनम् ॥
अथ नगरवर्णनम् यस्यामतीवोन्नतचैत्यराजी, राजीविनीशद्युतिमप्यजैषीत् । तच्छातकुम्भोद्भवकुम्भदम्भा-दम्भोजपाणिः समुपास्त चैताम् ॥२३॥
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यस्यां नगर्यां जिनचैत्यकुम्भैः, काठिन्यमात्तं नरमानसानाम् । स्त्रीचेतसां तु स्वपदप्रसक्त्या, पयोधरैरेव तदन्वलम्भि ||२४|| दण्डो निरस्तः सकलप्रजाभ्यस्तस्थौ जिनौक:कलशोपकण्ठे । तदा जनानां करपीडनाऽपि, मनस्विनीनां स्तनसन्निधाने ॥२५॥ उच्चैर्निबन्धस्तु विहारकेतौ, चापल्ययोगादिव यत्र दृश्यः । तथैव यूनां मनसस्तु हारे, मुक्तानुबन्धिन्यपि कामिनीनाम् ||२६|| परस्परस्पर्द्धिदशा जिनौक:- पाञ्चालिकानां जनबालिकानाम् । अन्यच्च चञ्चद्युवतीजनानां, पयोधराणां मदनोद्धुराणाम् ||२७|| क्रियासु तत्तद्वचनेषु रूप प्रसाधने पाटवमेव यत्र । शब्दानुसंशासनवाङ्मयेषु, विचक्षणानां च मृगेक्षणानाम् ॥२८॥ लङ्कापि रङ्का ह्यलकाऽलकार्था, शाखापुरं नागपुरं पुरोऽस्याः । पुरन्दरस्याऽपि पुरं पुराण-प्रायं प्रियं नैव न भोगभावात् ॥२९॥ पुन्नागरूपः सकलोऽपि लोक-स्तन्नागकन्यासु किमत्र चित्रम् | भोगप्रियत्वं प्रकृतिस्तदीया, भोगावतीतः स्फुटबिम्बमस्याः ||३०|| शीर्षे कलापश्चिकुरावलीनां, मुक्ताकलापोऽपि च कण्ठपीठे । स्त्रीणां नितम्बेऽपि कलाप एव किं पृच्छ्यते तत्र कलानिवासे ॥३१॥ यस्यां निबन्धश्चिकुरे वधूनां वराङ्गसंसर्गभृतोऽसि तस्य ।
प्राप्तेऽपि नूनं सुमन:प्रसङ्गे, युक्तं फलं हि स्वकृतानुसारात् ॥३२॥ श्रीमद्गुरूणां वचनेऽनुरक्तः, पुण्येऽतिनैपुण्यधरः प्रसह्य । जीवाधिकारेण यथार्थवादी, यस्यां निसर्गात् सुभगोऽङ्गिवर्गः ||३३|| श्रियां निदानैर्द्रविणादिदानैर्भावैर्वलक्षैः प्रसरत्प्रभावैः । यस्यां भृशं श्राद्धजनः सुवृत्तै - र्निजं पवित्रीकुरुते प्रवृत्तैः ||३४|| संवेगभावे गतदृष्टिरन्यः कश्चिज्जुगुप्सुः शिवमार्गलीनः । श्रीदेवताराधनसावधानः, कौशल्यधारी गुरुवर्णनेषु ||३५|| वधूजनोऽस्यां व्यभिचारयोगे ऽनुरागवान् न व्यभिचारचारी । सिताम्बरे वैभवसम्प्रयोगं, पुष्णन्ननुष्णांशुसमाननश्रीः ||३६|| समरध्वजे देवगुरो: पुरोगे, सज्जीभवत्यङ्गजधर्मकृत्ये । अत्युच्छ्रितं यः कुरुते वराङ्गं श्राद्धीजनो यत्र स दर्शनीयः ||३७||
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
दृढारतिर्यस्य वराङ्गदाने, सब्रह्मचारिव्रतजैत्रशीलः ।
तपः क्रियायामनिशं सकामः, श्राद्धीजनोऽयं विषयेऽभिरामः ||३८|| लेखास्तु यासां करसङ्गृहीताः, गुरोः पदोल्लेखनसङ्गता गीः । तासां हि हल्लेखविशेष एव स्यात् पद्मिनीनां प्रतिलेखनासु ॥३९॥ ब्रह्मक्रियायामपि पौषधेषु वात्सल्यकर्मण्यथ धार्मिकाणाम् । यस्यां वधूनां हि धन: ( नं?) मनश्च परोपकाराय पुनः स्वकाय: ||४०|| जिनाधिराजां परिपूजनासु तथा मुनीनामधिवन्दनासु । यासां रतिः स्याच्चरणोदयेन, साम्यात् सदालोचनरागभाजाम् ॥४१॥ तासां वधूनामतिमांसलत्वं, नितम्बबिम्बे स्तनयो -रव (?) । तत्स्पर्द्धया दुर्बलताऽपि मध्ये, स्थैर्यं सुकृत्ये चपलत्वमक्ष्णोः ॥४२॥ यत्राङ्गनानां हृदयं न्यवात्सीत्, गुणानुरागो मुनिनायकस्य । ध्यानञ्च शुक्लं ह्युभयानुमानं, मुक्ताकलापेन लसद्गुणेन ॥ ४३ ॥ माधुर्यमासां स्वरसस्वरेण, गाने निपीयैव जने प्रसन्ने । पिकस्य जज्ञे ध्वनितेऽपकीर्त्ति - मूर्त्तिः परं श्यामलिता तयाऽस्य ॥४४॥ गुणास्तथाऽवाप गुणास्त्रिलोक्यां, भवन्ति सर्वत्र न तत्र वादः । श्राद्धीषु यस्यां गुणपक्ष एव, पत्रावलम्बोऽस्त्यलिके तदासाम् ॥४५॥ मुक्तात्मनां सद्गुणवान् निबन्धः, स्त्रीकण्ठपीठे रमते नितान्तम् । चैत्येषु येषां प्रतिबिम्बराजी, ततः पुरं निर्वृतिरूपमेतत् ॥४६॥ तत्राऽभिरामप्रभुपादरेणोः, पावित्र्यतः पञ्चवटीकृतायाम् । स्फुटीभवेद् देवनटीस्तुतायां, पुर्यां परं वर्गवटीतिनाम्याम् ॥४७॥ इति श्रीपूज्यपादपवित्रीकृतवगडीनगरवर्णनम् ।
अथ नडुलाई -वर्णनादि - कार्यसमाचाराः यच्चैत्यमुत्तुङ्गतया सुवर्ण-प्रसङ्गतः सङ्गमनात् सुराणाम् । सुखेन देवाद्रिजयं विधत्ते, सुगन्धिना सौमनसोदयेन ॥४८॥ विभूषितं तीर्थकृदर्चनासु, घण्टारवाच्छादितदुष्टशब्दम् । यच्चैत्यमालोक्य बुधैरतर्कि, स्वर्लोक एवाऽवततार सैषः ॥ ४९ ॥ सेयं सुधर्माऽपि सभा तदीया, समाश्रितोपाश्रयकैतवेन । प्रत्यक्षलक्ष्मीस्तदिमा मृगाक्ष्यो, रम्भाश्चिरं भावनयाऽत्र तस्थुः ॥५०॥
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उपाश्रयोऽप्यत्र शिरोऽतिभाराद्, गोवर्द्धनोद्धारकविष्णुरूपः । तृण्या यदूर्वं हरिता मयूर-पिच्छानि नित्यैव तदत्र लक्ष्मीः ॥५१॥ वारत्रयेण प्रकटां त्रिनेत्रीं, चन्द्रोदयं मूर्द्धनि वा दधानः । उत्तम्भितः स्तम्भभुजैर्मुनीनां, स्थानं सदैश्वर्यविभां व्यनक्ति ॥५२॥ गुणानुरागी विनयी नयी च, सङ्घोऽस्त्यमुष्यां विजयी विशेषात् । विवेकवान् सर्वविचारचारु-रौचित्यसत्कृत्यरुचिः सचेताः ॥५३॥ दानेन कर्णोऽर्जुन एव कीर्त्या, निस्सीमशौर्येण च भीमरूपः । जिनार्चनोद्भावनयैव धर्म-सुनन्दनः सत्यवचाः सुशीलः ॥५४॥ सीतासमाश्लेषधियैष रामः, शुभाशयो लक्ष्मणभावशाली । श्रीराजको व्यवहारिमुख्यः, सङ्घाग्रणीः शीर्षमणी बुधानाम् ।।५५।। सत्वाधिकाः सद्गुणसाधिकाश्च, हिंसानृतादेः प्रतिबन्धकास्ताः । आराधिकाः श्रीजिनसन्मुनीनां, श्राद्ध्योऽसुभाजां सुसमाधिकामाः ॥५६।। श्रीमद्गणाधीश्वरभक्तिकर्म-ण्यालीनसुश्राद्धजनाधिवासात् । प्रसिद्धिभाजः सकलेऽपि देशे, पुर्या नभःपूर्वतटाकिकायाः ॥५७॥ विशिष्य शिष्य: करयोजनेन, पञ्चाङ्गरङ्गत्प्रणिपातदक्षः । करोति विज्ञप्तिमिमाममायं, मेघादिशब्दाद् विजयस्त्रिसायम् ।।५८॥ यथाऽत्र पूर्वाचलचूलिकायाः, शिखामणीभूतसहस्रभानौ । जाते दिनस्याभ्युदयेऽस्तभूभृन्-मूर्धानमारोहति शीतभानौ ॥५९।। यथाऽनया बिभ्रती भिन्नरूपं, जैनागमेऽमी विविधैः स्वभावैः । प्रमाणमार्गे हृदयेऽवतीर्णे, तदैक्यमेव प्रथते पृथिव्याम् ॥६०॥ तथैव ताराः स्फुरितानि दध्रुः, पृथक् पृथक् तावदमूर्निशायाम् । सहस्रभानौ गगनेऽवतीर्णे, तेजांसि तेजस्विनि मिश्रितानि ॥६१॥ द्विजाधिपे व्योमपयोधिमध्ये, वितन्वति स्नानविधि बभूवुः । तारास्वरूपाद् बहुफेनपुञ्जा-स्तेऽस्ताद्रिगेऽस्मिन् सहसा विलीनाः ॥६२।। नक्षत्रनाथे घनशूरतापा-न्नंष्ट्वाऽस्तशैलं प्रतियातुकामे । तारास्तदीया इव बाणभल्ल्यः , संजहिरे केनचिदन्तरैव ॥६३|| ताराप्रसूनानि सुराध्वलक्ष्म्या, धृतानि तावद् बहुगन्धलब्ध्यै । सहस्रपत्रं तरणिस्वरूपात्, यावद् विकाशं न ययौ पयोजम् ॥६४।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
रवेः स्वभर्तुविरहेण वक्षः, साक्षाच्छतच्छिद्रमिवाऽभ्रलक्ष्म्या । तारास्वरूपात् पुनरागमेऽस्य, रागेण जज्ञे किल तत् पिधानम् ॥६५॥ ताराः स्वभर्तुविरहानलस्य, स्फुलिङ्गमाला इव पद्मिनीनाम् । प्रातः प्रशान्ताः पतिसङ्गरङ्ग-ज्जलाभिषेकादिव ताः क्रमेण ॥६६।। द्विजाधिराजा निशि यद् विहायो-लक्ष्मीः(क्ष्मी)करैः स्पृष्टवपुर्बलेन । रुरोद तारोदपृषद्भिरद्भि-स्तेषामवश्यायसमुद्गमोऽभूत् ॥६७।। समागते स्वामिनि चक्रपाणी, पतिव्रताऽसौ मुदमाप सद्यः । ताराऽश्रुबिन्दुप्रशमस्ततोऽयं, रीतिस्तदेषा महतीसतीनाम् ॥६८।। ताराभरूप्यप्रकरार्पणेऽपि, न राज्ञि रक्ताऽभवदम्बरश्रीः । रागात्तया न्युञ्छनकर्म चक्रे, पत्युस्ततो नेशुरुडून्यमूनि ॥६९।। दग्धोऽपि कामः शशिना सुधाया-स्तारापृषद्भिः सहसोदजीवि । शम्भोस्तृतीयाक्षिनिभेन पूष्णा, विधोश्चरित्रं सकलं व्यशोषि ॥७०॥ यथा यथाऽस्मिन् समये न्यमीलि, स्त्रिया समं द्वन्द्वचरेण हर्षात् । तथा तथा स्वीयकरैर्ननर्त्त, तद्बन्धुरप्येष सहस्रभानुः ॥७१॥ तदा सदस्याः स्वगुरोर्नमस्या-कृते समायान्ति भृशं यशस्याः । तेषां पुरोऽङ्गं प्रथमं च सूत्रा-दाकृष्य तेऽङ्गक्रमतोऽत्र मुख्यम् ॥७२।। व्याख्यायते तत्परतो द्वितीय-मङ्गं समाङ्गल्यविधानयोगात् । ततोऽपि शिष्याध्ययनादिशास्त्र-संशोधनादि क्रियते स्वशक्त्या ॥७३।। श्राद्धैर्जिनस्नात्रविधिर्महीयान्, विधीयते प्रौढतयोत्सवानाम् । पूगीफलैः श्रीफलकैर्यथार्ह, प्रभावनाऽप्यात्मनि भावनायै ॥७४।। अथ क्रमाभ्यागतमब्दपर्वा-ऽप्याविर्भवद् भावनया नयाढ्यम् । सर्वाङ्गभाजां वधसन्निषेधा-ज्जीवानुकल्पं भुवि संचचार ।।७५।। नवक्षणैः कल्पितवस्तुदान-कल्पद्रुकल्पस्य च निर्विकल्पम् । श्रीकल्पसूत्रस्य विबोधनेन, चेतोजनानामतिमेध्यमासीत् ॥७६।। भवाब्धिसन्तारणपारणाभि-स्तथा मिथः क्षामणकारणाभिः । चतुर्विधैः पौषधधर्मकृत्यै-र्गान्धर्वलोकस्य सदाननृत्यैः ॥७७॥ सप्तोत्तरैस्तैर्दशभिः प्रभेदैः, सर्वत्रतीर्थेश्वरपूजनाभिः । षष्ठाष्टमद्वादशपाक्षिकाद्यै-स्तपोभिरक्षोभितया ह्यशोभि ॥७८॥
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जान्युआरी - २०१३
एवं हि सोत्साहधिया विधेय-धाराशुभाराधनतत्परासीत् । यज्जायते धार्मिककर्म तत्र, निर्विघ्नता श्रीगणभृत्प्रभावात् ॥७९॥
इति समाचाराः ।
अथ श्रीपरमगुरुपरमेश्वरवर्णनम् । यथाश्रीमानयं विजयतां विजयप्रभाह्नः, सूरीशिता विनयसृष्टिपितामहश्रीः । यस्तात्त्विकः सकलसात्त्विकमौलिरत्नं, निर्वाहसाहसमतिः प्रतिपन्नकार्यम् ॥१॥ जानीमहे न खलु सूरिवरः पुराऽभू-न्नाग्रे भविष्यति विशिष्यगुणैर्गरीयान् । नैवाऽस्ति कश्चन जनस्पृहणीयकीर्ति-र्यस्तुल्यतां भगवतः कलयापि धत्ते ॥२।। नैके गुणा भगवति प्रकृतिस्थिरत्वं, शौर्यादयो दधति लक्षश एव साक्षात् । येषां स्तुतौ सुकवयः सततोद्यमेन, पाठेऽब्दकोटिविगमेऽपि न यान्ति पारम् ॥३॥ संवीक्षणाद् भगवतः कृपया क्षणेन, मूल् विचक्षणजयी शुचिलक्षणेन । भूपायतेऽद्भुतरसात्तरसा वराक-स्तल्लक्षणेन कलितोऽपि विलक्षणेन ॥४॥ तद्वर्णनासु गुरुरप्यगुरुत्वमेति, स्वर्वासिनामतिपरिश्रमगर्वहान्या । किं तत्र पाटवघटा बत मादृशानां, संजाघटीति रसहेतुरनीदृशानाम् ॥५॥ न्यस्तोऽपि यः शिरसि सर्वसुखोपनेता, नृणां भवेदनुभवेन समं जयानाम् । हस्तः प्रशस्तिपदमस्तु सवस्तुगत्या, शस्तः समस्तविधयाऽपि विभोर्जगत्या ॥६॥ स्पर्शाश्मनः सपदि मर्शनतो यथा स्यात्, कालायसं सकलया कलयाऽपि हेम । नूनं तथा भगवतः करसन्निधानात्, मादृग्जनः सकलपाठकचक्रवर्ती ॥७॥ यान्त्यापदः प्रतिपदं भुवि सम्पदोऽपि, प्रादुर्भवन्ति महसा सहसानुषङ्गः(?) । निस्संशयं किल शयं शिरसा निधत्ते, यः स्वामिनः प्रशमिनः प्रथितस्य तस्य ॥८॥ पड़े निमग्नवपुषः पुरुषस्य यस्य, मुद्धा हितः प्रभुकरः प्रकरः प्रभायाः । नायासतः स्वत इवोद्धरणं तदीयं, संजायते लघुतयैव रजो विधूय ॥९॥ संतारणाय भगवन्! भववारिराशे-रासेवितः शिरसि येन करस्त्वदीयः । स स्याज्जनः परमपारगतस्त्रिलोक्यां, यो यादृशोऽस्य किल सङ्गतिरेव तादृक् ॥१०॥ यस्योच्चकैः प्रभुकरः शिरसोऽग्रदेशे, मौलिप्रभां कलयति प्रसरन्नखाचिः । पाणिग्रहं स भुवनप्रभुतारमायाः, कर्तुं प्रवृत्त इव गीयत एष लोकैः ॥११॥ राज्याभिषिञ्चनविधाविह हस्तिहस्तः, सर्वस्य वश्यकरणं धरणीमृगाक्ष्याः । तत् सूरिहस्तिवरहस्तकृताभिषेक-श्छेकः परं वरयिता भवति त्रिलोक्याः ॥१२॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
पञ्चाङ्गुलिललितचित्रकरः प्रभूणां, यस्यैव मूनि कुरुते रुचिसन्निधानम् । पञ्चाङ्गुलिस्त्रिदशनायकशक्तिदेवी, मूर्त्तव तस्य कुरुते भुवि सन्निधानम् ॥१३॥ छत्रायते गणपतेस्तु करो यदीये, शीर्षे निरस्य सुचिरस्य दृढानुतापम् । तस्याऽतिशायिमहसः प्रभुता सुराणां, वश्या जनस्य भवतीति न तत्र चित्रम् ॥१४॥ श्रीमद्गुरोर्गणभृतः करपङ्कजस्य, माहात्म्यमुज्ज्वलतरं भुवनत्रयेऽपि । यत्स्पर्शनाद् भवति तत्क्षणतो गणेशः, प्रौढः कविः कविरपि प्रभया गणेशः ॥१५॥ एकः कविः समभवज्जगदीश्वरस्य, नाभ्यम्बुजाज्जगति सोऽपि परं पुराणः । गच्छाधिनाथ! भवतो वरपाणिपद्मा-न्नैके पुनर्नवनवाः कवयो भवन्ति ॥१६॥ शीर्षे धृते भगवता निजपाणिपझे, तेजः समुल्लसति यद् भुवनेऽप्यसह्यम् । पुंसस्तथाऽन्तरतमो विनिहन्ति सद्यः, सख्यं तदस्य रविपाणिपयोरुहास्ते ॥१७॥ पूष्णा धृतेः स्वकरयोः सरसीरुहे द्वे, याभ्यां न जाड्यहरणं क्रियतेऽत्र तादृक् । श्रीमद्गुरोः शिरसि सन्निहितं कराब्जं, जाड्यं निहन्ति सुधियां हृतमेव यादृक् ॥१८॥ व्याप्ते कलेरतिबले विबले बलद्विड्, मुख्ये सुरासुरबले विकलेऽपि मन्त्रे । जाग्रत्प्रभावभवनं भगवत्कराब्ज-मद्यापि शीर्षनिहितं जगतो विभूत्यै ॥१९॥ नालं स्थिरः परिमल: कमलस्य यस्य, पङ्केरुहं भवतु तज्जडताविधायि । पाण्डित्यहेतुभगवत्करपद्ममन्य-दामोदशालि नितरां कमलाविलासात् ॥२०॥ सूते यशांसि कुरुते गुरुते[ज]साढ्यं, धीरं जनं मतिमतामतिशायिलक्ष्मीम् । दत्तेऽष्टधा सपदि सिद्धिमतिप्रसिद्धिं, पुंसां शिरः स्थितमहो! गुरुपाणिपद्मम् ।।२१।। येषामिदं विजयते वरपाणिपद्म-माहात्म्यमीहितसमृद्धिकरं जनानाम् । तैर्विश्वपूज्यचरणैरवधारणीया, स्वीयानु(ननु?)प्रणमनप्रकृतिस्त्रिसायम् ॥२२॥
[रा.प्रा.वि.जोधपुर, ग्र.नं. २०४१५. पत्रसं. ३ पंक्ति २३, अक्षर ५०, सम्भवतः स्वयं लिखित, शुद्धतम]
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जान्युआरी - २०१३
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उपाध्याय - श्रीविनयविजयलिखित: श्रीविजयप्रभसूरिविज्ञप्तिलेखः
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- विजयशीलचन्द्रसूरि :
यः
स्वस्तिश्रीचारुलोचनाऽऽलोचनाचारुचेतश्चाञ्चल्यचोरिकाचतुरचरणकमलयमलो प्रभुस्त्रिभुवनाश्चर्यकृद्धैर्यचर्यावर्जितेन निर्दम्भदम्भोलिपाणिना महादी रसंज्ञासम्बन्धशोभामम्भोजजन्मनेवाऽम्भोजवनखण्डोऽखण्डसौरभशोभालम्भितो योऽपि च चलननलिनाञ्चलचालनचलाचलचामीकरशिलोपलसहस्रस्खलनोद्भूतप्रभूतकन्दरविवरोदर
प्रचारिप्रचुरसमीरोत्थितनिनादैः प्रचण्डपवनाटोपकम्पमानपण्डकवनपादपप्रकारो
पधेघूर्णमानमौलिनाऽनवरतक्षरन्निर्झरप्रमोदाश्रुप्रवाहार्दितवपुषाऽद्यापि सदधिराज - क्रीडाधिकारधुराधुरन्धरेण भूधरेण तोष्ट्रय्यत इव ।
यश्च शङ्कर इव कामप्रदो दिनकर इव कमलोपलक्षितकरकमलः शिशिर इव सर्वाशाप्रसाधकरुचिः स्वर्ग इव सन्निहितेन्द्रभूतिः सुरसार्थोद्भावकञ्च विमान इव नभोगमनसङ्गतश्चिरत्नरत्नोद्योतरमणीयश्च नभोमार्ग इव भव्यतारकः समुदितज्योतिश्चक्रश्च जलधिरिवाऽनवरतमथनोदको मौक्तिकफलप्रापकश्च जम्बूद्वीप इव मन्दरागोपासितः सभारतजनश्च मन्दराग इव भद्रसालसहितोऽनल्पकल्पफलदश्च कल्पफलद इव सुमन:सहस्रपरिचितः सुप्रतिष्ठितमूलगुणश्च पद्मह्रद इव सश्रीक: परमकमलाकलितश्च पाताललोक इव सदानवर्द्धिः सदाभयशोभा [भा]सुरश्च ।
यं च त्रिभुवनतिलकायमानमानमज्जनमानसमानसमरालमरालकालव्यालकलाकवलनभा(?)केकिलालसमलसमलद्मा (?) ङ्गिदुर्लभं तामरसङ्गतमपि नतामरसङ्गतं सकमलमप्यऽकमलं गतान्तरायमप्यगतान्तरायं समायमप्यमायं परममप्यपरमं कान्तमपि द्विधाऽप्यकान्तं सदासुहितं प्रभुं प्रभूतभक्तिप्राग्भारसंभृततयेव प्रणता अन्तःकरणभरणातिरिक्ततया बहिरुद्गतैरानन्दरसनिस्यन्दैरिव प्रमोदाश्रुभिरवलिप्तनेत्रपत्राः प्रतिरोमकूपपरिणतप्रेमप्रकर्षेणाऽवपीडितैरिवाऽपनिद्रैः क्वचिद्गन्तुकामैरिवोर्ध्वन्दमै रोमभिरवरुद्धदेहदेशा अहंपूर्विकया समुपासमानाः सुरासुरनरेशाः सरभसपञ्चाङ्गीनमनविगलितावचूलकमलमुकुलमालिकामकरन्दबिन्दुतुन्ददन्तुरिताङ्गुलीयकं प्रणमन्ति ।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
येन च शुक्लध्यानजयकुञ्जराधिरूढेण शमदमार्जवमार्दवाद्यनेकच्छेकविक्रान्त
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कोटीरकोटिसण्टङ्कसंघटितपराक्रमोद्भूतनूतनप्रतापतपनोद्योतितत्रिभुवनेनाऽनल्पसंकल्पातितरलतरतुरङ्गमलक्षखरखुरक्षुण्णक्षमातटोच्छलद्बहलोधं (लोऽन्धं?) करणरजोराजीव्यामोहघोरविकारामन्दमाद्यन्मदनदन्ताबलबलव्यालुप्यमानासमानसंवरप्रकाराः प्रोन्मत्तनितम्बिनीकिरातचक्रवालकरालशरपरम्परासारजर्जरितनिर्जराप्रकारा भयङ्कराकारा मोहचमूः स्याद्वादेनेव दुर्वादिवृन्दवरूथिनी चूर्णयांचक्रे, बभ्रे च कैवल्यलक्ष्मीरक्षीणवैभवेन भवेनेव भवानी नवानीतसौहार्दा हार्दात् प्रणयतः पेशलाशया । यस्मै च विस्मेरपराक्रमाक्रान्तत्रैलोक्यसंक्रामोऽप्यनादिकालोपक्रान्ताकाण्ड
प्रकाण्डताण्डवाऽम्बरविडम्बिताखण्डपाषण्डमण्डलोऽपि हेलावहेलितहेलिहरिहरादिसुरासुरनरोरगेश्वरोऽप्यन्तरङ्गारिप्रकरो जयपताकां दत्त्वा काकनाशं नश्यन् परमैश्वर्यं ददौ ।
खण्ड १
चित्रं च पर्वतादिव सरित्प्रवाहा नन्दनादिव सुरतरुप्ररोहा रोहणादिव नूलरत्नाङ्कुरनिकरा उदयगिरेरिव रविप्रभाप्रासाराः सहकारादिव सदाकारा: फलविकारा जलधरादिव मधुरोदकधारासाराः काननादिव चित्रप्रसूनप्रकाराः प्रगुणगुणगणादिव गुणज्ञलोकास्तोकसत्काराः प्राक्कृतसुकृतशतसम्पर्कादिव शुभोदर्काः सम्पद्विस्ताराः यस्मादुद्गताः क्रमनन्दिनोऽद्याप्यनवद्यविद्याविनोदा: प्रमोदयन्ति विदुरचेतांसीति ।
यस्य च कनकनलिनगर्भगौरस्य करणकिरणनिकरो नाकिनायकप्रकरकरकमलकल्पितानल्पकश्मीरजद्रवाङ्गरागसुभगो दीप्रप्रभाप्राग्भारभासुरे भामण्डलेऽवतीर्णः सुवर्णस्य प्रज्वलज्ज्वलनोज्ज्वलज्वालाकलापकवलनक्षीयमाणमलकलङ्कस्य स्पर्द्धामिव सन्दधाति ।
यस्मिंश्चानुत्तरब्रह्मचर्यचर्यार्जितार्जुनयश:सम्भारसारघनसारसुरभीकृतजगति हृदि कैवल्यश्रिया मुखे सोमश्रिया वपुषि सौन्दर्यश्रिया सर्वतस्तीर्थकरश्रियेत्येवमनेकाभिः पुरन्ध्रीभिरसापत्न्यं वसन्तीभिरचित्रीयन्त जनाः । श्लोकाश्चात्र
संसारोदरकन्दरादर भरक्रूराद्विनिर्गच्छतां
सन्मार्गस्थितिदर्शनाय वचसां वृन्दानि योऽरीरचत् । दिव्यर्द्धिर्विजयार्द्धपर्वतगुहाभूच्छायखिन्नात्मना
मालोकाय सुमण्डलावलिमिव क्ष्मामण्डलाखण्डलः ॥१॥
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जान्युआरी - २०१३
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यं प्रत्यग्रसहस्रदीधितिमिव प्राप्ताद्भुतप्रातिभा, योगीन्द्रा हृदये निधाय विधिवद् ध्यानावधानक्षणे । मूलादुद्दलयन्ति दुर्दिनदशोदग्रं प्रदोषोदयं, पश्यन्ति द्रुतमेव विस्तृतचिदालोकां त्रिलोकीमपि ॥२॥ येन स्वीयपदार्पणेन चलितो मेरुः सदानिश्चलः, तच्चाञ्चल्यचणं च चित्तमचलं चक्रे चिदुद्योतिना । तन्ना[श्चर्यमवार्यवर्यजगदैश्वर्यप्रथाशालिनां, चर्यैषैव यदृच्छया किल गुणैर्वस्तूनि यद् योजयेत् ॥३॥ यस्मै स्मेरपराक्रमाय विकृताकाराः क्रमैरक्रमैः, क्रामन्तोऽपि दिशादशप्रतिभटास्ते मोहमारादयः । द्रुह्यन्तोऽतिकृशा दशामपदशस्नेहप्रियाणामगुः, प्रत्यूषप्रसरन्महःसखमदो राशिप्रलुप्तत्विषाम् ॥४॥ यस्मादुद्गत एष सङ्गतवचोनिःस्पन्दबिन्दूदितासारस्फारपयोधरादिव जगत् सत्पुष्करावर्तकात् । तापव्यापमपास्य जस्यति रयादन्तर्गतां रूक्षतां, संप्राप्यापि च बोधिबीजमनघांस्तानुद्गिरन्त्यङ्करान् ।।५।। यस्याऽद्यापि यशांसि दुग्धजलधिस्पर्द्धानि वर्द्धिष्णुभिस्त्रैलोक्यं सुखयन्ति पर्वतशिरस्तुङ्गैस्तरङ्गोत्करैः । अन्तर्निर्मलयन्ति कर्मरजसां निर्मूल्य मर्माण्यहो !, धर्मं संघटयन्ति भव्यविदुषां शर्मोम्मिकिर्मीरितम् ॥६॥ यस्मिन् विस्मितविश्वमीश्वरशतस्तुत्यक्रमाम्भोरुहे, पूर्ण ज्ञानमनाविलं लसदुरुज्योतिस्तदुज्जृम्भते । यस्यैकांशलवं स एव निखिलो लोकः क्रियान् किन्त्वसौ, नालोकोऽपि रुणद्वितुच्छकणिकारो[धो?] निमज्जद्वपुः ॥७॥
तं श्रीमन्तं श्रीमन्तमनन्तातिशयनिधानं स्वचरणशरणागतानेकविवेकिलोकविपन्निराकरणसावधानं सकलपुरुषप्रधानं श्रीवर्द्धमाननामानमसमानमहिमानमर्हन्तमुदग्रधामानमानम्य । यत्सकलभुवनमण्डलसारनिचयैरिव विरचितं विचारचतुरेण विरञ्चिना नानाकलाकलापकुशलावतंस-चातुर्यनिर्जितराजहंससकलकौविदकुलप्राप्तप्रशंसस्त्रीपुंसाद्यमितसंचरत्सचेतनरत्नलक्षलक्ष्मीलभि(लि)तं
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
केवलमुपलशकलैरेव रत्नाकरत्वाभिमानितया लज्जितेन पूज्यत्वधिया प्रदक्षिणीक्रियमाणमिव तादृगभ्रंलिहगृहव्यूहतुङ्गशिरःशृङ्गशृङ्गारकेतुपताकाचञ्चलाञ्चलचालनात्तर्जितेन भीतेन चानुनीयमानमिवाऽनेकसारपदार्थाकरत्वाऽगाधत्वादिधर्मसधर्मस्वसुहृत्सङ्गमात् प्रीतेन परिरभ्यमाणमिव विष्णुवक्षोऽम्भोजादिनिवासस्थाने अनवस्थितचित्तायाः स्वतनयायाः स्तवैः स्तूयमानमिव भगवता रत्नाकरेण अगाधपातालकलशीकुक्षिनिक्षिप्तस्याऽम्भोधिगोरसस्याऽहर्निशं प्रसरत्समीरणोद्दण्डदण्डेन तथाविलोड्यमानस्य नवनीतपिण्डापितं सारपिण्डमिव पिण्डितं पण्डितेन विधिना प्रयत्नपरैरपि चतुरैरलब्धपारं हृदयमिवाऽम्भोधेः अत एवासौ महाशयो गम्भीराणामादिनिदर्शनतया दर्श्यत इव कविवृन्दवृन्दारकैः दयां(या)दानोदारस्वदारसन्तोषि साधुसाधर्मिकस्वजनपोषि सत्यशीलशौचाद्याचारविचारचातुर्यहारि प्रथमयुगा(ग)जनानुकारि व्यवहारिश्रेणिरमणीयम् ।
पुनरपि कृतयुगं सिसृक्षुणा परमेश्वरेण कलियुगभयाज्जलदुर्गगर्भे स्थापितं नानाजातीयतादृक्सद्वस्तुबीजभाजनमिव, भुवनमण्डले परितः परिभ्रमणशीलाया अनवस्थितमन्दिराया भगवत्या इन्दिरायाः पितुरुत्सङ्गन्यासीकृतं सर्वस्वनिधानमिव यद् विराजते नलिनमेव कमलाश्रितं, कमलामुखमिव पुरुषोत्तमनेत्रोत्सवदायि पुरुषोत्तमनेत्रमिवाऽनवरतं विततज्योतिर्वलयवयितं(?वलयितं?) सतीहृदयमिवाऽदत्तपरदर्शनं दर्शनमिव दूरोत्सारितमिथ्यावादं हारवलयमिव सगुणनायकं राजगृहमिव कृतसुकृतश्रेणिकामदजनाभयकुमारवैभवं दिव्यर्द्धिभोगिशालिभद्रशोभितं च, किं बहुना ? यत् केवलं सौन्दर्यमयमिव रत्नमयमिव सम्पन्मयमिव महोत्सवमिव चित्रमयमिव मित्रमयमिव पुरन्दरमयमिव रम्भामयमिव रत्नमयमिव सुखमयमिव सन्तोषमयमिव इत्येवमनेकरूपतया दिव्यानुभावादिवैकरूपमप्यालोककलोकानां विकल्पशतकल्पनाहेतुतामाकलयति, यच्च प्रतिदिनमनेकजनपदागतापूर्यमाणचित्रकृत्प्रशस्तवस्तुस्तोमविस्तारविलोकनविहस्तसारविहस्तविपर्यस्ततुरगरश्मिना रथेन शनैः शनैरतिक्रामन् मिहिरो दिनानि महयति, लघयति च कदाचिद् विलम्बभयात् प्रसह्य चेतोहरं यद् दूरत: परिहत्याऽतिक्रामन्निति तर्कयामि, येन च स्वसम्पन्महिमापमानिता नैकस(?)नगरी गलावलम्बितत्रिकूटाचला मुमूर्षुरिव पयोधौ पतितवती, अपि च नाकनायकनगरी गरीयस्तिरस्कारदुःखार्ता सत्यमेव दिवंगता जातवती, पन्नगपुरी च प्रत्यग्रभाग्यपरभागप्राप्तयत्प्राकारचरणशरणा सुखमास्ते,
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जान्युआरी - २०१३ यस्मै च स्पृहयन् महेश्वरोऽपि सितभसितोद्धूलितशरीरकरवीरनिवासी जटिलमस्तकविन्यस्तद्विजपतिपादः सुरशैवलिनीसलिलविमलीकृताङ्गश्चिरं दुश्चरं तपश्चचार, अनुपार्जिततादृक्सुकृतश्च निराशो गरलं कवलयांचकारेत्यवैमि, अद्भुतं च किमिह?, यस्मात् समुद्गतः समुद्गत इव कस्तूरिकायाः पुरन्दरानुकारिव्यवहारिविहितकर्पूरकुङ्कमाद्यनेकसुरभिद्रव्योद्वर्तनविलेपनजन्मा परिमलः समुल्लासितनासापुटैः पथिकैरापीयमानोऽपि परमप्रकर्ष प्राप, बहिरपि विचकिलचम्पककेतकमल्लिकादमनकाद्यनेकप्रसूनानूनवनसौरभद्वैगुण्यप्रागुण्यादिति, यस्य च विशुद्धसुधाधामधवलिमापध्वस्तसुधांशुमहांसि प्राकारशिरांसि घनाघनपटलमलीमसे नभसि केशववक्षसि व्यामुक्तमुक्ताफलकलापकलामाकलयन्ति, प्रासादा अपि स्वनिवासिलोकसम्पर्कसंक्रान्तपरोपकृतिप्रकृतय इव हिमकरदिनकरमण्डलक्रोडक्रीडत्केतुनिकुरम्बकैतवेन कलावतः कलङ्कपङ्कमपनी(नि)नीषव इव ता(त?)पनस्य तापमपजिहीर्षव इव द्वयोरप्यनयोनिरालम्बनगगनमार्गाध्वनीनयोः श्रमधर्मोदकरजांसि निराचिकीर्षवः विभान्ति, यस्मिंश्च निरन्तरं निवसन्त्यै स्वतनयायै सुखासिकाशकटानीतनैकक्रयाणककोटिपूर्णानि यानपात्राणि प्रत्यब्दं प्रापयति वारंवारमवारपारः परमेश्वरः । भवन्ति चात्र श्लोकाः - यत्सारभूतं भुवनत्रयस्य सर्वस्वमिन्दीवरमिन्दिरायाः । रत्नाधिकत्वान्महनीयबुद्ध्या रत्नाकरेण प्रतिपत्रपादम् ॥१॥ यद् वीक्षितुं स्व:पतिरप्यजस्रं सहस्रमणामनिमेषशालि । क्षिपन्ना(क्षिपन्?) प्रतीची प्रति तां दिवं च, प्राची च लज्जामलिनां करोति ॥२॥ येनाऽमितश्रीसुकृतार्जु(ज)नेन विश्वम्भरा भूरिभरातुरापि । ऊध्र्वं दिवोऽपि स्फुटतां प्रपन्ना परं पुरोपार्जितभोगभाजः ।।३।। यस्मै नमस्यन्ति न के विवेक-च्छेकैरनेकैः कृतिभिर्भूताय । श्रीमत्तपागच्छपतिक्रमाब्ज-रजःपरागद्युतिपाविताय ॥४|| यस्मादवाप्याऽमि[त] रूप्यराशीन् दिक्षु व्रजन्तोऽर्थिजना विभान्ति । श्रद्धावतां दान-यशांसि वप्तुं बीजप्ररोहानिव सन्दधाना ॥५॥ यस्योपमा नास्ति महीतलेऽद्य धर्मैकधाम्नः स्फुटभद्रदाम्नः । दूरोज्झितस्याऽन्त्ययुगेन वार्द्धि-मिवोत्तरीतुं ब्रुडताऽसहेन ॥६॥ यत्रेभ्यलोकाः स्फुटमेव देवाः स्थानान्तरोपार्जितपुण्यपण्याः । सौधाग्रवासाश्च धराप्सरोभि-वृताः कलाकोमलकम्रकायाः ॥७॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तत्र श्रीमति विश्वाच॑-विहारवितरेन्दिरे । मन्दिरे सम्पदां शश्वत् श्रीमति द्वीपबन्दिरे ।।८।।
___यन्मुकुरबिम्बमिव वसुन्धरावध्वाः प्रतिबिम्बमिव नाकिनायकनगरस्य निधानमिव समस्तशस्तवस्तुस्तोमानां साम्राज्यमिव धर्मनरेन्द्रस्य हृदयमिव त्रैलोक्यस्य सर्वस्वमिव सौन्दर्यस्य उत्पत्तिस्थानमिव चातुर्यरत्नस्य । यत्र च केचिदट्टा मरकतमणिमयकुट्टिमप्रतिष्ठितनानारत्नराशितया विपुलतया च स्फुरत्तारकनभोविभांति(भ्रान्ति) बिभ्रति, केचिच्च समुद्गतन्दुलगोधूमनिस्तुषतुवरीराशितया पर्वतायितं घृततैलकूतूश्रवत्प्रवाहतया च निषधनिली(नील)मेरुवैताढ्योपशोभितमनेकपर्वतश्रवत्तरङ्गिणीप्रवाहं च मनुष्यक्षेत्रमेव कुक्षिगतीकृतं व्यञ्जयन्त इव विभान्ति, केचिच्च हाटकशिलाघटिता मणिसुवर्णनाणकगणनोद्भूतठकाराराविणो दारिदोषोपद्रवविद्रवाय मन्त्रवादिन इव विराजन्ते । ततः श्रीरामनगरात् शिशुविनयविजयस्सविनयं सप्रणयं प्रोद्भूतप्रभूतप्रेमप्रकर्षप्रोत्फुल्लपुलकाङ्करनिकुरम्बकरम्बितशरीरः स्वललाटतटसङ्घटितकरकमलकुड्मलयमल: सप्रपञ्चपञ्चयमभावनाप्रमितावश्यकशालिवन्दनेनाऽभिवन्द्य विधिवद् विज्ञप्तिपत्रमुपदीकुरुते यथाकृत्यम् ।
__ अत्रोदयगिरिशिरःकाननक्रोडविहारिणि जगज्जनारुन्तुदतमःस्तोमापहारिणि विद्रुमाङ्करनिकरन्यत्कारकारिकिरणाभरणहारिणि भगवति भानुमति समुदिते, समुदिते च धर्मशुश्रूषासमुल्लसदुल्लासशालिनि नैकग्रन्थावगाहनश्रवणोद्भूतविशुद्धमेधासावधाने सभ्यलोके, एकादशाङ्गस्वाध्यायपरिपाटीप्राप्तपञ्चमाङ्गस्वाध्याय-द्वितीयाङ्गव्याख्यानन्तरक्रमागतस्थानाङ्गव्याख्यान-साधुसाध्वीप्रारब्धाध्ययनाध्यापनादिधर्मकर्मकदम्बके सुखं समेधमाने, क्रमागतं श्रीपर्युषणापर्वापि सुपर्वार्पितप्रौढप्रतिष्ठं जिनभवनप्रारब्धसप्तदशभेदश्रीजिनार्चाविरचन-सप्रभावप्रभावनाभवन-सनवनवक्षणनवक्षणश्रीकल्पसुबोधिकावाचन-सार्मिकवात्सल्याद्यतुच्छोत्सवच्छटासच्छायं निरपायं निरमायि । वर्तते च कुशलमविकलं श्रीमज्जगन्महनीयचरणस्मरणप्रसत्तेः । अपरं -
येऽभङ्गवैराग्यरङ्गवासितान्तःकरणाः करुणापरायणा अशरणानेकजन्तुजातशरण्याः स्मरयन्ति पुरातनमुनीन्, ये च चक्रवर्तिन इव विजितसर्वविषयग्रामा नृपसहस्रसेविताश्च, तापसाश्रमा इव सुव्रताश्रिताः सर्वजीवाभयदानवदान्याश्च, समृद्धग्रामा इव बहुधान्यसुखदायिनः सगोरसाश्च, आरामा इव सगुप्तयः शुभफलदाश्च, सुरविमाना
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जान्युआरी - २०१३
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इव लसद्विहाराः सकामनिर्जराश्च, आत्मान इवासुरता ज्ञानोपलक्षिताश्च, पोता इव महागुणाः सितपटपरिवृताः तरणतारणसमर्थाश्च । यांश्च विश्वाश्चर्यकृच्चरित्रपवित्रात्(?न्) प्रचुरप्रीतिभाजो भु(भू)भुजो 'वसुमति! दृष्टः स्पृष्टः कदाचित् क्वचिद्वा त्वयेदृशो महापुरुष'इति प्रष्टुमेव भून्यस्तमस्तकवदनकरकमलाः प्रणमन्ति, यैश्च पञ्चभिः पाण्डवैरिव विषयैरुपघातव्यतिकरे व्यवसितेऽपि केवलं स्वपराक्रमेणैव नरसिंहेनैव नीरनिधिनिस्तीर्णः संसारो निस्तीर्य च निर्भत्स्य(W?) नितान्ताविनीता(तां)स्तानिव तांस्तदधिकरणं रथ इव मोहचूर्णितः, येभ्यश्च द्रुह्यन्तः कषाया यत्सत्तावच्छेदकतावच्छिन्नानि जनान्तष्करणान्यपि व्यतीत्य वर्तन्ते, येभ्यश्च समुद्भूतः सम्भूत इव कर्पूरकर्दमितः क्षीराम्भोधिः सुरभयति भुवनानि सत्यशीलशौचसंवरसंवेगादिसमुद्भूतो यशोविस्तारः, येभ्यश्चाऽद्भुतलावण्येभ्यो नैकविधज्ञानादिगुणरत्नाकरेभ्यः साधितस्वरसाः समुद्रादिव घना गर्जन्तः प्रीणयत(न्त)श्च जना जगन्ति विहरन्ति, येषां चाऽगण्यान् गुणगणानसंख्यतारकाचक्रवालकैतवेन गणयतीवाऽरविन्दजन्मा, जलदश्च प्रत्याषाढगणनाय गर्वितो गर्जन्नुपैति गणयंश्च प्रत्यहं बिन्दुभिरनियूंढप्रतिज्ञतया जनोपहासैरिव धवलितशरीरः शरदि जनादृश्यतां गच्छतीति शङ्के, येषु च त्रिभुवनैकमल्लकामक्रोधाद्यन्तरङ्गाऽसहनविजयसुभगम्भावुकः पराक्रमः क्षमाऽनुकारिणी क्षमा च, उद्दामोन्मादिजगद्विदितवादिवादमदनागनागदमनीविद्या विमदता च, सदाचरणाचरणसंप्रवृद्धो जनानुरागः स्फारसम्पदवगणनपटुर्विरागश्च । श्लोकाश्चात्र -
शुभध्याननिस्तष्टकर्माष्टकाय यशोमण्डलैर्विष्टपावेष्टकाय । गुणैः सात्त्विकैहींणविश्वम्भराय नमस्ते तपागच्छभूमीश्वराय ॥१॥ कलाकेलिमत्तेभपञ्चाननाय शिवस्वर्दुमस्वःसरित्काननाय । अकम्प्राशयन्यग्भवन्मन्दराय नमस्ते तपागच्छभूमीश्वराय ॥२॥ जगज्जन्तुजीवातुसद्दर्शनाय सशोभीकृताशेषविद्दर्शनाय । अविश्रान्तक्लृप्ताप्तधर्मादराय नमस्ते तपागच्छभूमीश्वराय ||३|| वचश्चातुरीस्फारसारासिधारा-दितोद्दामदुर्वादिवाग्डम्बराय । यशोऽम्भोजभृङ्गीकृतोर्व्यम्बराय नमस्ते तपागच्छभूमीश्वराय ॥४॥ महीभाग्यसौभाग्यवैराग्यधाम्ने प्रभाते जनोद्गीर्णमङ्गल्यनाम्ने । करालेऽपि कालेऽत्र भद्रङ्कराय नमस्ते तपागच्छभूमीश्वराय ।।५।।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
गणनां गणनायक ! कः कुरुते गुणरत्नततेस्तव शुद्धमतेः । वियतः कियतः कलयेन्मतिमान् भगणानुत वारिदबिन्दुकणान् ॥६॥ सदनं सदनन्तमहामहसां वदनं वद नन्दितभव्यजनम् ।
हृदयस्य न कस्य वयस्य! गुरोः प्रददाति मुदामुदयं सदयम् ||७|| स हि तं सहितं सहितं लभते विभयो विभयोदयमात्तदयम् । हृदयं सदयं सुगुरुक्रमयो -र्न नया विनयोज्वलमानुते ॥८॥ करुणातरुणाम्बुजिनीकिरणं किरणैररुणैर्विगलत्तमसे । तमसंगमसङ्गतमाननुदं ननु दम्भविवर्जितमाश्रयत ||९|| महिमा नहि मानववाग्विषयो विषयोपरतस्य यतस्य विभोः । नहि ना तुहिनाचलमाकलये - दवधृत्य करेण करेणुमपि ॥ १० ॥ सुकृतफलदश्रेणौ वेणी नवाम्बुधराम्भसां विमलकमलाकेलीलीलाम्बुजव्रजवापिका । सुखशतपयोधेनुस्ते नु प्रभो ! प्रभयोल्लसद्विभव ! भगवन् ! सेवा देवाधिपैरपि दुर्लभा ॥ ११॥ तव चरणयोः सेवाहेवामवाप्य न के जना: द्रुतमभिमतान्यापुः सम्पद्बधूभिरवेक्षिताः । क इह मतिमान् गङ्गां भृङ्गाङ्गनाकुलपद्मिनीकुलकवचितां प्राप्य स्वीयां तृषं न निरस्यति ॥१२॥ इत्थं ये कविकोटिभिः सुघटितैः स्वर्लोकघण्टारणत्कारस्फाररसैर्नितान्तमधुरैर्गद्यैश्च पद्यैरपि । नूता नूतनपुण्यवैभवभवत्सौभाग्यभाग्योदय - स्फीतश्रीतपगच्छराज्यकमलासंश्लेषशोभाभृतः || १३ || तैस्तातपादैर्गलितप्रमादै गम्भीरनादैर्जितवादिवादैः । दत्तारिसादैर्मयि सुप्रसादै-विश्वार्घ्यपादैः करुणां विधाय || १४ || स्वाङ्गान्तिषद्वर्गशरीरवार्त्त वार्तोल्लसल्लेखवरार्पणेन । प्रमोदनीयः शिशुलेश एष विशेषतोऽशेषसुखाद्युदन्तैः ॥ १५ ॥ मम प्रणामस्त्रिगुणस्त्रिसायं सदाऽवधार्यो महनीयधुर्यैः । स चानुपूर्वाऽन्तिषदां प्रसाद्यो यथाक्रमं विक्रमशक्तिसिंहैः ||१६||
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खण्ड १
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जान्युआरी - २०१३
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श्रीमद्वाचकमुख्या विनीतविजयाभिधा गुणाम्बुधयः । श्रीशान्तिविजयवाचक-कोटीराः शान्तिशुचिमनसः ॥१७॥ श्रीमेघविजयविबुधाः विबुधाः श्रीअमरविजयनामानः । श्रीरामविजयविबुधाः विबुधाः श्रीमतिविजयाभिख्याः (यसंज्ञाः) ॥१८॥ श्रीजसविजया विज्ञा विज्ञाः श्रीरामविजयनामानः । श्रीतत्त्वविजयगणयो मुनयः सौभाग्यविजयाख्याः ॥१९॥ इत्यादिमुनिवराणां साध्वीनामनुनतिः प्रसाद्या मे । अत्रत्या अपि विबुध-श्रेष्ठा आणंदविजयाख्याः ॥२०॥ जिनविजयाभिधविबुधा गणयोऽपि च कनकविजयनामानः । कान्हर्षिमुनिप्रवरा गणयोऽपि च कान्तिविजयाख्याः ॥२१॥ नेमिविजयाख्यगणयो गणयो रत्नाह्वयाश्च ऋद्धिमुनिः । इत्यादिसाधुवर्गो नमति साध्व्यश्च वश्चरणान् ॥२२॥ एषां च नत्यनुनती प्रसादनीये यथार्हमन्तिषदाम् । श्राद्ध श्राद्धीसङ्घस्या-त्रत्यस्य च वन्दनाऽवधार्याऽऽर्यैः ।।२३।। झूणं क्षन्तव्यमिहा-ऽक्षीणो धार्यश्च मयि कृपास्नेहः ।
मार्गाश्वेताष्टम्यां भृगावदो लिखितमिति भद्रम् ॥२४।। पूज्याराध्यसकलभट्टारकसभाम्भोजाक्षीभालतिलकायमान-श्रीतपागच्छाधिराजभट्टारक
श्री श्री १०५ श्रीविजयप्रभसूरीश्वरचरणाऽब्जानाम् ।।
विनयविजयलिखित विजयप्रभसूरिविज्ञप्तिलेख पत्र ३
डा. १९७ नं. ८००९ हेमचन्द्राचार्य भण्डार, पाटण
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
(१०) जीर्णदुर्गस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति सिद्धपुरतः श्रीउदयविजयस्य लेख:
__ - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्ति श्रीपार्श्वनाथस्य, पदपद्मनखांशवः । विस्तारयन्ति तरणेः, प्रकाशमिव भानवः ॥१॥ [अनुष्टुप्] त्रयी धर्मार्थकामानां, यदुपास्तिलतासुमम् । तत्फलं पुनराख्यातं, कैवल्याद्याः श्रियोऽखिलाः ॥२॥ श्रद्धामात्रमपि प्रोच्च-यंत्र सौख्यनिबन्धनम् । तद्युक्ताया उपास्तेस्तु, फलं केन प्रमीयते ॥३|| ज्ञानदर्शनचारित्र-त्रयी यस्मिन्ननावृता । इन्दौ द्योतित्व-सौम्यत्वा-ऽऽह्लादकत्वत्रयी यथा ॥४॥ यस्मादाविरभूत् पापो-पशामकगुणोऽद्भुतः । वार्दलानावृतस्यांऽशो-रिव पङ्कप्रशोषिता ॥५॥ अनावरणरूपाय, तस्मै भगवतेऽर्हते । श्रीमते पार्श्वनाथाय, नमः शाश्वतसम्पदे ॥६॥ एनमेनस्तमःस्तोम-निराकरणभास्करम् । सर्वातिशयसम्पन्न, प्रणम्य परमाशयम् ॥७॥ धनं धान्यं हिरण्यं च, मणिमाणिक्यजातयः । पयांसीव पयोराशौ, यत्राऽसङ्ख्याः पदे पदे ॥८॥ गृहे गृहे विराजन्ते, यत्र रामा रमा इव । ईहमाना यथाभीष्टं, पुरुषोत्तममुत्सुकाः ॥९॥ परिभूता अपि परै-रुच्चाः स्युरुपकारिणः । ध्वजाहतोऽपि यच्चैत्य-कुम्भाभापूरकोंऽशुमान् ॥१०॥ चन्द्रकान्तगणाश्चन्द्र-शालायां यत्र मण्डिताः । भृशं स्निग्धा इवाऽऽभान्ति, राज्ञा सिक्ताः किलाऽमृतैः ॥११॥
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जान्युआरी - २०१३
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गगने च पुरे चाऽपि, तारकैर्मणिभिर्भूते । सौम्यो नीत्या च कौमुद्या, राजा चित्तदृशोः प्रियः ॥१२।। यत्र कर्पूरकस्तूर्य-श्चूर्णिता अपि भोगिभिः । कुर्वते भृशमामोदं, महतां रीतिरीदृशी ॥१३॥ टङ्कच्छिन्नं कषारूढं, तापितं च पुनः पुनः । यत्र स्वर्ण महामूल्यं, सेयं सुजातरूपता ॥१४॥ निशायामपि रत्नानि, सुप्रकाशानि यद् गृहे । व्यालुप्यन्ते न तमसा, नूनं सेयममूल्यता ॥१५॥ श्रावकश्राविका यत्र, धर्मकर्मणि कर्मठाः । चकोरा वा चकोर्यो वा, श्रीपूज्यशशिदर्शने ॥१६।। भरतैरवतप्राया-ण्यन्यक्षेत्राणि मन्महे । श्रीपूज्यपावितं क्षेत्रं, महाविदेहभूरिव ।।१७।। नित्यं धर्मार्थकामाढ्ये, श्रीपूज्यपदपाविते । तस्मिन् श्रीजीर्णदुर्गाख्ये, व्यावर्णिते पण्डितैरिति ॥१८॥ अथ श्रीसिद्धपुरतः, पुरतः सुखपूरकात् । अपूर्वचातुरीयुक्त-श्राद्धलोकसमन्वितात् ।।१९।। अप्रमेयगुणापूर्णा-दसङ्ख्येयविधिश्रितात् । बृहच्छीपूज्ययुगली-पवित्रीकृतभूतलात् ॥२०॥ श्रीपूज्यानामिदानीं च, दर्शनोत्सुकमानवात् । श्रावकश्राविकादत्त-यथासमयसौख्यतः ॥२१॥ प्रीतचेता विनीतात्मा, श्रीपूज्यगुणरागवान् । प्रेमपाथोधिरुद्वेल-औत्सुक्यतरुवारिदः ॥२२॥ द्वादशावर्तविधिना-ऽभिवन्द्य प्रणयाञ्चितः । प्रीत्या उदयविजयो, विनीतात्मा तनोत्यमूम् ॥२३॥ विज्ञप्तिं ज्ञप्तिधर्तव्यां, सुदक्षजनकामिताम् । विनयादिगुणश्रेणी-मणीमञ्जूषिकामिव ॥२४॥
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यथाकृत्यं चाऽत्र
व्यतिक्रान्ते निशाध्वान्ते, घातिकर्मणि दूरतः । केवले प्रकटीभूते, सूर्यालोके जगन्मुनेः ॥२५॥ वनाद् वनान्तरं यान्तः, पक्षिणस्त्रिदशा इव । सूर्यांशुकेवलोत्पत्ति, ख्यापयन्तीव सोमाः ॥ २६ ॥ प्रातस्त्यैर्नूतनोद्घोषै-र्हर्षकोलाहलोपमैः । झङ्कृतैर्मधुपानां तु, वीणादीनामिवाऽऽरवैः ||२७|| युग्मम् ॥ इति व्यावर्णनौचित्य-मादधाने समन्ततः । प्रत्यूषसमये जाते, दिक्कन्यानवयौवने ॥२८॥ सप्रभायां सभायां श्री - भगवत्यङ्गवाचनम् । व्याख्याने श्रोतृपुरतः, स्वाध्याये साम्प्रतं पुनः ॥ २९ ॥ ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, वाचनं पाठनं पुनः । पाठार्हाणां तथा योगो-पधानोद्वाहनादिकम् ||३०|| धर्मकृत्यमभूत् सर्वं पर्वपर्युषणाऽपि च । क्रमायाता सती पर्वो - चितसर्वोत्सवोदधिः ||३१|| साडम्बरं सकुशलं, साधुसन्मानिताधिकम् । श्रीपूज्यचरणोपास्ति- स्तत्राऽजनि निबन्धनम् ||३२||
अपरं
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
येषामशेषवैदुष्य-भूषणीभूतधीमताम् ।
गुणाः केनाऽपि नो मेया, ज्ञानिनाऽपि महात्मना ||३३|| एकतो यदि पश्यन्ति, कवयो यान् स्फुरत्तमान् । जल्पनैकेन नो तर्हि, वर्णनां कर्तुमीशते ||३४|| अहो रूपमहो तेजः, काऽप्यहो दक्षताऽद्भुता । अहो औदार्यचातुर्य-धैर्यगाम्भीर्यवर्यताः ||३५|| नम्यता येषु लोकानां, सुदृशां येषु गेयता । ध्येयता येषु धीराणां, वर्ण्यता येषु धीमताम् ||३६||
खण्ड १
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भक्तिपीयूषधाराभि-वर्षणं कर्तुमिष्यते । पुष्करावर्तपाथोद-रूपेण मयकाऽनिशम् ॥३७|| धर्मक्षेत्रेषु येष्वेवं, शस्यसम्पत्तिहेतवे । अतिस्निग्धेन मुग्धेन, रासैस्तैस्तैः प्रसृत्वरैः ॥३८॥ युग्मम् ।। अस्मादृशाश्चकोराभा, येषु चन्द्रेष्विवाऽधिकम् । दधते परमानन्द-मेकपाक्षिकरागिणः ॥३९॥ एकपक्षोऽपि रागोऽयं, क्रमशः सर्वदैधते । अन्तरा यदि नैव स्युः, परे वार्दलवृन्दवत् ॥४०॥ भक्तिरागघनो येषु, समुल्लसति मादृशाम् । पैशुन्यकारिणो वाता, यदि न स्युस्तदन्तरा ॥४१।। यद्वा वाता अपि प्रोच्च-र्मेलकाः सज्जना इव ।
औदीच्याः केऽपि भुवने, वर्षेन्नभ्राट(?) यदीरितः ॥४२॥ युग्मम् ॥ इत्यनेकगुणश्रेणी-जन्यो रागो दिवानिशम् । राजते मादृशां येषु, चक्राणां भास्करेष्विव ॥४३।। तैः श्रीपूज्यैर्जगत्पूज्यै-वन्दना मामकी भृशम् । धर्तव्या मानसेऽन्येषा-मपि सा स्मृतिगोचरे ॥४४।। ढौकनीया तथा श्रीमत्-पूज्यपत्कजसेविनाम् । अनुनामश्च नामश्च, प्रसाद्योऽत्र व्रतस्पृशाम् ।।४५।। तथाहिविनीतविजयाह्वानाः, श्रीवाचकधुरन्धराः । रविवर्धनविद्वांसो, यशोविजयपण्डिताः ॥४६।। गणयस्तत्त्वविजया, अन्येऽप्यज्ञातसंज्ञकाः । ये केऽपि तेषां वतिनां, सर्वेषां पूज्यसेविनाम् ॥४७॥
अत्र चपण्डिता धीरविजया, वीरादिविजया बुधाः । पण्डिता रविविजयाः, शिवादिविजयास्तथा ॥४८॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
जीतादिविजया देव-विजया मुनयः पुनः । जिनादिविजया लाल-पुरे च गणिपुङ्गवाः ॥४९॥ कमलाद्विजयाह्वानाः, सधर्मविजयाभिधाः । ......[अन्ये]षां मुनिरूपाणां, नतिर्धार्या महत्तमैः ॥५०॥ अत्रोचितं प्रसाद्यं च, कृत्यं कृत्यविदुत्तरैः । श्रीमत् - - - - - - - - - - ||५१।। कार्तिकस्य सिते पक्षे, सप्तम्यां भौमवासरे । प्रेम्णा विज्ञप्तिलेखोऽयं, लिखितो रातु मङ्गलम् ॥५२॥ श्रीः ।। किञ्च एषमो यदि धरित्री पावयितारः श्रीपूज्यचरणास्तदा सत्वरं तत् प्रसाद्यं येन मे विवन्दिषा फलवती भवति । श्रीपूज्यचरणानामपि धरित्रीपवित्रीकरणे भूयाँल्लाभो भवितेति पादोऽवधार्यः ॥श्रीः।।
[बहारना भागे-] पूज्यराध्य । भट्टारकसभासरोजराजीराजीविनीजीवितेश्वरभट्टारकश्रीश्री१८श्री विजयप्रभसूरीश्वरचरणसरोरुहाणामियम् । श्रीजीर्णदुर्गे महानगरे ।
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(११) देवकपत्तनस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति जावालत: विबुधनयविजयस्य लेख: (सं. १७१६)
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
स्वस्तिश्रीव्रततीव पादपवरं गौरीव भूतेश्वरं, माष्टुं [स्वं] चपलाकलङ्कमिव यत्पादद्वयं शिश्रिये । कृत्वा तं वरभक्तिनिर्जरनदीकल्लोलपूरं मनः, सिद्धेश्चेदभिलाषिणो भजत तद् यूयं युगादीश्वरम् ॥१॥ [शार्दूल०] स्वस्तिश्रीरमणः स केवलरमासंश्लेषदक्षं सृजन्, स्वीयांहिद्वितयीनतं गतभयः श्रीमारुदेवः श्रिये । मूर्ध्नः पार्श्वयुगे स्म राजतितरां यस्योल्लुठन्ती जटा, रागद्वेषमहाद्विषद्वधकृते खड्गद्वयी किं श्रिता ॥२॥ स्वस्तिश्रीश्रितमुन्मदो मुनिजनध्यानाध्वपाथं स्तुमस्तं श्रीनाभिभवं जिनं भवभवभ्रान्तिद्रुमेभप्रभम् । पृष्ठं यस्य जटाच्छलेन मनसो निष्कासितः शिश्रिये, शृङ्गारो न हि चेद् रसाधिपतितां लेभे तदाऽसौ कथम् ॥३॥
स्वस्तिश्रीरनुपमप्रशमरसोदन्वतोऽपि महोज्ज्वलस्य अवाप्तसर्वबहुमानस्याऽपि मदकणिकयाऽप्यनाश्लिष्टमनसः जगच्चक्षुषोऽपि कुमुदं विकासयतः शिवाश्रितस्याऽप्यभयस्य यस्य विनतसुरासुरनरशिरःकिरीटकोटिविटङ्कावलीढनीलमणिप्रसृमररश्मिनिकुरम्बकरम्बितै—मलहरीदन्तूलैर्दशकाष्ठागतलोककष्टकाष्टभस्मीकरणदक्षैर्वह्निकुण्डैरिव दशदिग्वदनविलोकनार्थं विश्वरेतसा प्रगुणीकृतैर्भूरिदानेन स्वच्छीकृतैर्मुकुरैरिव नखैरुपशोभिते उन्निद्रदशनखचन्द्रज्योत्स्नाभिरिव पुञ्जीभूताभिर्दशदिगाधिपत्यलक्ष्मीविलासदोलाभिरिव सरलाभिरङ्गुलीभिर्विहसितमृणालदण्डे सरजस्कपङ्कजसंसर्गजपातकमपनिनीषुरिव सकलमुनिजनोपसेविते ऐकान्तिकात्यन्तिकशर्मकरणप्रवणे चरणयुगले भगवतश्चिरमुवास ॥१॥
यस्य भगवतः सहस्रकिरणस्येव निरस्तदोषस्य, त्रिनेत्रस्येव वृषभासने
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
सततमनुपरक्तचेतसः, फणिपतेरिवाऽहीनामाधिपत्यलक्ष्मीं बिभ्रतो, गारुत्मती तनुरिव सुपर्णश्रीविस्मापितविष्टपत्रयोदरवर्तिष्णुसकललोकमानसा, सौवर्गप्रदेश इव सुरसार्थविविलासास्पदं, शरदिव घननीरसत्त्वमुत्सारयन्ती, जलदवृष्टिरिव बहुधान्यवृद्धिसम्पादिका, अमृतवल्लिरिव सकलसांसारिकविकारविषनिषेधविविक्ता, विविधदुःखवारिपरिपूर्णदुर्गतिकूपक्रोडब्रुडज्जनोद्धाराय प्रकटिता दृढतरभूयोगुणावगुण्ठिता रज्जुरिव, भक्तिप्रह्नानां सुखेन शिवपथारोहणाय सोपानपङ्क्तिरिव, गुरुणा रसनामृतनिइरिणै(णे)व सहनिवासेनाऽनन्यगम्यां साधुमाधुरीमध्यापिता, सुभट श्रेणीव सङ्गरसङ्गता सती श्रोतृश्रवणान् प्रतिभटानिव मुहुः कम्पयन्ती, सरसेषु श्रोत्रन्तःकरणक्षेत्रेषु प्रीतिप्रोक्षितपारिजाताङ्करविवव (विवर्धनाय श्रवणाध्वनाऽऽगच्छन् पथिपातितविचित्ररेखः सुधाप्रवाह इव श्रोत्रन्तःकरणमुद्रकेषु मूर्धधूननेन भृशं भृ ( थ्रि ) यमाण: कर्पूरपूर इव, एकरूपाऽपि सुरनरतिरश्चां स्वस्वभाषया परिणमन्ती अद्भ्य इव तत्तद्देशसंयोगवशात् त [त्त ]द्गुणं भजमानाभ्यः शिक्षितकला, कस्य न मनोधिनोतु सरस्वती ॥२॥
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यस्य चाऽतीतेरपि न्यायचतुरस्य, वीतरागस्याऽपि भविकमनोऽनुरञ्जकस्य, मुखमप्रतिसुषमं चलदरविन्दविभ्रमं बिभ्रदपि प्रस्खलितोष्टपुटतटनटदनवद्यविद्यानटीकं, लावण्यरसधारणार्थं वेधसा विशालस्थालमिव विनिर्मितं, कुमुदोदरसोदरद्युतिना स्वयशसा जगति शुक्लिते चन्द्रभ्रमादागताभिः कोपातिरेकेणाऽन्तराधाय पटीयसीभ्यामोष्टपुटरक्तोत्पलशिलाभ्यां शकलिताभि: षोडशकलाभिरिव रसनासुधावल्लरीपुष्पैरिव 'इतः प्रभृति मत्सुतः कलङ्की न तव स्पद्ध करिष्यती 'ति सान्त्वनायोद्यतेन रत्नाकरेण प्राभृतीकृतैर्मुक्ताफलैरिव जिह्वादोलाञ्चलप्रेङ्खोलत्सरस्वतीवसनदशाभिरिव दन्तैरुपशोभितं, भालपट्टकनटल्लावण्यलक्ष्मीनटीवंशेनेव विश्वोपमानविजयसूचकेनाऽधोमुखतूणीरेणैव ओष्टपुटमुद्दिश्य बिम्बीफलबुद्ध्या धावन्त्या शुकचञ्चवेव नासया विलसद्भासालोचनाभ्यां च स्वलक्ष्म्याश्चन्द्रद्वैगुण्यसूचनाभ्यां हरिणाभ्यामिवोपसेवितं जगल्लोचनचकोरपारणप्रवणज्योतिष्मद्द्भालार्धचन्द्रधारित्वान्मदनस्य हरबिभीषिकां जनयदिव जयति भाविदलितमदकलमदनकुम्भिस्थूलकुम्भस्थलनि:सृतविमलमुक्ताफलकारणगुणादिव विशदीभूतयशसः || ३॥
खण्ड १
यस्य च भगवतो नाभिजातस्याऽप्यभिजातस्य, भूयस्तरभास्वद्वसुशालिनोऽप्यकिञ्चनानामधीश्वरस्य, अजडस्याऽपि पङ्कसङ्करोत्सारणप्रवणस्य, सरस इव
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रमणीयतरबहुलकमलाश्रयस्य राजहंसमण्डलोपासितस्य च, नारायणस्येव चक्राङ्कितकरकमलस्य नरकान्तकारिणश्च, शिपिविष्टस्येवाऽनङ्गीकृतमदनस्य अलौकिकैश्वर्यशालिनश्च, सकलभवनोदरान्तःसञ्चारिपदार्थसार्थावलोकनपटुकेवलालोकस्य, सुरभूधरस्पर्द्धिवर्द्धिष्णुलक्ष्मीके जन्माभिषेकसमये संनिहितेभ्यो निखिलतीर्थनीरभरपरिपूर्णेभ्यो गुरुभ्यः कनककलशेभ्य इव शिक्षितविशालिम्नि अन्तःप्रदीप्तध्यानानलधूमलेखेव प्रसृमरा अपारसंसारपारावारावलङ्घने शैवालवल्लरीव लग्ना मुखकमलोपरि श्वासमारुतसौरभ्यलोभाद् भ्रमन्ती भ्रमरराजिरिव लोकोत्तरलक्ष्मीविवाहसमये माङ्गल्याय कनककलशोपरि निहिता दूर्वाततिरिव सरभसनृत्याभिनयवशविलुलितकरचरणकमलालङ्करिष्णुकङ्कणगणिकिङ्किणीगणरणत्कारेण मुखरितदिग्मुखानां सौवाङ्गचङ्गिम्ना वागुरयेव युवजनमनोमृगान् विनिबध्याऽऽकर्षयन्तीनां नटन्तीनां पुरः सुरपुरन्ध्रीणां गणेन प्रक्षिप्ता कटाक्षपङ्क्तिरिव दर्पणतलामलकपोलस्थलचलत्कान्तकान्तिसुरसरित्श्रोतसा जवेनोर्ध्वमुपक्षिप्ता समीरत्वरया प्रेवन्ती आकारयन्तीव मोक्षपदवीमारुरुक्षूणां जगदुदरवर्तिनां सुरासुरनराणां कुलं यशःप्रचयविशदीकृतविन्ध्याचलं प्रभुं विनन्तुम् अतुलजलधरनीरन्ध्रधाराधोरणीधौतसमुद्वराञ्जनगिरिशिरःसोदरद्युतिर्मूर्तिमानद्भुतरस इव शिवङ्करस्य जटा चकासांबभूव भूवल्लभस्य ||४||
या व्यक्तिरुद्यद्गुरुभागनन्या, क्षेप्यां दधाना खलु शक्तिमत्र ।। तामन्यथा तत्र पुनर्वदन्तां, तौतातितानां मतमुणुनाव ॥१॥ [उपजातिः] आनम्रनाकीन्द्रकिरीटरत्न-त्विड्जालदन्तुलनखालिरम्ये । अध्येतुमिच्छन्निव यानलीलां, भेजे वृषो यस्य पदारविन्दे ।।२।। संचिख्यासुर्यद्गुणान् व्योमपट्टे, ताराव्याजात् सप्रतिव्यक्तिरेखाः । वेधाश्चक्रे चन्द्रपात्राद् गृहीत्वा, सौधं बिन्दुं तत्करैर्लेखिनीभिः ॥३॥[शालिनी]
एनमेनस्तमःपटलदलनकुशलं भविककमलवनविबोधनोद्यतं तीर्थकृत्पदवियत्पट्टप्रतिष्ठितं परपक्षिघूकपाकमतिलोचनान्धीकरणं सकलभव्यप्राणिगणशरणं श्रीमन्मारुदेवसहस्रकरं करकुट्मलन्यस्तमस्तकं प्रणतिपदवी प्रापय्य ॥
॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ यत्र सूर्यमणिमन्दरवृन्दै-रादिनात् पतगदीधितिदग्धैः । प्रेर्यते ध्वजचलाञ्चलवातैः, स्वर्नदीजलमिवेहितशैत्यैः ॥१॥ [स्वागता]
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
यत्पयोधरसमुन्नमनेऽपि, कामिनीमुखविधुः खलु यत्र । निस्तुलां श्रियमियति निदानं तत्र नूनमकलङ्कितभावः ॥ २॥ कामिनीकुचविशालिमलिप्सु-र्यत्र हैमवलभीस्थितकुम्भः । नीलदण्डविसरद्युतिदूर्वा-ग्रासभुक् प्रवितनोति तपांसि ||३|| यत्र जैनसदनव्रजसर्प - द्धूपधूमलहरी खलु लीना । इन्द्रनीलरुचिरामृतरश्मे - र्मण्डले वहति लाञ्छनलीलाम् ||४|| यच्चैत्यवातायनमौक्तिकेषु स्वकान्तिविद्योतितदिड्मुखेषु ।
इन्दिन्दिरास्तत्परितो भ्रमन्ते, जपासुमभ्रान्तिभृतः पतन्ति ॥५॥ [ उपजाति: ] यत्राऽनिशं स्फाटिकजैनसद्म-प्रभाप्रभावप्रहतान्धकारे ।
कुहूः कुचावेव कुगन्धधूली- लेपच्छलादश्रयदङ्गनानाम् ॥६॥ जिनालये यत्र तता पताका, समीरणाध्यापितचञ्चलत्वा । संसारवारांनिधिमुत्तितीर्षु, नन्तुं जनानाह्वयतीति मन्ये ॥७॥ स्थिता चिरं चेतसि शातकुम्भ- विशालयच्छालनिभालनेन । प्रेक्षावतां मेरुगिरेर्दिदृक्षा- सौहित्यसाहित्यमुपाजगाम ॥८॥ यद्वप्रशृङ्गेण तमोप्र ( प ) विद्धो, विधुर्व्रणं लक्ष्ममिषादवाप । ताराः स्फुरन्त्यः परितोऽन्वकार्षु-स्तत्पाकनिर्यल्लघुपूयबिन्दून् ॥९॥ भासांपतिस्तप्ततनुर्ज्वलन्त्या यद्वक्त्रसूर्योपलवह्निहेत्या । आवासरात् पाणिधृताम्बुजः किं शैत्याय शेते प्रतिरात्रि सिन्धौ ||१०|| शिवाश्रितो भूतिततीर्दधानो, दृढानुरागो वृषभासने च । सौरूप्यलक्ष्म्या प्रजिगाय यत्र, जनो मनोजं गिरिशोपमानः ॥ ११॥ यत्रत्यनारीकुचशैलमध्ये, यदृच्छया खेलति कामसिंहः । अत्राऽनुमेयस्थितिको वयस्थ - मनोमृगाणां गिलनात् पतन्ताम् ॥१२॥ रतेषु शीत्कारगिरः स्फुरन्त्यः प्रासादमौलौ युवतीजनानाम् । तत्पाननिःस्यन्दमृगस्य यत्र प्रत्यूहमिन्दोर्गमनेऽधिनेतुः ||१३|| यद्यौवतं कान्तमुखभ्रमेण, विधोरधिस्फाटिकभित्तिबिम्बम् । निरीक्ष्य चुम्बत् प्रविहस्य पत्या, गाढोपगूढं ह्रियमाप गुर्वीम् ॥१४॥ सदालिषु प्रीतिभरं दिशन्तो, दानेन संसर्पिकराभिमानाः । अन्योन्यकर्षव्यतिहार भाजो यत्रैयरुः कुम्भसमत्वमिभ्याः ||१५||
)
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खण्ड १
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जान्युआरी
हट्टेषु यस्मिन् परिभास्वराभा, मुक्ताफलानां शुशुभुः समूहाः । श्रियां परीभोगवशेन जाताः, स्वेदोददेशा इव तद्विभूनाम् ||१६|| अचालयद् यत्र शिरस्सु केतून्, विमानमालाजयवावदूकान् । उत्सिद्धसौधानि पिनद्धविन्ध्य - लक्ष्मीणि वैडूर्यमणीकृतानि ॥१७॥ यस्मिन् जिनावासशिरोऽधिरूढः, सौवर्णकुम्भः प्रसभं रजन्याम् । आलिङ्गितो देवनदीरथाङ्ग्या, भर्तृभ्रमान्मोदपदं बभूव ॥ १८ ॥ यस्मिन् सुमान्येव रजोभृतानि, कुरङ्गयुक्तानि परं वनानि । मतङ्गजानां च मदाविलत्वं, कम्पो दलेष्वेव महीरुहाणाम् ॥१९॥ प्रवालबुद्ध्या चरतोऽतिगृध्नोः, श्रीपुष्पनद्धामलगेहभासः । कलङ्करङ्कोः कथमप्यगत्या, चचार नो यद्बहिरौषधीशः ॥२०॥ वारांनिधिः क्षारजलेन दुष्टो जह्नोः सुता कृष्णपदादुदीता । तत्तुल्यता यच्छरसां खपुष्प - सख्यं श्रयन्ती कथमस्तु वस्तु ॥२१॥ क्रीडन्मृगाक्षीमुखवीक्षणोत्थ- व्रीडानिमीलङ्घनपद्ममुष्ट्या । स्वस्पर्द्धिनं यत्र वृथा तटाक - वृन्दं पयोधि प्रजिहीर्षतीव ॥२२॥ यत्काननं काममहीशमूर्ध-च्छत्रीयितक्ष्मारुहराजमानम् । क्रीडत्सुरीणां किल मस्तकस्थं, मन्दारपौष्पीयरजस्तृणेढि ॥ २३ ॥ • स्फुरत्खुरोत्खातधरोत्थधूली-दिशां कुचे कञ्चुलिकाः सृजद्भिः । पराभिभूतः खलु यत् तुरङ्गैरुच्चैःश्रवाः संश्रयते सुरेशम् ॥२४॥ यत्राऽब्दधारापरिधौतविन्ध्य - शैलामलाभाः करिणो विभान्ति । परीक्षणार्थं निजशौर्यलक्ष्म्यां गर्जिच्छलात् स्वर्गजमाह्वयन्तः ||२५||
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॥ इति नगरवर्णनम् ॥
श्रीतातपादपादाब्ज- रज: पावितभूतले ।
तत्र श्रीमति शोभाढ्ये, श्रीमद्देवकपत्तने ॥२६॥ [ अनुष्टुप् ] मरुस्थलीमहाराष्ट्र- रामाभालविभूषणात् ।
प्रत्यनीकावनीपाल - पीडादिगतदूषणात् ॥२७॥ आनन्दादिकसु श्राद्ध-वर्गवत्श्राद्धराजितात् । जिनेन्द्रमन्दिरोद्धार- सुकृतोद्यमशोभितात् ॥२८॥
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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
वदान्यानेकसुश्राद्ध-श्राद्धीवर्गविभूषितात् । परोपद्रवकृत्क्रूर-मनुजैरप्यदूषितात् ॥ २९ ॥ उत्तुङ्गतोरण श्रीम-दर्हन्मन्दिरमण्डितात् । श्रीजावालपुरद्रङ्गाद्, नित्यं पुण्यैः प्रपूरितात् ||३०|| सस्नेहं सोल्लासं, सोत्कण्ठमनल्पभक्तिसंयुक्तम् । आनन्दपूर्णहृदयः, संयोजितकरसरोजयुगः ॥ ३१ ॥ [आर्या] गङ्गासुत-नयनमिता(१२) वर्तैरभिवन्द्य विधिवदानन्दात् । प्रकटीकरोति सम्यग् विज्ञप्तिं नयविजयशिष्यः ॥३२॥ कृत्यं चाऽत्र यथा स्वर्ण - शैलशृङ्गविभूषणे । दिग्वधूभामिनीभाल - स्थलकनकभूषणे ||३३|| [ अनुष्टुप् ] व्योमाङ्गणोदिते व्योम - मणौ सुश्राद्धपर्षदि । जीवाभिगमसूत्रस्य, वाचनं वृत्तिपूर्वकम् ||३४|| पठनं पाठनं चैव, साधूनां योगवाहनम् । इत्यादि सौकृतं कृत्यं, सिद्धिसौधमियर्त्यलम् ॥३५॥ पारिपाट्यागतं पर्यु - षणापर्वाऽपि सोत्सवम् । श्रीमज्जिनगृहेऽनल्प-पूजाकरणपूर्वकम् ॥३६॥ निर्विघ्नं सङ्घवात्सल्य - पूर्वकं समभूत्तमाम् । श्रीमत् श्रीतातपादानां प्रसादोदयतोऽपरम् ॥३७॥ सहस्रनेत्रद्विपशम्भुमूर्ध-भागीरथी श्रीपतिशङ्खमुख्यान् ।
संगन्तुकामं किमिव स्वबन्धून्, यशो यदीयं त्रिदिवं जगाम ॥३८॥ [ उपजातिः ] गाम्भीर्यधैर्यादिगुणप्रकर्ष - मनारतं यो नितरां बिभर्ति ।
अनर्घ्यनानाविधरत्नराशि, मुनीश्वरो रोहणभा ( सा ? ) नुमानिव ॥ ३९ ॥ सरस्वती साऽस्तु मुदे तवैषा, निर्ग्रन्थनाथप्रथिता पृथिव्याम् । याऽपारसंसारपयोधिमध्ये, निमज्जतां नाव्यति देहभाजाम् ॥४०॥ सा ब्राम्यजिह्मा मुनिचक्रशक्रा, जीयाश्चि (च्चि ) रं भूवलये त्वदीया । या विश्वभव्यव्रजमानसान्त-र्गताऽघपङ्कत्रिदशापगाभा || ४१|| अनङ्गतां पञ्चशरः प्रपन्नो, यदीयसौन्दर्यगुणावलेहितः । गणाधिपः सोऽस्तु शिवश्रिये वो, जिनागमोक्तोपनिषत्प्रवेदी ||४२||
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जान्युआरी - २०१३
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मुनीशितस्त्वत्पदपङ्कजं य-स्त्रिसन्ध्यमाराधयति प्रतीतम् । सर्वर्द्धिमासादयति प्रभूता-आ(मा)नम्रपृथ्वीपतिपूजनीयम् ।।४३।। प्रभो! भवल्लोचनपङ्कजेन, जितं किमिन्दीवरमद्भुतेन । शिलीमुखारावमिषादिवैतद्-द्रुतं तनोतीव नताभिरूप! ॥४४॥ सिद्धापगाकैतवतस्त्वदीया, पुनाति विश्वत्र(त्रित)यं व्रतीश! । कीति शं कुन्दमुकुन्दकम्बु-सच्चन्द्रचन्द्रार्जुनभास्वराभा ॥४५।। मुनीशितः! कोविदकैरवाली-विकाशनश्वेतहयोदयाभ! । प्रोद्भूतसद्भूतगुणौघसेवधे!, जीयाच्चिरं साधुशिरोवतंस! ॥४६॥. मुनीश! सम्पूर्णसुधामयूख-बिम्बोपमानं भवदास्यपद्मम् । विश्वत्रयीनेत्रचकोरहर्ष-प्रकर्षदानप्रवणं विभाति ॥४७॥ सदष्टमीशीतरुचिः समेता, विशालभालच्छलतः किमेषः । उपासितुं त्वद्यशसाऽभिभूत[:], चित्ते सकर्णा इति तर्कयन्ति ॥४८॥ इत्यादिभूयिष्ठगुणैर्युतानां, जगत्तनूमद्विहितेहितानाम् । विश्वत्रयीसज्जनताहितानां, वैराग्यलीलारसमोहितानाम् ॥४९॥ निर्जितबहुवादानां, शारदशशिशुभ्रवर्णवादानाम् । गतसकलविषादानां, श्रीमत्श्रीतातपादानाम् ॥५०॥ [आर्या] काऽपि प्रसादपत्री, प्रमोदक/ शिशोरथ भवित्री । बहुबहुदिनानि यावत्, मार्गितमार्गाऽपि नित्यमिह ॥५१॥ तेन प्रसद्य सद्यः, स्वाङ्गारोग्यादिसूचका चतुरा । साऽत्र प्रसादनीया, प्रमोदसम्पत्तये स्वशिशोः ॥५२॥ श्रीतातपादैस्तपगच्छपद्म-सहस्रपादैर्विहितप्रसादैः । गतावसादैविगलत्प्रमादैः, सदाऽवधेया प्रणतिर्ममाऽऽर्यैः ॥५३।।
तत्र
श्रीतातपादपदपद्मयुगे मराल-बालस्वभावमनिशं दधतः स्वशक्त्या । श्रीमद्विनीतविजयाभिधवाचकेन्द्र-चूडामणेः प्रणतिरत्नमिदं प्रसाद्यम् ॥५४॥ अमरविजयाभिधानाः विबुधाः श्रीजसविजयनामानः । रविवर्धनाख्यविबुधाः, धनविजयाख्यास्तथा विबुधाः ॥५५॥ तत्त्वविजयाभिधाना, गणयो गणिसिद्धिविजयनामानः । मुनयश्च वर्धमाना-दिमविजया ज्ञानविजयश्च ॥५६।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
गङ्गविजयाख्यमुनयः, प्रेमश्रीप्रभृतिकास्तथा साध्व्यः । इत्यादिमुनिगणाना-मनुपूर्वा सा प्रसाद्या च ॥५७॥ अत्रत्यारविविजयाभिधविबुधा, विबुधाः श्रीजसविजयनामानः । भीमविजयाभिधाना, गणयो गणिसत्यविजयाश्च ॥५८।। हर्षविजयाभिधाना गणयो, गणिहेमविजयनामानः । तत्त्वविजयेन सहिता, लक्ष्मीविजयास्तथा गणयः ॥५९॥ खीमविजयेन सहिता, वृद्धिविजयसंज्ञकास्तथा गणयः । गणिचन्द्रविजयसहिता, मुनयो कर्पूरविजयाह्वाः ॥६०॥ इत्यादिसाधुसाध्वी-वर्गोऽत्रत्यश्च सकलसङ्घोऽपि । श्रीपूज्यपादचरणा-म्बुजयुगलं नमीति मुदा ॥६१|| आश्विनस्य सिते पक्षे, दशम्यां भानुवासरे । हर्षेण लिखितो लेखो, विज्ञप्तिरिति मङ्गलम् ॥६२।। लेखं लिखता मयका, लिखितं भवतीह हीनमधिकं वा । यत्किञ्चिदनुचितं वा, क्षन्तव्यं तत्क्षमायुक्तैः ॥६॥
सकलसुविहितभट्टारकचक्रवर्तिभट्टारकश्री १९... राध्यश्रीविजयप्रभसूरीश्वर चरणारविन्दानाम् ॥ सं. १७१६ वर्षे शिशुनयविजयस्य विज्ञप्तिः ॥
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(१२) जीर्णदुर्गस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति पत्तनत: पण्डितकमलविजयस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्तिनीरनिधिनन्दनालस-ल्लोचनाम्बुजविकूणितांशुभिः । भासितं वदनमेति चन्द्रतां,यस्य पार्श्वजिनपः स सम्पदे ॥१॥ [स्वागता] स्वस्तिश्रीर्यं त - - प - रब्ध-प्रादुर्भूतप्रीतिरित्यस्तभूमिम्(तिम्?) । यत्स्पर्धाकृन्मे जहेऽनेन नारी, तदृण्वेऽमुं स श्रियेऽस्त्वाश्वसेनिः ॥२॥ [शालिनी] स्वस्तिश्रियं यो जिनराडबोभोग्, नीत्वा निरीहोऽपि हि सूनशय्याम् । पश्यत्सु भूयस्सु नरामरेषु, नानद्यमाने दिवि दुन्दुभौ च ॥३॥ [इन्द्रवज्रा] जिनन्ति यस्येशितुरादरेण, जप्तेऽभिधाने किल कर्मबन्धाः । यथा प्रभाते विहिते खगेन, रोचिर्बजाश्चन्द्रमसो जवेन ।।४।। [उपजातिः] नो चाचलीति स्म मनो यदीयं, कृतेऽप्यजन्येऽम्बुदमालिनाऽलम् । ध्यानाध्वनो युक्तमिदं कदाचि-न्मृगव्रजान्नश्यति सिंहशावः ॥५॥ नित्यं नमामि घनकज्जलपङ्कनीलं, दम्भेभभेदशुभसिन्धुरहंसितेरम् । पद्माननं पदनतव्रतिजातशान्ति, स्वर्मन्दिराः स्वसदियं प्रति वै यजन्ति ॥६||
इति हारचित्रम् ॥ [वसन्त०]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
वामाङ्गजं कमठपापहठापहारं, हारं शिवाभिधवधूकलकण्ठपीठे । पीठे स्थितं धरणवज्रिकृते स्वतन्वा, तन्वाऽऽशयं श्रियमयंतमनन्तवामान् ॥७॥ इति मुक्तगृहीतचित्रम् । युग्मम् ।।
अथ गद्यम् ॥ एतदीयतिरस्कृतानेकसरससरसिजम पुञ्जक्रमं अतुलबलकलितमोहमहामहीधवावधीरिताखिललोकासमानाभिमाननिईलनप्रवीणपराक्रमम् ऐनसीयसमुदयौग्रसेन्यवनिधनपाटनपाटवोपस्कृतत्रिविक्रमं कृतसुकृतसुजनोपशमरससंदोहसंपूरितस्वकीयमानससन्ततविहितसक्रमं मदीयामलभालस्थलेन समं परत्वपश्चाच्चरगुणविपक्षगुणाधिकरणं प्रणीय ॥
अथ नगरवर्णनम् ॥ येनाऽऽत्ता सर्वसंवत् प्रबलबलवताऽऽकृष्य रङ्कालकाया, मा मां बध्नात्वितीदं मनसि भयमतो बिभ्रती द्राग् ययौ सा । कैलासाद्रौ प्रणश्य प्रचुरमुतधनं स्याच्छिवं चेन्मदीये, बेरे(?) बुद्भवेति युक्तं श्रयति शिखरिणं स्वाधिकाद् यः प्रणष्टः ॥१॥
[स्रग्धरा] यः स्पर्द्धते काञ्चनभूधरेण, स्वकोन्नतत्वेन समं सदैव । यत्राऽस्ति वप्रः सरिपुव्रजाना-मभेदनीयो विहगैरलझ्यः ॥२॥ [उपजातिः] यत्खातिकाऽम्भोभरितातिमात्रं, धावज्झषव्रातसमुत्थफेना। सेवालवल्लिस्थगिताम्बुपूरा, समुद्रवद् राजति निम्नतायुक् ॥३॥ कृतापराधाविव लोहकीलै-विद्धौ कपाटौ भवतः प्रतोल्याम् । यद्वारणे सम्मुखलग्नबाणौ, यत्रोन्नतौ वीरनराविवाऽहो! ॥४|| विधाय विश्वां स्ववशां प्रभूतां, स्थितोऽस्त्यनम्रः खलु यत्र सालः । बिभ्रत् तति सत्कपिशीर्षमूर्जा, लङ्काधिनाथप्रतिमत्वमीत: ॥५॥ यत्राऽर्गला लोहमयी प्रलम्बा, बिलान्तरस्था खलु गोपुरेऽस्ति । अदीयमानाऽपि च यामवत्या-मभावतो दुष्टमलिम्लुचानाम् ॥६|| अट्टालको यत्र सुधाविदिग्धौ, विराजतः प्रांशुतरौ प्रकामम् । शङ्के समीपे ह्युपतस्थिवांसौ, कैलासभूमीधरशैलराजौ ॥७॥
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अथ गद्यम् ।। श्रीमति तत्र तत्रभवच्चलननलिनपरागनिकुरुम्बपवित्रीकृते अलकोपमशोभिन्यप्यनलकोपमशोभिनि लङ्कोपमानसहिते लङ्कोपमानरहितेऽपि द्विधाऽपि महत्तमोदरविवर्जितजने वनीमञ्जिमराजितेऽप्यवनीमञ्जिमराजिते बहुजनपराजितेऽपि परचक्राजयनीये प्राज्यानेकपरोचिते करेणुलेशप्रोज्झितेऽपि अनेकपरबलोचितेऽप्यनेकपरबलोचिते कपिशीर्षराजिराजिदुर्गेऽप्यकपिशीर्षराजिराजिदुर्गे अर्चितजिनजैनजनसमूहेऽप्यनर्चितजिनजैनजनसमूहे गुरुमनोहरपूजाकारिलोकेऽप्यगुरुमनोहरपूजाकारिलोके भूयःप्रियसुवर्णपत्रान्वी(न्वि)ते वैनतेयपतत्रिणीव मसृणाञ्जनरुचिकलभसञ्चयेऽपि धूसररुचिकलभसञ्चये बहुजडाशयेऽपि जडाशयोज्झिते द्विधाऽपि द्विरसनप्रचारवजिते द्विधाऽपि विचित्रचित्राञ्चितमन्दिरे विरुद्धधर्मैरपि त्यक्तविरोध इव श्रीजीर्णदुर्गनगरे ॥ इति नगरवर्णनम् ।।
कमलायाः केलिकरणशरणत: पत्तनपत्तनतः संयोजितकरकमलयमलो भालस्थलेनेलातलमामृशन् हर्षप्रकर्षप्रादुर्भूतप्रभूतरोमाञ्चो हार्दहंसाभीशुसङ्गमादुज्जृम्भितहृदयारविन्दः शिशुलेशः कमलविजयः सविनयं गीर्वाणगुरुविरोकगणेयावर्तवन्दनेनाऽभिवन्द्य विधिवद् विज्ञप्तिपत्रीसितपत्रिपत्नी श्येनीमपि बहुवर्णामिति चित्रप्रणेत्रीमुपत्रौकयति यथाप्रयत्नापेक्षस्वोद्भवं चाऽत्र कुशलकुमुदाकरो विस्मेरतामभिविन्दति श्रीमत्तातपादवदनविधूदयमहिम्नाऽथो अपरमुदयावनीधरेणाऽऽत्मीयशिरसि दशशतरोचिषि चामीकरकलस इवाऽऽरोपिते सति सङ्गराजिरे कातरेष्विव पलायनपरेष्वन्धकारेषु शिलीमुखेषु मधुपेष्विव सगानं राजीवराजीषु मधूपजीविषु विभाते जाते प्रधानस्वाध्यायविधानसाधुसाधुसिद्धान्ताद्यध्ययनाध्यापनजपतपःप्रभृतिनि धर्मकर्मणि सञ्जातशर्मणि जञ्जन्यमाने पर्यायोपनतं श्रीमदाब्दिकपर्वाऽप्यनपायोदयोपेतं समपनीपद्यत श्रीमत्तातपादनामधेयध्यानमहानुभावतः ।।
अथ गुरुवर्णनम् ॥ रम्यदोषोऽपि निर्दोषो, जय त्वं मुनिनायक! । त्यक्तपद्मोऽपि सश्रीको, निरामोऽपि सदासरुक् ॥१॥ [अनुष्टुप्] त्वद्भालपीठं शुचिकुङ्कमाक्षरं, चकास्ति सम्पूर्णकलङ्गणाधिप! । भाग्यस्य राज्ञः पठितुं महार्थकं, किं पुस्तकं स्वे मनसीति शङ्क्ये(के) ॥२।।
[वंशस्थ]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
आसाद्य ते भालसमानभावं, विद्वत्प्रदत्तं सिततामुपैति ।। अर्द्ध विधोर्युक्तमिदं सि [त:?] स्यात्, प्राप्नोति यः साम्यमहो! महद्भिः ॥३॥
[उपजातिः] त्वद्भालमालोक्य रुचाऽधिकं स्वाद्, विलक्षभावं दधतेऽर्द्धबिम्बम् । रात्रीश्वरस्यर्षिगणाधिनाथ!, प्रणष्टगर्वं समभूद् यतस्तत् ॥४॥ विनिर्ममे यद् विधिनाऽर्द्धबिम्ब, विधोस्तदासीद् वरमेष नो चेत् । प्राणेष्यदेतद् बत काऽभविष्यद्, भालोपमा ते मुनिशीतकेतो! ॥५।। त्वद्गोधिराढोन्नतशैलशृङ्ग-मपीक्षितुं नो अलमर्द्धचन्द्रः ।। ततोऽधिरोढुं विभुता कथं स्यात्, तत् तस्य वाचंयमसामयोने! ॥६॥ हीनोऽपि यत्तेऽर्द्धविधुस्तनोति, स्पर्द्धा ललाटेन समं कलङ्की । सा मूढताऽस्येति समस्तविजैविज्ञायते श्रीमुनिनाथ! लोके ॥७॥ यामद्वयोद्योति कथं तुला स्याद्, विभावरीनायकसामिबिम्बम् । तवाऽलिकस्याऽविरतं रुचीनां, पुजं दधानस्य हि धर्मचक्रिन्! ॥८॥ सर्वेषां प्रवरस्त्वमेव भुवने सच्छिल्पिनां हे विधे!, यद् भालं रुचिराकृति प्रविदधे गच्छाधिपस्य त्वया । आदत्ता सुषमेदृशी च भवता कस्मात् पदार्थाद् वद, चक्रे येन तव प्रभोऽलिकमिति स्रष्टा प्रशंसास्पदम् ॥९॥ [शार्दूल०]
इति भालवर्णनम् ॥ भ्रुवोर्द्वयं तावकमेक्ष्य नेत-र्धन्वेति मारस्य बिभेति चित्ते । मां द्वे इमे जेष्यत एकमारात्, कथं महत्त्वं मयकाऽवनीयम् ।।१०॥ [उपजाति:] भ्रूभ्यां तवाऽधीश! रणे विभग्नो, विद्रुत्य शीघ्रं खलु चन्द्रहासः । अस्ति प्रविष्टो वरकोशवप्रे, योद्धं न शक्तो बलवर्जितत्वात् ॥११॥ ____ अथ गद्यम् । सन्ततमुद्राप्रोज्झितकराणामप्यसन्ततमुद्राप्रोज्झितकराणां क्रोडीकृतसर्वाभीष्टशमधनाना-मप्यक्रोडीकृतसर्वाभीष्टशमधनानां द्विधाऽप्यहीनोत्तमाङ्गवन्दनीयपादारविन्दानां द्विधाऽप्यवामदेवचरणवारिजातविहितप्रणतीनां सत्कमलौघाधोविधानपटिष्ठलपनपङ्केरुहाणामप्यसत्कमलौघाधोविधानपटिष्ठलपनपङ्केरुहाणां मञ्जुलमनीषावधीरितगुरूणामप्यमञ्जुलमनीषावधीरितगुरूणां अधरितधीरतामन्दराणामप्यनधरितधीरतामन्दराणाम् । इति विरोधाभासालङ्कारयुक्तोभयार्थ
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जान्युआरी - २०१३
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विशेषणानि ॥
सकलविशदानवद्यविद्यानर्तकीनर्तनविधानरङ्गस्थानसमानरसनाञ्चलानां दक्षिणावर्त्तत्रिरेखतिरस्करणालङ्कर्मीणमञ्जुलगलानां संहर्षसङ्घातोपशान्तिसञ्जातशान्तरसराजनिर्मलजलपटलप्रक्षालितनिजान्तःकरणकोमलपट्टकूलकल्मषमलानां मुदिराभ्रसमुदयमुक्तशारदकुमुदबान्धवबिम्बबन्धुरमरीचिसञ्चयसदृशोज्ज्वलनिखिलकलानां त्यक्तपरजनापवादानां सज्जनैः कृताभिवादानां सजलजलदगम्भीरनादानां नितान्तप्रोज्झितप्रमादानां श्रीतातपादानां शरीरवार्त्तवार्ताप्रवर्तकः प्रतिलेखः प्रसाद्यो मन्मानसमोदसम्पादनाय ॥ इति गुरुवर्णनम् ॥
तथाच श्रीतातपादैः शैष्याणवी प्रणतिः सायंत्रयेऽवधारणीया । प्रसाद्या चोपाध्यायश्रीविनीतविजयगणीनां सुजनमनःकैरवरजनीमणीनाम् । प्रसाद्ये च नत्यनुनती पं. श्रीआनन्दसागरगणि - पं. श्रीधनविजयगणि - पं. श्रीरविवर्द्धनगणि - पं. श्रीयशोविजयगणि - ग. श्रीतत्त्वविजयप्रमुखाणाम् । अत्रत्य - पं. श्रीलाभविजयगणि - पं. श्रीवृद्धिविजयगणि - पं. रत्नविजयगणि - ग. सत्यविजय - ग. विनयवर्द्धन - ग. ऋद्धिविजय - मु. गुणविजय - मु. माणिक्यविजय - ग. विवेकविजयप्रभृतीनां नतिरवधार्या । प्रसाद्ये च नत्यनुनती पूर्वोक्तानाम् ॥
तथाऽहं तु श्रीतातपादानां पादपद्मयोश्चञ्चरीकोऽस्मि । तन्ममोपरि भूयसी कृपाऽवधार्या । शिष्यस्तु श्रीतातपादानां नाममन्त्रमनुक्षणं स्मरन्नस्ति । श्रीतातपादैरपि श्रीजिननमनावसरे शिष्यः स्मरणीयः कार्तिकासितपञ्चम्यामिति मङ्गलम् ॥
तथा माहरुं शरीर हवई घणुं अडक्युं छइ । ते माटइ पं. रत्नविजयगणि श्रीतातजीनइं उत्संगि छई एह उपरि घणी कृपा करवी, घणां लाड पालवां ॥छ।।
[बहारना भागे-] ॥ पूज्याराध्य ॥ सकलभट्टारकचक्रचकोरचन्द्रायमाणभट्टारक
श्रीश्री५ श्रीविजयप्रभसूरीश्वरचरणसरसीरुहाणां पं. रत्नविजय - पं. कमलसत्कलेखः ।
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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
(१३)
पुरबन्दिरस्थ - श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति नीतिपदत: लालविजयस्य लेख:
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
स्वस्तिश्रिया .येन समं विलासा:, पूर्णीकृताशाः पुरुषोत्तमेन । अवाप्य पादाम्बुरुहं क्रियन्ते स पार्श्वदेवो भुवनेऽवताद् वः ॥ १॥ [उपजाति:]
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स्वस्तिश्रिये स्ताज्जिनपुङ्गवोऽयं, नागाधिपोद्धूतमहाप्रभाव: । यदंह्रियुग्मोत्थनखाः सखेल - मतन्द्रचन्द्र भ्रममावहन्ति ॥२॥ अमुष्य देवस्य नखांशवोऽमी, दिशां मनांसीव दश स्फुरन्ति । नो चेन्निनंसागतदिग्जनौघैः कथं प्रणामः पदयोः क्रियेत ||३|| कृतावताराः खलु यत्र ताराः पदद्वये यस्य नखच्छलेन । स्फुरत्कलाकोटिकलापशालि - मुखेन्दुरागादिव दूरतोऽपि ॥४॥ नरामराणां नमतां यदंहि द्वयीमुदारामपवर्गहेतोः । नखत्विषः स्वीयशिरःप्रदेशे, माङ्गल्यदूर्वाङ्कुरराजयः किम् ॥५॥ अर्धेन्दुमेकं शिरसा दधानं, वक्षः प्रदेशे फणिना प्रधानम् । जयत्युमेशं फणिलाञ्छनोऽयं, पूर्णेन्दुभिः पादनखैरनेकैः ||६|| न दर्पणः काचगुणं बिभर्त्ति, शशी कलङ्कं यदि चेन्न चैव । पूषा न पुष्णाति यदोष्णभावं, तदा नखानामुपमाविचारः ||७|| पूर्णेन्दुपूर्णद्युतयो यदीया, नखेन्दवस्ते जगतीं पुनन्ति । न चक्रवाकोऽपि निरीक्ष्य याँश्च, ह्यासीद् वियोगी किमुताऽन्यलोकः ||८|| यस्यांऽङ्घ्रिपद्मे दशधा कृतात्मा शश्वद्विभास्वन्नखकैतवेन । दिशां दश श्रीनिचयं प्रदातुं तपस्विनां धर्म इवाऽऽजगाम ॥९॥ अमेयकीर्तिः स्फुरिताब्जमूर्ति वमेयदेवः स सुखाय वः स्तात् । प्रभाङ्कुरैर्यत्पदयोर्नखानां, तृणीकृताश्चान्द्रकरा इवाऽऽसन् ||१०|| दिगन्तसंसप्पिरुचो यदीया, नखाः सखायो रजनीप्रियस्य । अहो न सत्यं कुमुदावलीना - मपीप्सिता हेतव इत्यवैमि ॥११॥
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जान्युआरी
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विश्वासनिक्षेपजना इवाऽमी, प्रेङ्खन्नखा यच्चरणाङ्गुलीनाम् । तमस्विनीजानिसहस्ररोचि - ग्रहव्रजानां रमणीयभासः ॥ १२ ॥ धुतिर्नखानां पदयोस्तथेयं, पवित्रयन्ती प्रससार विश्वम् । देवस्य विष्णोरपि कृष्णभावः, स्थातुं प्रभुर्नोऽत्र यथाऽजनिष्ट ||१३|| अधःस्थिता अप्युरगाश्रितांहे - र्नखाः सुरेन्द्रैः शिरसि क्रियन्ते । उच्चैःकृतस्तर्हि स काञ्चनेन, मणीयते किं न रुचाऽत्र काचः ||१४|| नेत्रीभवन्नेकतमेन शम्भो - रुल्लङ्घयन्नभ्रतलं परेण । शेषैर्नखानां कपटेन देहैः स द्वादशात्मैव पदौ प्रपन्नः || १५ || यदच्छपादद्वयपङ्कजानां, पुनर्भवानां किरणाङ्कुरौघान् ।
धेनुः सुराणां चरति स्म सेयं, नो चेत् कथं कामितदानशौण्डा || १६ || यदंह्रियुग्मं हरिदङ्गनानां, मनोरथानामधिगच्छतां ये ।
कृतावकाशा निवहा नखानां भ्रश्यद्भया राजपथा इवाऽमी ॥१७॥ नखेन्दुवर्गादिव यस्य चन्द्रः श्रियं समादाय भवेत्समृद्धः । कुहूदिनेऽयं रहितः कलाभिः परश्रिया कस्य बतोन्नतत्वम् ॥१८॥ पारेसहस्रं रसनं यदि स्यात्, पारेसहस्रं मरुतां गुरुः स्यात् । तथाऽपि यत्पादनखद्युतीनां स्तुतिर्न धत्ते किल पूर्णभावम् ॥१९॥ कर्तव्यकाव्यव्रततीवितान - प्रादुर्भवद्भावितभावसूनैः । श्रीपार्श्वनाथं जगनोऽधिनाथं, ह्रादेन पूजाविषयं विधाय ॥२०॥ ॥ इति श्रीदेववर्णनम् । अथ नगरवर्णनम् ॥
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यत्रोन्नतार्हन्निलयध्वजौघै - दूरीक्रियन्ते तपनस्य तापा: । वातैस्तदान्दोलनजैः पुनस्ते, कले: प्रतापा अपि तेऽपि पापाः ||२१|| मरुत्प्रयोगैरिह चञ्चलत्वं, समावहन्त्यः सुतरां पताकाः । मन्येऽर्हतां सुन्दरमन्दिरेषु, दिशां किमाह्वानविधि सृजन्ति ॥२२॥ अयनवालव्यजनीभवन्ति, चलत्पताका जिनसौधमूर्ध्नि । रवेरपीन्दोर्गगनभ्रमोत्थ- खेदापनोदाय कृतोद्यमेव ||२३|| अत्युच्चचैत्यध्वजिनीध्वजाना - माटोपकोपैरिव यन्नगर्याः । मन्येऽमराणां नगरी गरीय स्तमा समासीदधुनाऽप्यदृश्या ||२४||
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ अभ्रंलिहार्हन्निलयाग्रभाग-जाग्रत्पताकाकपटेन नूनम् ।। पुरीजिगीषाविषये पुरीयं, पत्रावलम्बं कुरुतेऽत्र लोके ॥२५॥ स वास्तवोऽयं कलशेषु चक्र-भ्रमः स्वहेतुप्रभवो हि युक्तम् । चक्रेऽपि चैत्याच्छसुवर्णकुम्भ-श्चक्रे भ्रमं तत् किमु चक्रबन्धोः ॥२६।। यस्यां नगर्यां जिनमन्दिराणां, सद्रौप्यकुम्भप्रतिबिम्बितेन । उपागतो राहुभियेव नूनं, वितय॑ते वारिनिधौ कलावान् ॥२७॥ सुपर्वणां दुर्द्धरसिन्धुरेण, विक्षोभितायास्त्रिदशापगायाः । च्युता जिनोत्तुङ्गनिकेतनानां, कुम्भच्छलेनेव सुवर्णपद्माः ॥२८॥ कुम्भैर्मनोहारिजिनेश्वराणां, प्रासादमूनि स्थिरतां भजद्भिः । दत्तेन्दुशोभैर्नयनाभिरामै-व्यॊमाङ्गणं तच्छतचन्द्रमासीत् ॥२९॥ योगे ध्वजस्याऽपि शुभे समस्ताः, सज्जन्मपत्र्यां कलशच्छलेन । उच्चैः स्थिताः किं जिनमन्दिरेषु, ग्रहा गभस्तिप्रमुखाः श्रियेऽस्याः ॥३०॥ विरेजिरेऽर्हन्निलयस्य कुम्भा, वियत्स्पृशन्तो रजताप्तरूपाः । मरुत्तटिन्या निकटे तटस्य, स्थिता इवाऽमी किमु राजहंसाः ॥३१॥ पुनः [पुनः] स्वस्तलसम्भ्रमाप्त-श्रमोऽत्र चैत्ये कलशच्छलेन । सन्धाय दण्डस्फुटसन्निकर्ष, सुनिश्चलात्मेव सहस्ररश्मिः ॥३२॥ राज्ञः सकाशात् किल यन्नगाँ, न श्रावणो दण्ड इतीव शब्दः । प्रत्यक्षबाधाद्यत एव तस्य, प्रासादशीर्षोपरि चाक्षुषत्वम् ॥३३॥ मन्ये मनोहत्पुरसुन्दरीणां, सौन्दर्यसन्दोहजिघृक्षयेव । वक्षःप्रदेशोत्थिततारहार-व्याजेन गङ्गाऽपि कृतप्रसङ्गा ॥३४॥ सरस्वती वासवतीव कण्ठे, जनस्य सर्वस्य पुरीभवस्य । उपात्तसर्वस्व इवाऽम्बुराशि-र्ध्वनिच्छलात् तत् किमु पूत्करोति ॥३५॥ पुरोऽर्थिसार्थे परिदीयमानं, हिरण्यराशि परितो निभाल्य । निजव्ययोद्भूतभियेव मेरु-रगोचरो लोचनयोर्नराणाम् ॥३६।। श्रीमद्गुरूणां चरणान्तिषत्त्वात्, सद्भाग्ययोगेषु पुरीजनेषु । न गौणमुख्याभिध एव पुर्या, न्यायः कृतायामपि वर्णनायाम् ॥३७॥ चिराय यत्रोपवनप्रदेशा-स्तूर्यत्रिकस्येव सदा प्रवेशाः ।। नदविरेफा मिलदच्छताली-पत्रालिवाद्याः शिखिलास्यलीलाः ॥३८॥
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जान्युआरी २०१३
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यदुच्चचैत्यध्वजलब्धचीना, दिग्भामिनीपीनपयोधराग्राः । आनन्दकन्दाङ्कुरितानि भूमौ कुर्वन्ति चेतांसि विचक्षणानाम् ॥३९॥ वेरिवाऽस्मिन्नगरे नराणां, मनःपयोजानि विकस्वराणि । श्रीसूरिरेष प्रकरोति गोभिः स्वीयैर्विदुरीकृतदुस्तमोभिः ||४०|| द्वीपान्तरागच्छदने कपोत- सुखासनस्था खलु यत्र लक्ष्मीः । प्राचीनपुण्योपचयादुपैति श्रुत्वेव सूरिं पुरुषोत्तमं किम् ॥४१॥ भव्यैवितीर्णोद्धुरदानवारि प्रवाहपूरेण भवन्ति दूरे । दुष्कर्मबन्धाश्च घना दरिद्रा, विच्छिद्य दारिद्यमवद्यभिद्या ॥४२॥ आनन्दनिःस्पन्दतराक्षिपक्ष्मा, यन्नागरा नाकिवरा इवाऽमी । श्रीसूरिशक्रं प्रणमन्ति तत्र, पुरे वरे श्रीपुरबन्दिराख्ये ||४३|| संयुज्य हस्तौ विनयावनम्र - ग्रीवो मुदा विज्ञपयांबभूव । श्रीनीतिपद्रान्नगराद् विनयो, विनीतलालाद्विजयाभिधानः ॥ ४४ ॥ ।। इति श्रीपुरबन्दिरवर्णनम् ॥ अथ प्रातर्वर्णनम् ॥ अथेह पूर्वाभिनवाम्बुजाक्षी-मक्षीणलक्ष्मीं प्रति मड्क्षु याते । गतं तमोभिः प्रसृतं महोभिः करोत्करे श्रीसवितुः समन्तात् ॥४५॥ जाड्यं शरीरेऽत्र कुमुद्वतीनां वर्षा दलाने हृदये निदाघः । प्रातः समुत्तीर्णतुषारनीर- च्छलेन सूर्याभ्युदये व्यलोकि ॥४६॥ गुञ्जार्द्धरागानुविधायिभास्व-त्तीक्ष्णांशुजालानुमिलत्स्वकायः । शुकास्ययोगावपतद्रुटीक-मिवाऽऽम्रवृक्षस्य फलं कलावान् ॥४७॥ एकस्य यस्य प्रतपत्प्रतापाद्, ग्रहा नभोव्यापिरुचोऽपि सर्वे । अनेनिशन् नाम दिनोदयेऽस्मिन् मृगा इवोत्तुङ्गमृगाधिराजात् ॥४८॥ इत्थं प्रभाताभ्युदयेऽत्र भाग्य - योगान्महाभाष्यविलोकनाद्ये । सदार्यकार्ये सुगुरोः प्रसत्ते - विधीयमाने निरपायमेव ||४९ || श्रीवार्षिकं पर्ववरं क्रमेण, वर्षानुसारेण वितीर्णपुण्यम् । तपोविधानं हि तथा विशेषात् किं तत्र वाच्यं सुधियां हि सौख्यम् ॥५०॥ ॥ अथ श्रीगुरुजीवर्णनम् ।
ऐदंयुगीने समयेऽवतीर्णो, भूमौ मुदे भक्तिमतां कवीनाम् । सूरिः सुराणामिव पारिजातः, सम्पादितानेकमनोरथ श्रीः ॥ ५१ ॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
यद्भानवीयैः किरणैरगम्यं, चेतःस्थलस्थायि घनं जनानाम् । विख्यातकीर्तिश्चरिकर्ति चित्रं, निघ्नन् स्वगोभिस्तिमिरं तदत्र ॥५२॥ विश्वत्रयस्फारयशःप्रसार!, सूरेस्त्वदीयेन यदा महिम्ना । स्वर्गीकसां चेद् धरणीधरस्य, कुर्वीत साम्यं - ----- ॥५३।। तीर्थङ्करश्रियमिह प्रथितां वितन्वन्,
सत्त्वेषु केषु न हितः खलु दर्शनेन । सूरे! निदर्शयसि देव! मुदे गुणाना
मालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥५४॥ [वसन्त०] देशं सुराष्ट्रमधिगत्य हताष्टकर्मा,
सिद्धाचलाद्रिमुकुटं नमयांचकार । यः सूरिरद्य पुरबन्दिरसङ्घवन्द्यः,
स्तोष्ये किलाऽहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥५५।। कीर्त्यम्बुधेः कविरहं न[नु] यस्य पारं,
___ द्रष्टा न तत् कथमिहाऽस्य नुतौ प्रशक्तः । हार्दै श्रुतेरुत विनाऽध्ययनेन दक्षं
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥५६।। श्रीसूरिराजचरणौ शरणं प्रपन्नः,
पुण्येन केनचिदिहाऽत्रकृतेन पूर्वम् । संसाररूपमचिरेण भवेन्न धीमान्,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ।।५७॥ यस्याऽच्छकीर्तिरमणीरमणीयताया,
विश्वत्रये पदमियं प्रथते तदस्याः । ख्यातिं कवेः खलु मनोवरवर्णनायां,
नाऽभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५८।। सर्वोऽपि भूस्पृगिहते नुतिमार्गवेत्ती(त्ता?),
सत्कीर्तिगौरवगुणावलिमाकलय्य । यत् फाल्गुनीयकमनीयसमीरणो हि,
तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः ॥५९।।
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जान्युआरी - २०१३
१४७
कामं सुकोमलवचःप्रचयामृतेन,
___पीतेन कर्णपुटकेन मुने! तवाऽद्य । जाड्यं जगत्रयजनस्य भवेद् विदूरे,
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥६०|| सूरे! यशो दशदिशाम्बुजलोचनानां,
__कण्ठस्य हारनिकरे महतीमतीव । अस्याऽग्रतः पुनरनेकमतिप्रतापो,
___ मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥६१।। श्रीमत्तपागणपते! विदुषां न केषां,
चेतस्सु चारिमसुखानि चिराय दत्ते । गोपीवरस्फुटरुचिः सहसेव विष्णुः,
पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ॥६२।। लोकैः समानवपुरेष तपस्विनाथः,
स्पर्द्धाविधायिमरुतां धरणीधरेण ।। स्वीयं यशो धवलिताखिलभूमि चित्रं,
भूत्याऽऽश्रितं य इह नाऽऽत्मसमं करोति ॥६३॥ [भक्तामर स्तोत्रपादपूर्तिरूपश्लोकदशकम्]
॥ इति श्रीगुरुवर्णनम् ॥ किञ्च – प्रमाणमार्ग प्रति दत्तभावाः, प्रायेण धीमज्जनसज्जरागाः । परोपकाराय कृतप्रयासा-श्चिराय लक्ष्मीविजया बुधेन्द्राः ॥६४||
[उपजातिः] पाण्डित्यसौहित्यगृहं सदैव, सौजन्यपात्रं रविवर्धनाख्याः । वाचंयमानां निपुणा गणेषु, श्रीजित्पदोपासनसावधानाः ॥६५।। साधुनक्षत्रसन्दोह-श्वेतद्युतिसमप्रभाः । पण्डितेषु वराः श्रीमद्-यशोविजयसञ्जकाः ॥६६॥ [अनुष्टुप्] श्रीजित्सेवाधनग्रासा, धनादिविजया बुधाः । गणयोऽच्छगुणारामा-स्तत्त्वादिविजयास्ततः ॥६७|| श्रीमन्तो हेमविजया, जयादिविजया पुनः । यश्च श्रीजित्पदोपासी, नतश्चाऽनुनतोऽपि तम् ।।६८||
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किञ्च - भूयसीतरां कृपामवधार्य वलमानं पत्रं प्रसाद्यम् । श्रीजिनप्रणामवेलायां शिशुः स्मार्यः । आशुविजयदशम्यामिति मङ्गलम् ॥
[बहारना भागे - ]
अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
॥ पूज्याराध्य ॥ सकलभट्टारकप्रभुभट्टारकपुरन्दरभ० श्री१९ श्रीविजयप्रभसूरीश्वरचरणकमलानाम् ॥ नीकावात: लालविजयलेखः ॥
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जान्युआरी
२०१३
(१४)
दीवबन्दिरस्थ - श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति प्रह्लादनपुरात् पण्डितलालकुशलस्य लेख :
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
स्वस्तिश्रियः सेवधिरद्वितीयः, श्रीपार्श्वसार्वो जगदर्हणीयः । अचिन्त्यचिन्तामणिवद् विभूते-र्दाता दयाम्भोनिधिरस्तु सिध्यै ॥ १॥ [ उपजाति: ] स्वस्तिश्रियः सन्ततमाश्रयन्ते, ये पार्श्वसेवाविधिसावधानाः । प्रावृद्धृतुप्राप्तपयः प्रवाहा, इवोदधि द्वीपवतीसमूहाः || २ || एनं श्रीमन्तमर्हन्तमभिनोनूय भक्तितः ।
प्रह्लादनपुरप्रेङ्खत्-शीर्षपुण्ड्रमिव प्रभुम् ||३|| [ अनुष्टुप् ] यत्राऽर्हतां चैत्यपरम्परासु, क्षीणाष्टकर्मप्रतिमा विभान्ति ।
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मनीषितार्थान् प्रविधातुकामाः, स्वर्गादिव स्वस्तरवः समीयुः ||४|| [ उपजाति: ] विमानतुल्यानि गृहाणि यत्र नार्यः सुरीभ्योऽभ्यधिकप्रभाढ्याः । महेश्वरा यत्र पदे पदेऽपि, लोका विशोका धनदानुकारिणः ॥५॥ गुरुर्गुणानामुदधिर्गरिष्ठः, स्त्रैणानि नाराणि मनोहराणि । मुमुक्षवः पक्ष्मपुटोपधार्याः, स्वाध्यायसद्ध्यानस [मु]द्यताश्च ॥६॥ इत्यादयो यत्र पदार्थसार्था, अनेकशः सन्ति विशेषवर्ण्याः । तस्माद् विधिज्ञैर्विविधैर्विलासैः, स्वर्गाधिकेयं किमु नोपवर्ण्य ॥७॥
श्रीमत्पूज्यपदाम्बुजद्वयरजःपूतीकृताभ्यन्तरे,
दिक्चक्रप्रथिते प्रभावनिभृते भूभामिनीलोचने ।
आनन्दप्रथमानपुण्यपटुतापाण्डित्यपूर्वाचलो
द्योतादित्यकरानुकारिसुगुरौ द्वीपाये बन्दिरे ॥८॥ [शार्दूल० ] जीर्णोद्धृतजिनागारः, सुन्दरोदारवेश्मनः ।
प्रह्लादनपुरात् पुण्याद्, भक्तश्राद्धविराजितात् ||९|| [ अनुष्टुप् ] आनन्दाद्वैतचेतस्को-ऽभिवन्द्य गुरुपत्कजम् ।
लालादिकुशलः शिष्यो विज्ञप्तिं तनुतेतराम् ॥१०॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
यथाकृत्यमिह प्रातः, पठन पाठनं परम् । व्याख्यानकरणाद्यं च, धर्मकृत्यं प्रवर्तते ॥११॥ श्रीमत्पूज्यपदाम्भोज-प्रसादाद्भुतवैभवात्।
निर्विघ्नं जायते धर्म-कृत्यं सर्वार्थसिद्धिदम् ॥१२॥ अपरं
अखिललोकचमत्कृतिकारिणी, मुनिपतेर्भवतापनिवारिणी । अवितथा वितथा नु भवेन्नहि, गुरुमुखप्रभवाऽपि सरस्वती ॥१३॥
[द्रुतवि०] अघटमानमिदं घटतां जनः, सुरगुरोरपि मौर्ण्यकृतप्लवम् । अपि भजेदहिरप्युपशान्ततां, विघटते वचनं सुगुरोर्नहि ॥१४॥ अभिभवं सहते सुरवारणः, समदगोघटितं विधिवाहितः । नरमते गुरुवाक्सितपत्रिणी, वितथशुक्लसरोवरसङ्कटे ॥१५॥ शरणतामुपयान्तिं सुरा अपि, प्रथितपुण्यरुचः प्रतिपत्तये । जिनमतानुगता दनुजन्मनां, विफलतामुपयान्ति वचांसि नो ॥१६॥ अभिभवं सहते यदि कहिचित्, मृगपतिर्मंगवर्गविनिर्मितम् । तदपि नो गुरुराजवचः क्षयं, क्षितितले प्रतिपन्नवि[धि]व्रजेत् ।।१७।। निविशते यदि मेरुधराधरः, क्षितितलं क्षितिमेति यदाऽर्णवः । गुरुवचस्तु तथापि न हीयते, मनसि मे प्रतिभाप्रभवः प्रभो ॥१८॥ सवितरि प्रथमानमहोदयं, कृतवति स्फुटता तमसः क्वचित् । न लभते चलतां वचनं गुरो-रिति मतिर्मनसि स्फुरति प्रभो! ॥१९॥ यदि कदाचिदुदेति दिवाकरो, वरुणदिक्पतिपावितदिक्पथे । न चलते वचनं सुगुरोरपि, निजमुखेन भवेत् प्रणितं स्वयम् ॥२०॥ तैस्तातपादैः प्रथितप्रसादै-ममाऽवधार्या प्रणतिस्त्रिवेलम् ।
ज्ञाप्या च तत्रत्यमुनीश्वराणां, यथावबोधं नतिरल्पका च ।।२१।। तथाहि
वाचकश्रेणीशार्दूल-विनीतविजयाभिधाः । पण्डिताखण्डलश्रीम-दमराद्विजयाग्रिमाः ॥२२॥ रमणीयगुणागाराः, श्रीरामविजया बुधाः । अपरे रामविजयाः, चातुर्यरसपेशलाः ॥२३॥
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जान्युआरी - २०१३ पण्डिता धन्यविजयाः, सदाचारपरायणाः । सौभाग्यैकगुणागाराः, श्रीतत्त्वविजयाः शुभाः ॥२४॥ इत्यादिसाधुसिंहानां, तत्त्वसेवाविधायिनाम् । वन्दना चाऽनुपूर्वा च, यथापर्यायमादरात् ॥२५।। अत्रत्यानां च साधूनां, प्रसाद्या परमैर्यथा । पण्डिता वीरकुशला, लब्ध्यादिकुशलस्तथा ॥२६॥ भूपतेः कुशलश्चैव - लाडकर्षिमुनिस्तथा । सौभाग्यकुशलाह्वानो, कान्तेः कुशलसंज्ञकः ॥२७॥ कमलात्कुशलाह्वानो, झंझर्षिश्च मुनीश्वरः । कलर्षिर्नामतः साधुः, सर्वे प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥२८॥ त्रिसायं तातपादाब्नं, प्रणमन्ति प्रमोदतः । पार्श्ववर्तिमुनीन्द्राणा-मेतेषां व्रतिनां पुनः ।।२९।। अत्रत्यः सकलो भक्त्या, सङ्घः श्रीतातभक्तिभृत् । प्रत्यहं नंनमीति द्राक, तातपादपयोरुहम् ॥३०॥ अर्हन्नमनवेलायां, स्मारणीयः शिशुः स्वयम् । वलमानं प्रसाद्यं वा, पत्रं परमप्रीतिदम् ॥३१॥ भक्तिप्रहृमनाः प्रेम्णा, कान्त्यादिकुशलः शिशुः । श्रीमत्तातपदाम्भोजं, नंनमीति प्रमोदभृत् ॥३२॥ इति मङ्गलम् ॥ मार्गशीर्षधवलदशम्याम् ॥
[बहारना भागे-] पं. लालकुशलगणिलेख
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
(१५) देवकपत्तनस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति साहिज्यपुरत: पण्डितहीरविमलस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्तिश्रिय: प्रस्तुतवस्तुकर्तु-नि:शङ्कमकं सकलार्थसिद्धयै । सिषेविरेऽशेषसुखाश्रयाय, यस्यैष वस्तीर्थकरः स सिद्ध्यै ॥१॥ [उपजातिः] स्वस्तीन्दिरा सुन्दररूपमारा-द्वभाज राजानमजा यमेनम् । जगत्त्रयाशेषविशेषराज्य-चिकीर्षया हर्षभृता कृतार्था ॥२॥ स्वस्तिश्रियो यं वनिताः समस्ता, ददुर्मनोऽन्यासदृशं विशिष्य । प्रायेण सद्रूपवतां नताङ्ग्यो, मृगीदृशो नाम वशीभवन्ति ॥३॥ स्वस्तीन्दिराया जनिराजनिष्टा-ऽबलासु सर्वासु फलेग्रहिौँ । यतोऽन्यसामान्यवधूनिषेध्य, स्वयम्भूरुद्वाहमुवाह यस्याः ॥४॥ स्वस्तिश्रियः किं नु ततश्च निश्चला, यतो बभूवुर्विभुमेव वव्रिरे । श्रियश्चला इत्यपलापमापुः, कपोतपातृप्रभुणेवमुक्ताः ॥५॥ स्निग्धोऽसि किं मुग्धवधूभिरीश-स्तत्रैव नः पूरय चिन्तितार्थम् । ताभ्योऽधिकाऽहं परभागसङ्घ-मृगोऽनु सिद्ध्यङ्गनयेति मुक्तः ॥६।। स्मरस्यदो मेदुरपुण्यपुण्य-श्रीषेणनामा नृपतिभ(भ)वस्तत् । चिकीर्षुरस्माभिरमा विनोदं, चेतो निजं मोक्ष्यति मक्षु दक्षम् ॥७॥ अदायि अद्योपचितिर्जगत्या, जगत्यधीश! त्वयका तिरश्चाम् । क्षणान्मृगाणामपि किं न तन्नः, पदोऽप्यदो दास्यसि किङ्करत्वम् ॥८॥ बभ्राम शुभ्रच्छविना मृगो मा, भयेन मन्ये गगने हरीणाम् । असाध्वसस्तिष्ठतु शिष्ट एष, त्वदीयपादद्वितयानिमग्नः ॥९॥ पूर्णस्य सच्चन्द्रमसोऽपि पाप-मदांस(?)दम्भोऽङ्कतले कलङ्कम् । निविश्य विश्वे दुरितं दुरन्तं, जहीहि तन्मे कथितुं किमेणः ॥१०॥ सिषेविषुस्त्वच्चरणौ यदेणं, शिशुं निजं यत् प्रजिघाय तुभ्यम् । निजेन नाऽऽगाद् रजनीश ईश!, ह्यसंशयं बिभ्यति सापराधाः ॥११॥
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जान्युआरी - २०१३
१५३
जात्या य एणः शशिनीश्वरेऽपि, स एव पूर्वोऽटति पूज्यते परः । मन्ये महिम्नाऽधिपतेः प्रतिष्ठा, तथाच व्यक्तिः परमः सपक्षः ॥१२॥ जगाम रामादरतोऽन्तरिक्ष्ये, गृह्णन्ति सर्वा नयनश्रियो मे । तथापि किं किं करवाणि नाथ!, विवक्षुरागादिव किं कुरङ्गः ॥१३।। स्पर्धा विधेया सुधियाऽपि सत्रा, हितैषिणा नो महताऽहितेऽपि । स्थलं न तावद् भवते कलङ्क, शशीव ते सार्वमुखेन कुर्वन् ॥१४॥ निजोन्नति लिप्सति य: परेण, स्पर्द्धाभिराहेव तदुन्नतत्वम् । शङ्के स्वकस्यां च तनौ तदीया, लोकम्पृणा येन गुणा न सन्ति ॥१५।।
अष्टभिः कुलकम् ॥ त्वयि प्रभो ! सर्वगुणा इतीव, हरादयो निर्गुणतां भजन्ति । त्वमस्य(स्त?)दोषः किल ते सदोषा-स्त्वदस्ति सर्वं विपरीतमेषाम् ॥१६॥ पूर्णो गुणैः क्षोणीतलेऽवतीर्णो, जवाद् भवानेव न चोद्यमद्य । गुण्याश्रिता एव गुणा यतस्ते, प्रामाणिकानां समयानुरोधात् ॥१७।। यत्रैव धूमः परमोऽस्ति धूम-ध्वजोऽन्वयिव्याप्तितयेति तत्र । निश:पतिः कुण्डलकैतवेना-ऽत्र तय॑ते दर्शनतो मृगस्य ॥१८।। निजाम्बकच्छायममाययोऽपि, याभ्योऽवितुं न प्रभुरेण आस । तासां सपर्याः सुदृशां स लेभे, विभो! प्रभावश्चरणस्य ते सः ॥१९।। समूलघातं निहताः सपत्ना, अमी समीचीनतरं कृतीश! । एकोऽपि दुःखाकुरुते य दक्षो, विधुन्तुदः स्वच्छविधुं विपक्षः ॥२०॥ उदेति चित्रं हृदये कवीना-मिदं महीयो महिमैकवास! । विकाशते ते वदनारविन्द-विलोकनाद् हनलिनं जनानाम् ॥२१॥ तवाऽऽननं तैरणुभिर्विधाता, विधाय सारैः स्थिरधीरधीश! । सितद्युतेर्नामकृतेर्व्यधत्त, शिलोञ्छवृत्तिं किमु शङ्कयामः ॥२२॥ परस्परामर्पितचित्तचञ्च, लोकत्रयं नाऽजगणद् यदीयम् । गुणोच्चयं बालचणः प्रसह्या-ऽप्यहं कथङ्कारमलं भवामि ।।२३।। क्षणेन विकृत्तचिरत्नपापा, नृराजयो यं विरजीभवन्ति । प्रणत्य तन्नामविशुद्धमन्त्रं, संस्थाप्य चित्ते विधिवन्निदानम् ॥२४॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ किमधिगत्य झगित्यधिकं बभौ, भुवमिमां नगरी न गरीयसी । अधिगता वसतिं च न केऽजिरे, वरगुणैरगुणैर्बहुरेजिरे ॥२५॥ [द्रुतवि०] नववधूरिव साधुजनानपि, भृशमसौ परिमोहयते पुरी । नवसुधांशुमुखा सुखकारिणी, निजधवस्य भवस्य हिमाद्रिजा ॥२६॥ न च विरञ्चिरपि प्रभुरप्रभु-रिह पुरो गदितुं सुपरार्थ्यताम् । निजकृतेरपि धान्यततेः स्फुट-मजगणन् नु कणानिव कर्षकः ॥२७॥ यत्र ज्वलद् वेश्मनि कश्मलत्वं, मध्येऽपि सन्धौ विबुधैर्विधिज्ञैः । अभ्रङ्कषेनेक्ष्यत एव जातु, म्लानिं मनो नो महतां हि जातु ॥२८॥ [इन्द्रवज्रा] जिनेन्द्रसान्द्रद्युतिमद्विहाराः, कृतप्रहारा इव किं कुठाराः । चकर्तिपूणां विदुषामशेष-पापद्रुमानन्तरनादिसंस्थान् ॥२९॥ [उपजातिः] भृशं विशाला मृदुचन्द्रशाला, यस्यां चकासत्यनघा यदुच्चैः । संघट्टयन्त्यो विकचं सुचन्द्रं, सान्वर्थसंज्ञा इव तद् बभुवुः ॥३०॥ प्रसेदिवांसः प्रसभं पुमांसः, सहस्रशो यत्र समुल्लसंति । सदिन्दिरामेदुरमन्दिराश्च, निजार्चिषा निर्जितनिर्जरौघाः ॥३१॥ ततान जानामि पितामहेन, पुनः पुनाराटिमिवाऽष्टमूर्तिः । जहार कामं स हरश्चकार, कः कामिनोऽस्तं(?) शतशः कुमारान् ॥३२।। बभूव भूयोऽपि भवस्य भूमा-वनङ्गभूजानिपरासनश्रमः । परः सुलक्षाश्च नर: पुरीह, प्रसूनधन्वान इवोरुसाराः ॥३३॥ अस्यां तु दस्रौ रमणीयघस्रो, नाऽऽजग्मतुस्तिग्मरुची इतीव । मिथोमिथे(?) लभां शरदां सहत्रै-रेतेषु तत्तत्तरुणेषु यन्न ॥३४॥ हल्मात्रझल्मात्रविधानभिज्ञो, यो मानवः सोऽपि भवेत् क्षणेन । क्षुणैनसां वाङ्मयसद्मनीह, ज्ञाता च षण्णामपि दर्शनानाम् ।।३५।।
__ इति पुमांसः ॥ निजै(जे?)शै रमा निर्निमेषं प्रफुल्ला-रविन्दा[न]ना निष्कुटेषु स्फुटेषु । सदा राजिराजीवराजीवरेषु, सरस्सु प्रतापाधिकैः किं नु रत्यः ॥३६॥ कृशाङ्ग्यो भृशं मानुषीत्वं गताऽपि (?गता अपि), गुणै! तथाऽहो जहत्यप्सरस्त्वम् । क्विबन्ता नु शब्दा मते शाब्दिकानां, न धातुत्वमुज्झन्ति शब्दं च यन्ति ।।३७||
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जान्युआरी - २०१३
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हतश्रीमंगश्रेणिरेणीदृशाभि-रभीक्ष्णं वने भ्राम्यती चाऽत्र मन्ये । निजस्वच्छचक्षुच्छवीनां वितानैः, शशाङ्केऽपि कश्चित् सलज्जः स एव ॥३८॥ वयं चिन्तयामः किमस्या वशानां, सुवर्णं सुवर्णं तनौ जीववर्ण्यम् । असंसह्य दंदह्यते किं कृशानौ, यदीालवस्तापसन्तापभाजः ॥३९।। किमन्यद् वदामः सदा मर्त्यलोक, इदं पूरपूर्वाङ्गनायाः स्वरूपम् । समीक्ष्येव नो यन्ति चाऽऽकाशनार्यो, निजास्यं भृशं दर्शयन्ते सलज्जाः ॥४०॥
इति नार्यः ॥ अतिचारुहयाः सहस्रशः, सुरयाः स्वच्छसमीरणभ्रमाः । विविधा अपि पञ्चवर्णका, व्यतिभातेत नु यत्र सन्ततम् ॥४१॥ [प्रबोधता] समदा द्विरदा विरेजिरे, शतशो यत्र पुरे परायके । गिरयो नु भयाद् बिडौजसः, किमु वासाय नु जङ्गमा इमे ॥४२॥ प्रतिपाद्यगजाः पृथुश्रियं, कासारप्रसरत्सदर्थिने । निजहस्तपतज्जलच्छलाद्, ददते स्वस्तिजलानि शाश्वतम् ॥४३॥ करिणः करचालनोपधे-रधिकं साधुजनाननारतम् । प्रणमन्मनुजा वयं यथो-पदिशन्तीव चयन्ति तेऽर्हणाम् ॥४४॥ बहवोऽपि हि चित्कृत्कृता, खुरगाश्चत्वरगा द्विपा अपि । कपिसारसिकैः प्रतिगृहं, प्रतिभित्तिप्रतिपत्तिकारिता ॥४५॥ बहुपाटलशालभञ्जिका, मुखचन्द्रेषु चललक्ष्मणकाः । यदनेकनिवासवासिभि-हरिभिः कुक्षिगतीकृताः किमु ॥४६|| पवित्रितायां वरपूज्यपादै-र्गतप्रमादैः किल यत् पुरीव । वर्धापनाय प्रमदातिरेक-विवेकसोत्कप्रमदाभिराशु ॥४७॥ [उपजातिः] कस्तूरिकापूरकरम्बितो य, उच्छालितः स्वच्छतरः सुगुच्छः । प्राप्तः स्थिरत्वं गगने सलक्ष्मा, स एव शुभ्रांशुरभङ्गुर श्रीः ॥४८॥ युग्मम् ।। इत्थमिदं विविधोक्तिभिरुक्तं, भासुरमाशु रमारुचियुक्तम् । निर्जरनाथपुरीरमणीयं, यन्नगरं नवरङ्गसरागम् ॥४९॥ [दोधक] श्रीपूज्यपादक्रमणारविन्द-संपाविते देवकपत्तनाख्ये । साक्षाददो देवकपत्तनेऽन्व-भिख्यातिविख्यातिमति प्रतीते ॥५०॥ [उपजाति:]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
॥ अथेतो नगरवर्णनम् ॥ भृशं विशालाऽपि हि नो विशाला, जनानवन्ती ह्यपि नो अवन्ती । तथा पृथुद्वारवतीह विष्व-गियं नवद्वारवती तथापि ॥५१।। श्रीशान्तितीर्थाधिपतेविहारो, बभस्ति यत्रेव गभस्तिरेकः । समस्तसत्त्वेहितसिद्धिवृद्ध्यै, निधानमुरूवलये किमेषः ॥५२॥ यस्मै नमः स्मेरमुखा विशिष्य, चक्रुः सहर्षाः पुरुषाः प्रभाते । संसारभीता इव किं विनीता, स्वस्वामिनेवाऽनुचरा इवोच्चैः ॥५३।। यत्राऽऽर्हताः शाश्वतवीतरागा(ग?)-प्रणीतधर्मैकसुनर्मरागाः । वैराग्यरङ्गा भृशसाधुसङ्गाः, शरीरसौन्दर्यतरैरनङ्गाः ॥५४॥ सम्यक्त्वरत्ना धृतयत्नपूराः, सदा सदाचारविचारशूराः । वदान्यभावाल्पितकल्पशाखि-सद्रोहणामहँगवीमुखाश्च ॥५५॥ पाठान्तरम्(?) ।। न सन्त्यदः कामगवीसुरद्रु-चिन्तामणिरोहणसानुमन्तः । शङ्केऽदसीयाऽऽस्तिकसौवदान्या-दिवाऽधिकं किं किल लज्जमानाः ॥५६।। प्राण दशार्णं वसनार्णमेव, न कम्बलार्णं न तु वत्सरार्णम् । ऋणार्णकं वत्सतरार्णमेवं, न कस्यचिन्नाम जनस्य भूयः ॥५७॥ परम्परा यत्र जिनेश्वराणां, यथोत्तरं वर्यतरा विरेजे । इतीव नः पादयुगार्चनेन, यथोत्तरं चारुफलानि च स्युः ।।५८|| तथा पुनर्लालपुरे जिनानां, सौधत्रयी कान्तिमयी बभस्ति । भवार्णसांराशिपतत्रिलोकी-नृरक्षणायैव तरीत्रयीव ॥५९॥ श्रीतातपादक्रमणारविन्दा-भिवन्दनासक्तगृहस्थवृन्दाः । कृपालवः कोमलचारुचित्ता, यस्मिस्ततः साहिपुरादजीर्णात् ॥६०॥ सानन्दवृन्दं सुतराममन्द-माकण्ठमुत्कण्ठितमानसं च । स्फुरत्सुरोमाञ्चमचञ्चलोरु, हर्षप्रकर्ष विहतात्यमर्षम् ॥६१|| ललाटपट्टेऽञ्जलिमञ्जसैव, संयोज्य भक्तिप्रतिपन्नमानसः । अचण्डरोचिः किरणावलीढां, कुमुद्वतीं वै सशिलीमुखामिव ॥६२।। तनोति हीराद्विमलो विनयो, विज्ञप्तिपत्रं विनयावलिप्तः । सद्वादशावर्तकवन्दनेना-ऽभिवन्द्य हृद्यं विधिवद् यथाप्तम् ॥६३||
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जान्युआरी - २०१३
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॥ अथ प्रातवर्णनम् ॥ दिशि दिशि भृशं तारास्तारानचारिमतां दधुः, सुरपरिवृढस्त्रीणां हारच्युता इव मौक्तिकाः । विधुरपि पुनर्लानच्छायो विहायसि राजति, तिमिरनिकरः शुभ्रीभावं दधाति चिरन्तनः ॥६४॥ [हरिणी] रविविरहितामेतामेकाकिनीमनिशं विधुरधिकनलिनी तापं तापं मुधा यदपीडयत् । तरुणिररुणश्चन्द्रं सान्द्रार्चिषा ननु पर्यभूत्], प्रतिदिनमदः स्मारं स्मारं कृतं खलु भुज्यते ॥६५|| वियति चतुरो यामान् यावद् युगान्युडुभिः सममजनि रजनीनाथो राजा निजेन निजेच्छया । उडुपरिवृतः सोऽपि क्षुण्णः क्षणेन रणे रवेविरहिविधुरश्रेणिकारी भृशं न सुखं लभेत् ॥६६।। समुदमुदयीभावं दध्रुः कुशेशयपङ्क्तयः, सरससरसीवापीकूपा अपि प्रसभं बभुः । विलसति सुखं हर्षोत्कर्षं रथाङ्गयुगं मिथो, . गतवति तमोराज्ये प्राज्ये न कः सुखमेधते ॥६७|| उदयदरुणस्फारैस्तारैरखण्डिततण्डुलैः, किमु समुदिता वृद्धा वर्धापयन्ति दिशो भृशम् । जय जय जगद्वन्धो! शङ्खध्वनिच्छलतो ध्रुवं, ददुरिति पृथु प्रातचर्चाशीव(श्चाशीर्व)चांसि विहायसि ॥६८।। इति प्रभाते सहसैव जाते, पार्षद्यभूयःसमुदायभाजि । अतीव[व]र्ये वणिजां समाजे, समागते तत्त्वततीबुभुत्सौ ॥६९॥ [उपजातिः] स्वाध्यायतः संयमशुद्धयेऽत्र, श्रीपञ्चमाझं समुदं सरङ्गम् । व्याख्यानतः ख्यातिकरं तदेव, सदैवतं कोविदवृन्दवन्द्यम् ॥७०|| वाचंयमानां धृतसंयमानां, क्षमारमाणां विनयान्वितानाम् । नानाविधं बन्धुरपाठनं च, क्रमेण योगोद्वहनं घनं च ॥७१।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तपोपधानादिकवाहनं चा-ऽतिवर्यतुर्यव्रतपालनं च । श्रद्धावतां बुद्धिमतामितीह(हाऽ-) भवत् परं संप्रति धर्मकृत्ये ॥७२।। सना जिना_रचनां धनाढ्या, बाढं वितन्वन्ति दृढीभवन्तः । अचीकरय्ये(न्ये?) परमेष्ट्यगारे, श्रा(स्ना)त्राण्यलं षष्ट्यधिकं विहारे ॥७३।। यत्पर्वणोऽस्त्यङ्गतया सवर्णं, चराचरे न व्यवहारतोऽपि । यथा यकारस्य यपेष्टपीह, किं नाम सावर्ण्यमलं दधाति(?) ॥७४॥ क्रियागुप्तम् ।। समागमत् पर्युषणा सपर्व, क्रमेण तत् तादृगमन्दगर्वम् । सुपर्वसर्वस्वमिदं प्रधानं, किमुत्तमं वास्तुमतां निधानम् ॥७५।। सामाजिकाः श्राद्धजनाः समग्रा, गत्वेशितुः सद्मनि धामभाजि । क्रमादमारेः पटहारवाणि, व्यचीकरन्नुन्नतये वराणि ॥७६।। श्रीकल्पसूत्रं स्वगृहे च लात्वा, निशीथिनीजागरणं विधाय । प्रातर्गुरूणां चरणे प्रवीणा, आगत्य सन्मङ्गलगानपूर्वम् ॥७७|| शृण्वन्ति ते भव्यनवप्रभावना-विभावनां भावनया विधाय । कल्पद्रुकल्पं वमिताल्पजल्पं, श्रीकल्पसूत्रं सततं पवित्रम् ॥७८॥ पारेगिरां चारु तपस्तपन्तो, निरस्य पापं विरजीभवन्तः । दानं निदानं पुनरुल्लसन्तो, ददुर्न दूनाः सुगतेर्हसन्तः ॥७९।। सांवत्सरं दानममानभक्त्या, मिथः प्रयच्छन्ति यथेच्छमुच्चैः । अकारयन्नुग्रसमग्रपारणा-विधि तथा धर्मनिधि तथाविधम् ॥८०॥ इत्याद्यनन्तैः सुकृतैः समर्थ-मर्थिव्रजानामपुपूरदर्थम् । यत् पर्व तच्चारुमहामहालि-युतं व्यतीयाय ततोऽधुना [हि] ॥८१॥ जिनेश्वराणां सदनेषु भूयो, पूजा महौजा बहुभक्तिपूर्वम् । दिग्सङ्ख्यकैः सप्तयुतैश्च भेदैः, पञ्चोत्तरा विंशतिराविरासीत् ॥८२।। तथाऽऽह्निकं संप्रति धर्मकृत्यं, संजायते साधु समेधमानम् । ममाऽपि सातं सपरिच्छदस्य, श्रीतातनामस्मरणानुभावात् ।।८३।।
॥ अथ गुरुवर्णनम् ॥ नाऽहं प्रभो! किं करवाणि वाणी-प्रसादमासाद्य च किङ्करस्ते । तव प्रभावात् स्तुतिमुत्तमां त-दमन्दमेधा इव मन्दमेधाः ॥८४||
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मेधाविवेधा अपि तावकीन - गुणान्नवा वक्तुमलं बभूव ।
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यदैकवक्त्रेण तदा स्वयम्भूः स्वयं चतुर्वक्त्र इवाऽजनिष्ट ॥८५॥ तव प्रभावप्रभुतावदित्सु -श्चतुर्मुखो शम्भुरथ त्रिमूर्तिः । आसीदिवाऽधीश्वर! शङ्कयामो, न वेद यो वेदजडश्च तत्त्वम् ॥८६॥ किञ्च
यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्, तस्याः समाप्तिर्यदि नाऽऽयुषः स्यात् । पारेपरार्ध्यं गणितं यदि स्याद्, गणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् ||८७|| दुःशासना दर्शनमीश! ये ते, न कुर्वते राज इतीवमन्याः । हानिस्तु तेषामिव कौशिकाना - मपश्यतां भास्करमीयेव ॥८८॥ यतीश! यत्ते पुरतः कवीशै - रुद्भाव्यते शास्त्रवच: समग्रम् । तदत्र तेषां गणनागुणः स्या[त्], सर्वागमक्षोदविदो महीयान् ॥८९॥ अनूपमं ते वदनं विधाय वेधा व्यधान्नाऽन्यमिह स्वशिल्पम् । अथोपमायै नु विचिन्त्य चेतो, वस्तुद्वयेक्षा सुविशां हि लोलम् ||१०|| अथोपमा चाऽप्युपमेयता च, स्थितं तवाऽऽस्ये द्वितयं यतीश ! । न चित्रमत्रैकसुते यथैव, सज्ज्येष्ठता चाऽपि कनिष्ठता च ॥ ९१ ॥ अवन्दितत्वच्चरणद्वयानां, निदर्शनं चैष शशीव शङ्के ।
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मुखस्य ते तात ! न चाऽयमीदृग्, धृतं स्य यथा ( ? ) मुत्र युगे हि मुक्तेः ॥९२॥ मुहुः कुहूभस्मनि कश्मलत्वं हर्तुं विधिर्धर्षति शर्वरीशम् । तथापि ते वक्त्ररुचिर्न तस्य, स्वाभाविकात् कृत्रिममन्यदेव ॥ ९३ ॥ वृतो जवात् संयमवामनेत्रया, परीक्षितः साक्षरशुद्धमेधया । विलोकित: सर्वगुणैश्च सम्य - गुपेक्षितो दूषणचक्रवालैः ॥९४॥ यशोमरालं भुवनत्रये च संलालयन् विश्वजनैः सलीलया । कृतार्थयन्नर्थिजनाननारतं, रतिं दधन् कोविदवृन्दमुच्चकैः ||१५|| प्रदीपयन् भास्वरजैनशासनं दधँस्तदाज्ञामतुलां स्वचेतसि । रतीशितारं निरूपाख्यरूपया, संड्रेपयन्नंड्रिकनिष्ठयाऽधिकम् ॥९६॥ विकाशयन्नाशु कुशेशयानि भव्यानि भव्यानिशमोदि हृन्दि । निजप्रतापैः किरणैररीणां श्यामायमानानि मुखानि तन्वन् ॥९७|| तपन्नलं दुस्तरविस्तरं तपः, क्षिपन् पुनः कर्मचयं जयन्नयम् । विचारयन्नागमभावभेदान्, संपाठयन् शिष्यपटिष्ठवृन्दान् ॥९८॥
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
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गुणैरगाधः कृतपापबाधः परैरबाधोऽनुचरैः सुसाध: । मेधाविमेधाकषकः स भूरि, तनोतु वः क्षेममनर्घ्यसूरिः ॥९९॥
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दक्षो महोदयमयः समयायधाम, सम्यग्नतो शतनरप्रकरैरशङ्कः ।
विश्वेशिता विकसितं रतिमातनोति, विश्वे दमी विशदमर्त्यततेर्मद (मा) न्तः ॥ १००॥
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दुःशासनानां दमनोऽसि तावत्, तथापि तेषां पुनरीशिताऽसि । आतङ्कशङ्काङ्कुरकृन्मृगाणां, मृगाधिपः किं न जनैरभाणि ॥ १०१ ॥ अचञ्चलत्वं कनकाचलस्थं, गाम्भीर्यमार्याम्बुनिधेर्विधोश्च ।
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खण्ड १
सौम्यं प्रतापस्तपनादनन्तं, गिरः स्फुरन्ती वचसां कला च ॥ १०२ ॥ रूपं हरारेश्च गुरोः सुराणां मेधा च सारं सुतरां मृगारे: । त्रयो गुणाः स्वात्मवरत्रिमूर्ते - लत्वेति मूर्तिस्तव किं व्यधायि ॥१०३॥ [युग्मम्] इत्थं महाकोविदवृन्दकोटि-संस्तूयमानः समतानिधानः ।
सूरीशमुख्यः सततं विशिष्य, सदैषको नः शिवतातिरस्तु ॥ १०४ ॥ श्रीतातपादैः क्षपितप्रमादैर्गतावसादैर्मुदितज्ञवृन्दैः । स्वगात्रसातव्रजवावदूकं, शिशोर्मुदे पत्रवरं प्रसाद्यम् ॥१०५॥
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यैव्रीडितः क्रीडति किं नु जीवः, सुरालये स्वीयवचोविलासैः । स्वकायकान्त्या दमितो रतीशो, भस्मावशेषं तु चकार कायम् ॥ १०६॥ तेषां महानन्दजुषां विशेषा-दशेषपाण्डित्यकलालयानाम् । श्रीवाचकानां वचने स्थितानां श्रेयो विनीताद्विजयाभिधानाम् ॥१०७॥ [ युग्मम्]
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सर्वप्रज्ञालमुख्यश्री-अमरविजयाभिधाः । नयैकधनसमृद्धाः, श्रीनयविजया बुधाः ॥१०८॥ [अनुष्टुप्] यशोधनधुराधुर्या, धर्मसाचिव्यसत्कलाः । दधते विधिवद् ये श्री-यशोविजयपण्डिताः ॥१०९॥ प्राप्तरूपप्रभूतश्री-रामविजयकोविदाः । चातुर्यवर्यविबुधाः, श्रीधन्यविजयाभिधाः ॥११०॥ सौभाग्यभाग्यैकसीमा, सौभाग्यविजयो गणिः । चतुरः सर्वमुनिषु, चतुरविजयो गणिः ॥१११॥ श्रीतातचरणोपास्ति-स्वस्थीकृतमनाः सना । साक्षरः सुतरां दक्षः, सौभाग्यविजयो गणिः ॥११२।। इत्यादिसाधुसाध्वीनां, श्रीतातपदसेविनाम् ।
प्रसाद्ये तातसत्पादैः, सन्नत्यनुनती उभे ॥११३।। तथाचगणयो हर्षविमलाः, प्रेमविमलसव्रती । अमराद्विमलः साधु-या॑याद्विमलको मुनिः ॥११४॥ तथा नरर्षिः सवृषः, स्थानस्थायी ऋषिर्वरः । रङ्गाद्विजयकः साधु-रुद्यमी रटनापरः ॥११५।। इत्यादयश्च समुदो, मुनयो विनयान्विताः । नंनमन्तितरां तात-चरणान् भृशमादरात् ॥११६॥ शिशोः प्रणामः सुतरां त्रिसायं, सदाऽवधार्यश्च कृपाऽपि धार्या । तथा पुनः सार्वनतौ निजान्तिषत्, स्मार्यो भृशं पूज्यवरैः कृपापरैः ॥११७।।
[उपजातिः] श्रीतातचरणाम्भोजं, नंनमीतितरामरम् । विशेषहर्षभूच्चेता, अमरविमलश्शिशुः ॥११८॥ [अनुष्टुप्]
तथात्र सा. मनजी भीखारीदास सं. धर्मदास सं. हंसराज सं. मनजी नाथु सा. भोगी रहीदास सा. भीमा सा. पूरण सा. लूणजी प्रमुखसकलसङ्घः श्रीपूज्यविमलचरणयुगलं नमति स्मेत्यवधार्यम् ।। तथाच शब्दार्णवकादिदौष्ट्यं, व्यासङ्गसङ्गादपि रङ्गतो वा ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
मया मतिभ्रंशतया व्यलेखि, क्षन्तव्यमेतन्निखिलं कृपापरैः ॥११९॥ [उपजातिः] सूरयस्तारविस्तारि-निःशोध्यगुणसागराः । भवन्ति सन्ततं सर्व-सहा निर्वाहकाः पुनः ॥१२०॥ मार्गशीर्षवरमासि भासुरे, भावतो बहुलपञ्चमीतिथौ । लेख एष लिखितो विशेषक-म(द?)स्तु शश्वदिति भूरिभावुकम् ॥१२१॥
[रथोद्धता] इति श्रेयः ॥
[बहारना भागे-]
पूज्याराध्य । ध्येयतम । सकलसकलभट्टारकपरम्परापुरन्दरभट्टारकश्री १९ श्रीविजयप्रभसूरीश्वरचरणसरसिजानामिदं लेख: श्रीदेवकपत्तने
साहिज्यांपुरात् पं. हीरविमल ग. ११५
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(१६) पुरबन्दिरस्थ-श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति रामदुर्गतः पण्डितकल्याणसागरस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
स्वस्ति श्रीविश्वसेनान्वयसलिलरुहोद्योतने सप्तसप्तिं, त्रिच्छत्रीच्छद्मना यं वसतिपतिरयं शिश्रिये स्वोपचर्याम् । चेतोवाक्कायरूपामुडुनिकरयुतः प्रापयन् पूर्णकान्तिः, शश्वत्रेधा धृताङ्गो वसुविसरभृता स श्रिये स्ताज्जिनो वः ॥१॥ [स्रग्धरा] स्वस्ति श्रीआचिरेयस्त्रिभुवनविजयव्यञ्जकं यो बभार, चोच्चैर्दीप्रातपत्रत्रयमिह भुवने विश्वतत्त्वार्थबोद्धा । उत्कर्षाद् विश्वनाथः किमिति सपदि य: कोऽपि हि स्याच्च वादं, सोऽहङ्कारी समं चेद् रचितुमिव मयाऽभ्येतु वः स श्रियेऽस्तु ।।२।। स्वस्तिश्रीन्दुप्रमितजिनपतेः पादकामाङ्करानां, मिथ्याज्ञानावतमसदलने नव्यभासां निधीनाम् । व्याजेन स्म प्रणयति कमनो(?) दर्पणालिं किमेतां, निध्यानार्थं सुरनररमणीवक्त्रराजीवकानाम् ॥३॥ [चन्द्रलेखा] स्वस्ति श्रियं पुण्यपयोजवासां, गृहीतुकामाः प्रणिपातलक्षात् । भव्याः पदाम्भोजयुगं हि यस्य, श्रयन्ति भक्त्या हरिणध्वजस्य ॥४॥ [उपजातिः] स्वस्ति श्रियं स प्रददातु शान्ति-र्यस्य प्रभावाद् हरिणोऽपि हारिणीम् । श्रियं समाप्तः किमसौ सुधांशो-राधेयतामङ्कमिषात् ततोऽभजत् ॥५॥ भूमण्डलाम्भोजविबोधहंस!, वाचंयमस्वान्ततटाकहंस! । त्वं पूरयाऽर्हन्! ममकामितं स-द्ध्वस्ताघपङ्क्ते! भुवनावतंस! ॥६।। नरामरेन्द्रैः कृतपादसेवः, प्रोद्दामकामोद्वधवामदेवः । प्रत्यूहधूलीव्रजवायुरेव, भूयान्महानन्दविभूतये वः ॥७॥ लक्ष्म्यालयो मङ्गलपङ्क्तिहेतुः, स्वकीयरूपाल्पितमीनकेतुः । संसारवारांनिधिसान्द्रसेतुः, शिवाय भूयाच्चतुरङ्गकेतुः ।।८।।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
प्रकृष्टचिद्धेयतरस्वरूपः, प्रकाशितब्रह्मपरस्वरूपः । राकाशशाङ्कार्धपरार्द्धभाल - स्त्यागेन तुच्छीकृतकल्पशालः ॥ ९ ॥ यो मोक्षलक्ष्मीं श्वसतां ददाति, तमस्तमः सूरमहो स्मराम: । ज्योत्स्नाप्रियः शान्तिमिवेन्दुबिम्बं तमस्तम: सूरमहोस्मरामः ॥ १० ॥ यः संस्मृतः पूरयतीव शश्वत् समाभिलाषान्नपि शान्तिदेवः । सन्तर्जितामर्त्यमहीरुहस्स, सूरीश्वरानन्दकरश्च भूयात् ॥११॥ श्रीशान्तिनाथं शिवकान्तया श्रितं नमाम्यहं रामपुरप्रतिष्ठितम् । सद्देहलीदीप्रतमाञ्जनध्वज- न्यायाच्च विश्वत्रितयप्रकाशकम् ॥१२॥ [वंशस्थः] भ्रान्त्वा भवारण्यमियं मयाऽऽप्ता, त्वत्स्तोत्रपीयूषसुदीर्घिकाऽपि । त्यजन्ति कृच्छ्राग्निगदानमग्नं, तदान्तरे मामतिशीतले कथम् ॥१३॥ [ उपजातिः ] वदनजलजशोभा ते मया वीक्षिताऽद्य, जिन ! भवभयवृन्दं प्रापि नाशं तु सद्य: । उदयति तिमिरारौ किं भजेत् तामसत्व - मपि यवससमूहो वह्निसङ्गे स्थिरत्वम् ॥१४॥ [ मालिनी ] प्रदानकाले भुवने च यस्य, श्रीदः श्रियं स्म प्रवरां तनोति । पातादपातादचिराङ्गनो वः, दर्पस्फुरत्सर्पकलापपिच्छी ॥१५॥ [ उपजाति: ] जिनेन! वक्त्राम्बुरुहं तवेक्ष्य, प्रीतिः किमन्यत्र न सज्जनानाम् । विभुज्य पीयूषरसोत्करं हि नीम्बद्रवं कश्च समभ्युपैति ॥ १६ ॥ अनित्यनित्यात्मकवस्तुरूपो, न्यस्तस्त्वया मानयुगाम्बकश्रीः । स्याद्वाद एष प्रणिहन्ति सिंहः, श्रीशान्तिशम्भो ! खलु वादिनागान् ॥१७॥ प्रह्वीभवत्पादसहस्रनेत्रो, राजीवदीप्यद (द्द) लदीर्घनेत्रः ।
श्रीशान्तिरस्तु स्फुटपुण्यसत्रः श्रिये स्वदानाल्पितकल्पसत्रः ॥१८॥ नृणां च दृष्टाऽपि मुहुर्यदीक्षा, नवं नवं विस्मयमातनोति । प्रतिक्षणं नूतनतां यदेति, रूपं तदेवाऽतिमनोज्ञतायाः ||१९|| प्राप्नोति वृद्धि सुकृताम्बुधिर्य-द्वक्त्रस्फुरत्सोमनिभालनात् सदा । तस्माद् यशोलक्ष्मिमुखानि रत्ना - न्याविर्भवन्ति प्रकटं जनानाम् ||२०|| शान्ते! त्वां सफलीकृतत्रिभुवनं निन्दत्यमर्त्यद्रुमो, दानन्यस्तधनैश्च सस्यगुरुताभञ्जिष्णुशाखः स्थिरैः । टङ्कैः खण्डनवेदनौघविगमात् सम्भूतसातस्थितिः, प्राचीनव्रणिताङ्गरोहणतया नौति ध्रुवं रोहणः ||२१|| [शार्दूल० ]
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जान्युआरी - २०१३ दर्शनं तव गुणस्तवनं त-द्भक्तिकाञ्जलिमहं घटयेयम् । वासवो यदि भुजङ्गमभर्ता, हैहयः क्षितिपतेश्च भवेयम् ॥२२॥ [स्वागता] यद्दर्शनं हर्षपरम्पराणा-माधिक्यमालोक्यमवाप महग् । नदी महावेगमिवाऽम्भसा किं, संप्राप्य वर्षासमयं घनस्य ॥२३॥ [उपजातिः] यस्याऽखिलान् मातुमिव स्फुरद्गुणान्, भवेत् प्रभुः को मिहिकांशुनिर्मलान् । एकोऽपि विश्वत्रितयस्य किं यदुत्तंसाय ते सन्महिमस्फुरद्गुणः ॥२४॥ [वंशस्थ] एनं नताखिलसुरासुरमर्त्यमौलि-माणिक्यधामजलधौतपदारविन्दम् । श्रीविश्वसेनसुतमक्षरचारुरामा-लोलल्ललाटतिलकप्रतिमं प्रणम्य ॥२५।।
[वसन्त०] प्राकाररूप: कनकस्य मेरु-र्नीरन्ध्ररत्नाररिपक्षतिश्च । प्रसादयन् मानवतीं स्वकाङ्कात्, समागतां यां समुवास शङ्के ॥२६।। [उपजातिः] स्नानार्थमुच्चस्तरमभ्रविष्णु-पद्यां विशालः प्रवरः प्रयाति । यस्यां नगर्यां वरणोपनेतुं, मलीमसं शत्रुगजोद्भवं किम् ॥२७॥ वितर्कयन्तीति जनाः समागता, विलोक्य वप्रं हृदये निवेशने । यस्मिन् धरावारवराङ्गनावर-ध्वनिग्रहाष्टापदभूषणं किल ॥२८॥ [वंशस्थ] यत्रान्तरीक्ष्याग्रविलग्नशृङ्गा, जिनालया लोलपताकिकाङ्काः । ऊर्ध्वं विमानान् गलहस्तयन्ति, सख्याधिकात्यभिमानतायाः ।।२९॥ [उपजातिः] यत्र स्फुरत्स्फाटिकचैत्यशृङ्ग-गाङ्गेयकुम्भद्युतिभिः पलायितम् । यदन्धकारैर्हदये तदेव, मिथ्यात्विनां संवरिवर्ति मन्ये ॥३०॥ नभोलिहश्रीजिनसद्मसानु-ध्वजाञ्चलो यत्र चरीकरीति । कशात्वमेवाऽर्कनियन्तृखेद-हृदन्धकारारितुरङ्गमानाम् ॥३१॥ भानुश्च सेवां शुचिचन्द्रकान्त-प्रणीतचैत्यप्रकरस्य यत्र । घस्रोदयादातनुते निता(शा?)न्तं, यावत् सदा स्वप्रतिकायलक्षात् ॥३२।। अभ्रभ्रमाद् यत्र नभोऽम्बुपश्च, तृप्तिं विहारोत्थितधूपधूमे । ऊर्वीकृतासवो(स्यो) लभते ध्वजाग्र-गृहीतमुक्ताभ्रसरित्पृषद्भिः ॥३३।। प्रोत्तुङ्गजैनालयपङ्क्तिसाम्यं, शिलोच्चयानामिव कुर्वतां द्राग् । कोपेन पक्षक्षयमेव वज्री, वज्रेण यस्मिन् नगरे चकार ॥३४।।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ विहारलेखाशिखरैर्जितश्च, श्रवद्भराणां मिषतश्चकार । उच्चत्वया रोदनमेव मन्ये, द्रङ्गे भवानीगुरुरेष यत्र ॥३५॥ यत्राभ्रङ्कषकृष्णरत्नघटितश्रीजैनसद्मप्रभाश्यामीभूतवसुः प्रकामविमला वेल्हत्पताकातता । जाने किं शमनस्वसा स्वपितरं सङ्गार्थमेवं गता, क्रीडत्यङ्कतले घनाश्रयमणेविभ्रासते गाङ्गता ॥३६॥ [शार्दूल०] यस्यां नगर्यां प्रतिबिम्बकेन, पतत्यसौ ध्वान्तभिदे पतङ्गः । तमोभ्रमात् कृष्णमणीप्रक्लृप्त-प्रकृष्टलीलालयभूमिकेषु ॥३७॥ [उपजातिः] भ्रान्त्या कुवेलस्य निशाकरं पुरे, यत्राऽऽलिपङ्क्तिः प्रतिरूपितं खलु । निषेवतेऽनेकमणीमयेषु च, महोन्नतागारतताजिरेषु यत् ॥३८॥ [वंशस्थः] यस्यां निशायां दिनभानुतेजः(जसा), संतप्तया सूर्यमणीप्रक्लृप्तया । पाल्या दुनोति व्रजतां च नो हिम-शेषे नृणां सद्मनि पादयामलम् ॥३९॥ [इन्द्रवंशा] ददर्श लोकैर्हरिणो गृहीत-पिण्डो हरिद्रनगृहप्रदेशे । दन्ताग्रसंलग्नमरीचिरोहो, नम्राननो यत्र तृणेच्छयेव ॥४०॥ [उपजातिः] यस्यां स्फुरच्चन्द्रमरीचिमण्डलै-रेकीकृता रात्रिषु पुष्करे गताः । चकासिरे स्फाटिकसद्मसन्तती-र्वामाः समारुह्य सुराङ्गना इव ॥४१|| वदननीररुहै रजनीकर-मपि जिगाय महीस्थवशागणः । सदनशृङ्गमतीततपद्धति, समधिरोहति यत्र मुधा स्म हि ॥४२॥ [द्रुतवि०] यस्यां महेलावदनोपभास-त्प्राप्त्यै तपस्वी क्षणदाकरश्च । क्षीणो महादेववराङ्गविष्णु-पदीतटे किं वसति स्म मन्ये ॥४३।। [उपजाति:] आकण्ठमग्नं सुमुखीमुखोपमा-प्राप्त्यै पयोजन्म करोति यत्र । पानीयवासादि तपस्तडागे, निवेशने प्राज्यरमाभते च ॥४४॥ यस्यां नगर्यां वरवर्णिनी स-द्रूपस्वरूपेण विमोहितश्च । कामः सकामोऽपि भवेत् परेषां, वार्ता हि का कथ्यत एव नृणाम् ॥४५॥ वप्तेव यस्मिन्नगरे प्रजाप-स्तीक्ष्णान्धकारारिनिभप्रतापः । पाति प्रजां स्वीयसुवंशदीपः, सत्कल्पवल्लीवनमेघरूपः ॥४६।। विराजते यत्र पुरे धरेशो, दुःशत्रुहस्तिक्षणने मृगेशः । रूपप्रभासितकामकान्ति-वक्त्रस्मिताधःकृतचन्द्रकान्तिः ॥४७॥
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जान्युआरी - २०१३
स्वत्यागसन्तर्जितकल्पशालो, यत्राऽष्टमीचन्द्रसवर्णभालः । प्राचीनबहि:समशौर्यजालो, निवेशने चञ्चति भूमिपालः ॥४८।। स्फुटोवरेखाङ्कितचारुपादो, विस्तीर्णवक्षो घननि(भी?)मनादः । यस्मिन् पुरे राजति राजराजः, स्थैर्येण सन्तर्जितशैलराजः ॥४९॥ द्रव्येश्वराणां च मुनिप्रभूणां, प्रत्यालयं यत्र विलोक्य लक्ष्मीम् । इति प्रबुद्धा इह तर्कयन्ति, तर्कालया अस्ति(याः सन्ति) सहस्ररूपाः ॥५०॥ कल्याणमुख्यैकगृहे(ह) प्रबुद्धा, उपाश्रये(यं) वीक्ष्य च सप्तभूमम् । वदन्ति यस्मिन् विधिनोपनीतं, सङ्घस्य लोकत्रयसारमेव ॥५१॥ उक्ताश्चतुःषष्टिरिवाच्युताग्रजा-स्तन्त्रे श्रुता ये खलु यत्र लक्षशः । श्राद्धान् विलोक्येति सुरेन्द्रतुल्यान्, स्वान्ते प्रबुद्धाश्च वितर्कयन्ति ॥५२॥ सुश्राविकापाणिबहुप्रदत्व-समानता यत्र पुरे च नाऽस्ति । चिन्तामणिस्वस्तरुदेवगोनां, पाषाणकाष्ठत्वचरित्वदोषात् ॥५३।। नाकाङ्गना यत्र दिवं विहाय, सुश्राविकानां छलतः समेताः । दानादिपुण्यस्य चिकीर्षया किं, हिरण्यसद्भूषितशोभितानाम् ।।५४|| तत्र श्रीपुरबन्दिरे जिनगृहप्रोतुङ्गशृङ्गध्वजच्छायध्वस्तदिवाकराश्वपदवीधर्माम्भसि श्रीमति । श्रीमत्पूज्यपदारविन्दयुगलीसम्पर्कसत्पाविते, विद्यानन्दविभूषिताननकविश्रेणीभृशं भूषिते ॥५५॥ [शार्दूल०] स्त्रीपुंसरत्नाकररोहणाचला-दैलप्रकारक्षितिभर्तृभूषितात् । पाखण्डिलोकप्रकरैरखण्डितात्, श्रीरामदुर्गाद् बहुलक्ष्मीमण्डितात् ॥५६।।
[इन्द्रवंशा] श्रीमज्जिनोक्तैर्द्विदशप्रमाणे-रावर्तकैस्तैरभिवन्द्य वन्द्यान् । - - - - - - - - - - - - - - - - - * ||५७॥ [उपजातिः] हर्षप्रकर्षातिविलाससद्म, ललाटकोशीकृत] हस्तपद्मः । शिष्याणुकल्याणपयोनिधिः सद्-विज्ञप्तिपत्रीं तनुतेतमां च ॥५८॥ यथाऽत्र कार्यं तपने दधाने, सदोदयं ध्वस्ततमः:प्रताने । पद्मोत्कराह्लादभरं ददाने, भूमण्डलेनाऽस्तविभाविताने ॥५९।।
★ श्लोकार्द्धं विनष्टमस्ति ।
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
सामाजिकेभ्यावलिशोभितायां, संसद्यमत्येन्द्रसभानिभायाम् । सदोत्तराख्याध्ययनस्य वृत्ति-व्याख्यानमेवं नृतमोनिवृत्तिम् ।।६०॥ आवश्यकाख्यस्य च सूत्रवाचनं, स्वाध्यायकृत्येऽष्टककर्मवारणम् । अध्यापनं चाऽध्ययनं मुनीनां, प्रारब्धतन्त्रस्य सदेप्सितस्य ॥६१|| योगोपधानोद्वहनं प्रबर्ह-प्रभावनानन्दिकपूर्वकं च ।। इत्यादिसद्धर्मविशेषकार्ये, प्रवर्धमाने सततं प्रधाने ॥६२॥ पूजाविधानं सुतपस्विनां च, श्रेष्ठश्रिया बन्धुरसाधनं च । इत्यादिसद्धर्मविशेषकार्ये, प्रवर्धमाने सततं प्रधाने ॥६३|| अनुक्रमेणाऽखिलपर्वगर्वा-पहारिणि श्रीमति वार्षिके च । समागते पर्वणि धर्मकारिणां, महोत्सवे पावनसौख्यकारिणि ॥६४|| प्रवर्तनं स्नात्रससप्तदिग्मित-प्रभेदपूजादिमहोत्सवानाम् । जिनालये नर्तकनर्तनं च, निवर्तनं संसृतिभीतिभूयम् ॥६५।। श्रीकल्पसूत्रस्य च कल्पवृक्ष-कल्पस्य तीर्थङ्करभाषितस्य । सद्वाचनं वृत्तियुतस्य चोत्सवै-र्नवक्षणैः श्रोतृसुखप्रदस्य ॥६६|| षष्टाष्टमाष्टद्विदशेन्दुदिग्मित-सत्पक्षमासक्षपणादिकानाम् । अनेकधानां तपसां विधानं, दुर्वारकर्मक्षयमूलकारणम् ॥६७॥ आदित्यसङ्ख्यावधिघस्रमारि-निवर्तनं दुन्दुभिघोषणाद्यम् । सब्रह्मचारिप्रकरस्य पोषणं, नानाविधैर्मोदकघार्तिकैश्च ॥६८।। प्रभावनं श्रीफलमोदकैश्च, पूगीफलैः श्रीजिनशासनस्य । सदोन्नतेः संतननं विधानं, यथेप्सितं नित्यसमर्थिनां च ॥६९॥ इत्यादि कृत्यं च निरन्तरायं, प्रवर्तते तर्हि वरिवरीति । विभूषितं नित्यमहामहैश्च, श्रीपूज्यपादप्रवरप्रसादात् ।।७०।। अपरम्वागीश्वरी मद्वदने पदं चे-निर्माति कारुण्यमहो प्रणीय । श्रीमद्गुणौघान् विवरीतुकामः, सुधांशुशुभ्रान् प्रवणो भवामि ॥७१।। विभो! त्वदीयप्रवरप्रतापा-पूर्वप्रवृद्धानल एष रेजे । जक्षत् कुवादिप्रकरार्जुनानि, केषां न सन्तापकरोति चित्रम् ॥७२॥ तवोपदेशः किल कोऽप्यपूर्वो, दीपोऽस्ति दीप्रो जगति प्रवर्तते । एकोऽप्यनेकस्य जनस्य चेतो-ऽगारस्य चित्रं मलिनं निबर्हते ॥७३।।
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जान्युआरी २०१३
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त्वदीयगाम्भीर्यतुलां समेत्य, रत्नाकरः किं समबोभवीच्च । सर्वासु दिक्षु प्रसरज्जलौघो, व्यापी चतुर्युग् दशरत्नखानिः ॥७४॥ त्वत्तेजसाऽपास्मितपद्मपाणिः, स्पद्ध सृजन् दीपितदिग्मुखेन । विकर्तनत्वं समवाप को वा, प्रणीतसाम्ये महतां न सीदति ॥७५॥ कवीश्वरेणो (णा ) ऽथ विधुस्तुलाकृत्, त्वदीयकीर्त्या खलु चिन्तना सा । दोषाकरः किन्तु शशी कलङ्की, कीर्तिः सदाह्लादक प्रशस्या ॥७६॥ संल्लब्धवर्णैरुपमीयते मा, देवाद्रिणा किं महिमा त्वदीयः । सा कल्पना मे हृदि भासते च, प्रमाणभाजा किममेयमानः ॥७७॥৷ उरीकृतं त्वद्वदनेन पद्मं गन्धाकृतिभ्यां च निजोपमायाम् । षडंहिझंकारगिरा समीर - प्रेङ्खोलितैर्मुद्वदनैस्तनोति ॥७८॥ असङ्ख्यवारीश्वरमेघपुष्प - सुबिन्दवस्ते गणितुं हि शक्याः । चिदा भवन्तीति भवद्गुणौघो, विभो ! गणेयो न कदापि केन ॥ ७९ ॥ त्वदङ्गसौन्दर्यभरं विचिन्त्य, जितोऽहमेतेन रतेश्च पत्या । स्वाङ्गं त्रिनेत्राक्षिहुताशकीले द्रुतं ततोऽनङ्ग इति प्रसिद्धिः ॥८०॥ एतीष (श! ? ) पक्षान्तसुधांशुबिम्बं यथैक्ष्य हर्षं रजनीशरुप्रियः । विकस्वरं त्वद्वदनं विलोकयन्, मुनीश ! लेभे हरिषं ततोऽधिकम् ॥ ८१ ॥ बालार्कबिम्बं प्रविलोक्य दीप्रं, लीलारसोत्को भवतीति कोकः । त्वद्दर्शनं वीक्ष्य मुमुक्षुराज!, मनो मदीयं प्रमदप्रफुल्लम् ॥८२॥ आकर्ण्य मेघस्तनितं शिखण्डी, विनिर्मिमीते किल ताण्डवं मुदः । निपीय भावत्कगुणोत्करं हि, हर्षप्रकर्षात् किल हष्टचित्तः ॥८३॥ चेतांसि चात्यन्तचलानि लोके, प्रसिद्धिरेषा मरुतात् प्रवर्तते । भवदुणालीस्तवने ध्रुवीभवन्मनो मदीयं हरतीति तां च ॥८४॥ जगत्त्रये द्यौम (र्म)हती च तस्यां देवास्ततस्तेषु महान् महेन्द्रः । त्वदीयदेहातिमनोज्ञलक्ष्मीं, द्रष्टुं स जातोऽपि सहस्रनेत्रः ॥८५॥ यद्वक्त्रलक्ष्म्या किल निर्जितोऽसौ, व्रीडान्मृगाङ्कः स्वकरान्तरालम् । लात्वा च कुष्टं ग्रसतेऽब्धिजन्म (न्मा), शङ्के शशाङ्कश्च मलीमसं हि ॥८६॥ अन्ये तु कूपा इह सूरयस्ते, त्वं सागरोऽपारगुणावलम्बी । किं तारकास्सन्ति नभस्यनन्ताः सहस्रपादः कतमस्तुला हि ॥८७॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
प्रसूतवान् यं च सहस्रपादः, पदेन पङ्गश्च कथं स शौरिः । प्राप्नोति पुत्रो जनकस्य साम्य-मत्रोत्तरं नोऽजनि चित्रभानुः ।।८८।। भवत्प्रतापाक्रमणे स्फुटीभवन्, सहस्रसङ्ख्यैश्चरणैश्च पङ्गः । सूरीश! लोकस्पृहणीयरूपा-तिरेकसन्दोहनिवासभूमे ॥८९॥ युग्मम् ।। स्वाङ्कोपविष्टा हि गुणास्त्वदीयाः, स्पृशन्ति विश्वत्रितयं शयैर्विना । देशान्तरं यान्ति पादैविना कि-मेतच्चरित्रं मुनिराज! चित्रकृत् ॥१०॥ जानेऽघिराजीवलसन्नखैः श्री-सूरीश्वरो यो खलु दीप्रदीपान् । पुरावृणीते विशदं शिवायनं, भव्याय संलोकयितुं प्रधानम् ॥९१।। दुग्धाम्बुधिः शीलविनिर्जितः स्म, प्रकामगम्भीरगुणाद् वरेण्यात् । सूरीश्वरेण क्रमपद्मयुग्मं, मन्ये स्फुरल्लाञ्छनकैतवेन ॥९॥ त्वदंहिसंघर्षणगईऋद्धि-बलत्वमेति स्म च पल्लवो यः(?) । सृजन्नपि त्वच्छयतुल्यमस्तु, पुनः कथं नापि सदाप्रवालः ॥९३।। तवांऽहिणा चैव जिताः सरोवरे, पद्मा वितन्वन्ति तपो जलान्तरे । आकण्ठमग्ना भ्रमरारवोपधेः, कुर्वन्ति सूरीश्वरनिस्वनं ध्रुवम् ॥९४॥ विधिरिव धरा सूरिस्वाम्यावलीगणने स्म स, सृजति गणने स्वामिल्लेखां खटीशकलेन ते ।। अंजनि कुतकी गङ्गाऽऽकाशे त्यजत्तव तां च सा, भुवि शिवगिरिस्तुल्याभावादयं स च वर्तते ॥९५।। [हरिणी] इत्थं सुधीशस्तवनोचिताना-माजन्म सम्यक्श्रितसवतानाम् । जनौघगानीकृतसद्गुणानां, भव्योत्पलोद्बोधसुधाकराणाम् ॥९६॥ [उपजातिः] पाण्डित्यचातुर्यकलाकराणां, जितस्वगाम्भीर्यजलाकराणाम् । श्रेयोलतावृद्धिपयोधराणां, स्थैर्यैरपध्वस्तधराधराणाम् ॥९७|| श्रीश्रीमतां पावनमानसानां, तेषां कृपाजीवनमानसानाम् । भव्यावलीपूरितकामितानां, सुरेन्द्रमावलिमानितानाम् ॥९८।। शिष्येष्टशिक्षाकरणप्रवीणः, प्रेमद्रुमालीजलमुग्धुरीणः । इदंसमायां मयका न कोऽपि, प्रसादलेखस्समवापि चाऽत्र ॥९९।। प्रसद्य तत्सौववपुःसमाधि-वदावदाः श्रीगुरुभिः प्रसाद्याः । प्रसादलेखाश्च मनोमयूर-गर्जन्नवाम्भोदसनाभयो मे ॥१००||
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जान्युआरी - २०१३ निरन्तरं सत्प्रणतिर्मदीया-ऽवधारणीया त्रिविधं त्रिसन्ध्यम् । स्वसेवकस्फारकृतप्रसादैः, श्रीतातपादैश्च गतप्रमादैः ॥१०१।। प्रोन्मादिवादिगजययूथमृगारिरूपाः, श्रीपाठकावलिलसत्तिलकस्वरूपाः । सन्तर्जितस्वतनुकान्तिसुवर्णवर्णाः, श्रीमद्विनीतविजयाभिधलब्धवर्णाः ॥१०२।।
[वसन्त०] जगत्त्रयीपण्डितमण्डलेन्द्रा, यशोभिधाना विजया जयन्ति । श्रीपूज्यपादाम्बुजमत्तभृङ्गाः, प्रज्ञाप्रकर्षप्रतिभेशचङ्गाः ॥१०३।। [उपजातिः] श्रीप्राज्ञलक्ष्मीविजया जिनोक्ति-सुवर्णशुद्धौ कषपट्टतुल्याः । तत्त्वाभिधाना विजयाः प्रधानाः, श्रीमद्गुरोर्भक्तिसुसावधानाः ॥१०४|| श्रीमुक्तिचन्द्रा गणिधोरणीन्द्राः, सरस्वतीसद्ममुखारविन्दाः । सौभाग्यगोत्रा विजया मनीषा-नदीप्रवाहोद्धृतवादिवृक्षाः ॥१०५॥ इत्यादिदीप्यत्तमसाधुसाध्वी-कदम्बकानामनिशं नतिश्च । स्फुटं प्रसाद्याऽनुनतिः प्रसद्य, श्रीतातपादैर्गतदुर्विषादैः ॥१०६।। अत्रत्य-पण्डितयशः-सागरो गणिशब्दभाक् । ऋद्धिसागरसंज्ञश्च, विनयादिमसागरः ।।१०७|| [अनुष्टुप्] अजितप्रभुगोत्रश्च, आगमादिमसागरः । यशस्वत्सागराख्यातिः, सुन्दराग्यमसागरः ॥१०८।। सुजाणसागराभिख्यो, गोतमात् सागराभिधः । ऋषभादिवर्धमानौ, सागरौ सुखसागरः ॥१०९।। स्थानवासी दीपचन्द्रो, गजसागरसंज्ञकः । एकविंशतिसाधूना-मवधार्या नतिः सदा ॥११०।। विज्ञप्त्युदन्ताः स्फुटमध्यपत्रात्, श्रीतातपादैरवधारणीयाः । अत्रत्यसङ्घः कुरुते त्रिसायं, त्वद्भिक्तिमान् सत्प्रणति प्रमोदम् ॥१११।। [उपजाति:] गर्जन्मेघगणं मयूरपृथुकः शावः सवित्री यथा । भर्तारं तरुणी चकोरनिकरं पीयूषरुक्चन्द्रिकाम् । चक्रो भास्करमण्डलं च करटी विन्ध्याद्रिभूमि तथा, श्रीमत्पूज्यपदारविन्दयुगलं ध्यायामि नित्यं हृदि ॥११२॥ [शार्दूल०] सदोदयैः श्रीगुरुभिः प्रसाद्यं, कार्यं स्वशिष्योचितमेव तुष्ट्यै । श्रीमत्तपागच्छनभोऽङ्गणाः , पयोब्धिफेनोज्ज्वलकीर्तिपुजैः ॥११३।। [उपजाति:]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
श्रीपूज्यपादैलिखितं हि लेखे, क्षन्तव्यमस्मिन् यदनाचितं मे । अलेखि लेखो वरदीपमाला-महोत्सवे मङ्गलमालिकेति ॥११४|| श्री ॥ . विशेषतः श्रीगुरुभिः प्रणामोऽवधारणीयस्त्वयि भक्तिभाजोः । य[श]स्वदम्भोधि-[सु?]जांणपाथो-निध्योः स्वशिष्येहितदानदक्षैः ॥११५।।
श्री...
[बहारना भागे-].. पूज्याराध्य ॥ सकलसकलभट्टारकाम्भोरुहोद्भासन___प्रभाभरभट्टारक
श्रीश्री१०२ श्रीश्रीविजयप्रभ___चरणसहस्रपत्राणाम् ।। पं. कल्याणसागर ग०-पं. चारित्रसागरसत्क ग० लेखः ॥
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जान्युआरी - २०१३
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(१७) जीर्णदुर्गस्थ-श्रीविजयप्रभसूचि प्रति मालेपुरात् पण्डित-आगमसुन्दरस्य लेख:
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वस्तिश्रीपदपङ्कजामलयुगं भेजे यदीयं मुदा,
प्रोज्झ्य स्वं भवनं कुकण्टकयुतं तन्मञ्जिमानं दधत् । शश्वत्स्मेरतमश्रिया भपतिभृत् कृत्यात्तमामन्वहं, बिभ्राणां भवतां लतां स तमसां स्फाति स्फुरन्मूर्तिभः ॥१॥
[शार्दूल०] चन्द्रो यदंहियुगलं समुपैति किं स्म,
विज्ञीप्सयेति जगदीशित(तु)रङ्कदम्भात् । मद्दूषणं व्यपनयस्व जगत्प्रसिद्धं,
__ जेनीयतां स भवतां रजसां वितानम् ॥२॥ [वसन्त०] के स्युर्न यत्क्रमपयोजपरीष्टितोऽत्र,
विश्वे कलङ्ककलुषाविकलङ्ककायाः । लक्ष्मच्छलात् किमु विधुर्वरिवस्यतीति,
.. यत्पादद्वन्द्वमनिशं स शिवाय वोऽस्तु ॥३॥ केषां न युग्ममभवत् क्रमयोर्यदीयं,
तित्यक्षतां शरणमत्र कलङ्कजातम् । मत्वेत्यदो विधुरशिश्रियदङ्कदम्भाद्,
भूयात्तमां स भवतां विभुताविभूत्यै ॥४॥ व्यालग्य यत्क्रमयुगं तपनोऽवतस्थे,
लक्ष्मोपधेर्मनसिकृत्य कृतीति मन्ये । लब्धि: कुतोऽस्य पुनरत्र रजोभिरुच्चै
भद्राय मेऽपि विकलङ्कयतः स वः स्तात् ॥५॥
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
लोके विभूय सकलङ्क इति द्विजेशो
ऽवज्ञातिमेष किमु लाञ्छनदम्भतोऽत्र । यत्पादपद्ममनिशं परिबाभजीति,
श्रेयस्ततिं स भवतामवतंतनीतु ॥६॥ पादद्वये विकचवारिजमञ्जिमानं,
मोमूषतीह कलहंसितमिन्दुनोच्चैः । यस्याङ्कदम्भत उदित्वरकान्तिकान्ते,
___ संजर्हरीतु भवतां वृजिनानि सोऽर्हन् ।।७।। यत्पादचारुनखकान्तरुचेह चन्द्रो,
__निर्माति भक्तिमनिशं व्यपमूषितश्रीः । तल्लिप्सयेव वरलाञ्छनदम्भतोऽयं,
मालां स वो महयतान्महसां महस्वी ॥८॥ बिभ्राणमैहिकसुखांहतिवित्ततान्तां,
स्वर्दू विहाय भजतो भविकान् यदंड्योः । वीक्ष्य द्वयं तदुभयप्रदमाश्लिषद् ग्लौः,
लक्ष्मोपधेः किमु स वः सुखमां वितीर्यात् ॥९॥ लक्ष्मच्छलाद् विधुरवाप्य न किं यदंड्योः,
स्पर्श युगस्य भपतित्वमदादधीन्न ।। विश्वेऽत्र मुत्ततिलसत्तममूर्तिकान्तिः,
संशोशुषीत भवतां स कुपङ्कपङ्कम् ॥१०॥ लक्ष्मच्छलाद् यदतुलांहिपयोजयुग्म
संस्पर्शभूतसुकृतव्रजपूतगात्रः । ईशेन किं द्विजपतिर्बिभरांबभूवे,
मौलौ निजे स भवतां शिवतातिरस्तु ॥११॥ यत्पादपद्ममभयप्रदमेष चन्द्रो,
भीतोऽकदम्भत इतः शरणीचकार । स्वर्भाणुतो विघृणकालकरालकायात्,
किं नो ददातु विभयस्स मनीषितं वः ॥१२॥
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जान्युआरी - २०१३ आश्लिष्यदेष विधुरङ्कमिषाद् यदंहि
___ पद्मं सदा स्मितसरोभवकान्तकान्तिम् । दृश्यां दिदृक्षुरिव जात्वनवेक्षितां तां,
नीयात्तमां स भवतां क्षयतामजन्यम् ॥१३॥ लक्ष्मच्छलाद् विधुरदीधरदेष किं नो,
____ यत्पद्युगोपरिसुसूनकलापकान्तिम् । पश्यत्तमांबकमुदं सततं नयन्ती
___ मर्हन् स लम्भयतु तानवमेनओघम् ॥१४॥ लक्ष्मोपधेर्यदतिसुन्दरपादसङ्ग,
लब्ध्वाऽपि वीक्ष्य भुवनत्रयकुक्षिगानाम् । पुजैर्दृशां कुमुदितं विधुमाशुपश्यैः,
सौभाग्यभाग्यचणमीहितदः स वः स्तात् ॥१५॥ दम्भं विधाय न विधुः किमु लाञ्छनस्य,
सेवां व्यधत्त भुवि जेतुमनाः स्वशत्रुम् । यत्पादपङ्कजयुगस्य विधुं तुदन्तं,
हन्यात्तमां स तमांसि वितमा वितानम् ॥१६॥ संसारजीवननिधौ वरपोतदंहि
युग्मं विधाय किमु लाञ्छनदम्भमिन्दुः । भेजे यदीयमिह तत्परपारलिप्सुः,
श्रेयांसि वः प्रदिशतात् स सदा जिनेन्द्रः ॥१७|| सा सौम्यता न किमधारितमां यदङ्ग
सङ्गेन्दुना समजनाम्बकमोदिनीयम् । पादावुपास्यजगतीह सदङ्कदम्भा
__ ज्जीमूततात् स भवतां भविकव्रतत्याम् ॥१८॥ लक्ष्मच्छलादियदयोगिवधूविघात
सञ्जातपातकभरैर्मलिनप्रतीकः । नो तज्जिहासुरिह किं यदगांहियुग्म
मङ्गीकरोति शयितोऽस्तु स वोऽघहन्ता ।।१९।।
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
भक्त्या नमत्त्रिदशदैत्यनराधिपानां
मौलौ यदंड्रिजलजन्मरजःकणौघः । रम्ये परागतितमां तदुपास्तिमाप्य,
लक्ष्मच्छलात् प्रतिदिनैककलाविवृद्धेः ॥२०॥ किं नाऽधरद् द्विजपतिः स्थविमानमुच्चैः, प्रोल्लालसद्रुचिरकान्तिकलापलीढः । यजुषो रुचिमुषस्तपनस्य धन्यं
मन्योऽस्तु वो जिनपतिः सततां शिवाय ॥२१॥
यत्पादपङ्कजयुगस्य सुसङ्गमाप्य,
नाऽभूदुडुप्रमुखसंहतिभिः सदा किम् ।
सेव्योऽङ्कदम्भत इहेन्दुरतुच्छकान्ति
नेतु केतुविततिं क्षयति स वोऽर्हन् ||२२|| सुस्मेरनीरजननाङ्कगतत्रिरेख
शोभां विधुर्जरिहरीति यदंहियुग्मे । किं लक्ष्मगः स्म नमदिन्द्रकमौलिचुम्बि
हीरांशुलीढ इह वोऽसुखहानये स्तात् ||२३|| यत्पादसङ्गममवाप्य किएङ्कदम्भा
नोध्रियते स्म विधुनाऽपि सुधाकरत्वम् । अन्यानवाप्यममलं सुजगत्प्रतीतं,
कन्दर्पदर्पभिदयं भवतात् स वोऽर्हन् ||२४||
जर्गर्दि लाञ्छनमिषाद् विधुरंहियुग्मं,
यस्येत्यवेत्य जगतीत उदारमन्यत् । श्रेयः पदं स्म न मनोरमभाः सनाथं,
नाथस्स वः सकलमाधिमपाक्रियात् तम् ॥२५॥ कृतब्रह्मभूपालपुत्रं पवित्रं प्रणनमि नाथं सनाथं प्रभाभिः । सदा तं यदंद्वियं देवदेवा, मुदा बाभजन्त्युल्लसन्मानसाब्जाः ॥२६॥
[भुजङ्गप्रयातम् ]
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जान्युआरी - २०१३
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यत्पादपाथोजरजःकणान्मुदा, मूजि स्वकीये कृतिनः कृतादराः । शेषामिवेन्द्राः सुरदैत्यभूस्पृशां, स श्रेयसे वो मुनिसुव्रतो जिनः ॥२७॥
[वंशस्थ] एतान् जिनान् प्रणतिमञ्जुलपङ्कजाङ्के,
राजत्तमोज्ज्वलसितच्छदकान्तकान्तिम् । संबिभ्रतो लसदनन्तमुदा विधाय, . नम्रीभवज्जनमनीषितदानदक्षान् ॥२८॥ [वसन्त०]
॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ श्रीमति श्रीमति भ्राजते धोरणी, तत्र सार्थोकसां जीर्णदुर्गे भृशम् । मुष्णती मञ्जुलव्योमयानश्रियं, व्योमचुम्ब्युच्चचूलाश्रिया शालिनी ॥२९॥
[स्रग्विणी] श्रीजीर्णदुर्गनगरं नकरं पुरोगं,
देदीप्यते भृशमनेकधनीश्वराढ्यम् । श्रीपूज्यपूज्यचरणामलसद्विकाशि
पाथोजरेणुसुरभीकृतभूमिभागम् ।।३०॥ [वसन्त०] श्रीमत्तीर्थकृतां सुखोत्करकृतां भास्वत्तराभाभृतां,
___ यत्र श्रीमति भास्वति प्रियसुधाश्वेतीकृते विश्रुते । प्रासादाद्वयमञ्जुलोच्चशिखरे शश्वज्जगच्छेखरे, राजद्रकलशायते दिनपतिर्दी(दी)प्यत्प्रतापोद्यतः ॥३१॥
[शार्दूल०] श्रद्धाजुषः श्राद्धगणा विभान्ति, यत्रोच्चकैर्भासुरदेहभासः । ऋद्ध्या स्वया तं धनदं तृणाभं, जानन्त आनन्दमयैकचित्ताः ॥३२॥
[उपजातिः] यदङ्गनारूपमवेक्ष्य कामं, त्रपाजुषोऽगुस्त्रिदशाङ्गना याः । भूमेदिवं ता अधुनाऽपि भूमि-स्पर्श न पद्भ्यां दधतीतशोभाः ॥३३॥ श्रीमन्मालेपुरद्रङ्गा-च्छिष्यभुजिष्यतां दधत् । आगमसुन्दरः पंत्व-प्रतीकालिङ्गितोवरः ॥३४॥ [अनुष्टुप्]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
विज्ञप्तिं प्रणयत्युच्चैः, पुरतः प्रह्वमानसः । भालस्थलविशालाब्ज-कोश(शो)त्तमशयद्वयः ॥३५॥ प्रातरत्र महेभ्यानां, सभ्यानां संसदि ध्रुवम् । स्थानाङ्गसूत्र-वृत्त्योस्त-त्सत्स्वाध्यायादिमे क्षणे ॥३९॥ जायमाने क्रमोपेतं, महामहविराजितम् । सर्वपळशिरोरत्नं, पर्व पर्युषणाभिधम् ॥३७॥ कल्पद्रुकल्पश्रीकल्प-सूत्रवृत्तिनवक्षणम् । चारुश्रीफलपूग्यादि-भूतभूरिप्रभावनम् ॥३८|| सप्तदशभिदा सार्व-सपर्याऽऽडम्बरान्वितम् । निश्शेषपारणाभोज्य-मञ्जुलामोदमोदकम् ॥३९॥ पक्षक्षपणषष्ठादि-तपोलीननरव्रजम् । मनीषितातिरिक्ताप्ति-प्रमोदितवनीपकम् ॥४०॥ प्रत्यूहव्यूहराहित्यं, सातसन्ततिसञ्चितम् । श्रीपूज्यवंशसद्वृत्त-गानैकतानमानवम् ॥४१॥ । जंजनीति स्म जंजंति, धर्मकृत्यं च साम्प्रतम् । श्रीमत्तत्रभवन्नाम-मन्त्रध्यानप्रभावतः ॥४२।।
॥ अथ गुरुवर्णनम् ॥ नम्राखण्डलमण्डलीसुकतटीकोटीरकोटिस्फुर
न्नानारत्नमनोरमांशुलहरीप्रक्षालितांहिद्वयम् । चन्द्राङ्काभयदं मुदा नतिपथं नीत्वा सनाथं श्रिया, स्तोष्ये श्रीविजयप्रभं गणधरं नाथं तपश्शालिनाम् ॥४३॥
[शार्दूल०] नीलोत्पलीयन्ति दृशो न लोकं, लोकं भृशं ते मुखचारुचन्द्रम् । केषां गुरो! तं तमसां कलापं, प्रोज्जासयन्तं स्फुरदंशुजालैः ॥४४॥
[उपजातिः] श्रीमद्गुरो! विकचवक्त्रसरोभवे ते,
भृङ्गन्ति लोचनयुगानि सदेह येषाम् ।
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जान्युआरी - २०१३
१७९ सम्बोभुवत्यमलमञ्जुलसम्पदं ते,
धामोल्लसत्तमधियां सुनिधेर्धरायाम् ॥४५॥ [वसन्त०] प्रोल्लालसीति वदनं तव लम्भयित्वा,
मार्ग दृशोरवनिनायकमण्डली द्राक् । बिम्बं चकोरपटलीवसुधागभस्तेः,
प्रोद्दित्वरोज्ज्वलविशालविभासनाथम् ॥४६।। नीत्वा दृशोरयनमास्यमभीशुसङ्घ,
बिभ्राणमाशु तमसां पटलैविहीनाः । प्रातर्भवन्त्यसुमतां निकराः खरांशो
बिम्बं यथा तव मुनीश! महोभिरिद्धम् ॥४७|| मन्येऽहं किल विश्वविश्वजनतानन्दप्रणेतुस्तव,
शश्वद्दीप्ततराननप्रियतरद्युत्या जित: श्रीगुरो! । लज्जावान्नकलङ्कतां किमु गतश्रीको हिमांशुस्तदा, मालिन्यं दधते जगज्जनपते! भास्वत्प्रतापाकर! ॥४८॥
[शार्दूल०] विमलविकसत्सत्पाथोभूदलायतलोचने
भविकमनुजाह्लादव्रातप्रणेतृमुखश्रिया । तव मुनिपते! मन्येऽद्याऽपि प्रतर्जित एव खे,
तुहिनकिरणो न स्थेमानं कदापि सृजत्ययम् ॥४९।। [हरिणी] अहमवैमि तव वतिनां प्रभो!, मधुरदीप्ततराननशोभया । कुमुदबान्धव एव तिरस्कृतः, परिकृशत्वमियति तथाऽनिशम् ॥५०॥
[द्रुतवि०] मुनिगणेन्द्र! गजेन्द्रसदृग्गते!, तव विकाशिमुखस्य सदोदितेः । उपमतामभियातुमवैम्यहं, सुरनरासुरनेत्रसुनन्दिनः ॥५१॥ परमयोगनिलीनहृदीश्वर!, रुचिरशीर्षसुपर्वसरित्तटे । स्थित इति प्रकरोति तप: स्वयं, कृशतनुस्तुहिनांशुरहर्निशम् ॥५२॥
युग्मम् ॥
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क खण्ड १
सकललोकमनोहरणोद्यत - मदनमानविमर्दनशङ्कर ! । तव मुनीश ! तपस्तपनोज्ज्वल- त्प्रियमहामहसो रुचिरद्युतेः ॥५३॥ वदनपूर्णनिशाकरशोभया, विजितमम्बुरुहं विविभं (धं?) तपः । समभिसृत्य सृजत्यद एव हि ससुरसंसरसंसरसंसरः ॥५४॥ साधुसाधुजनतागणनाथ!, वीक्ष्य वीक्ष्यभवतो भवतोऽलम् । कान्तकान्तिसदनं वदनं स द्भव्यभव्यशरणस्य शरण्यम् ॥५५॥ [ स्वागता] प्रीतिपुञ्जमनिशं जनवाराः प्राप्नुवन्ति धृतधर्मसुभारा: । मण्डलं वरनभश्चमसस्य, सच्चकोरनिकरा इव वीक्ष्य ॥५६॥ दर्श दर्श तावकीनं तदास्यं चेतांस्युच्चैरुल्लसन्ति (?) दधन्ते । विस्मेरत्वं भव्यजन्तुव्रजानां भासां नाथं पङ्कजानीव नूनम् ॥५७॥ [ शालिनी ] श्रावं श्रावं कीर्तिमुच्चैर्मुनीनां पत्युर्दधुः के मुदं नो गरिष्ठाम् । किं मूषन्तीं विभ्रमं क्षीरनीर-पारावारोल्लोलकल्लोल भासाम् ॥५८॥ कीर्तिस्सुयोगं समवाप्य विष्टपे, गङ्गाऽपि चङ्गीभवदङ्गका जनान् । नाऽपूतयत् सा भुवनत्रयोदरं, किं व्याप्तवत्यास्तव चन्द्रविद्विषः ॥ ५९ ॥ [ इन्द्रवंशा]
मीमांस्यते तर्कचणैर्मुहुर्यत् कार्यं निदानानुगुणं तथेति तत् । यल्लोकमापत् सममात्मसम्भवा, कीर्तिस्तवेन्दुद्विजराजसोदरा ||६०||
[ उपजाति: ]
केषां न विश्वोदरवर्तिनामल-मचर्करीन्मानसपद्ममञ्जसा । कीर्तिस्तव श्रीव महोहरिप्रिया, मदाम्बरज्योतिरधीश्वरस्वसा ॥ ६१ ॥ कीर्तिस्तवाऽधिप! समाधिजुषां न केषां, पैंजूषजाहशुभभूषणभावमायात् ।
लोत्री जगत्सु सुरमन्दरमध्यमान
क्षीरोदसिन्धुभवदुच्चतरङ्गभासाम् ||६२|| [वसन्त०]
सर्वत्र कीर्तिरगमत् किमु कान्तकान्तं,
न स्वैरिणीव समवाप्य निरर्गला सा ।
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त्वां क्षान्तिमन्तममला विकलोद्यतेन्दु
चन्द्रातपस्य सततं द्विषती मुनीन्दो ! ||६३ ||
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जान्युआरी - २०१३
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संव्यापुषीन्द्र! तव कीर्तिपय:समूहे,
विश्वोदरं यमभृतां कमलावलीनाम् । लक्ष्मी दधुः किमु न तारकराजयोऽमूः,
शश्वत्प्रबुद्धसुखमाधिकदीधितीनाम् ॥६४|| अत्यद्भुतं मुनिपते! तव कीर्तिकान्ता,
विश्वत्रये निखिलसङ्गमवत्यपीयम् । ख्याति सतीति दधते स्म तथाऽतिरम्या,
चेतो जगद्विपुलतल्पजुषां हरन्ती ॥६५॥ द्वे योगिनामधिपते! सदृशौ यमश्री
कीर्ती भवान् युगपदेव सुरूपकन्ये । ज्येष्ठेन विश्वसुदृशां किमिहोदवाक्षीत्,
तत्राऽऽदिमा प्रियतरेति जगत्प्रतीता ॥६६॥ तल्लीनचित्तमवगत्य भवन्तमेषा,
नो बम्भ्रमीति नितरामितरा त्रिलोक्याम् । ईर्ष्याकुला सहजचञ्चलदृक् प्रकृत्या,
सर्वोच्चलानि सुमुदं सततं नयन्ती ॥६७।। गिरो रसं ते वतिनामधीश्वर!, विकस्वरीभूयमभूयतोच्चकैः । निपीय नो कैः सुमनोव्रजैरिव, नवाम्बुदस्येव कदम्बभूरुहाम् ॥६८॥
[वंशस्थ] निपीय वाणी भवतो महीयसी, न के सुधातो गणयन्ति तां भृशम् । सदैहिकामुष्मिकशर्मदानतः, श्रियं खकर्तेलहरेविमुष्णतीम् ॥६९।। इत्थं श्रीविजयप्रभो गणधरो नीतः स्तुतेर्योय(ज)नं,
राजद्राजविरोकभासुरयशाः सौभाग्यभाग्यैकभूः । सृज्यान्मे सततं मनोरथलतां स्फातिं दधानां परां,
नम्राशेषसुरासुरेन्द्रकलसन्माल्यत्तमाहिद्वयः ॥७०|| [शार्दूल०] तत्र श्रिया सकलपाठकराजमाना,
श्रीमद्विनीतविजया सुयशोवितानाः । श्रीमद्वरोः प्रतिभया समतां दधानाः,
पादाब्जरेणुभिरिलां सकलां पुनानाः ॥७१॥ [वसन्त०]
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
त्रैलोक्यव्याप्तसच्छलोकाः, श्रीजसविजयायाः । श्रीमत्तत्रभवच्चारु-शिष्टिप्रवर्तनोच्चलाः ॥७२।। [अनुष्टुप्] भास्वत्तमप्रतिभाभाः, श्रीरविवर्धनाह्वयाः । श्रीपूज्यपादपाथोज-सेवाहेवाकमानसाः ॥७३॥ तत्त्वातत्त्वविमर्शज्ञाः, श्रीतत्त्वविजयाभिधाः । श्रीपूज्यपादपादाब्ज-मकरन्दसितच्छदाः ॥७४।। अन्ये येऽज्ञातनामानः, श्रीपूज्यचरणान्तिके । नंनमि चाऽनुनंनमि, यथायथं विपश्चितः ॥५॥ सौवाङ्गबर्हातिनिरामयत्वतत्, काम्यप्रमेयाम्बुभरैः सुमांसलम् ।
लेखाम्बुदं मच्छयशैलशेखरं, सम्भूषयन्तं तमवेक्ष्य सादरम् ॥७६|| [इन्द्रवंशा]
मत्स्वान्तमञ्जिष्ठमयूर एषः, बंहिष्ठमामोदभरं प्रदध्यात् । तं तं यथा श्रीवरपूज्यपादैः, सद्यः प्रसद्याऽऽशु तथा प्रणेयम् ॥७७||
[उपजातिः] अत्रत्याः साधवः सर्वे, पुण्यसुन्दरसंज्ञकाः । ज्ञानसुन्दरनामानो, महिमासुन्दराभिधाः ॥७८|[अनुष्टुप्] जयसुन्दरनामान-स्तिलकसुन्दराह्वयाः । गङ्गसुन्दरनामानः, सौभाग्यसुन्दराह्वयाः ॥७९।। श्रीमत्तत्रभवत्पाद-पाथोजयामलं मुदा । त्रिसायं नंनमत्युच्चैः, प्रोल्लसन्मानसाम्बुजाः ॥८०॥ श्रीमत्कौमुदमासस्य, लेखोऽलेखितमां मया । वलक्षेतरसप्तम्या-मिति स्तान्मञ्जु मङ्गलम् ॥८१।। श्रीः ॥
॥श्रीपूज्याराध्यध्येयतमसकलसकलभट्टारकमौलिपेशलशतदलमाल्यत्तम
क्रमकमलयमलभट्टारक श्री१०५ श्रीविजयप्रभसूरीश्वरचरणसरसिजानामयं विज्ञप्तिलेखः ॥ श्रीमज्जीर्णपुरे ॥ पं० पुण्यसुन्दरलेख: ॥
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जान्युआरी २०१३
जैनों का प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण
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भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है । अति प्राचीनकाल से ही इसमें दो धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं - वेदिक और श्रमण । यद्यपि ये दो स्वतंत्र धाराएँ मूलतः मानव जीवन के दो पक्षों पर आधारित रही है । मानव जीवन स्वयं विरोधाभासपूर्ण है । वासना (जैविक पक्ष / शरीर) और विवेक (अध्यात्म) ये दोनों तत्त्व उसमें प्रारम्भ से ही समन्वित है । परम्परागत दृष्टि से इन्हें शरीर और आत्मा भी कह सकते है । जैसे ये दोनों पक्ष हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते है, वैसे ही ये दोनों संस्कृतियाँ भी एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं । भाषा की दृष्टि से भी ये दोनों संस्कृतियाँ भी दो भिन्न भाषाओं के साहित्य से पृष्ट होती रही है । जहाँ वैदिक संस्कृति में संस्कृत की प्रधानता रही है, वही श्रमण संस्कृति में लोकभाषा या प्राकृत की प्रधानता रही है । आदि काल से ही वैदिक धारा की साहित्यिक गतिविधियाँ संस्कृतकेन्द्रित रही है । यद्यपि उसमें संस्कृत के तीन रूप पाये जाते है- १. छान्दस्, २. छान्दस् प्रभावित पाणिनीय संस्कृत और ३. साहित्यिक व्याकरण- परिशुद्ध संस्कृत । छान्दस्, जो मूलतः वेदों की भाषा है । ब्राह्मणग्रन्थो पर तो छान्दस् का ही अधिक प्रभाव रहा है, किन्तु आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा छान्दस् प्रभावित पाणिनीय व्याकरण से परिमार्जित साहित्यिक संस्कृत रही है । पुराण आदि परवर्ती वैदिक परम्परा का साहित्यव्याकरण परिशुद्ध साहित्यिक संस्कृत में ही देखा जाता है । जबकि श्रमणधारा ने प्रारम्भ से ही लोकभाषा को अपनाया । देश और काल के अपेक्षा से इसके भी अनेक रूप पाये जाते हैं, यथा- मागधी, पाली, पैशाची, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश । बौद्धों का परम्परागत त्रिपिटक साहित्य पाली भाषा में है, जो मूलतः मागधी और अर्धमागधी के निकट है । वहीं जैन परम्परा का साहित्य मूलतः अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश में पाया जाता है । यहां यह ज्ञातव्य है, कि जहाँ जैनधर्म की श्वेताम्बर शाखा का साहित्य अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में है, वहीं दिगम्बर एवं
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प्रो. सागरमल जैन, शाजापुर (म. प्र. )
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ यापनीय शाखा का साहित्य, शौरसेनी प्राकृत में पाया जाता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि छान्दस्, अभिलेखीय प्राकृत, पाली और प्राचीन अर्धमागधी एक दूसरे से अधिक दूर भी नहीं है । वस्तुतः सुदूर क्षेत्र की भायूरोपीय वर्ग की सभी भाषाएं एक दूसरे के निकट ही देखी जाती है । आज भी आचाराङ्गसूत्र की प्राचीन प्राकृत में अंग्रेजी के अनेक शब्द रूप देखे जाते हैं, जैसे बोंदि (Body), एस (As), आउट्टे (Out), चिल्लड़-चिल्ड्रन (Children) आदि ।
___ आज प्राकृत की प्रत्येक संगोष्ठी में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि प्राकृत से संस्कृत बनी या संस्कृत से प्राकृत बनी? तथा इनमें कौन कितनी प्राचीन है ? । जैन परम्परा में ही जहाँ 'नमिसाधु' प्राकृत से संस्कृत के निर्माण की बात कहते हैं, वहीं हेमचन्द्र 'प्रकृतिः संस्कृतम्' कहकर संस्कृत से प्राकृत के विकास को समझाते है । यद्यपि यह भ्रान्ति भाषाओं के विकास के इतिहास के अज्ञान के कारण है। सर्वप्रथम हमें बोली और भाषा के अन्तर को समझ लेना होगा । प्राकृत अपने आप में एक बोली भी रही है, और भाषा भी। भाषा का निर्माण बोली को व्याकरण के नियमों में जकड़कर किया जाता है। अतः यह मानना होगा कि संस्कृत का विकास प्राकृत बोलियों से हुआ है । प्राकृत मूल में भाषा नहीं, अनेक बोलियों के रूप रही है । इस दृष्टि से प्राकृत बोली के रूप में पहले है, और संस्कृत भाषा उसका संस्कारित रूप है । दूसरी ओर यदि प्राकृतभाषा की दृष्टि से विचार करें, तो प्राकृत भाषाओं का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से प्रभावित हैं, अतः संस्कृत पहले
और प्राकृतें (लोकभाषाएँ) परवर्ती है । मूलमें प्राकृतें अनेक बोलियों से विकसित हुई हैं, अतः वे अनेक है । संस्कृत भाषा व्याकरणनिष्ठ होने से परवर्ती काल में एक रूप ही रही है । जैन ग्रन्थो में भी प्राकृतों के अनेक रूप जाते है, यथा-मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और उनसे विकसित विभिन्न अपभ्रंश । आज जो भी प्राचीन स्तर का जैन साहित्य है, वह सभी इन विविध प्राकृतों में लिखित है । यद्यपि जैनाचार्यो ने ईसा की तीसरी-चौथी शती से संस्कृत भाषा को भी अपनाया और उसमें भी विपुल मात्रा में ग्रन्थों की रचना की, फिर भी उनका मूल आगमसाहित्य, आगमतुल्य और अन्य विविध विधाओं का विपुल साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही है।
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प्राकृत भाषा में रचित जैन साहित्य में प्राचीनता की अपेक्षा मुख्यतः उनका आगम साहित्य आता है । आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के अनेक आगमतुल्य ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही रचित है । इसके अतिरिक्त जैन कर्मसाहित्य के विविध ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही मिलते हैं । इनके अतिरिक्त जैन साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा कथासाहित्य भी प्राकृत भाषा में विपुल रूप में पाया जाता है । इनके आचार व्यवहार खगोल-भूगोल और ज्योतिष सम्बन्धी कुछ ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही पाये जाते है । जहाँ तक जैनदर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रश्न है, सन्मतितर्क (सम्मइसुत्त), नवतत्त्वपयरण, पंचास्तिकाय जैसे कुछ ही ग्रन्थ प्राकृत में मिलते हैं । यद्यपि प्राकृत आगम साहित्य में भी जैनों का दार्शनिक चिन्तन पाया जाता है। इसी क्रम में जैनधर्म के ध्यान और योग सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्राकृत साहित्य बहुआयामी है । यदि कालक्रम की दृष्टि से इस पर विचार किया जाये, तो हमें ज्ञात होता है, कि जैनों का प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य ई.पू. पांचवी शती से लेकर ईसा की २०वीं शती तक लिखा जाता रहा है। इस प्रकार प्राकृत के जैन साहित्य का इतिहास लगभग ढाई सहस्राब्दी का इतिहास है। अतः यहा हमें इस सब पर क्रमिक दृष्टि से विचार करना होगा। जैन प्राकृत आगम साहित्य
प्राकत जैन साहित्य के इस सर्वेक्षण में प्राचीनता की दृष्टि से हमें सर्वप्रथम जैन आगम साहित्य पर विचार करना होगा। हमारी दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विलुप्त मानती है। यह भी सत्य और तथ्य है कि आगम साहित्य का विपुल अंश और उसके अनेक ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि आगम साहित्य पूर्णतः विलुप्त हो गया, उचित नहीं होगा । जैनधर्म की यापनीय एवं श्वेताम्बर शाखाएं आगमों का पूर्ण विलोप नहीं मानती है । आज भी आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित आदि ग्रन्थो में प्राचीन सामग्री अशंत: ही सही, किन्तु उपलब्ध है । आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र और ऋषिभाषित (इसिभासियाइं) इस बात के प्रमाण है कि प्राकृत जैन साहित्य औपनिषदिक काल में भी जीवन्त था। यहाँ तक कि आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र औपनिषदिक सूत्रों
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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
से यथावत् समानता रखते हैं । वहीं इसिभासियाइं याज्ञवल्क्य आदि २२ औपनिषदिक ऋषियों, अनेक बौद्धभिक्षुओं जैसे- सारिपुत्त, वज्जीयपुत्त और महाकाश्यप, आजीवक मंखलिगोशाल एवं अन्य विलुप्तप्रायः श्रमणधाराओं के ऋषियों के उपदेशों को प्राचीनतम प्राकृत भाषा में यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है । इसि भासियाई में ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित है । इनमें मात्र पार्श्व और वर्द्धमान (महावीर) को छोडकर शेष सभी औपनिषदिक, बौद्ध, आजीवक आदि अन्य श्रमणधाराओ से सम्बन्धित है । आश्चर्य यह है कि इनमें से अधिकांश को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है, जो जैन चिन्तकों की उदारदृष्टि का परिचायक है । ज्ञातव्य है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म के साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने के पूर्व की स्थिति का परिचायक है । ज्ञातव्य है कि जब जैनधर्म साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने लगा, तब यह प्राचीनतम प्राकृत का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी उपेक्षा का शिकार हुआ । इस की विषयवस्तु को दसवें अंगआगम से हटाकर प्रकीर्णक के रूप में डाला गया । सद्भाग्य यही है कि यह ग्रन्थ आज भी अपने वास्तविक स्वरूप में सुरक्षित
। प्राकृत और संस्कृत के विद्वानों से मेरी यही अपेक्षा है कि इस ग्रन्थ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उदार और उदात्त दृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न करें । ज्ञातव्य है कि अन्य जैन आगमों में ऋषिभाषित के अनेक सन्दर्भ आज भी देखे जाते हैं ।
जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण और संख्या का प्रश्न :
जैन आगम साहित्य का वर्गीकरण दो रूपों में पाया जाता है - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । प्राचीन काल से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य - ऐसे दो विभागों में बाँटा जाता रहा है । अंगप्रविष्ट ग्रन्थो की संख्या १२ बारह मानी गयी है और इनके नामो को लेकर भी दोनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है । उन दोनों में बारह अंगो के निम्न नाम भी समान रूप से माने गये है १. आचाराङ्ग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृत्दशा, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र और १२. दृष्टिवाद । दोनो परम्पराएँ इस संबन्ध
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में भी एकमत है कि वर्तमान में दृष्टिवाद अनुपलब्ध है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा यह स्वीकार करती है कि उसके जो आगमतुल्य ग्रन्थ हैं, वे इसी आधार पर निर्मित हुए है । अंगबाह्यों के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में आंशिक एकरूपता और आंशिक मतभेद देखा जाता हैं । दिगम्बर परम्परा अंगबाह्य की संख्या १४ मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करती हैं । तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य स्वोपज्ञ-भाष्य में अंगबाह्य को अनेक प्रकार का कहा गया है । दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं और धवला में १४ अंगबाह्यों के नामों के जो निर्देश उपलब्ध है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरीक, निशीथ आदि है। ज्ञातव्य है कि धवला में अंगबाह्यों के जो १४ नाम गिनाये हैं, उनमें कल्प और व्यवहार भी है । धवला में कप्पाकप्पीय महाकप्पीय, पुण्डरीक और महापुण्डरीक - ये चार नाम तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा अधिक है और उसमें भाष्य में उल्लेखित दशा और ऋषिभाषित को छोड दिया गया है। साथ ही इन नामों में से पुण्डरीक और महापुण्डरीक को छोडकर शेष सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में भी मान्य है। कल्पाकल्पिक का उल्लेख नन्दीसत्र में है, किन्तु अब यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। शेष सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में आज भी उपलब्ध माने जाते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सूत्रकृताङ्ग में पुण्डरीक नामक एक अध्ययन भी है ।
जहाँ तक आगम साहित्य के वर्गीकरण का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते है- १. नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण
और २. जिनप्रभ की 'विधिमार्गप्रपा' का आधुनिक वर्गीकरण । नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण लगभग ईसा की पाँचवी शताब्दी का है, जबकि आधुनिक वर्गीकरण प्रायः ईसा की १३वी-१४वी शती से प्रचलन में है। नन्दीसूत्र के प्राचीन वर्गीकरण में आगमों को सर्वप्रथम अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, ऐसे पूर्व में प्रचलित दो विभागों में ही बाँटा गया है । किन्तु इसकी विशेषता यह है कि वह अंगबाह्य ग्रन्थों के प्रथमतः दो विभाग करता है- १. आवश्यक और २ आवश्यक-व्यतिरिक्त । पुनः आवश्यक के सामायिक आदि छह विभाग किये गये हैं । आवश्यक-व्यतिरिक्त को पुनः कालिकं और उत्कालिक ऐसे
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ दो विभागों में बाँटा गया है । इसमें कालिक के अन्तर्गत ३१ ग्रन्थ और उत्कालिक के अन्तर्गत २९ ग्रन्थ हैं । इस प्रकार नन्दीसूत्र में १२ अंगप्रविष्ट, ६ आवश्यक, ३१ कालिक और २९ उत्कालिक, कुल ७८ ग्रन्थ उल्लेखित हैं, इनमें से कुछ वर्तमान में अनुपलब्ध भी हैं । पूर्ण सूची इस प्रकार है
- श्रुत (आगम) - साहित्य
(क) अंगप्रविष्ट
. . (ख) अंगबाह्य १. आचाराङ्ग २. सूत्रकृताङ्ग ३. स्थानाङ्ग
(क) आवश्यक (ख) आवश्यक ४. समवायाङ्ग १. सामायिक
व्यतिरिक्त ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति २. चतुर्विंशतिस्तव (भगवती)
३. वन्दना ६. ज्ञाताधर्मकथा
४. प्रतिक्रमण ७. उपासकदशाङ्ग ५. कायोत्सर्ग ८. अन्तकृद्दशाङ्ग
६. प्रत्याख्यान ९. अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाकसूत्र १२. दृष्टिवाद (क) कालिक
(ख) उत्कालिक उत्तराध्ययन
१. दशवैकालिक दशाश्रुतस्कन्ध
कल्पिकाकल्पिक कल्प
चुल्लककल्पश्रुत ४. व्यवहार
महाकल्पश्रुत निशीथ
महानिशीथ महानिशीथ
राजप्रश्नीय ७. ऋषिभाषित
७. जीवाभिगम
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महाप्रज्ञापना
८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ८. प्रज्ञापना ९. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति १०. चन्द्रप्रज्ञप्ति
१०. प्रमादाप्रमाद ११. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति ११. नन्दी १२. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति १२. अनुयोगद्वार १३. अंगचूलिका १३. देवेन्द्रस्तव १४. वग्गचूलिका १४. तन्दुलवैचारिक १५. विवाहचूलिका १५. चन्द्रवेध्यक १६. अरुणोपपात १६. सूर्यप्रज्ञप्ति १७. वरुणोपपात
१७. पौरुषीमण्डल १८. गरुडोपपात
१८. मण्डलप्रदेश १९. धरणोपपात
१९. विद्याचरणविनिश्चय २०. वैश्रमणोपपात
२०. गणिविद्या २१. वेलन्धरोपपात २१. ध्यानविभक्ति २२. देवेन्द्रोपपात
२२. मरणविभक्ति २३. उत्थानश्रुत
२३. आत्मविशोधि २४. समुत्थानश्रुत
२४. वीतरागश्रुत २५. नागपरिज्ञापनिका २५. संलेखनाश्रुत २६. निरयावलिका २६. विहारकल्प २७. कल्पिका
२७. चरणविधि २८. कल्पावतंसिका २८. आतुरप्रत्याख्यान २९. पुष्पिका
२९. महाप्रत्याख्यान ३०. पुष्पचूलिका
३१. वृष्णिदशा जहाँ तक श्वेताम्बर में प्रचलित आधुनिक वर्गीकरण का प्रश्न है, उसकी चर्चा के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है - उसकी स्थानकवासी और तेरापन्थ की परम्पराएँ मात्र ३२ ही आगम मान्य करती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में भी दो मान्यताएँ है - (१) ४५ आगमों की और (२)
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
I
८४ आगमों की । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ८४ आगमो सूची के अंतर्गत ३२ और ४५ आगमग्रन्थ भी सम्मिलित हो जाते हैं । स्थानकवासी एवं तेरापन्थी परम्परा ११ अंग, १२ उपांग, ४ छेद, ४ मूल और १ आवश्यक ऐसे ३२ आगम मान्य करती है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में भी ११ अंग, १२ उपांग के नाम समान है । स्थानकवासी परम्परा द्वारा मान्य ४ मूल में (१) उत्तराध्ययन और (२) दशवैकालिक दोनों नाम समान है । नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा चूलिका सूत्र में रख देती है । ६ छेद सूत्रों में महानिशीथ और जीतकल्प- ये दो नाम अधिक है । चार नाम समान हैं । मूल में नन्दी और अनुयोगद्वार के स्थान पर आवश्यक और पिण्डनिर्युक्ति- ये दो नाम आते हैं । १० प्रकीर्ण स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा को मान्य नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा द्वारा मान्य ८४ आगमों की सूची निम्न है, इसमें बत्तीस और पैंतालीस भी समाहित है ।
1
८४ आगम ( श्वे. सम्मत )
१९०
१-११
ग्यारह अङ्ग - आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाक ।
१२- २३ बारह उपाङ्ग औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा । अन्तिम पांचों का संयुक्त नाम निरयावलिका है ।
२४-२७ चार मूलसूत्र - आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययनानि, पिंडनिर्युक्ति (अथवा ओघनिर्युक्ति)
२८-२९ दो चूलिका सूत्र - नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार । ३०-३५ छ: छेद सूत्र निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, पंचकल्प (विच्छिन्न) ।
-
३६-४५ दस प्रकीर्णक चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्या
ख्यान, वीरस्तव, संस्तारक |
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(किसी के मत से 'वीरस्तव' और 'देवेन्द्रस्तव' दोनों का समावेश एक में है और 'संस्तारक' के स्थान में 'मरण समाधि' और 'गच्छाचारपयन्ना' है ।) कल्पसूत्र (पर्युषण कल्प-जिनचरित, स्थविरावलि, समाचारी) यतिजीतकल्प (सोमप्रभसूरि) श्राद्धजीतकल्प (धर्मघोषसूरि) पाक्षिकसूत्र (आवश्यक सूत्र का अंग है) क्षमापनासूत्र (आवश्यक सूत्र का अंग है) वंदित्तु (आवश्यक सूत्र का अंग है)
ऋषिभाषित ५३-६२ वीस अन्य पयन्ना- अजीवकल्प, गच्छाचार, मरणसमाधि,
सिद्धप्राभृत, तीर्थोद्गारिक, आराधनापताका, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, अंगविद्या, तिथिप्रकीर्णक, पिण्डविशुद्धि, सारावली, पर्यन्ताराधना, जीवविभक्ति, कवचप्रकरण, योनि
प्राभृत, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना। ६३-८३ ग्यारह नियुक्ति-(भद्रबाहुकृत)
आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययननि०, आचाराङ्गनि०, सूत्रकृताङ्गनि०, सूर्यप्रज्ञप्तिनि० (अनुपलब्ध), बृहत्कल्पनि०, व्यवहारनि०, दशाश्रुतस्कन्धनि०-ऋषिभाषितनि०
(अनुपलब्ध), संसक्तनि० । ८४ विशेषावश्यकभाष्य ।
ये ८४ आगम ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं । आगमों का रचना काल
सामान्यतया आगम साहित्य में अंग आगमों को गणधरकृत और अंगबाह्य ग्रन्थों को आचार्यकृत माना जाता है, किन्तु बौद्धिक ईमानदारी से विचार करने पर उपलब्ध सभी अंग आगम भी किन्हीं एक गणधर की या गणधरों के समूह की रचना हो ऐसा नहीं माना जा सकता है । क्योंकि अंग
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आगमों की विषयवस्तु उनके ही अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर पर्याप्त रूप से बदल गई है। प्रथमतः आचाराङ्ग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कुछ परवर्तीकालीन है । उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध की मुख्य मुख्य बातों को छोड़कर उनमें भी कालक्रम में कुछ बातें डाल दी गई हैं । यद्यपि भगवतीसूत्र को भगवान महावीर और गौतम के बीच संवाद रूप माना जाता है, किन्तु इसमें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि के जो निर्देश उपलब्ध है, वे यह तो अवश्य बताते हैं कि वलभी की वाचना के समय इसे न केवल लिपिबद्ध किया गया, अपितु इसकी सामग्री को व्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा महावीर द्वारा कथित दृष्टान्तों एवं कथाओं के संकलन रूप है । भाषिक परिवर्तन के बावजूद भी यह ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप में बहुत कुछ सुरक्षित रहा है । उपासकदशा की भी यही स्थिति है । किन्तु अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित और परिवर्धित हुई है। उसमें स्थानाङ्ग के उल्लेखानुसार १० अध्ययन थे, जबकि आज ८ वर्ग १० अध्ययन हैं, यही स्थिति अनुत्तरौपपातिक और विपाकसूत्र की भी मानी जा सकती है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु तो पूर्णतः दो बार बदल चुकी है। विपाकसूत्र में आज सुखविपाक और दुखविपाक ऐसे दो वर्ग है और बीस अध्ययन है, जबकि पहले इसमें दस ही अध्ययन थे । इसी प्रकार कुछ आगमों की विषयवस्तु पूर्णतः बदल गई है और कुछ की विषय वस्तु में कालक्रम में परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुआ है, किन्तु आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, भगवती, ज्ञाता आदि में बहुत कुछ प्राचीन अंश आज भी सुरक्षित है ।
अंगबाह्य साहित्य में उपांग सूत्रों में प्रज्ञापना आदि के कुछ के कर्ता और काल सुनिश्चित है। प्रज्ञापना ईसापूर्व या ईसा की प्रथम शती की रचना है । उववाई या औपपातिकसूत्र की विषय वस्तु में भी, जो सूचनाएं उपलब्ध है और जो सूर्याभदेव की कथा वर्णित है, ये सब उसे ईसा की प्रथम शती के आस-पास का ग्रन्थ सूचित करती हैं । राजप्रश्नीय का कुछ अंश तो पालीत्रिपिटक के समरूप है । उसमें आत्मा या चित्तसत्ता के प्रमाणरूप जो तर्क दिये गये हैं, वे त्रिपिटक के समान ही हैं, जो उसकी प्राचीनता के प्रमाण भी हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति का ज्योतिष भी वेदांग ज्योतिष के समरूप होने से इन ग्रन्थो की प्राचीनता को प्रमाणित करता है । उपांग साहित्य के
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अन्य ग्रन्थ भी कम से कम वलभीवाचना अर्थात् ईसा की पांचवी शती के पूर्व के ही है। छेदसूत्रो में से कल्प, व्यवहार, दशा और निशीथ के उल्लेख तत्त्वार्थ में है । तत्त्वार्थ के प्राचीन होने में विशेष संदेह नहीं किया जा सकता है। इनमें साधु के वस्त्र, पात्र आदि के जो उल्लेख है, वे भी मथुरा की उपलब्ध पुरातत्त्वीय प्राचीन सामग्री से मेल खाते हैं । अतः वे भी कम से कम ईसा पूर्व या ईसा की प्रथम शती की कृतियाँ हैं । अन्त में दशवैकालिक
और उत्तराध्ययन की प्राचीनता भी निर्विवाद है । यद्यपि विद्वानों ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों को प्रक्षिप्त माना है, फिर भी ई.प. में उसकी उपस्थिति से इन्कार नहीं किया जा सकता है । दशवैकालिक का कुछ संक्षिप्त रूप तो आर्य शय्यम्भव की रचना है - इससे इन्कार नही किया जा सकता है। नन्दी और अनुयोग अधिक प्राचीन नहीं है। प्रकीर्णकों में ९ का उल्लेख स्वयं नन्दीसूत्र की आगमों की सूचि में है, अतः उनकी प्राचीनता भी असन्दिग्ध है । यद्यपि सारावली आदि कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना होने से १०वीं शती की रचनाएँ है । दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रन्थ
__यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगमों के विच्छेद की पक्षधर है, फिर भी उसकी यह मान्यता है कि दृष्टिवाद के अन्तर्गत रहे हुए पूर्वज्ञान के आधार पर कुछ आचार्यों ने आगमतुल्य ग्रन्थों की रचना की थी, जिन्हें दिगम्बर परम्परा आगम स्थानीय ग्रन्थ मानकर ही स्वीकार करती है । इनमें गुणधर कृत कसायपाहुड़ प्राचीनतम है । इसके बाद पुष्पदन्त और भूतबलि कृत छक्खण्डागम (षट्खण्डागम) का क्रम आता है । ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रन्थ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं, और जैन कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित है । इन पर लगभग नवीं या दसवीं शती में धवल, जयधवल और महाधवल नाम से विस्तृत टीकाएँ लिखी गई । ये टीकाएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मिलती है। किन्तु इसके पूर्व इन पर चूर्णिसूत्रों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में वट्टकेर रचित मूलाचार और आर्य शिवभूति रचित भगवती-आराधना- ये दोनों प्राकृत ग्रन्थ भी आगम स्थानीय माने जाते है । मैं इन चारों ग्रन्थों को दिगम्बर परम्परा की ही यापनीय
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शाखा के आचार्यों की कृति मानता हूँ । इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, अष्टपाहुड, दसभक्ति आदि ग्रन्थों को भी आगमतुल्य ही माना जाता है । इनके साथ ही यतिवृषभकृत तिलोयपन्नत्ति, प्रभाचन्द्रकृत द्रव्यसंग्रह, कुन्दकुन्द कृत बारस अणुवेक्खा, कार्तिकयानुप्रेक्षा आदि भी दिगम्बर परम्परा में रचित प्राकृत के महत्त्वपूर्ण आगम स्थानीय ग्रन्थ है । दिगम्बरों में प्राकृतभाषा में मौलिक ग्रन्थ लिखने की यह परम्परा पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी यथावत् जीवित रही है । लगभग १०वीं शती में चामुण्डराय ने गोम्मट्टसार नामक ग्रन्थ के दो खण्ड जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड, जो मूलतः कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित है, प्राकृतभाषा में ही लिखे है । इसी प्रकार १२वीं शती में वसुनन्दी ने श्रावकाचार और १४वीं शती में भट्टारक पद्मनन्दी ने 'धम्मरसायण' नामक ग्रन्थ भी प्राकृतभाषा में लिखें। इसके पूर्व भी अंगपण्णत्ति आदि कुछ प्राकृत ग्रन्थ दिगम्बर आचार्यो द्वारा लिखे गये थे । यद्यपि दिगम्बर परम्परा में प्राकृतग्रन्थो की भाषा मुख्यतः शौरसेनी प्राकृत ही रही है, फिर भी वसुनन्दी के श्रावकाचार और भट्टारक पद्मनन्दी के धर्मरसायण की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत देखी जाती है । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अर्धमागधी और मुख्यतः महाराष्ट्री प्राकृत को अपनी लेखनी का विषय बनाया । उपरोक्त ग्रन्थो के साथ ही जैन कर्मसाहित्य का पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राकृत भाषा निबद्ध पंचसंग्रह उपलब्ध है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में भी पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ मिलता है । श्वेताम्बर परम्परा में प्राचीन कम्मपयड़ी आदि और देवेन्द्रसूरि रचित नवीन पांच कर्मग्रन्थ भी प्राकृत में ही रचित है । आगमिक व्याख्या साहित्य
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आगमों के पश्चात् प्राकृत साहित्य की रचना के क्रम की दृष्टि से आगमिक व्याख्याओं का क्रम आता है । इनमें नियुक्तियाँ प्राचीनतम है । रचना-काल की अपेक्षा निर्युक्तियाँ आर्यभद्र की रचनाएँ है और उनका रचना काल ईस्वीसन् की प्रथम या द्वितीय शती के बाद का नहीं हो सकता है । यद्यपि सभी महत्त्वपूर्ण आगमग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नही लिखी गई है । आगम
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साहित्य के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर ही नियुक्तियाँ लिखी गई थी, जो आज भी उपलब्ध है । इनमें प्रमुख है I १. आवश्यकनिर्युक्ति, २. आचारांगनिर्युक्ति, ३. दशवैकालिकनियुक्ति, ४. उत्तराध्ययननियुक्ति, ५. सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति, ६. दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति, ७. बृहत्कल्पनिर्युक्ति आदि । निशीथसूत्र पर भी नियुक्ति लिखी गई थी, किन्तु यह निशीथभाष्य में इतनी घुलमिल गई है कि उसे उससे अलग कर पाना कठिन है । इनके अतिरिक्त सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखे जाने की प्रतिज्ञा तो उपलब्ध है, किन्तु ये निर्युक्तियाँ लिखी भी गई थी या नहीं, यह कह पाना कठिन है । प्राचीन स्तर की नियुक्तियाँ उस आगम का संक्षिप्त उल्लेख कर कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करती है । इनके अतिरिक्त नियुक्ति साहित्य के दो अन्य ग्रन्थ और भी उपलब्ध है १. पिण्डनिर्युक्ति और २. ओघनिर्युक्ति । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ दशवैकालिकनिर्युक्ति के ही एक विभाग के रूप में भी माने जाते हैं । साथ ही श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इन दोनों को आगम स्थानीय भी मानती है । गोविन्दाचार्य कृत दशवैकालिकनिर्युक्ति की सूचना तो उपलब्ध है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है ।
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आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों के बाद भाष्य लिखे गये । भाष्यों में विशेषावश्यकभाष्य विशेष प्रसिद्ध हैं । इसके तीन विभाग है । प्रथम विभाग में पंच ज्ञानों की चर्चा है। दूसरा विभाग गणधरवाद के नाम से प्रसिद्ध है - इसमें ग्यारह गणधरो की प्रमुख शंकाओ का निर्देश कर उनके महावीर द्वारा दिये गये समाधानों की चर्चा है । तृतीय विभाग निह्नवों की चर्चा करता है । इसके अतिरिक्त वर्तमान में बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य भी उपलब्ध है । बृहत्कल्प पर बृहद्भाष्य और लघुभाष्य ऐसे दो भाष्य मिलते हैं । व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य ऐसे दो अन्य भाष्य भी मिलते हैं । पिण्डनिर्युक्तिभाष्य के भी दो संस्करण मिलते हैं । इसी प्रकार पिण्डनिर्युक्ति पर भी एक अन्य भाष्य लिखा गया है, किन्तु ये तीनों भाष्य मैने नहीं देखे हैं । भाष्यों में व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य आज मूल प्राकृत और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित भी है - इस सम्बंध में समणी कुसुमप्रज्ञाजी का श्रम स्तुत्य है । यह स्पष्ट है कि भाष्य
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भी मूलतः प्राकृत भाषा में रचित हैं, साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि नियुक्ति
और भाष्य दोनों पद्यात्मक है । जबकि कालान्तर में इन पर लिखी गई चूर्णियाँ प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में गद्य में लिखी गई है । फिर भी चूर्णियों की भाषा पर प्राकृत का बाहुल्य है । भाष्यों का रचनाकाल ६-७ शती के लगभग है, यद्यपि कुछ भाष्य परवर्ती भी है। चूर्णियां ७वीं-८वीं शती के मध्य लिखी गई । चूर्णियों में निशीथचूर्णि सबसे महत्त्वपूर्ण और विशाल है । यह अपने मूलस्वरूप में चार खण्डों में प्रकाशित है। इसके साथ ही आवश्यकचूर्णि भी अति महत्त्वपूर्ण है, यह भी अपने विशाल आकार में मूल मात्र ही दो खण्डों में पूर्व में मुद्रित हुई थी, किन्तु वर्तमान में प्राय: अनुपलब्ध है । इनके अतिरिक्त अन्य चूर्णियाँ निम्न है- आचाराङ्गचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, सूत्रकृताङ्गचूर्णि, जीतकल्पचूर्णि, नन्दीचूर्णि आदि । इनमें से नन्दीचूर्णि एवं सूत्रकृताङ्गचूर्णि का प्रथम खण्ड भी प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी से प्रकाशित है। आज इन चूर्णियों के हिन्दी अनुवाद की महती आवश्यकता
चूर्णियों के पश्चात् आगम साहित्य पर टीकाएँ भी लिखी गई हैं। टीकाएँ प्रायः संस्कृत में है । टीकाकारों में हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव, मलयगिरि आदि प्रसिद्ध है। किन्तु इन टीकाओं में शान्तिसूरि की उत्तराध्ययन की पाइअ टीका (प्रायः नवीं शती) अति प्राचीन एवं प्रसिद्ध है और जो मूलतः प्राकृत भाषा में ही निबद्ध है । यह लगभग सौ वर्ष पूर्व दो खण्डों में प्रकाशित है । टीकाओं में यही एक ऐसी टीका है, जो प्राकृत भाषा में लिखित है। प्राकृत के स्वतन्त्र ग्रन्थ
नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के साथ ही पूर्व मध्यकाल में प्राकृत भाषा में अनेक आगमिक विषयो पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये । इनमें भी जीवसमास, लोकविभाग, पक्खीसूत्र, संग्रहणीसूत्र, क्षेत्रसमास, अंगपण्णत्ति, अंगविज्जा आदि प्रमुख है । इसी क्रम में ध्यानसाधना से सम्बन्धित जिनभद्रगणि का झाणज्झयण अपरनाम ध्यानशतक (ईसा की ६ठी शती) भी प्रकाश में आया । हरिभद्र के प्राकृत योग ग्रन्थों में योगविंशिका, योगशतक,
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१९७ सम्बोधप्रकरण प्रसिद्ध ही है। इसी प्रकार हरिभद्र का धूर्ताख्यान भी बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है, किन्तु हम इसकी चर्चा प्राकृत कथा साहित्य में करेंगे। .
इसी क्रम में उपदेशपरक प्राकृत ग्रन्थों में हरिभद्र के सावयपण्णत्ति, पंचाशकप्रकरण, पंचसुत्त, पंचवत्थु, सन्बोधप्रकरण आदि भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसी क्रम में अन्य उपदेशात्मक ग्रन्थों में धम्मसंगहणी, संबोधसतरी, धर्मदासगणि की उपदेशमाला, खरतरगच्छीय आचार्य की, सोमप्रभ की उपदेशपुष्पमाला आदि भी प्रसिद्ध है। इसी क्रम में दिगम्बर परम्परा में देवसेन (१०वीं शती) के भावसंग्रह, दर्शनसार, आराधनासार, ज्ञानसार, सावयधम्मदोहा आदि भी प्राकृत की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ है । • प्राकृत कथा साहित्य
यद्यपि आगमों में अनेक ग्रन्थ तो पूर्णत: कथारूप ही है, जैसे ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, अन्तकृत्दशा, विपाकसूत्र,
औपपातिकसूत्र, पर्युषणाकल्प आदि । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का कुछ अंश, जो ऋषभदेव, भरत आदि के चरित्र का वर्णन करता है, भी कथा रूप ही है। किन्तु इनके अतिरिक्त भी आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेष रूप से नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक कथाएँ है । पिण्डनियुक्ति, संवेगरंगशाला, आराधनापताका आदि में भी अनेक कथाओं के निर्देश या संकेत उपलब्ध है। विषयों का स्पष्टीकरण करने में, ये कथाएँ बहुत ही सार्थक सिद्ध होती है । इन उपदेशात्मक कथाओं के अतिरिक्त जैन आचार्यो ने अनेक आदर्श पुरुषों के जीवन चरित्रों पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे हैं। इनमें तीर्थकरों और शलाका पुरुषों के चरित्र प्रमुख है । आगमों में भगवान महावीर आदि के जीवन के कुछ प्रसंग ही चित्रित है । तीर्थकरों एवं अन्य शलाका पुरुषों के चरित्र को लेकर, जो प्राकृत भाषा में स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये, उनमें सर्वप्रथम विमलसूरि के 'पउमचरियं' की रचना हुई है । रामकथा के सन्दर्भ में वाल्मिकी की संस्कृत भाषा में निबद्ध 'रामायण' के पश्चात् प्राकृत भाषा में रचित यही एक प्रथम ग्रन्थ है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध है। इसका रचनाकाल ईसा की दूसरी शती से पांचवी शती के मध्य माना जाता है । इसके पश्चात् प्राकृत भाषा के कथाग्रन्थों में संघदासगणि कृत .
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वसुदेवहिण्डी (छठी शती) का क्रम आता है । इसमें वसुदेव की देशभ्रमण की कथाएं वर्णित है। इन दोनों ग्रन्थों में अनेक अवान्तर कथाएँ भी वर्णित है । इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्र के कथाग्रन्थो का क्रम आता है । इनमें धूर्ताख्यान और समराइच्चकहा प्रसिद्ध है । इसी प्रकार भद्रेश्वरसूरि की कहावली भी प्राकृत कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है । ज्ञातव्य है कि जहाँ विमलसूरिका ‘पउमचरिय' पद्य में है, वहाँ संघदास गणिकृत वसुदेवहिण्डी और हरिभद्र का धूर्ताख्यान गद्य में है। नौवीं दशमी शती में रचित शीलांक ने 'चउप्पन्नमहापुरिसचरियं' भी प्राकृतभाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि की 'लीलावईकहा' भी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक श्रेष्ठ रचना है । प्राकृत भाषा में निबद्ध अन्य चरित काव्यों में १०वीं शती का सुरसुंदरीचरियं, गरुडवहो, सेतुबंध, कंसवहो, चन्द्रप्रभ महत्तरकृत सिरिविजयचंदकेवलीचरियं (सं. १०२७), देवेन्द्रगणी कृत सुदंसणाचरियं, कुम्मापुत्तचरियं, जंबूसामीचरियं, महावीरचरियं (१२वी शती पूर्वार्ध), गुणपालमुनि कृत गद्यपद्य युक्त जंबुचरियं, नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडचरियं, सिरिपासनाहचरियं, लक्ष्मणगणि कृत सुपासनाहचरियं (सभी लगभग १२वीं शती) । इसी कालखण्ड में रामकथा सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी सृजित हुई थी यथा- सियाचरियं, रामलखनचरियं । इससे कुछ परवर्ती काल खण्ड की महेन्द्रसूरि (सन् ११३०) कृत नम्मयासुंदरी भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में १७वी शती में भुवनतुंगसूरि ने कुमारपालचरियं की रचना की । इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में काव्य लिखने की यह परम्परा चौथी-पांचवीं शती से लेकर १७वीं शती एक जीवित रही है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में कालक्रम में महाराष्ट्री प्राकृत में तीर्थंकर चरित्रों पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये-यथा आदिनाहचरियं, सुमईनाहचरियं, वसुपुज्जचरियं, अनन्तनाहचरियं, संतिनाहचरिय, मुनिसुव्वयसामीचरियं, नेमिनाहचरियं, पासनाहचरियं, महावीरचरियं आदि । शौरसेनी प्राकृत भाषा में चरित्रग्रन्थों के लिखने की यह धारा दिगम्बर परम्परा में निरन्तर नहीं चली। दिगम्बर परम्परा में चरित्रग्रन्थ तो लिखे जाते रहे हैं, किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने या तो संस्कृत को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया या फिर अपभ्रंश भाषा को अपनाया । यद्यपि श्वेताम्बर आचार्यों ने परवर्ती काल में भी अपभ्रंश
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भाषा में कुछ चरित्रग्रन्थ लिखे, किन्तु संख्या की वैदिक एवं जैन धारा के संस्कृत नाटकों में भी बहुल अंश प्राकृत भाषा में ही होता है, वे भी प्राकृत साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है । इसकी चर्चा स्वतन्त्र शीर्षक के द्वारा आगे करेंगे ।
यद्यपि अपभ्रंश भी प्राकृत भाषा से ही विकसित हुई है, और प्राकृतों तथा आधुनिक उत्तरभारतीय प्रमुख भाषाओं के मध्य योजक भी रही है । इस अपभ्रंश में रचित श्वेताम्बर, दिगम्बर आचार्यो ने निम्न चरितकाव्य लिखे यथा - रिट्ठनेमिचरिउ, सिरिवालचरिउ, वड्ढमाणचरिउ, पउमचरिउ, सुदंसणचरिउ, जम्बूसामीचरिउ, णायकुमारचरिउ, मदनपराजयचरिउ आदि । ज्ञातव्य है कि ये सूचनाएँ मेरी जानकारी तक ही सीमित है । सम्भव है कि जैनकथा साहित्य के प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थ मेरी जानकारी में नहीं होने से छूट गये हो, इस हेतु मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
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प्राकृत में आगम ग्रन्थों, आगमिक व्याख्याओं, आगमिक विषयों एवं उपदेशपरक ग्रन्थों के अतिरिक्त भी साहित्य की अन्य विधाओं पर भी ग्रन्थ लिखे गये हैं । प्राकृत के व्याकरण से सम्बन्धित ग्रन्थ प्राकृत भाषा में नहीं लिखे गये हैं, वे मूलतः संस्कृत में रचित हैं और संस्कृत भाषा के आधार पर प्राकृत के शब्द रूपों को व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते है, इनके रचयिता भी जैन और अजैन दोनों ही वर्गों से है । इनके ग्रन्थों में वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश, मार्कण्डेयरचित प्राकृतसर्वस्व, हेमचन्द्रकृत सिद्धहेम व्याकरण का आठवाँ अध्याय प्रमुख हैं । प्राकृत कोश ग्रन्थों में धनपालकृत पाइयलच्छीनाममाला, हेमचन्द्रकृत रयणावली अर्थात् देशीनाममाला प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त भी अभिमानसिंह, गोपाल, देवराज आदि ने भी देश्यशब्दों के कोश ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वे आज अनुपलब्ध हैं । इसी प्रकार द्रोण, पादलिप्तसूरि, शीलांक रचित प्राकृत शब्दकोशों के सम्बन्ध में आज विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । प्राकृत के कोशों में विजयराजेन्द्रसूरिकृत 'अभिधानराजेन्द्रकोश', शेठहरगोविन्ददासकृत 'पाइयसद्दमहण्णव', मुनिरत्नचन्द्रकृत 'अर्धमागधीकोश', पाइयसद्दमहण्णव आधारित के. आर. चन्द्रा का प्राकृत हिन्दी कोश आदि ही प्रमुख है । इसके अतिरिक्त प्राकृत शब्द रूपों को लेकर जैन विश्वभारती
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संस्थान से आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञजी के निर्देशन में तैयार निम्न कोश ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं १. आगमशब्दकोश, २. देशीशब्दकोश, निरुक्तकोश, ४. एकार्थककोश, ५. जैन आगम वनस्पतिकोश, ६. जैन आगम प्राणीकोश, ७. श्री भिक्षु आगमकोश भाग १ एवं भाग २ आदि ।
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प्राकृत नाटक
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन नाटक और सट्टक प्रायः संस्कृत भाषा की रचनाएँ माने जाते है । किन्तु संस्कृत नाटकों में प्रायः बहुल अंश प्राकृत का ही होता है । अत: मुख्यता प्राकृतों की होने से उन्हें प्राकृत भाषा का भी माना जा सकता है। ये नाटक भी जैन एवं अजैन दोनों परम्पराओं में लिखे गये है । कुछ नाटक ऐसे भी हैं, जो मात्र प्राकृत भाषा में रचित हैं, और सट्टक के रूप में जाने जाते हैं । यथा- कप्पूरमंजरी, विलासवइ, चंदलेहा, आनन्दसुंदर, सिंगारमंजरी आदि । जैन नाटककारों में दिगम्बर हस्तिमल प्रसिद्धहै । इनके निम्न नाटक उपलब्ध है- अंजनापवनंजय, मैथिलीकल्यांण, विक्रान्तकौरव, सुलोचना और सुभद्राहरण । श्वेताम्बरों में आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने जहाँ एक और संस्कृत में नाट्यदर्पण नामक ग्रन्थ लिखा, वही प्राकृत संस्कृत मिश्रित भाषा में अनेक नाटकों की भी रचना की । यथाकौमुदीमित्रानन्द, नलविलास यादवाभ्युदय, रघुविलास, राघवाभ्युदय, वनमाला (नाटिका), सत्यहरिश्चन्द्र, मल्लिकामकरन्द । इसके अतिरिक्त अजैन लेखको द्वारा रचित नाटकों, सट्टको और विधी आदि में प्राकृत के अंश मोजूद है। ज्योतिष
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यद्यपि चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में रचित ज्योतिष सम्बन्धी प्रमुख आगम ग्रन्थ है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी जैन परम्परा में अनेक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ प्राकृत भाषा में भी रचित हैं यथा- गणिविज्जा, अंगविज्जा, जोइसकरंडक (ज्योतिषकरण्डक प्रकीर्णक), जोतिससार, विवाह - मण्डल, लग्गसुद्धि, दिणसुद्धि, गणहरहोरा, जोइसदार, जोइसचक्कवियार, जोइस्सहीर आदि । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यो ने प्राकृत भाषा में विपुल ग्रन्थों का सर्जन किया था । संस्कृत भाषा में तो उनके अनेक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ है ही । 'आयनाणतिलय' नामक फलित ज्योतिष का
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जान्युआरी
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जैन आचार्य वोसरि का भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होता है ।
निमित्त शास्त्र
निमित्त शास्त्र भी जैनाचार्यों का प्रिय विषय रहा है । जयपायड़ इस विषय की प्राकृत भाषा की एक प्रसिद्ध रचना है । इसके अतिरिक्त निमित्तपाहुड, जोणीपाहुड, रिठ्ठसमुच्चय, साणकय (श्वानकृत), छायादार, नाडीदार, उवस्सुइदार, निमित्तदार, रिठ्ठदार, पिपीलियानाण, करलक्खण, छींकवियार आदि इस विषय की प्राकृत कृतियाँ है ।
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इस प्रकार शिल्पशास्त्र में ठक्करफेरूकृत वत्थुसारपयरण आदि ग्रन्थ भी प्राकृत में उपलब्ध हैं । प्राकृत आगम साहित्य में भी जैन खगोल, भूगोल, गणित, चिकित्साशास्त्र, प्राणीविज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय वस्तु प्राकृत भाषा में उपलब्ध है । आज जैनाचार्यों द्वारा प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं एवं शोध की अपेक्षा रखते हैं । विस्तार भय से मैं अधिक गहराई में न जाकर इस चर्चा को यहीं विराम दे रहा हूँ । मैने इस आलेख में प्राकृत भाषा में रचित जैन कृतियों के नाम मात्र दिये हैं । जहाँ तक सम्भव हो सका लेखक और रचनाकाल का भी संकेत मात्र किया है । ग्रन्थ की विषय वस्तु एवं अन्य विशेषताओं की कोई चर्चा नहीं की है । अन्यथा यह आलेख स्वयं एक पुस्तकाकार हो जाता है । यह भी सम्भव है कि मेरी जानकारी के अभाव में कुछ प्राकृत ग्रन्थ छूट भी गये हो, एतदर्थ मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । विद्वानों से प्राप्त सूचना पर उन्हें सम्मिलित किया जा सकेगा ।
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प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क
ग्रन्थावलोकन :
निर्ग्रन्थ परम्परानी अतीतनी शोधयात्रानो परिपाक
खण्ड १
उपा. भुवनचन्द्र
इतिहासनी गवेषणा एटले स्थल-कालनी सीमाओने भेदीने 'अणदीठी भोम'नी यात्रा. कल्पनानी पांखे उड्डयन आमां न थाय, न पोसाय. कोई आत्मसाधक जे निष्ठाथी परम सत्यनी खोज करे, कंइक एवी ज निष्ठा इतिहासना अन्वेषके विकसावी पड़े. इतिहासना अन्वेषके, एक साधकनी जेम ज, अहं - मम - स्वार्थथी ऊपर ऊठीने तथ्योने तपासवानी क्षमता केळववी पड़े छे. श्री मधुसूदन ढांकी - ढांकी साहेब - मां आपणने आवा एक सत्यनिष्ठ शोधकनी झांखी जोवा मळे छे. एमनी शोधयात्रा घणी लांबी छे, अने बहुआयामी छे. शोध - संशोधनना निचोड़रूपे हिन्दी - गुजराती- अंग्रेजी भाषामां अनेक शोधपत्रो अने पुस्तको तेमणे लख्यां छे. भारतीय स्थापत्य, पुरातत्त्व, शिल्प, भाषा वगेरे अनेक विधाओमां एमनी प्रतिभाए चमत्कार दर्शाव्यो छे. जैन पुरातत्त्व-कला-साहित्यमां पण तेमणे नोंधनीय काम कर्तुं छे. जैन संघ एक रीते गौरव लई शके के पद्मभूषण उपाधिप्राप्त अने आन्तरराष्ट्रीय ख्याति धरावता आवा मूर्धन्य इतिहासविद - पुरातत्त्वशास्त्रीनी सेवाओ जैन संघने मळी छे.
जैन इतिहास - पुरातत्त्व - कलाना विषयमां तेमणे लखेला गुजराती अभ्यासलेखोनो संग्रह 'निर्ग्रन्थ लेख समुच्चय' एवा नामे बे भागमां अगाऊ प्रसिद्ध थई चूक्यो छे. आ ज विषयना तेमना अंग्रेजी लेखोनो संग्रह हवे 'स्टडीझ इन निर्ग्रन्थ आर्ट एन्ड आर्किटेक्चर' एवा नामे प्रकाशित थयो छे, जेमां २२ जेटला लेखो समाववामां आव्या छे. जैन परम्पराना प्राचीन पुरातत्त्वकला-साहित्यने ढांकी साहेब 'निर्ग्रन्थ कला' के 'निर्ग्रन्थ साहित्य' तरीके ओळखावे छे ते योग्य ज छे. श्वेताम्बर - दिगम्बर जेवा पेटाविभाग अस्तित्वमां आव्या ते पहेलां जैन परम्परा 'निर्ग्रन्थ' एवा नामे ज प्रसिद्ध हती.
भूतकालमां पाछा फरी शकातुं नथी, पण निरीक्षण-परीक्षण अने अभ्यासना बळे मेधावी संशोधक दूर- सुदूरना अतीतना अंकोडा केवी रीते
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जान्युआरी - २०१३
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मेळवे छे ते जाणवा-समजवा माटे आवा ग्रन्थो स्वस्थ चित्ते अने आग्रहपूर्वग्रहथी वेगळा रहीने वांचवा पड़े. असंख्य ग्रन्थो, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, प्रतिमालेखो, चरित्र-प्रबन्ध-स्तोत्र, भास-रास-गीत जेवी सामग्रीमां विखरायेली पड़ेली विगतो, विनियोजन करीने ढांकी साहेब चिरविस्मृत अतीतनो आकार उद्घाटित करे छे. तीव्र स्मृति अने वेधक मेधा विना आ क्षेत्रे कशुं मौलिक प्रदान थई शके नहि. आ लेखोमांथी पसार थतां वाचकने एमनी मेधा तथा स्मृतिनां अद्भुत दर्शन पाने पाने थशे.
श्री नेमिनाथ अने श्रीकृष्ण, सौराष्ट्रमां निर्ग्रन्थ विहार, गिरनारनो प्राचीन इतिहास वगेरे मुद्दानी चर्चा करतो लेख विशेष ध्यानार्ह छे. धरणेन्द्र अने श्रीपार्श्वनाथ विषयक लेख अतीतनी केटलीक वातो आपणी समक्ष मके छे जे आपणने विचार करतां करी दे छे. जैन स्तोत्रसाहित्य तथा आगमसाहित्यना अध्ययन पर आधारित जिनप्रतिमानी ऐतिहासिकता विशेनो एक पठनीय अने अभ्यासखचित लेख मूर्तिने माननार अने नहि माननार- बन्ने पक्षोए वांचवाविचारवा जेवो छे. दक्षिण भारतनां जैन मन्दिरो, गुफामन्दिरोना स्थापत्य सम्बन्धी केटलाक लेखो पण अभ्यासीओने माटे रसप्रद बने एवा छे.
साम्प्रदायिक झुकाव इतिहासलेखकनी गरिमाने बाधित करे; अधूरंउपलकियुं अन्वेषण लेखकना विधाननी अधिकृतताने हानि करे. ढांकी साहेबना साम्प्रदायिकतामुक्त अभिगम अने गहन अध्ययन आ ग्रन्थना प्रत्येक लेखमां प्रतिबिम्बित थाय छे. तेमनां केटलांक विधानो परम्परागत मान्यतानी सामे प्रश्नार्थचिह्न खडुं करे छे, त्यारे वाचकने प्रतीति थाय के लेखक कशुं गृहीत लइने चालता नथी.
___ सम्पूर्ण पुस्तक ग्लेजपेपर पर मुद्रित छे. मूर्तिओ, मन्दिरो अने शिल्पोनी पुष्कळ छबीओ ग्रन्थनुं गौरव वधारे छे. मुद्रण सुन्दर छे. संस्कृत-प्राकृतअपभ्रंश भाषानां उद्धरणोमां प्रूफवाचननी भूलो रही जवा पामी छे, ए खटके खरं. परन्तु लेखक पोते खराब स्वास्थ्यमांथी पसार थई रह्या होई जाते प्रूफ तपासी शक्या नथी ए कारणे ज रहेवा पामी छे ए स्पष्ट छे.
आवो पठनीय-दर्शनीय-संग्रहणीय ग्रन्थ प्रकाशित करवा बदल सम्बोधि संस्थान (अमदावाद) ने पण धन्यवाद.
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
(Studies in Nirgranth Art and Architecture - M. A. Dhaky; 2012; Sambodhi Sansthan, 1, Bhagatbaug Society, New Shardamandir Road, Paldi, Ahmedabad - 380007, Gujarat; pp. 354+xiv+145; Price Rs. 3000)
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कहावली : एक सीमास्तम्भ रूप प्रकाशन
उपा. भुवनचन्द
जैन परम्पराए श्रुतज्ञानने - शास्त्राधारित अने गुरु तरफथी मळता ज्ञानने खूबज महत्त्व आप्युं छे. प्रत- पुस्तक - पोथी - पानां ए श्रुतज्ञाननुं मुख्य साधन छे. आथी पोथी-पुस्तक- ग्रन्थ- ग्रन्थभण्डार इत्यादिने आपोआप महत्त्व मळे. पुस्तक - पोथी लखवा - लखाववा, भण्डारनी सार-संभाळ वगेरेने एक धर्मनो दरज्जो मळ्यो छे. तेथी ज जैनो पासे विशाळ ग्रन्थराशि सुरक्षित छे. मुद्रणयुग आवतां हस्तप्रतोमां रहेल ग्रन्थोने मुद्रित रूप आपवानुं कार्य पण एवा ज उत्साहपूर्वक थयुं. छेल्ला सोएक वर्षथी ग्रन्थो छपाता आव्या छे अने मोटा भागना ग्रन्थो छपाइ चूक्या; हवे तो तेमना पुनर्मुद्रणनो तबक्को चाले छे अने E-library नो युग शरू थई रह्यो छे. आम छतां हजी सुधी अमुद्रित रह्या होय एवा पण थोडाक ग्रन्थो छे. एमांनो एक ग्रन्थ छे 'कहावली'. 'कथावली'नी पण एक कथा छे.
केटलाक इतिहासना ग्रन्थो होय छे तो केटलाक ग्रन्थो पोते इतिहास सर्जे छे. 'कहावली'नो पण एक इतिहास रचायो छे छेक इ.स. १९३२मां जर्मन विद्वान डॉ. हर्मन जेकोबीए 'कहावली' नुं महत्त्व पिछाण्युं हतुं - नोंध्युं हतुं. आगमप्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी महाराज, श्रीकस्तूरसूरीश्वरजी महाराज जेवा विद्याव्यासंगी गुरुजनोए आ ग्रन्थ प्रकाशित करवाना प्रयत्न कर्या हता. श्री भायाणी, श्री मालवणिया, डॉ. उमाकांत पी. शाह, श्री लालचंद गांधी, श्री ढांकी जेवा विद्वानो समये समये आ ग्रन्थ अने ग्रन्थकर्ता विशे अभ्यासलेखो लख्या हता.
श्रीजिनविजयजी, श्रीकस्तूरसूरिजीए तो आ ग्रन्थनी प्रतिलिपि, प्रेसकोपी
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कराववानी जहेमत लीधी हती. ते पछी भायाणीसाहेब तथा श्रीरमणीकभाई शाहे आनुं सम्पादन हाथ पर लीधुं. आ महाकाय ग्रन्थनी उपलब्ध हस्तप्रतोमां अपरम्पार अशुद्धि होवाना कारणे सम्पादनकार्य मुश्केल बनी रह्यं अने ३० वर्ष सुधी ग्रन्थ पड्यो रह्यो. भायाणी साहेब जतां आ सम्पादननो भार रमणीकभाई पर आव्यो. अनेक कार्योना भार वच्चे तेओ, वृद्ध उम्मरे पण, संशोधनकार्य आगळ वधारता रह्या, परन्तु कार्यने पहोंची वळवा, तेमना माटे मुश्केल बनी रह्यु. आ तबक्के ग्रन्थनी नियतिए जाणे आ. शीलचन्द्रसूरिने प्रेरणा करी. एमणे आ काम मागी लीधुं अने पोताना शिष्य कल्याणकीर्तिविजयजीना खभा पर आनो भार नाख्यो. कल्याणकीर्तिविजयजीए आ आह्वान स्वीकारी लीधुं. अंग्रेजीमां कहीए तो He rose to the occassion - खरे टाणे आगळ आव्या.
प्राकृत भाषा, जैन इतिहास अने जैन कथासाहित्यना पर्याप्त परिचय विना आ ग्रन्थ, सम्पादन थई शके नहि. मूल ताडपत्रीय प्रतमां पगले पगले भ्रष्ट अने अशुद्ध पाठ के त्रुटित पाठोनी भरमार छे. सम्पादक मुनिश्रीए पोताना संस्कृत-प्राकृतना सघन अभ्यास, कथासाहित्य, विपुल वांचन अने सम्पादनपद्धतिनो महावरो - आ बधुं कामे लगाडी, अति श्रमसाध्य एवं आ काम आगळ धपाव्युं छे. वस्तुतः ग्रन्थने नवो अवतार मळ्यो छे. आम आ . दुर्लभ ग्रन्थनो इतिहास शोकान्तिकाने बदले सुखान्तिकामां परिणम्यो छे. जैनविद्या तथा भारतीयविद्याना प्रेमीओ माटे आ घटना राजी राजी करी मूके एवी छे. ___'कहावली'ना रचयिता भद्रेश्वरसूरिनो समय निश्चित करवा माटे विद्वानोए घणो ऊहापोह को छे, परन्तु निर्णय पर आवी शक्या नथी. भद्रेश्वर नाम धरावता आठ जेटला आचार्योना उल्लेखो मळे छे. 'भद्रेश्वरगच्छ' एवा नामनो एक गच्छ पण हतो. ढांकी साहेब जेवा तज्ज्ञो 'कहावली'नो रचनासमय इसवीसनना दसमा सैकानो सूचवे छे..
भगवान ऋषभदेवथी लई हरिभद्रसूरि सुधीनी कथाओ प्रथम परिच्छेदमां गूंथी लेवाई छे. बीजो परिच्छेद अप्राप्त छे. बीजा परिच्छेदमां दशमा सैका सुधीनी कथाओ के चरित्रो संकलित हशे एवं अनुमान थाय छे. ग्रन्थकारे नूतन
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
रचना नथी करी; विविध स्रोतोमांथी कथाओनो, ग्रन्थकारना शब्दोमां ज, सारांश के संक्षेप रूपे, संग्रह ज को छे. प्राकृत भाषामां रचित, कथाओना सागर जेवा आ ग्रन्थनी हस्तप्रतो पण गणीगांठी ज मळे छे – अने ते पण अत्यन्त अशुद्ध. ___'कहावली'मां कथा, इतिहास, तत्त्वज्ञान, समाजव्यवस्था, साहित्यनी तत्कालीन विधा-आ बधुं समाविष्ट छे. जैनविद्या अने भारतीयविद्याना अभ्यासीओ माटे आ ग्रन्थ घणी बधी अभ्याससामग्री पूरी पाडे छे. भाषाशास्त्रीओ माटे आ ग्रन्थ एक रसथाळ जेवो छे.
कुल १६८ जेटली नानी-मोटी कथाओ प्रथम भागमां छे. सम्पादके सात परिशिष्टो योज्यां छे. मोटाभागनी कथाओनां मूल स्रोत अथवा समान कथास्थानो सम्पादके शोधीने परिशिष्टमां आप्यां छे - जे तुलनात्मक अध्ययन माटे अति उपयोगी थशे. ग्रन्थना प्रारम्भे डो. दलसुखभाई मालवणियानो अंग्रेजी लेख तथा डॉ. मधुसूदन ढांकीनो गुजराती लेख आपेल छे – जे ग्रन्थनी साथे संकळायेल महत्त्वनी विगतो पूरी पाडे छे.
भ्रष्ट-अशुद्ध पाठोनी जग्याए विषय/सन्दर्भ अनुसार नवो शुद्ध पाठ विचारीने सम्पादके कौंसमां आप्यो छे. ज्यां पाठ खण्डित हतो त्यां मूल स्रोतरूप ग्रन्थोमांथी अथवा समान पाठवाला ग्रन्थमाथी आवश्यक शब्द के अंश उद्धृत करीने ग्रन्थ पूर्ण कर्यो छे. आ काम केटलुं जफावाळु अने मानसिक कसरत करावनाएं छे ते तो आ क्षेत्रना अनुभवीओ ज समजी शके. ज्यां सुधारेलो पाठ पण सम्पादकने सन्तोषकारक नथी लाग्यो त्यां सम्पादके ते पाठ प्रश्नचिह्न साथे मूक्यो छे. पोताने सूझ्युं ते ज खरं, पोतानो शब्द अन्तिम – एवो दावो करवाथी सम्पादक दूर रह्या छे. संशोधक-सम्पादकनो आ साचो धर्म छे. सम्पादकनी संशोधननिष्ठा आमां प्रतिबिम्बित थाय छे. मूल पाठमां शंका रहेती होय त्यां प्रश्नचिह्न मूकीने आगळ वधq एटला माटे जरूरी छे के आवा स्थाने कोई अभ्यासीने शुद्ध पाठ विचारवानी प्रेरणा मळे अने जो तेने सूझी आवे तो सरवाळे ग्रन्थने लाभ थाय. आजे 'अशुद्ध' पाठने 'शुद्ध' करवा जतां उपलब्ध शुद्ध पाठने पण 'सुधारी' नाखवानी अति साहसिकता क्यांक जोवा मळे छे. एमां ग्रन्थना संशोधन करतां पोतानी 'प्रतिभा'- प्रकाशन करवानी वृत्ति ज काम करती होय एम मानवू पडे.
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मुनिश्रीनी सज्जतानी प्रतीति आ ग्रन्थ- सम्पादन करावी जाय छे. तेमनी सज्जताने जोतां एम लागे के जे स्थानो शंकास्पद रह्यां छे तेने पण तेओ शुद्ध करी शक्या होत – जो तेमने पूरतो समय मळ्यो होत. केटलांक स्थळे देखीतो सुधारो करवानो रही गयो छे अथवा भळतो सुधारो थवा पाम्यो छे. तेनुं कारण पण पुनरवलोकन माटे समय न मळवा पाम्यो होय ए ज हशे. केटलांक स्थळो पुनरवलोकन मागे छे. दा.त. पृ. ५७ पं. (नीचेथी) ५, 'मज्झं' छे त्यां 'गुज्झं' शब्द वधु संगत बने, पण सम्पादकना ध्यान बहार गयो छे. पृ. ९७, पं. (उपरथी) १०, 'परिभा(भ)वो' मां सुधारा द्वारा 'परिभवो' शब्द सूचित कर्यो छे, परंतु सन्दर्भ जोतां 'परियावो' अहीं बराबर बंध बेसे. पृ. १०८ उपर नीचेथी १६मी पंक्तिमां 'करेइ' पाठ छे. अहीं गाथा- चरण आम छ : 'उप्पइउणं पहारं करेइ अइदारुणं देइ'. सन्दर्भ एवो छे के महापद्मकुमार हाथीने वश करवा माटे जोरदार प्रहार करे छे; तेनी पासे शस्त्र नथी, तेथी हाथथी ज करे छे. एटले 'करेइ' जेवा अनावश्यक क्रियापदने स्थाने 'करेण' पाठ वधु सार्थक बने; पण आ स्थान सम्पादकना ध्यानमां नथी आव्युं. प्रतमां अशुद्ध पाठो अगणित छे, तेथी पुनर्वाचननी जरूर रहे ज. पृ. ३६८, पं. (नीचेथी) ८मां 'गंदित्ता'ने बदले 'छड्डित्ता' सुधारो कौंसमां सूचित कर्यो छे, परंतु वाक्यमां आनाथी पहेला 'वि' छे तेथी 'विर्गिदित्ता' वांची शकाय, अने तेमां 'विगिदि(चि)त्ता' एवो सुधारो सूचवी शकाय एम छे. मुनिश्रीनी भाषाकीय सज्जता जोतां आवा सुधारा तेमने सूझी ज आवत, परन्तु समय ओछो पड्यो होय एम लागे छे.
ग्रन्थनां पानां उथलावतां थोडांक परिमार्जन सूझ्यां ते पण पाठकोना लाभार्थे अहीं नोंधुं र्छ :
अशुद्ध १३८ (नीचेथी) ११ अहीं 'तंमि' एवा सुधारानी जरूर नथी;
तं वि जयं ते मुहं दिटुं - आ पाठ ठीक ज छे.
अर्थ थशे - तारुं मोढुं जोयुं ते ज (वधामणां छे). १९७ (उपरथी) ४ सव्वं(च्चं) सव्वं(त्त्थं) ११७ (नीचेथी) ४ ताय ! पयकमलं तायपयकमलं
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ २३५ (उपरथी) १४ दोह होह १३४ (नीचेथी) १२ दहवयणं तुह वयणं
ग्रन्थमा प्राकृत अने देश्य शब्दो प्रचुर प्रमाणमां छे. सम्पादके आवा शब्दोनो कोश परिशिष्टमां आप्यो छे. आमांना थोडा शब्दो एवा छे के जे 'देशीनाममाला' के 'पाइयसद्दमहण्णवो'मां नोंधाया नथी. 'तेड्ड' (पृ. ३४३)नो अर्थ सन्दर्भ परथी 'वांकुं' एवो समजाय छे. हिन्दीमां आजे पण आ शब्द प्रचलित छे - 'टेढा' रूपे. गुजरातीनो 'सरभर' आमां 'सरिभरी' रूपे हाजर छे. 'भरोसो', प्राचीन रूप 'भरोसअ' आमां मळे छे. 'गुसपूस'ना मूळ जेवो 'खुसफुसाए' आ रचनामां जोवा मळे छे. 'बलवण' (नमक) आमां पण 'बलवण' ज छे. मध्यकालीन 'सालणां'नुं मूळ 'सालयण' (पृ. ३४१)मां होइ शके.
__ पृ. १९४ पर 'झोक्खण' शब्द जोवा मळे छे, सन्दर्भ अनुसार आनो अर्थ 'पाणीनो छंटकाव करवो' एवो थाय छे. आ ज अर्थनो 'अब्भोक्खण' शब्द म.गु.मां जाणीतो छे. पुराणी लिपिमां 'ब्भ', 'ज्झ' जेवो लागतो हतो. अहीं वाचनदोषथी 'ब्भ' 'ज्झ' वंचायो छे अने लखायो छे एम लागे छे. सन्धिमां जो 'अ' लुप्त न थयो होय तो 'अ'काररहित 'ब्भोक्खण' शब्द पण प्रचलित हतो एम नक्की थाय अने कोठारी साहेबे म.गु.को.मां नोंधेला अबोखण, अभोखउ वगेरे रूपान्तरोमां एकनो उमेरो करवानो थाय.
'कहावली'नो शब्दभण्डार व्युत्पत्ति अने अर्थनी दृष्टिए कोशशास्त्रीओने माटे महत्त्वपूर्ण बनशे- ए बात आ नमूनाओ परथी स्पष्ट जणाशे.
_ 'कहावली'- प्रकाशन जैनविद्या अने जैनसाहित्यना क्षेत्रे एक सीमास्तंभरूप गणाशे अने मुनिश्री कल्याणकीर्तिविजयजीनी साहित्ययात्रानो एक विशिष्ट पड़ाव पण बनी रहेशे. आनो द्वितीय खण्ड पण शीघ्र प्रकाशित थशे एवी आशा रहे छे.
[कहावली : कर्ता - भद्रेश्वरसूरि । सं. - मुनिश्रीकल्याणकीर्तिविजयजी । प्रका० - कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कार निधि, अहमदाबाद । २०१२ । पृ. ४२५ + xxxxiv ; मूल्य - रू. ३५०]
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जान्युआरी - २०१३
विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान-५९मां स्तोत्र, स्तवन, भास, गहूंली, प्रश्नमाला, तर्क, कूटकाव्य, एम विषय अने भाषानुं वैविध्य स्थान पाम्युं छे.
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संशोधनलेख
'करहेटक पार्श्वनाथ स्तव'नी प्रथम पंक्तिमां 'भन्द'ने स्थाने 'कन्द' एवो सुधारो सम्पादके सूचव्यो छे परन्तु ' भन्द' अशुद्ध पाठ नथी, तेथी एवा सुधारानी आवश्यकता नथी. संस्कृत 'भद्र' प्राकृत - अपभ्रंशमां 'भंद' बन्यो अने पछीथी संस्कृतमां पण स्वीकृत थयो. आथी 'आनन्दभन्द... ' पाठ ठीक ज छे. वळी, ‘आनन्दना कन्द रूपी कुमुदो...' एवी कल्पना काव्यशास्त्रविरुद्ध गणाय. 'आनन्द अने भद्र रूपी कुमुदो' चाली शके अन्तिम पंक्तिमां 'मे स धीरम्' छे, त्यां 'मेरुधीरम्' वांचवं जोइतुं हतुं कर्तानुं नाम पण आमां संकेतित थाय छे.
'वीस विहरमाण स्तवन' अपभ्रंशनी निकटना समयनी रचना छे. सरल अने प्रसादगुणयुक्त आ कृति साहजिक यमक, वर्णानुप्रास, प्रास आदिथी कर्णमधुर बनी छे. क. १९मां 'जोइ सु' छे त्यां 'जोइसु' हशे. क. २२मां 'तिसंउ' छपायुं छे. अहीं 'तिसंझ' होवानी पूरी सम्भावना छे. 'स' उपरनो अनुस्वार पण सूचक छे.
कीर्तिराज उपाध्यायनी रचना नेमिनाथ प्रभुना स्तवनरूप छे, पण कर्ताए ज्ञानपंचमी अने पांच पांच भेदयुक्त वस्तुओ साथे युक्तिपूर्वक सांकळीने कृतिने रसमय बनावी छे. आमां प्राकृत- अपभ्रंश अने गुजरातीनुं संमिश्रण छे ते नोंधवा जेवुं छे. अन्य लघु रचनाओ पण बौद्धिक चमत्कृतिवाळी छे.
पूनमीआ गच्छना भावप्रभसूरिनी बे रचनाओ पाटणना एक मन्दिर विशे तथा दोशी परिवार विशे ऐतिहासिक माहिती आपी जाय छे. शुद्धप्राय: छे. अष्टकना चोथा श्लोकमां 'सत्प्रभावम्' छे त्यां लेखकदोष छे, अहीं 'सत्प्राभवम्' पाठ होवो जोइए, अने ए रीते वांचतां अर्थ पण बेसी जाय छे अने छन्ददोष पण नथी रहेतो.
'पाटणना चैत्यसम्बन्धी बे अप्रगट कृतिओ मां सम्पादको कृति सम्बन्धित
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
पूरक माहिती संकलित करी आपी छे. कवितमां 'आठबीडोतरै' छे तेनो अर्थ ८०२ ज थाय. आ संवत पाटणनी स्थापनानो छे. साह वीराए ढण्ढेरवाडामां वीरप्रभुनुं बिम्ब जो ८०२ मां स्थाप्यु होय तो तेजसी दोशी तेमनी चोथी पेढीए थयानी वात बेसे नहि. तेजसीनो संवत् १७७८ के १७७४ तो कर्ताए आप्यो ज छे.
इन्द्रनन्दिसूरि विषयक लावण्यसमयरचित बे रचनाओ ऐतिहासिक मूल्य धरावे छे. प्रथम कृति विगतप्रधान छे, बीजी ऊर्मिप्रधान छे. बन्ने कृतिओनी गेयता ध्यान खेंचे छे. लावण्यसमयनी कृतिओमां शब्दसमृद्धि भरपूर होय छे; ते आ बन्ने कृतिओमां हाजर छे.
प्रथम कृतिमां क. १८मां 'परि परि'नो अर्थ 'प्रकारे प्रकारे' 'अनेक रीते' एवो थाय. क. २६मां 'जंगमोयक्षर' एम छपायुं छे. अहीं 'जंग मोयक्षर' एम वांचवें जोइए : 'मण्डइ जङ्ग' एम वांचतां काव्यनो लय बेसे छे. 'मोयक्षर'मां वाचननी के लेखननी गरबड़ छे. क. २७मां अंते 'सत्वो' छे, पण प्रासने ध्यानमां लेतां अहीं 'सन्तो' शब्द अपेक्षित छे. क. ३०मां 'माडि' छे, त्यां 'कपड़ानी जोड़' अर्थ संभवे छे. कच्छीमां 'मड्ड' आजे पण 'कपड़ानी जोड़'ना अर्थमां प्रचलित छे.
द्वितीय कृतिमां क. ८मांनो 'सइजल' शब्द ध्यान खेंचे छे. काठियावाड़ीमां 'पाणी'ना अर्थमां 'सेंजळ' शब्द छ जे हवे वीसरातो जाय छे.
___ 'गहूली'नी क. ३मां 'अबुकइ' छे त्यां झबुकइ होवू घटे. 'प्रश्नोत्तरवाक्य संग्रह' जेवी आधुनिक कही शकाय तेवी भाषा धरावती रचना 'अनुसन्धान'मां प्रगट करवाने पात्र खरी ? एवो प्रश्न थाय. बोधदायक रचना तरीके भले उपयोगी होय, परन्तु एमां संशोधन-अनुसन्धाननुं तत्त्व केटलुं ? संशोधन सामयिकमां आवी कृतिओने स्थान आपवानुं टाळवू जोइए एवं आ अवलोकनकारनुं मानवं छे. ____'केटलांक दार्शनिक प्रकरणो' नामे सम्पादित कृतिओ आ अंकनां घरेणां समान छे. सम्पादके परिश्रमपूर्वक रचनाओ सम्पादित करी छे, आवश्यक चर्चा पण करी छे. कृतिओ तर्क, वैदुष्यथी सभर तो छ ज, वीतेला युगमां शास्त्रार्थ समये जे व्यङ्गोक्तिओ, गर्वोक्तिओ, कटाक्ष, भाषानी भभक अने उग्रता
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प्रवर्तता हता तेनी पण झलक आमां मळे छे..
'पउमचरियं' जेवा उत्कृष्ट चरित्रग्रन्थना कर्ताना सम्प्रदाय विशेनो श्रीसागरमल जैननो संशोधनलेख मुद्दानी तलस्पर्शी चर्चा करे छे. ग्रन्थना आन्तर प्रमाणो अने बाह्य प्रमाणोनी सविस्तर चर्चा-परीक्षा-समीक्षा करवा द्वारा लेखके ए सिद्ध करवानो प्रयत्न कर्यो छे के ग्रन्थकर्ता दिगम्बर के यापनीय संघना नहि पण संघभेदनी पूर्वेना जैनाचार्य छे. परस्पर आदर अने समभाव जाळवी राखीने एक-बीजाना विचारोनी समीक्षा अने तथ्योनी छानबीन करी शकाय छे, भिन्न अभिप्राय पण निखालसपणे तथ्यना आधारे प्रगट करी शकाय छे - एनुं निदर्शन प्रस्तुत लेख करे छे. ऊगता अभ्यासीओए-संशोधकोए आ लेख मननपूर्वक वाचवा जेवो छे.
वीरनिर्वाण संवत्नी गणनामां माथुरी वाचना तथा वालभी वाचनामां १३ वर्ष- अन्तर रहे छे, तेनां कारणोनी चर्चा करतो मुनि श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयनो लेख ध्यानार्ह छे. आ विषयमां महान आचार्यो वच्चे मतान्तर पड्यो, पण आपणा पूर्वजोए भिन्न मतनी पण नोंध करी एमनो आदर राखेलो. प्रस्तुत लेखमां आ तफावत पड़वानां कारणोनी सविगत अने अभ्यासपूर्ण चर्चा थई छे. तज्ज्ञ विद्वानो आ चर्चा-विचारणामां पोतानो अभिमत आपे अने गूंच ऊकेलवामां पोतानो फाळो आपे एवी अपेक्षा रहे छे.
ज्ञानोपयोग अने दर्शनोपयोग केवलीने क्रमिक होय के युगपत् होय ए बाबतमां बे मत बहु जूना समयथी चाल्या आवे छे. आ विषयनी सर्वग्राही चर्चा करतो विस्तृत लेख त्रैलोक्यमण्डन वि० ए लख्यो छे. नवा अभ्यासीने पण समजाय ते रीते आ अभ्यासलेख लखायो छे. बन्ने पक्षोनी मान्यता उपस्थित कर्या पछी, लेखके पोताना अध्ययनथी प्राप्त मौलिक चिन्तन रजू कयुं छे. बन्ने मतो वच्चे समन्वयनी भूमिका सुग्रथित रूपे अने तर्क पुरस्सर आमां रचाई छे. आ विषयमां वधु ऊहापोह थवो जोईए.
जैन मन्दिर नानी खाखर-३७०४३५
जि. कच्छ, गुजरात
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पत्रचर्चा
(१)
नागोर, दि. १५-११-२०१२ सम्पादकश्री,
अनुसन्धान-५५मां मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो 'सन्मतितर्क-गाथा १.४१ ना तात्पर्य विशे विचारणा' शीर्षक लेख प्रगट थयो छे, जे तेमना अन्य लेखोनी जेम तर्कमण्डित, तुलनात्मक चर्चासभर, नूतन उन्मेषथी समृद्ध छे. लेखमां चर्चित विषय जटिल अने सूक्ष्म छे, पण मुनिश्रीए एक एक बिन्दु स्पष्ट करता जई, सन्मतितर्कनी ए गाथामांथी ऊभा थता प्रश्ननी छणावट अति विशदताथी करी छे. लेख वांचनारने मुनिश्रीना स्वाध्याय अने सूक्ष्म बोधनी प्रतीति थया वगर न रहे.
ते पछी आ. श्रीअभयशेखरसूरिजीए बत्रीस बत्रीसीनी विवेचनाना छठ्ठा भागमां 'एक विशेष वात' एवा शीर्षक नीचे त्रैलोक्यमण्डनविजयजीना उपर्युक्त
१. आ. श्रीअभयशेखसूरिजीओ पोताना 'बत्रीशीना सथवारे० भाग-६' पुस्तकना अन्तिम पृष्ठमां करेली ते टिप्पणी अक्षरशः आ प्रमाणे छे -
एक विशेष वात.... आ भागमा अपुनर्बन्धक, सहज मळहास, सम्भूतिमुनिनुं अनशन... वगेरे अंगेनी केटलीक वातो अपूर्व लागवाथी कोईकने शास्त्रविपरीत लागे ओवी शक्यता छे. तेओने, में शास्त्रवचनोने अनुसरीने ज जे तर्को आपेला छे एमां कोई असंगति लागे तो जरूर जणाववा विनन्ती छे. बाकी पोते आज सुधी जे मानेलं-विचारेलु एना करतां अलग जोवा मात्रथी उत्सूत्रनुं लेबल न लगाडी देवानी नम्र भलामण छे.
वळी क्यारेक तो पोतानी क्षमता ज न होवा छतां चंचूपात करवानी वृत्ति जोवा मळे त्यारे दिल करुणासभर व्यथा अनुभवे छे. जेमके पू. शीलचन्द्रसूरि म. सम्पादित 'अनुसन्धान'मां मुनिराज श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजीओ, सप्तभङ्गीविशिका अने द्रव्यगुणपर्यायनो रास-विवेचनमां में करेली सप्तभङ्गी अंगेनी केटलीक रजूआत पर चर्चा करी छे.
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आ
लेख परत्वे करेल कठोर टिप्पणी' वांची. प्रथम दृष्टिए ज मारा मन पर छाप ए पड़ी के आचार्यश्रीनो प्रतिभाव कंइक वधु ज तीव्र स्वरूपनो छे. "जेमने आटली पण गतागम पड़ती नथी एमनी सप्तभङ्गी जेवा गहन विषय पर चर्चा करवानी क्षमता केटली ?" "आ महात्माने प्राथमिक वातोनी पण वास्तविक जाणकारी नथी." "आवी अधिकार बहारनी आत्मघातक चेष्टा..." वाक्यो रोषजनित छे. मुनिश्री पादनोंधमां उद्धृत करेली न्यायदर्शननी एक पंक्तिमा एक शब्द भळतो लखायो छे - जे मुख्य चर्चानो भाग नथी, अवान्तर मुद्दो छे - तेने आगळ करीने आचार्यश्रीए 'गतागम नथी', आत्मघाती चेष्टा' जेवा उद्गारो लखी नाख्या छे. स्वस्थ चर्चाने बदले आमां रोषभर्यो प्रत्याघात देखाय छे. मुनिश्रीना लेखमां चर्चित बिन्दुओ पर आचार्य श्रीए कोई चर्चा ज नथी करी. आवा विषयोमां जे बिन्दुमां क्षति के विपर्यास जणातो होय तेनी चर्चा थाय ए विद्वज्जगतनो सुस्थापित शिरस्तो छे. तेने अनुसरवाने बदले "आ
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आ महात्माओ ओ ज लेखमां नीचे एक टिप्पण आपी छे जेमां घटत्वकुम्भत्व - कलशत्व वगेरे जुदी जुदी जातिओ नथी (अर्थात् जातिभेद नथी पण अभेद छे) से वात जणावी छे ने पछी 'व्यक्तेरभेदो जातिबाधकः' आवो जे न्यायदर्शननो नियम छे तेनुं तात्पर्य पण उपरोक्त ज छे ओम जणाव्युं छे. हवे न्यायदर्शननो प्राथमिक अभ्यासु पण जाणतो होय छे के व्यक्तेरभेद... अ आकाशत्व अंगे जातिबाधक छे, घटत्व- कुम्भत्व वगेरे जातिभेद अंगे तो 'तुल्यत्व' बाधक छे. ओटले जणाय छे के आ महात्माने आ प्राथमिक वातोनी पण वास्तविक जाणकारी नथी. वळी 'घटत्व- कुम्भत्व वगेरे जातिना अभेदनी वात करवी छे, ने आमां पण (व्यक्तिना ) अभेदनी वात छे, माटे व्यक्तेरभेदनो उल्लेख करी दो... ' ओवी ओमनी कल्पना होवी सूचित थती लागे छे. ओटले अवुं पण केम सूचित न थाय के 'जाति नहीं, पण जातिमान् व्यक्ति छे ओवी सामान्य वात पण आ महात्मा जाणता नथी.... '
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ओटले जेमने आटली पण गतागम नथी ओमनी सप्तभङ्गी जेवा गहनविषय पर चर्चा करवानी क्षमता केटली ? अनी कल्पना करी शकाय छे. तेथी ओमणे करेली चर्चा पर विचारणा करवानो तो प्रश्न ज ऊभो थतो नथी. पण, 'आवी अधिकार बहारनी आत्मघातक चेष्टाथी पाछा फरवानी सद्बुद्धि अमने ओमना गुरु भगवन्त आपे के स्वयं मळे' ओवी परमकृपाळु परमात्माने आपणे सहु प्रार्थना करीओ.
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महात्माने प्राथमिक जाणकारी पण नथी" एम कही ऊतारी पाडवा जेवू वलण आचार्यश्री अपनावे छे ते बाबत निराशाजनक छे. वस्तुतः मुनिश्रीनी सामान्य भूल तरफ ध्यान दोरी, मुख्य विषयनी चर्चामां पोता तरफथी स्पष्टीकरण आपवानी जरूर हती. मुनिश्रीए 'सप्तभङ्गीविंशिका' पुस्तक विशे जे अवलोकनो पोताना लेखमां कर्यां ते आचार्यश्रीने नथी गम्यां अने तेनो रोष तेमना शब्दोमां ऊतरी आव्यो छे – एम जणाया विना रहेतुं नथी.
आचार्यश्रीनो प्रतिभाव, 'सप्तभङ्गीविंशिका'- संस्कृत-गुजराती विवरण अने मुनिश्रीनो लेख - आ बधुं हुं ध्यानथी वांची गयो. वांच्या पछी मारो उपरोक्त अभिप्राय वधु दृढ थयो के आचार्यश्री चर्चा टाळवा माटे ज एक गौण भूल - भूल नहि पण सरतचूक ज-ने आगळ करी रह्या छे. मने लाग्यु के मुनिश्रीना श्रम-स्वाध्याय-सूक्ष्म बोधने अन्याय थाय छे. एक ऊगता अभ्यासशील मुनिना अध्ययन-परिशीलनने 'आत्मघाती' जेवा शब्दोथी नवाजवामां आवे, व्यक्तिगत टिप्पणी द्वारा खोटी छाप ऊभी करवानो प्रयत्न थाय ए दुःखद वात छे. आ सम्बन्धमां थोडं माएं अवलोकन-मारा विचारो रजू करुं छु, जे 'अनुसन्धान'मां प्रगट करवा विनंति छे.
___'सप्तभङ्गीविंशतिका' (स.वि.) एक सुन्दर, गम्भीर विषयनी अधुनातन, संस्कृत भाषानी नोंधपात्र रचना छे. सप्तभङ्गीनी विचारणा विस्तारथी एमां करवामां आवी छे. अर्थपर्यायथी व्यञ्जनपर्याय कई रीते जुदो पड़े छे ते वात स.वि.मां सारी रीते चर्चाई छे. 'द्रव्य-गुण-पर्याय रास'मां महोपाध्यायजीए व्यञ्जनपर्यायनी व्याख्या 'घटकुम्भादिपदवाच्यता' एवी आपी छे अने तेना बे ज भंग सर्जाय छे एम कर्तुं छे. स.विं.नी विवेचना आ एक ज व्याख्याने लइने चाले छे. महोपाध्यायजीए द्र.गु.प.रा.मां ज बीजी व्याख्या आपी छे – “जे जेहनो त्रिकालस्पर्शी पर्याय ते तेहनो व्यञ्जनपर्याय". रासमां ज अन्यत्र (क. १४/६) तेओ स्पष्ट कहे पण छे के "पुरुषशब्दवाच्य जे जन्मादिमरणकाल पर्यन्त एक अनुगत पर्याय ते पुरुषनो व्यञ्जनपर्याय." त्यां सन्मतितर्कनी साक्षी आपी छे.
स.वि.ना कर्ताने जे एक व्याख्या स्वीकार्य छे ते दृष्टिए तेमनुं विवरण थयुं होय ए स्वाभाविक छे. परन्तु दिवाकरजी अने उपाध्यायजीए अन्य
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व्याख्याओ आपी छे तेनुं शुं ? आवी व्याख्याओ पण प्राप्त थाय छे एवो उल्लेख पण स. विं. मां करी दीधो होत तो ठीक थात एम लागे छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो वांधो एक ज व्याख्या बांधी लेवा सामे छे अने ते माटेनां कारणो तेमणे आप्यां छे. व्यं.प. नी एकथी वधु व्याख्याओ मळे छे, तो तेन समावेश विवरणमां थवो जोइतो हतो; बधी व्याख्याओनी संगति साधी आपती एक अभिनव व्याख्या शोधी आपवानी जरूर हती, ते पूरी नथी थई. स.विं.मां तो अन्य व्याख्याओ जाणे छे ज नहि एवी छाप मन पर पड़े छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनी रजुआत तुलनात्मक रीते, समन्वय दृष्टिए थई छे. स.वि. मांथी ऊभा थता प्रश्नो तेमणे उपस्थित जरूर कर्या छे, पण व्यक्तिगत 'हुमलो' नथी कर्यो.
‘घटकुम्भादिपदवाच्यता' एवी व्याख्या उपाध्यायजीए आपी छे ज, पण ए सदृशपर्यायनी परम्परा ज छे ए मुद्दो त्रैलोक्यमण्डनविजयजीना लेखमां सारी ते स्पष्ट थवा पाम्यो छे. बे भिन्न व्याख्याओनो समन्वय तेमणे कर्यो छे. व्यावहारिक प्रयोजन न होय त्यां सप्तभङ्गी न रचाय एवा भावनुं निरूपण स.वि.मां थयुं छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए योग्य रीते ज कह्युं छे के व्यावहारिक प्रयोजन न होय त्यां पण अज्ञानादि दूर करवानुं प्रयोजन होई शके अने सप्तभङ्गी बनी शके. एवी रीते, “घटपदवाच्यं अस्ति न वा ?" ए प्रश्न वाच्यताविषयक नथी, पण अस्तित्वधर्मविषयक छे एवा त्रैलोक्यमण्डन– विजयजीना कथनमां तथ्य छे. आचार्य श्री अभयशेखरसूरिजीए आवा बिन्दुओनी चर्चा करी होत प्रत्युत्तर वाळ्यो होत तो तत्त्वरसिकोने तथा बौद्धिकोने कंइक नवुं जाणवा मळत. आचार्यश्रीए आवी तात्त्विक चर्चामां रस न लीधो ए अफसोसनो विषय छे.
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व्यं.प., सविकल्प निर्विकल्पनी व्याख्याओमां- अर्थघटनमां पूर्वसूरिओने पण मुंझवणनो सामनो करवो पड्यो छे. प्रस्तुत चर्चामां पण आवुं ज बन्युं जणाय छे. आ चर्चा स्वस्थरूपे आगळ चाली होत तो ए मन्थनना परिणामे कंइक सार प्राप्त थात.
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आचार्यश्री अभयशेखरसूरिजी बहुश्रुत, शास्त्रीय पदार्थोना जब्बर चिन्तक अने विवेचक छे. एमनां पुस्तकोमां शास्त्रीय - आगमिक पदार्थोनुं मार्मिक विवरण
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होय छे. अमारा जेवाने तेओश्री प्रत्ये आदर-अहोभाव रहे छे, अने हुं धाएं छु के त्रैलोक्यमण्डनविजयजी पण आचार्यश्री माटे-तेमनी बहुश्रुतता माटे - आदर धरावता ज हशे. अंग्रेजीमां कहीए तो तेओ आ क्षेत्रे Senior छे. मुनिश्री आ क्षेत्रे Junior छे. अग्रगामीओ अनुगामीओ प्रत्ये सद्भाव अने सहानुभूति दाखवे एवी अपेक्षा रहे, अने अनुगामीओ अग्रगामीओ तरफ आदरभाव राखे ए अपेक्षित छे. आचार्यश्रीनो प्रत्याघात-"मुनिश्रीने प्राथमिक वातोनी पण जाणकारी नथी"- ए गळे ऊतरे तेवी वात नथी. प्रस्तुत लेखमां ज मुनिश्रीए जे गम्भीर अने प्रमाणपुरस्सर चर्चा करी छे ते 'गतागम' वगर थई शके तेवी नथी. मुनिश्रीना अन्य लेखो पण तेमनी विदग्धतानी साक्षी पूरे छे. आचार्यश्रीए आवा स्वाध्यायशील मुनि माटे सहानुभूति दाखववानी जरूर हती.
तात्त्विक चर्चामां एक-बीजाना विधानने पडकारवामां आवे तेमां दोष नथी. ए चर्चामां कटुता-कलुषता न आवे ए जोवानुं छे. एक साधु तरीके ज नहि पण कोई पण वाद-प्रतिवादमां बन्ने पक्षोए सन्तुलन न खोवू ए बहु ज इच्छनीय । अनिवार्य / उपकारक वस्तु छे. श्री दिवाकरजीए ज 'वादद्वात्रिंशिका' मां आपेली एक सीख अहीं नोंधवानुं मन थाय : यत्नः श्रुताच्छतगुणः शम एव कार्यः ।
- द्वा. ७, श्लो. २७ "शास्त्राभ्यास करतां सो गणो वधारे प्रयत्न प्रशम केळववा माटे करवो जोइए."
- उपा. भुवनचन्द्र
पत्रचर्चा-१ नो प्रतिभाव
खंभात दि. ६-१-२०१३ पूज्य उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजी म.,
सादर वन्दना अवधारशो. आपनो पत्र मळ्यो. रजू थयेली वातो अत्यन्त हृदयस्पर्शी अने मर्मवेधी
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अनुभवाइ. श्रुतसम्पत्ति करतां शमसम्पत्ति वधु मूल्यवान छे ओवी आपनी टकोर तो जीवनभर नहीं भूलाय. पत्र वांचीने उठेलां प्रतिस्पन्दनो नोंg -
१. आचार्य भगवन्त श्री अभयशेखरसूरिजी म.नी श्रुतोपासनाथी तो कोण अजाण हशे ? अमनां पुस्तको, अवलोकन करनारने अमना प्रत्ये आदर न जागे तो ज नवाई. आ संजोगोमां अमना प्रत्ये अनादर सेववानो के अमने नीचाजोj कराववानो विचार पण मने न आवे ओ हकीकत छे.
२. सन्मतितर्कगत अक गाथाना अर्थनी विचारणा' (अनुसन्धान ५५ पृष्ठ ८३) आ लेखनो मूळभूत उद्देश गाथाना अर्थनी विचारणा करवानो ज हतो, खण्डन-मण्डननो नहि. अलबत्त ओ लेखमां स्वाभाविक रीते ज ओ विषय परत्वे आज सुधी थयेला चिन्तन पर के रजू थयेला मन्तव्यो पर चर्चाविचारणा करवानुं थयेलुं, परन्तु अमां आशय तो 'वादे वादे जायते तत्त्वबोध:' ओ अनुसार चिन्तनधाराने आगळ वधारवानो ज हतो. आचार्य भगवन्ते पण सप्तभङ्गीविंशिकानी प्रस्तावनामां आ विचारणाने आगळ धपाववानुं स्पष्ट तो नहि, पण आडकतरुं सूचन कर्यु ज छे. अटले अमना मन्तव्य पर चर्चा करवानो इरादो मे ज हतो के कांइक नवो प्रकाश सांपडे. परन्तु दुर्भाग्ये तेओ मारा लखाणथी व्यथित थया होवानुं जणाय छे. आवा सुज्ञ, विद्वान्, तपस्वी अने पीढ गणाता आचार्यने आवी वातमां माळु लागे अने आवेशमां आवीने तेओ मारा जेवा नाना साधु माटे गमे तेम लखे मेवी मने तो कल्पना ज नहीं. मारा गुरुभगवन्तनी औदार्यपूर्ण चित्तवृत्तिने जोइने बधे अम ज हशे अबुं हुं मानी बेठो हतो ! परन्तु स्वभाव अपर्यनुयोज्य होय छे. आचार्य भगवन्तने व्यथित थर्बु पड्युं ओ ओक नाना साधु तरीके मारा माटे शोभास्पद न ज गणाय. ते बदल हुं अन्तःकरणथी क्षमा ज चाहुं.
३. श्रीअभयशेखरसूरिजी म. ओ मारी सरतचूक देखाडी ते माटे तेओ मारा उपकारी छे. घासनी गंजीमांथी सोय शोधी आपवानुं कठिन काम आवा संशोधको ज करी शके. पण आवी सरतचूकने आगळ करीने समग्र लेखने अप्रामाणिक ठराववामां तेओ पोताना माटे ज असमञ्जसताभरी स्थिति सर्जी रह्या छे. आवी छद्मस्थसुलभ अनाभोगजन्य क्षतिओ तो तेमनां विविध लखाणोमां पण दर्शावी शकाय. पण आवी क्षतिओने ओठे ओ लखाणोनी गुणवत्ताने
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
दबावी देवा मानस धरावq वाजबी गणाय के केम ? ते प्रश्न जरूर ऊठे छे. आq मानस हुं धरावं तो ते मारा गुरुभगवन्त चलावी ले तेम बने पण नहीं.
मारा ते लेखमां प्रतिपादित विचारो साथे असम्मत थवा कोई पण स्वतन्त्र छे. पण जे असम्मति पाछळनो तर्क के दृष्टिकोण समजवानी इच्छा तो रहे ज. आचार्य भगवन्त जो तर्क-युक्ति-प्रमाणथी मारी वातने खोटी ठेरवशे तो तेनो सर्वाधिक हर्ष मारा गुरुभगवन्तने अने मने पोताने हशे. कारण के आ मन्थन सत्यने मान्यता प्राप्त कराववा माटे छे, मान्यताने सत्य ठराववा माटे नहि.
४. सप्तभङ्गी, नय, निक्षेप व. विशे विशद समजण आपतां प्राचीन शास्त्रोनी पाण्डित्यपूर्ण शैली मारा जेवा विद्यार्थीओने मूंझवण जन्मावे छे. तो बीजी तरफ आ पदार्थोने लोकभोग्य रीते रजू करनारां अर्वाचीन पुस्तको आ विशे बहु ज थोडी समजण पीरसतां होय छे. विशद समजण अने सरळ शैली आ बन्नेनो समन्वय दुष्कर छे, अने छतां आ युगमां अनिवार्य छे. आ संजोगोमां सप्तभङ्गीविंशिका, नयविंशिका जेवा निबन्धग्रन्थो पासे जिज्ञासुओने बहु मोटी आकाक्षा होय छे.
पण सवाल ओ रहे छे के आ निबन्धग्रन्थोमां अपाती समजण शास्त्रीय व्यवस्थाने वफादार केटली ? मौलिक विचारणाओ मूळभूत तत्त्वथी जुदी दिशामां तो नथी फंटाती ने ? अवो प्रश्न पण अनेकवार थाय. आ प्रश्नोना सन्दर्भे आ ग्रन्थोनी विचारणाओ पुनः पुनः चिन्तनीय जणाई छे. ओक सप्तभङ्गी अंगे ज वात करूं तो सप्तभङ्गीविशिकागत निरूपणमां सप्तभङ्गीना मूळभूत नियमो नथी सचवाया लागता. सप्तभङ्गीनु निरूपण वस्तुगत प्रत्येक धर्मनी अनेकान्ततानी सिद्धि माटे थाय छे. पण ओ हेतुने ज अत्रे लक्ष्यमां नथी लीधो. व्यञ्जनपर्याय-अर्थपर्यायनी चर्चा तो बहु दूरनी वात थई. आजे ज्यारे सप्तभङ्गीनुं अध्ययन व्यापकपणे सप्तभङ्गीविंशिकाना आधारे थवा मांड्युं होय त्यारे आ समस्या वधु गम्भीर बने छे.
आइनस्टाइने पोतानी सापेक्षवादनी विचारणा विशे अम जणावेलुं के आ विचारणागत अक पण मुद्दो खोटो ठरे तो आखी विचारणा आपोआप
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खोटी ठरशे ओ नक्की गणजो. सप्तभङ्गीनुं माळखुं पण अटलुं ज चुस्त छे. अमांनी ओक पण ईंटने जो खेरवी देवामां आवे तो आखी इमारत कडडभूस थाय तेम छे. माटे अनी चुस्तताने जाळवी राखवी अनिवार्य छे. परन्तु ओ क्यारे बनी शके ? प्राचीन निरूपणना परिप्रेक्ष्यमा आचार्य भगवन्तनी विचारणाओने मूलवीओ तो ज. अने ओ माटे परस्परनो संवाद सधाय ते जरूरी बने छे. कमनसीबे आq थवानी शक्यता जन्मे ते पहेलां ज समाप्त थई गई छे !
अन्तमां, आपे आ विषयमां ऊंडो रस लीधो अने बन्नेयनां लखाणो मध्यस्थभावे तपासी जइने पत्रलेख पाठव्यो, ते माटे पुनः पुनः उपकृत छु.
पू. आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिशिष्य
त्रैलोक्यमण्डनविजय
सम्पादकीय नोंध सर्जन अने संशोधन बे वच्चे एक पायानो तफावत ए छे के संशोधन अथवा विवेचन हमेशां सर्जननी खामी शोधी देखाडे छे, अने सर्जन ए वस्तुने भाग्ये ज सहन करी शके छे. सर्जन- (सर्जकनुं पण) मानस 'दिग्विजय'र्नु होय छे. "आ सर्जन श्रेष्ठ सर्जन ज छे, अने तेमां कोई भूल होई शके ज नहि; माटे तेने बधाए विना विरोधे स्वीकारी लेवू ज जोईए" - आवं मानस ते दिग्विजयी मानस छे. हवे संशोधनने एवी टेव छे के ए दिग्विजयी लागता सर्जनमांथी पण कशीक भूल शोधी आपे छे ! अने सर्जन तेने पोतानु अपमान समजी बेसे छे !
सदीओथी चालती, दर्शनो अने दार्शनिको वच्चेनी, खण्डन-मण्डननी प्रक्रियाने समग्रताथी तपासीशुं तो जणाई आवशे के ते, वास्तवमां सर्जन अने संशोधन वच्चे थती मुठभेड ज छे. एके युक्तिओ द्वारा पोताना मतनुं मण्डन/ सर्जन कर्यु, तो बीजाए तेनुं संशोधन/खण्डन कर्यु. जोके, तेमनी ते प्रवृत्तिना सत्फलरूपे आपणने अनेक दर्शनो मळ्यां, ग्रन्थो मळ्या, अर्थघटनो सांपड्यां, महान् सर्जको पण मळ्या. ए रीते आ समग्र प्रवृत्ति विधायक बनी रही. अने
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
तेनुं खरुं रहस्य, ते सर्जकोनुं वलण, 'पोते ज साचा, अन्य खोटा ज' एवं दिग्विजयी न होवामां हतुं, एम नक्की मानी शकाय.
स्याद्वादनी प्ररूपणामां अन्तिम सत्य, “तत्त्वं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति" ए सूत्र द्वारा ज प्रगट अने प्राप्त थतुं होय छे. तेमां पोताना मतने खोटो ठरावनारने के भिन्न मत धरावनारने, अछाजती भाषाथी ऊतारी पाडवानी प्रवृत्ति नथी होती. अभद्र भाषा तो सत्यने पण असत्य के अयोग्य ठरावी शके, ए शक्यता भूलवा जेवी नथी.
"वादे वादे जायते तत्त्वबोधः" ए संस्कृत पुरातन सूत्र- आधुनिक गुजराती रूपान्तर, रमूजमां, आq थई शके : "वादे वादे जाय ते तत्त्वबोध". स्याद्वादना अगाध महासागरमां डूबकी मारवा के तरवा-ऊंडा ऊतरवा इच्छनारने आवी रमूजना भोग बनवू केम पालवे ?
बे बौद्धिको वच्चे तन्दुरस्त बौद्धिक के तार्किक युद्ध/चर्चा चालत तो 'अनुसन्धान' ते बन्नेना वादोने अवश्य आवकारत. भिन्न पण प्रामाणिक मत/ मन्तव्यनो 'अनुसन्धाने' कदी इन्कार कर्यो नथी. परन्तु तिरस्कारभर्यां वचनो द्वारा, युक्ति-तर्कविहोणी प्रतिक्रिया व्यथित कर्या विना न रहे. तेथी मध्यस्थ प्रबुद्ध जनने विनन्ति करी के बेय पक्षोना लेख तपासो, अने अमां जे पण पक्ष ज्यां पण चूकतो होय ते असन्दिग्धपणे कहो. कोईनी पण भूल हशे, 'अनुसन्धान' तेने सद्भावपूर्वक छापशे. उपाध्याय भुवनचन्द्रजी जेवा प्रबुद्ध दार्शनिक चिन्तक मुनिवरे आ विनन्ति स्वीकारी, समग्रपणे बधुं अवगाहीने आपेलो निष्कर्ष अत्रे प्रस्तुत थयो छे. आम करवा पाछळ कोईनीये लागणी दूभववानो के कोईने परास्त करवानो आशय नथी, ते तो स्वयं वाचको ज प्रमाणी शकशे.
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'अनुसन्धान' तेने सजावर आ विनन्ति स्वीकारी, समा9 कोईनीये लाग
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जान्युआरी - २०१३
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वर्धमान जिनरत्नकोश अंगे विनंति
मुनिभगवन्तो शास्त्रोना संशोधन- कार्य करता होय त्यारे तेमने घणी बधी हस्तप्रतो, ग्रन्थो आदिनी जरूर पडे छे. आ हस्तप्रतो के ग्रन्थो तेओ हस्तलिखित ज्ञानभण्डारोमांथी मगावे छे. ओ माटे तेओ जे-ते भण्डारनी सूचि (लीस्ट-केटलोग) जुओ छे अने जोइती हस्तप्रत प्राप्त करे छे. आ व्यवस्थामां मुश्केली ए छे के - ओ ग्रन्थनी हस्तप्रत ते भण्डारमा न मळे तो बीजा कया भण्डारमाथी मळी शके ओ केवी रीते जाणवू ? आ माटे तेओ पोताना परिचित पूज्य आचार्यभगवंत आदि मुनिभगवंतो, परिचित श्रावको के ट्रस्टीओ आदि पासे तपास करावशे. परन्तु तेमने ते माहिती न मळे तो तेओ शुं करी शके? हस्तप्रत वगर तेमनुं संशोधन अधूरुं ज रहे.
ओक सर्वेक्षण प्रमाणे आजे जैन समाज पासे पूर्वाचार्यो) रचेला अन्दाजे पचास हजार शास्त्रो छे. ते शास्त्रोनी अढार लाख जेटली हस्तप्रतो छे. आ हस्तप्रतो सातसो जेटला हस्तलिखित ज्ञानभण्डारोमां सचवायेली छे. आ दरेक ज्ञानभण्डारोनी पोतपोतानी सूचिओ छे परन्तु ओक सम्पूर्ण अने सामान्य सूचि नथी जेमां बधां ज शास्त्रो अने तेमनी बधी ज (अढार लाख) हस्तप्रतोनी नोंध होय.
श्रुतभवने आ दिशामां पगलुं उपाड्युं छे. श्रुतभवनना उपक्रमे वर्धमान जिनरत्नकोशना नामे आ कार्य चालु थई गयुं छे. पूनामां श्रुतभवन, पोतानु त्रण माळनुं मकान छे जेमां पंदरथी वधु कम्प्युटर वसाववामां आव्या छे. आ कार्य करवानी योग्यता अने क्षमता धरावता पण्डितो रोकी, तेमने कम्प्युटरमां एन्ट्री करवानी विशेष ट्रेनींग अपावी छे. खास आ ज कार्य माटे विशेष सोफ्टवेअर पण तैयार कर्यु छे. गामेगामथी सूचिओ मेळवी तेमनी एन्ट्री करवामां आवी रही छे. अत्यार सुधी कुल साडा त्रण लाख हस्तप्रतोनी नोंध मळी छे.
आ बधु कार्य गच्छ के सम्प्रदायना भेद वगर थई रहुं छे. लगभग सात-आठ वरसमां आ कार्य पूर्ण करवानी धारणा छे. ते पूर्ण थतां तेनी मुद्रित नकल दरेक गच्छना अने सम्प्रदायना मुख्य केन्द्रोमां श्रुतभवन द्वारा समर्पित
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अनुसन्धान - ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
करवामां आवशे. उपरान्त भारतना कोई पण खूणे पूज्य आचार्य भगवन्त आदि मुनिभगवन्तोने हस्तप्रतोनी माहिती मळी रहे तेवी व्यवस्था करवामां आवशे जेथी तेमनुं संशोधन कार्य निराबाधपणे चालतुं रहे.
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अमारा सद्भाग्ये आ कार्य माटे अमने पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजयमुनिचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तथा पूज्य मुनि श्री वैराग्यरतिविजयजी म. सा. नुं महामूलुं मार्गदर्शन मळी रधुं छे.
आपना तरफथी ओक ज सहकारनी अपेक्षा छे के आ कार्य मा आप अपने आशीर्वाद आपो तथा आपनी आज्ञा हेठळना हस्तलिखित ज्ञानभण्डारोनी सूचि अमने प्राप्त करावो. अमने विश्वास छे के आप आमां जरूर सहयोग आपशो. आपना सहयोगनी नोंध पण लेवामां आवशे.
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पत्रव्यवहार माटे सम्पर्क : भरत शाह
३०१, सुचिर अपार्टमेन्ट,
बी.एम.सी. कॉलेज रोड, बी.एम.सी. कॉलेज के सामने, पुणे - ४११००४ मो. ९८५००९४०२४
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सचित्र विज्ञप्तिपत्रनुं एक चित्र (गुजराती जैन श्वे. मू. संघ, कलकत्तानो ज्ञानभण्डार
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