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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ २३५ (उपरथी) १४ दोह होह १३४ (नीचेथी) १२ दहवयणं तुह वयणं
ग्रन्थमा प्राकृत अने देश्य शब्दो प्रचुर प्रमाणमां छे. सम्पादके आवा शब्दोनो कोश परिशिष्टमां आप्यो छे. आमांना थोडा शब्दो एवा छे के जे 'देशीनाममाला' के 'पाइयसद्दमहण्णवो'मां नोंधाया नथी. 'तेड्ड' (पृ. ३४३)नो अर्थ सन्दर्भ परथी 'वांकुं' एवो समजाय छे. हिन्दीमां आजे पण आ शब्द प्रचलित छे - 'टेढा' रूपे. गुजरातीनो 'सरभर' आमां 'सरिभरी' रूपे हाजर छे. 'भरोसो', प्राचीन रूप 'भरोसअ' आमां मळे छे. 'गुसपूस'ना मूळ जेवो 'खुसफुसाए' आ रचनामां जोवा मळे छे. 'बलवण' (नमक) आमां पण 'बलवण' ज छे. मध्यकालीन 'सालणां'नुं मूळ 'सालयण' (पृ. ३४१)मां होइ शके.
__ पृ. १९४ पर 'झोक्खण' शब्द जोवा मळे छे, सन्दर्भ अनुसार आनो अर्थ 'पाणीनो छंटकाव करवो' एवो थाय छे. आ ज अर्थनो 'अब्भोक्खण' शब्द म.गु.मां जाणीतो छे. पुराणी लिपिमां 'ब्भ', 'ज्झ' जेवो लागतो हतो. अहीं वाचनदोषथी 'ब्भ' 'ज्झ' वंचायो छे अने लखायो छे एम लागे छे. सन्धिमां जो 'अ' लुप्त न थयो होय तो 'अ'काररहित 'ब्भोक्खण' शब्द पण प्रचलित हतो एम नक्की थाय अने कोठारी साहेबे म.गु.को.मां नोंधेला अबोखण, अभोखउ वगेरे रूपान्तरोमां एकनो उमेरो करवानो थाय.
'कहावली'नो शब्दभण्डार व्युत्पत्ति अने अर्थनी दृष्टिए कोशशास्त्रीओने माटे महत्त्वपूर्ण बनशे- ए बात आ नमूनाओ परथी स्पष्ट जणाशे.
_ 'कहावली'- प्रकाशन जैनविद्या अने जैनसाहित्यना क्षेत्रे एक सीमास्तंभरूप गणाशे अने मुनिश्री कल्याणकीर्तिविजयजीनी साहित्ययात्रानो एक विशिष्ट पड़ाव पण बनी रहेशे. आनो द्वितीय खण्ड पण शीघ्र प्रकाशित थशे एवी आशा रहे छे.
[कहावली : कर्ता - भद्रेश्वरसूरि । सं. - मुनिश्रीकल्याणकीर्तिविजयजी । प्रका० - कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कार निधि, अहमदाबाद । २०१२ । पृ. ४२५ + xxxxiv ; मूल्य - रू. ३५०]
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